नारी ही शोध का विषय क्यों? / नीलम कुलश्रेष्ठ
जस दिन आदिम स्त्री अन्य पुरुषों की लोलुप दृष्टि से बचती अपने किसी प्रिय पुरुष की सशक्त बाँहों में अपनी थरथराती कोमल देह लिये सुरक्षा मांगती सिमटी होगी‚ उसी दिन पुरुष में अहं जागा होगा। उसने अपनी प्रिया की रक्षा में उन पुरुषों को पराजित तो कर दिया होगा‚ अपनी सुरक्षित बाँहों में फिर उस स्त्री को समेट लिया होगा‚ पर उसी अहं ने सोचा होगा‚ अरेॐ यह मेरे बराबर कहाँ है? यह तो मेरी सुरक्षा पर निर्भर हैॐ
स्त्री ही तो पुरुष की जन्मदात्री है। उसी के बलिदान‚ देखरेख व अमृतपान कराने से वह यौवन की दहलीज चढ़ा है। फिर भी स्त्री शासित अपने शारीरिक सौष्ठव के कारण ही की गई। पुरुष के प्रकृति प्रदत्त जंगलीपन पर यही स्त्री अपनी कोमलता की परछांई डाल उसे सही मायनों में इन्सान बनाती है। उसमें जो अहं जागा वह आज तक स्त्री को हीन प्राणी मान उसकी क्षमताओं को नकारता चला आ रहा है। महादेवी वर्मा ने भी कहा था‚ " युगों से पुरुष स्त्री को उसकी शक्ति के लिये नहीं‚ सहनशक्ति के लिये दण्ड देता आ रहा है।"
युग बीतते चले गये‚ लेकिन स्त्री के लिये वही आदिम युग रहा। यू एन ओ द्वारा घोषित 1975 के महिला वर्ष सेमिनार व गोष्ठियों में पहली बार स्त्री के इर्द गिर्द बनाया गया आभामण्डल खण्डित हुआ। जिस स्त्री को देवी कह कर सम्बोधित किया जाता है वास्तव में उसकी स्थिति कितनी दारुण व दयनीय है‚ यह इसी वर्ष प्रकाश में आया। निÁसन्देह इसी वर्ष बहुत सी जागरुक महिलाओं ने स्त्रियों के उत्थान के लिये कुछ कर गुज़रने का संकल्प लिया।
महिला वर्ष से भी पहले मुंबई की समाजशास्त्री डॉ। नीरा देसाई ने 1952 में शोध किया था। विषय था ' आधुनिक भारत में नारी '। अपने शोध के दौरान वह नारी के लहुलुहान अंर्तमन में झांकती चली गई। उन्होंने ही हर वर्ग में यह देखा कि नारी दोयम दर्जे की नागरिक होने को अभिशप्त है। उन्हें लगा कि यह समस्या इतनी विकट है कि जिन्हें पुरुष समझ ही नहीं सकता।
1968 में नीरा देसाई के प्रयासों से मुम्बई के एस एन डी टी कॉलेज में भारत का प्रथम महिला शोध केन्द्र खोला गया। जिसकी वे स्वयं 1986 तक निर्देशिका रहीं। 1980 में कानपुर विश्वविद्यालय में यह केन्द्र खोला गया। 1981 में नारी शोध केन्द्र का पहला सम्मेलन करके यू जी सी पर दबाव डाला गया तो वह उन्हें अनुदान देने के लिये तैयार हो गया। भारत के बाईस विश्वविद्यालयों में अब तक नारी केन्द्र खोले जा चुके हैं।
नीरा जी बताती हैं‚ " रूस जैसे देश में जहाँ वर्षों तक 'कम्यूनिज़्म' रहा है‚ वहाँ की स्त्रियों ने भी बताया कि बाहर काम करते समय तो स्त्री व पुरुष कामरेड होते हैं‚ लेकिन घर आते ही वह कामरेड पुरुष पति बन कर अपनी हुकूमत चलाना चाहते हैं। अमेरिका की स्त्रियों ने जब आन्दोलन किया तो 1960 से उन्हें निर्णय लेने वाले सर्वोच्च पदों पर आसीन किया जाने लगा। इसे हम पश्चिम का पहला आन्दोलन कह सकते हैं। आज यह स्थिति है कि वहाँ महिला को भी राष्ट्र कवि घोषित किया जाने लगा है।"
इन्हीं सामाजिक विसंगतियों से महिलाओं का एक विद्रोही वर्ग उभरा। 'रेडिकल फेमिनिस्ट'‚ 'विमेन्स लिब' के नारे बुलन्द हुए। इन्हें पूरा विश्वास था कि उनकी जैविक रचना के कारण ही उनके हक़‚ विचारों पर पुरुषों का आधिपत्य रहा है। उनका विश्वास था कि वे नारीत्व के बाहर आ कर सामाजिक ढांचा तोड़ फोड़ देंगी। तभी इस आधिपत्य से मुक्ति होगी। उन्होंने बाहृय सौन्दर्य प्रसाधनों का बहिष्कार किया‚ लेकिन ये महिलाएं ठोस सबूत नहीं ढूंढ पाईं।
नीरा जी बताती हैं‚ " हमारा आज का नारी सम्मेलन समाजवादी है। भारत में स्त्री को यही संस्कार दिये जाते हैं कि उसका जीवन पुरुष केन्द्रित है। इस पुरुष प्रधान समाज में इसी कारण स्त्री के पुरुष से सम्बन्ध सहज न होकर असामान्य है। पितृसत्ता व्यवस्था से ग़रीब स्त्री अधिक पीड़ित है। क्योंकि एक तो वह पितृसत्ता से दबी है‚ दूसरे ग़रीबी से। स्त्री को यदि अपना स्तर बढ़ाना है तो उसे इस व्यवस्था में अपने आर्थिक स्तर को बढ़ाना होगा।"
दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका की स्त्रियों ने अपने वज़ूद के होने की सशक्त अभिव्यक्ति दी। 'हाल आफ द फेम' के रूप में न्यूयार्क शहर के पास 'सेनिका फाल्स' के पास स्थित है। यह शत प्रतिशत स्त्रियों से सम्बन्धित अभिलेखागार है। जिन स्त्रियों को पुरुषप्रधान समाज उनकी प्रतिभा के अनुसार प्रतिष्ठा न दे सका‚ उनके ऊपर शोध करके उनसे सम्बन्धित सामग्री उनकी मूर्ति के साथ रखी है। उनके जीवन के मुख्य सन्देश को उन्हीं से मिलती जुलती आवाज़ में कैसेट में टेप करके वहाँ रखवाया गया है।
बाईस विश्वविद्यालयों में खोले गये नारी शोध केन्द्र का मुख्य उद्देश्य यही है कि नारी की जो वर्तमान स्थिति है या लोगों को उसको दोयम नागरिक सोचने का जो तरीका है‚ उसमें बदलाव लाया जाये। नारी क्षमता का सही विकास हो‚ जिससे वह भी देश के आर्थिक‚ सामाजिक‚ राजनीतिक व कलात्मक क्षेत्रों में अपना पूर्ण योगदान कर सके।
इन केन्द्रों का यह भी प्रयास रहता है कि विश्वविद्यालयों के परिसर में उसके बाहर की नारी से जुड़े ज्वलन्त प्रश्नों को उठाया जाये। उन्हें हल करने के भी रास्ते ढूंढे जायें‚ साथ ही साथ कुछ ऐसी गतिविधियां की जाएं‚ जो कि स्त्री में कुछ अर्थपूर्ण मूल्यों का बीजारोपण कर सकें।
नारीशोध केन्द्र इसको भी अपना उत्तरदायित्व बनाये हुए हैं कि लिंगभेद के आधार पर शिक्षा न दी जाये। प्रत्येक को ऐसी शिक्षा मिले‚ जिसमें लिंग‚ धर्म व सामाजिक स्तर में कोई भेदभाव न माना जाये। ये केन्द्र अकसर स्थानीय स्त्री संगठनों की सहायता लेते हैं।
" क्या इन केन्द्रों में नारी की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को भी शोध का विषय बनाया गया है?"
" बिलकुलॐ स्वतन्त्रता संग्राम में रानी लक्ष्मीबाई ने भाग लिया था‚ यह तो सभी जानते हैं। किन्तु तेलांगना के 1898 के आन्दोलनों में स्त्री की बेहद सक्रिय भूमिका रही‚ यह बात नारी शोध केन्द्र द्वारा जब एक पुस्तक प्रकाशित हुई तब पता लगी।"
" कुछ अन्य बातों को भी प्रकाश में लाने का काम चल रहा होगा।"
" हम हमेशा एक सिद्धान्त लेकर चलते रहे हैं कि वैदिक काल में नारी को बराबर का सम्मान दिया जाता रहा है। इसलिये हमारे यहाँ गहन अध्ययन चल रहा है कि स्त्री को शासित करना कब आरंभ हुआ। इस विषय में ऐतिहासिक तथ्यों व प्राचीन साहित्य की खोजबीन की जा रही है। बौद्ध धर्म काल व पाली के भक्ति युग के साहित्य के आधार पर उस समय की नारी की स्थिति का अध्ययन किया जा रहा है।"
"ये शोध किस बात पर ज़ोर दे रहे हैं?"
"समाज में स्त्री की भूमिका बिलकुल नेपथ्य में चली गई है‚ इसलिये सबसे पहले तो कार्य की परिभाषा हमें फिर से करनी होगी। एक स्त्री का सारा दिन घर का काम करते निकल जाता है‚ लेकिन उस कार्य से अर्थोपार्जन नहीं होता। इसलिये वह काम काम नहीं माना जाता। जो स्त्री घर संभाल कर एक रचनात्मक काम कर रही है‚ उसका मूल्य समाज को समझ में आएगा‚ तभी स्त्री की भूमिका अग्रणी बनेगी। आगे के वर्षों में जब स्त्री को गृहणी बन कर भी प्रतिष्ठा मिलेगी‚ तब ही वह इस लांछन से मुक्त होगी कि ' घर पड़े पड़े क्या कर रही थी? "
" एक बात तो तय है कि स्त्री को शरीर के कारण सुरक्षा की ज़रूरत है।"
" यह बात मैं भी मानती हूँ कि घर से नारी को सुरक्षा मिलती है‚ लेकिन इसी घर में अधिकांश स्त्रियों की स्थिति शोचनीय है। एक बस्ती की स्त्री से हमने बात की तो वह बोली कि वह एक भेड़िये के साथ मजबूरी में रहती है। यदि नहीं रहेगी तो बाहर मुझे सौ भेड़ियों का सामना करना पड़ेगा। फिर यह कैसी सुरक्षा है। यह तो परिवार नहीं‚ भय से ओढ़ा हुआ कवच है। इन्हीं कारणों से हम दबाव डाल रहे हैं कि स्त्री को घर में‚ समाज में गृहणी की भूमिका निभाते हुए भी उचित सम्मान मिले।"
" इधर आप स्त्री की प्रतिष्ठा की बात करती हैं‚ उधर स्त्री बहुत से स्थानों पर देह को भुनाती आगे बढ़ रही है।"
" यह तो अनादिकाल से चला आ रहा है। आज तो प्रलोभन का युग है। किसी भी कीमत पर बुलन्दी हासिल करने की तमन्ना लोगों के अन्दरघर कर गई है। नारी भी तो समाज का एक अंग है‚ लेकिन अधिकतर स्त्रियां अपना मस्तिष्क ऊंचा करके सम्मान से जीना चाहती हैं। हमारे शोध का विषय ऐसी ही नारियाँ हैं।"
" आपने जन स्त्री पर शोध किया था उन दिनों से अब तक की स्थिति में बदलाव आया है।"
" बिलकुलॐ हमारे मीडिया वाले अब स्त्री की समस्याओं की बात बहुत ज़ोर शोर से उठाने लगे हैं। आज कुछ स्त्रियों में जागरुकता आ रही है। यह प्रमाणित होने पर कि वे स्त्री को ही जन्म देंगी‚ पति के कहने पर भी भ्रूण हत्या नहीं करने देतीं।"
1990 में बड़ौदा के महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय में स्त्री अध्ययन शोध केन्द्र की स्थापना की गई। आईये देखें‚ किसी भी विश्वविद्यालय में ये केन्द्र कैसे आकार लेता है। इससे जुड़ी महिलाओं के क्या विचार हैं व यहाँ कैसे काम होता हैॐ
इस केन्द्र की निर्देशिका प्रोफेसर डॉ। अमिता वर्मा कहती हैं‚
" लोगों की ग़लतफहमी है कि भारतीय नारी शोध केन्द्र सिर्फ विदेशों की नकल करके खोले गये हैं। हमारे यहाँ तो बरसों पहले महात्मा गाँधी ने स्त्री शक्ति का आव्हान किया था। तभी कमला देवी चट्टोपाध्याय‚ अरुणा आसफ अली‚ सरोजिनी नायडू‚ विजया लक्ष्मी पण्डित जैसी महिलाओं को कुछ करने का मौका मिला। मेरे ख़याल से दयानंद सरस्वती‚ राजा राममोहन राय व गाँधी जी स्त्री शिक्षा व उनके आन्दोलनों के पहले सर्जक हैं।"
"पहले भी स्त्री समस्याओं पर पुरुषों ने शोध किये थे। फिर ये नारी शोध केन्द्र क्यों?"
" वे सब पुरुष के अपने दृष्टिकोण थे। अब स्त्रियाँ ही इन केन्द्रों में यथार्थपूर्ण ढंग से काम कर रही हैं। हम भारतीय नारी की समस्या को ही प्राथमिकता देते रहे हैं‚ किन्तु विदेशों के नारी शोध केन्द्रों से विचारों के आदान प्रदान एवं उनकी अच्छी योजनाओं को अपने यहाँ लागू करने से कतई परहेज नहीं।"
" आपकी राय में विकासशील देशों व प्रगतिशील देशों की स्त्रियों की समस्याओं में कुछ अन्तर है?"
" विकासशील देशों की स्त्री शक्ति तो इसी बात में लगी हुई है कि किस तरह अपनी सीमित आय में घर चलाये‚ जबकि सशक्त राष्ट्रों की स्त्री अपने अधिकारों के लिये लड़ रही है। हमारे केन्द्र से भी अन्य विचारधाराओं वाली स्त्रियां जुड़ रही हैं। मैं भारत की उस स्त्री को बदलना चाहती हूँ‚ जो कि घर को झाड़ पौंछ कर भगवान के आगे दिया बत्ती करने को ही जीवन की सम्पूर्णता मानने के भ्रम में ही जी रही है।"
" क्या आपको नहीं लगता कि परिवार को एक माँ‚ एक पत्नी की आवश्यकता है?"
" निश्चित ही वह रोल उसे करना ही चाहिये। प्रकृति ने उसे सन्तान उत्पन्न करने की शक्ति दी है‚ लेकिन बच्चे की देखभाल करने में पुरुष को सहयोग देना चाहिये।"
" आपका जिस प्रान्त में नारी शोध केन्द्र है‚ उसी गुजरात में हर तीसरे दिन एक स्त्री की आत्महत्या की खबर होती है।"
" यहाँ की स्त्री अधिक स्वतन्त्र है। आत्महत्याएं‚ तलाक जीवन की नई राहें ढूंढने की आरंभिक हताश प्रतिक्रियाएं हैं। इसके बाद कुछ न कुछ अच्छा निकलेगा‚ जो स्त्री को एक 'ह्यूमन बीईंग' की तरह स्थापित करेगा।"
बड़ौदा के इस केन्द्र में कार्यशाला‚ सेमिनार आयोजित कर के नारी समस्याओं पर विचार विमर्श होता है। शोध परिणामों का देश व विदेशों के नारी शोध केन्द्रों से आदान प्रदान किया जाता है। अनेक देशी विदेशी विद्वानों को बुला कर महिला सम्बन्धी भाषण आयोजित किये जाते हैं। इन कार्यक्रमों की रूपरेखा निर्देशिका के निर्देशन में बनती है एवम् केन्द्रों के प्रोग्राम ऑफिसर इन केन्द्रों की उपयोगिता के सम्बन्ध में प्रोग्राम ऑफिसर नन्दिनी भट्टाचार्य बनाती है। हमारी कोशिश यह रहती है कि विश्वविद्यालयों के सभी भाग हमारे कार्यक्रमों में सहयोग करें व भाग लें। स्वयंसेवी संस्थाओं का सहयोग लें। सबसे सहयोग के कारण ऐसा समूह बन गया कि गुजरात सरकार से हमने बाल कल्याण की कुछ योजनाएं आरंभ करवाईं‚ जिस तरह बेजिंग के अन्र्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन में स्त्री व स्वास्थ्य सम्बन्धित अनेक प्रोजेक्ट आरंभ हुए। स्त्री पर बढ़ते हुए हिंसावादी अत्याचार हमारे शोध का विषय बनेंगे व हमलोगों की कोशिश यह है कि जैसे राष्ट्रीय महिला आयोग है या महाराष्ट्र में प्रादेशिक महिला आयोग है‚ उसी तरह गुजरात में भी प्रादेशिक महिला आयोग का गठन किया जाये।
नारी एक सम्पूर्ण इकाई‚ एक व्यक्तित्व बने‚ यह तो ठीक है‚ लेकिन जागरुकता के नाम पर परिवार वालों से बेअदबी‚ बदतमीज़ी‚ फैशन के नाम पर उद्दण्दता पर भी उसे सन्तुलन ढूंढना होगा।
कहते हैं कि स्त्री के अन्दर रहस्य की इतनी कन्दराएं हैं कि उनका रहस्य जानते जानते वह स्वयं ठगी सी रह जाती है। अचरज है पुरुषों द्वारा शासित समाज में विद्रोह की दुंदुभी बजाने वाली इस नारी के दिल पर शासन भी वही पुरुष करता है‚ जो कमांडिंग पर्सनेलिटी वाला होता है। यही पुरुष जब उस पर शासन करने लगता है‚ तो स्त्री भावनाएं आहत होती हैं।
'त्रियाचरित्रम देवो न जानस्य'‚ अर्थात जिस त्रिया चरित्र को देवता भी न समझ सकें‚ उसी चरित्र पर शोध करने नारी ही निकल पड़ी है। इन महिला शोध केन्द्रों के माध्यम से परिणाम क्या होगा‚ यह तो भविष्य ही बताएगा।
नारी शोध केन्द्र के अतिरिक्त हर शहर में नारी संगठन एक सकारात्मक भूमिका अदा कर रहे हैं। गुजरात की अग््राणी संस्था 'सहियर' की एक संस्थापिका तृप्ति शाह कहती हैं‚ " हमारे दस बारह वर्षों के संघर्ष का एक ठोस परिणाम यह है कि पहले जो लोग नारी की समस्या के लिये उठी आवाज़ों को एक फैशनेबल ढकोसला समझते थे‚ कम से कम अब समाज में‚ राजनीति में व मीडिया में इन प्रश्नों पर विचार किया तो जाने लगा है। चाहें कुछ भी दिखाना ही क्यों न हो।"