नाॅट आउट 102, जीवन-मृत्यु का गीत / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 05 मई 2018
आईपीएल क्रिकेट तमाशे के दौर में फिल्मकार उमेश शुक्ला की अमिताभ बच्चन व ऋषि कपूर अभिनीत 'नॉट आउट 102' का क्रिकेट से कोई संबंध नहीं है वरन ये दो उम्रदराज पिता-पुत्र के रिश्ते की कथा प्रस्तुत करती है। सच तो यह है कि यह फिल्म अप्रवासी भारतीय लोगों के डॉलर प्रेम और स्वार्थी होेने की बात को रेखांकित करती है। कभी यह आंकड़ा जारी हुआ था कि चालीस लाख भारतीय विदेशों में बस गए हैं। संभवत: यह संख्या बढ़ चुकी है। इन्हीं लोगों के बारे में एक फिल्म बनी थी 'बुरे फंसे ओबामा' परंतु वह विश्वव्यापी आर्थिक मंदी के दुष्प्रभाव को प्रस्तुत करती थी। उस फिल्म में अमेरिका में बसा व्यक्ति अपनी पुश्तैनी हवेली बेचने के लिए भारत आता है और एक पिछड़े हुए प्रदेश में मंत्री द्वारा संचालित अपहरण और फिरौती के धंधे का पर्दाफाश करता है। उमेश शुक्ला गुजराती भाषा में प्रस्तुत नाटकों से प्रभावित हैं और उनकी 'ओ माय गॉड' तथा 'ऑल इज वेल' भी इसी स्रोत से आई फिल्में थीं परंतु वे नाटक को जस का तस प्रस्तुत नहीं करते हुए सिनेमा माध्यम के मुहावरों में प्रस्तुत करते हैं। ज्ञातव्य है कि दादा फालके की फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' को ही भारत की पहली कथा फिल्म माना जाता है, जबकि इसके कुछ माह पूर्व एक नाटक को शूट करके भी राजा हरिश्चंद्र की कथा पर ही एक फिल्म प्रदर्शित हुई थी। मंचित होते हुए नाटक को जस का तस फिल्माना फिल्म कला नहीं है।
इस फिल्म में एक अप्रवासी भारतीय अपने पिता से मिलने केवल इसलिए भारत आ रहा है कि वह पिता की संपत्ति अपने नाम कराना चाहता है। यह पिता के प्रति प्रेम नहीं वरन उसके निजी स्वार्थ हेतु कर रहा है और यही बात उसका 102 वर्षीय दादा उसके पिता को समझाने का प्रयास करता है। दरअसल, अप्रवासी भारतीय उन परिंदों की तरह हैं, जिन्होंने आधुनिकता के सैटेलाइट को छूने की कोशिश करते हुए अपनी सांस्कृतिक जमीन से भी अपना रिश्ता तोड़ लिया है। ये पंखहीन लोग कहीं के नहीं रह पाते। फिल्म के एक दृश्य में आतुर पिता दर्जनों बोतल पानी खरीदता है ताकि उसके पुत्र को कोई बीमारी न हो जाए। सरकार आज़ादी के इतने दशक बाद भी शुद्ध जल अवाम को उपलब्ध नहीं करा पाई । फिल्म में तीसरा पात्र पूछता है कि क्या आपका अप्रवासी पुत्र स्नान भी इसी पानी से करेगा।
फिल्म में 102 वर्षीय पिता अपने 75 वर्ष के पुत्र को स्मरण कराता है कि उसकी पत्नी के मृत्यु के समय भी इसका पुत्र भारत नहीं आया था और उसने लिखा था कि नई नौकरी में इतनी जल्दी अवकाश नहीं मिल सकता। उसके हर खत का आखिरी वाक्य होता है कि उसे आशा है कि वे उसकी मजबूरी को समझ लेंगे। ये तमाम मजबूरियां गढ़ी हुई हैं। दरअसल, वे अपनी संवेदना ही खो चुके हैं। अब तो हम भी उनकी तरह संवेदना खोते जा रहे हैं।
अप्रवासी भारतीय विदेश में रहते हुए भी देश की राजनीति में दखलंदाजी करते हैं। विगत चुनाव में उन्होंने एक दल विशेष को भारी चंदा दिया था। वे हमारी विदेश नीति को भी प्रभावित कर रहे हैं। एक दौर में इन्हीं लोगों के लिए डॉलर फिल्में बनाई जाती थीं और एक स्वयंभू फिल्मकार ने सगर्व कहा था कि वह बिहार, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के दर्शकों के लिए फिल्में नहीं बनाता। यहां तक कि एक प्रदेश में माता-पिता अपनी पुत्रियों को प्रशिक्षित करते थे कि अप्रवासी भारतीय से विवाह करके उन्हें अमेरिका में बसना है। उन्हें हाई हील सैंडल पहनकर चलने का अभ्यास करना पड़ता था और अंग्रेजी बोलना भी सीखना पड़ता था। इस तरह वे अपना ही कैरीकैचर बन जाती थीं।
सबसे भयावह बात यह है कि अमेरिका में बसने वाले भारतीय वहां अपने भाषा व जाति के आधार पर अपने क्लब बनाते हैं। अब वहां ऐसी दुकानें भी खुल गई हैं, जो सिंदूर, चूड़ियां, पापड़, गरम मसाले इत्यादि बेचती हैं। भारत से गरबा टीमें अमेरिका आमंत्रित की जाती हैं और वहां गरबा खेला जाता है परंतु इस प्रक्रिया में वे उस देश के लोगों से मित्रता नहीं करते, जिसने उन्हें रोजी-रोटी दी है। हम प्राय: सुनते हैं कि फलां देश में इतने भारतीय हिंसा के शिकार बने। यहां हिंसा को सही नहीं ठहराया जा रहा है वरन एक तथ्य को रेखांकित कर रहे हैं कि रोजी-रोटी देने वाले मुल्क के लोगों से सामाजिक संबंध क्यों नहीं स्थापित किए जाते?
इस फिल्म में अमिताभ बच्चन ने ही उमेश शुक्ला से कहा कि वे प्रसिद्ध चित्रकार एमएफ हुसैन की तरह दिखना चाहते हैं। फिल्म देखते हुए बरबस हुसैन साहब की याद आई, जिन्हें हुड़दंगियों के कारण 'दो गज जमीं न मिली दफ्न होने के लिए'। ज्ञातव्य है कि एमएफ हुसैन अपने संघर्ष काल में फिल्मों की प्रचार सामग्री पेंट करते थे। कालांतर में उन्होंने फिल्में भी बनाई। माधुरी अभिनीत 'गजगामिनी' प्रशंसित हुई। आज एमएफ हुसैन की तरह प्रतिभाशाली लोगों की संख्या कम होती जा रही है परंतु हुड़दंगियों की संख्या बढ़ती जा रही है।