नासूर / अर्चना राय

Gadya Kosh से
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प्रत्येक वर्ष की तरह, आज भी वे तीनों संविधान के जनक की जंयती पर आयोजित सभा में श्रद्धांजलि अर्पित कर वहीं बैठ गए।

उनके चेहरे हताशा और निराशा से भरे थे। उनके पास कहने के लिए कुछ नहीं था इसलिए तीनों चुपचाप बैठे शून्य में ताक रहे थे। काफी देर यूँ ही बैठे रहने के बाद... “काश! इंसान ये एक दिन का दिखावा करने के बजाय... बाबा के लिखे नियमों पर अमल करता, तो कितना अच्छा होता।” श्रद्धांजलि देने लोगों के उमड़े हुजूम को देखकर इतिहास ने कहा।

“हाँ! फिर तो ये धरती स्वर्ग न बन जाती...” वर्तमान ने कहा।

“पर... झूठा दिखावा कर अपने आप को महान दिखाना तो इन इंसानों की पुरानी आदत है,” इतिहास ने कहा।

“काश! ये धर्म, जाति- पाँति, ... ऊँच- नीच की दीवारें न होतीं तो कितना अच्छा होता?”— वर्तमान ने कहा।

“फिर तो अमन की चिड़िया, जो सदियों से घायल पड़ी है... कितनी प्रसन्नता से प्रेम- गीत गा रही होती।” —इतिहास ने ठंडी आह भरकर कहा।

“भविष्य! तुम भी तो कुछ कहो... ऐसे चुपचाप क्यों बैठे हो?”

“क्या कहूँ? वर्तमान भाई!... अगर धर्म, जाति- पाँति की दीवारें नहीं भी होतीं, तब भी ये इंसान कोई न कोई दूसरा बहाना लड़ने- मरने का ढूँढ ही लेता।”

“ये आप क्या कह रहे हैं भविष्य भाई?”

“हाँ, ...मैं सच कह रहा हूँ।” जख्मों से भरे सीने को दिखाकर भविष्य ने कहा।

अब नाउम्मीदी से भरे, तीनों थके कदमों से चलकर अपनी- अपनी दिशाओं में विलीन हो गए।

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