निगरानी / राजनारायण बोहरे
चपरासी पंछी राम बड़ा तुर्रम खाँ है। पूरे पैंतीस बरस से कलेक्टर के हाथ के नीचे काम कर रहा है, सो बड़े-बड़े हाकिम-हुक्कामों से बोलने बतियाने और उनकी सेवा करने का अच्छा तज़ुर्बा है उसके पास। इस हुनर और तज़ुर्बे के दम पर अपने साथी चपरासियों के साथ बैठकर वह खूब लंबी-लंबी गप्पें मारता है। बाकी लोग, चुप बैठ कर उसकी बातें मुंह बाये सुनते रहते हैं और उसकी हाँ में हाँ मिलाते हैं। लेकिन इस दफा पंछीराम ऐसा फंसा कि सारी चौकड़ी भूल गया। नये कलेक्टर उसे उतना खास नहीं मानते थे, इस वजह से यह दुर्घटना घट गई.
दरअसल हुआ कुछ ऐसा कि उन दिनों चारों ओर घनघोर बदरा छाये थे। सावन का महीना था। पूरे देश में झमाझम बरसात हो रही थी। छोटे-साधनहीन और दूर के इलाके में बसे गाँवों की कौन कहे, खूब ठीकठाक कस्बों और ख़ासे बड़े, तरक्की पा गये गाँवों तक पहुंचने के रास्ते गोबर और कीचड़ की गहरी लम्बी नदियों में तब्दील हो चुके थे।
ऐसे बसकारे के टप्प-टप्प मौसम में दिल्ली बैठे एक आला हुक्काम ने हुकुम दागा कि अगले माह देश में आम-चुनाव कराये जायेंगे। जिस दिन अखबारों में यह खबर छपी, देश भर के प्राइमरी स्कूलों के मास्टर, तमाम दफ्तरों के बाबू-चपरासी, तहसीलों के पटैल-पटवारी और कोटवार तथा पुलिस थानों के दरोगा और सिपाही समेत अनेक कर्मचारी मन-ही-मन दहल उठे। क्योंकि चुनाव के वक्त ब्याह के डला-टिपरियों-सी चुनाव की पेटी, थैली और तमाम सामग्री माथे पर लादे, अन्जान डगर और अजनबी गाँवों में जाकर, भूखे-प्यासे और नींद के सताये रहकर, भय और दहशत के माहौल में इन कर्मचारियों ने अब तक की नौकरी में जितने भी चुनाव कराये थे, वे सब एक-एक कर उन्हे याद आने लगे। चुनाव तो वैसे भी भय कारी होता है, चाहे सूखा मौसम और ऐन शहर का पोलिंग क्यों न हो, फिर इस बार तो बारिश का घुटन भरा मौसम होगा। तो कैसे क्या होगा, इस चिन्ता में कई अफसर-अहलकारों की वह रात जगते हुये बीती। उधर यही खबर जब छोटे-बड़े नेताओं, बिल्ला-परचा और पोस्टर छापने वाले प्रेस मालिकों, छुटमुट पेन्टरा, ें माईकवालों और बेरोजगार गुण्डे-मवालियों ने पढ़ी, वे सब खुशी से नाच उठे-अब पांच साला कुम्भ आ गया था उनका, कमाई का विकट सीजन।
इधर चाय की दुकानों और दफ्तरों की खुली सभाओं में बारिश के मौसम में चुनाव हो पाने की संभाव्यता पर बहस चल रही थी और उधर दिल्ली में चुनावों की व्यवस्था समझाने के लिए बैठक बुलायी गयी। बैठक में देश भर के आला हाकिम रबर के गूंगे गुड्डों की तरह चुनाव-व्यवस्था संभाल लेने के प्रश्न पर हामी में सिर हिला रहे थे-अब तक हर काम के लिए हामी में सिर हिलाते-हिलाते उनकी गरदन की हड्डी सिर्फ़ आगे-पीछे सिर हिलाने लायक ही रह गयी थी शायद, दांये-बांये यानी कि इन्कार में सिर हिलाना इस अवस्था में संभव नहीं था।
दिल्ली में सब "यस सर" कह कर लौट आये और घर आ के इस चिंता में डूब गये कि अब इन झमेलों से कैसे निपटें-दूबरी और दो अशाड़! एक तो हर चुनाव के साथ बढ़ता हिँसा का ग्राफ और उस पर ऐसा अनियंत्रित मौसम। अलबत्ता प्रदेश कार्यालयों से कागजी कबूतर नाना प्रकार के सन्देश और परवाने लेकर उड़े तथा जिला कार्यालयों के सुस्त पड़े चुनाव-दफ्तरों में प्राण फूंकने लगे। वहाँ के सोये-अलसाये कर्मचारी अंगड़ाई लेकर उठे और उन्होने पहली ही फुरसत में हुंकारा भरके आँखों का कांटा बने दीगर विभागों के कई पुराने कर्मचारियों को अपने यहाँ अटैच करने के हुक्मनामे जारी करा डाले।
कलेक्टर के खासुलखास होने से चपरासी पंछी राम की ड्यूटी कभी भी चुनाव कार्यालय नहीं लगी थी। लेकिन इस बार जब उसे चुनाव कार्यालय में अटैच किया गया तो उसका माथा ठनका। मन ही मन उसने दिल्ली के आला हुक्काम से लेेकर चुनाव कार्यालय के बड़े बाबू तक को खूब गरियाया।
कीचड़ और गन्दगी से घिरे गाँवों में बैठे भोले और निश्छल किसानों को बसकारे के नीरस मौसम में वक्त काटने का नया शिगूफा हाथ लगा तो वे लोग अपसरों, नेताओं और पुलिस वालों के भाग-दौड़ को बड़ी उत्सुकता से निहारने लगे। सबको कौतुहल था कि बरसात के इस झलाझल मौसम में अफसर लोग कैसे चुनाव करा पायेंगें?
कलैक्टर के चैम्बर में उस समय केवल दो लोग थे-चपरासी पंछी राम और नायब तहसीलदार तोता राम उर्फ टी0 आर0 खुर्राट।
कलेक्टर साहब एक फाइल में सिर गढ़ाये बैठे थे, जबकि नायब साब पूरी तन्मयता से अपने सामने रखा एक अखबार पढ़ रहे थे। पीछे खड़े पंछीराम को उत्सुकता हुई, तो वह भी कलेक्टर साहब की नजर से बचते हुए ऐड़ियों के बल आहिस्ता से ऊंचा उठा और इस तरह खुर्राट साहब की आँखों के आगे फैली खबर को बांचने लगा। समाचार इस प्रकार छपा था-
चुनाव सुधार का नया फार्मूला
दिल्ली (संवाद एजेंसी) चुनावों में लगातार बढ़ रहे खून-खराबे तथा फ़िजूल खर्ची पर एक अरसे से देश के बड़े कानूनविद चिंता जताते रहे है। इस चिन्ता से सहमत होते हुए केन्द्र सरकार ने अभी हाल में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय लिया है। इस निर्णय के तहत चुनावी माहौल को साफ-सुथरा करने की दृश्टि से खून-खराबे व फिजूल खर्ची रोकने के लिए देश में नया फार्मूला लागू किया जायेगा। आइंदा से हर चुनाव में प्रत्येक क्षेत्र में एक बाहरी निगरानी अफसर तैनात किया जायेगा, यह अफसर क्षेत्र में हाजिर रहके सारी चुनाव प्रक्रिया पर निगरानी रखेगा, उसे जहाँ भी किसी तरह की धांधली या नियम विरूद्ध काम दिखेगा, वह सारा चुनाव रद्द करा सकेगा। इस नये फार्मूले से देश के चुनावी इतिहास में क्रांतिकारी फेर बदल होने की संभावना है। आशा है कि हर तरह की धमकी-लालच और प्रचार-प्रसार के षोर-शराबे, हिँसक झड़पों तथा बेशुमार चुनावी खर्च पर ये अफसर नकेल डाल देंगे और मतदाता निडर होकर मतदान करेगा। जिसके कारण देश में जनतंत्र का वास्तविक स्वरूप उभरेगा और चुनावों की पवित्रता पुनः स्थापित होगी।
सहसा कलेक्टर साहब ने सिर उठाया और वे बड़ी विनीत मुद्रा में कहने लगे-कहने-सुनने में ये सब चीजें अच्छी लगती हैं। शायद सैद्धांतिक रूप से भी यह इंतजाम ठीक होंगे। लेकिन प्रेक्टिकली बड़ी दिक्कत है! दिल्ली में बैठे लोग क्या जानें कि जाने-अनजाने हम लोग बहुत-सी अनदेखी, अपरिहार्य गलतियाँ और लापरवाही करते रहे हैं, जो अब शायद नुकसानदायक हो जायें। ...खैर। आप लोगों ने देख ही लिया कि अपने ऊपर दिल्ली से एक बाहरी अफसर तैनात किया जा रहा है, जो बिला-वजह अपने को परेशान करने के लिए हमारी छाती पर बैठा रहेगा। पर आप दोनोें पुराने अनुभवी आदमी हो। मुझे विश्वास है कि आप लोग सब संभाल ही लेंगे। मैं आप दोनों को अपना आदमी मान के उस अफसर के साथ लगा रहा हूँ। देखना उसकी सेवा सत्कार में कोई कमी न रह जाये। अपने को जैसे-तैसे केवल दस दिन का समय निकालना है। यदि इस पीरियड में उस अफसर को कोई शिकायत रह गई तो मेरा कैरियर ही चौपट हो जायेगा।
कलेक्टर की बात सुनते समय पंछी राम मन ही मन बड़ा खुश हो रहा था, क्योंकि बात-बात में शेर-सा दौंकी मारने वाला कलेक्टर इस वक्त भीगी बिल्ली-सा म्याऊँ-म्याऊँ कर रहा था?
लेकिन भीतर ही भीतर एक अज्ञात-सा भय उसे खाये जा रहा था कि जिस अफसर से कलेक्टर डर रहा है उसके लिये नायब और पंछंीराम तो मक्खी-मच्छर हैं। गलती से दिल्ली वाला अफसर कहीं उनसे नाराज हो गया तो नौकरी जाने में सेकिंड नहीं लगंेगे। वह पछताने लगा कि महीना भर पहले से उसने छुट्टी क्यों नहीं ले ली! अब इस वक्त किसी को छुट्टी मिलने से रही। इस समय तो बाकी सारे काम व्यर्थ हैं। इस समय सब अफसर छोटे हैं। इलेक्शन ऑफीसर यानी कलेक्टर सबसे बड़ा है। उस पर भी सवार होने आ रहा है दिल्ली वाला अफसर। यानी इस समय तो मात्र दिल्ली वाला अफसर ही सबसे ज़्यादा ताकतवर है। वह जो लिख देगा, दिल्ली से वैसा ही हुकुम आ जायेगा। उसकी दिल्ली जाने वाली रोज-रोज की रपट बड़ी महत्त्वपूर्ण है, इस कारण कलेक्टर की भी फूंक सरक रही है।
कलेक्टर के चेम्बर से बाहर निकला तो बाकी चपरासियों ने पंछी राम को घेर लिया-कलेक्टर ने अकेले में क्या बात करी?
पंछंीराम को भरपूर मौका मिला, सो उसने गप्पें ठोंकने में कोताही नहीं की और लंतरानियाँ मारना शुरु कर दीं कि किस तरह कलेक्टर ने उसे बगल की कुर्सी पर बिठा कर चाय पिलाई और दिल्ली से आने वाले हुक्काम के साथ एक ख़ास अफसर के रूप में काम करने का अनुरोध किया... वगैरह वगैरह। बाकी लोग विस्मय में डूबे पंछीराम की आड़ी-तिरछी उड़ान के नजारे देखते रहे।
घर जाकर उस दिन पंछी राम को रात भर नींद नहीं आई. उसने कलेक्टर को रात भर खूब गालियाँ दी, जिसका अंग विशेश इस कारण फट रहा था कि दिल्ली से आने वाला अफसर बड़ा कड़क है। दिल्ली के आला हुक्कामों को भी निगरानी अफसर तेैनात करने के नये चलन पर पंछी राम ने नहीं बख्शा-अरे भैया चालीस साल से जिस ढंग से चुनाव चल रहे थे वैसे ही चलने देते। ये क्या कि सारे देश को उलट पुलट दो और इधर के अफसर इधर, उधर के अफसर इधर की जगहों पर तैनात कर डालो। जाने कहाँं का फिजूल चलन शुरु दिया, यूं ही बैठे ठाले। जैसे प्रदेश और जिले के अफसरों पर कोई विश्वास ही नहीं बचा हो।
"शताब्दी एक्सप्रेस का खर्चा या तो सरकारें उठातीं हैं या फिर विधान सभायें, ओैर पार्लियामैण्ट। या तो अटैची हाथ में लिये मोटा चश्मा, भारी तोंद और गर्मी में भी सूट डाटे बैठे घाघ अफसर इस चलते फिरते महल में यात्रा करते हैं, या फिर एम0 पी0 और विधायक।" पंछी राम की इस धारणा को सच साबित करता पचपन-छप्पन साल का एक अधगंजा खड़ूस-सा आदमी शताब्दी एक्सप्रेस के डिब्बे से उतर के स्टेशन पर अनाथ-सा खड़ा था। वह नाक-भौं सिकोड़े आसपास के यात्रियों को तुच्छ नजरों से घूरता हुआ अपने दो सूटकेस संभाले इधर-उधर ताक रहा था। नायब साहब ने अन्दाज लगाया कि यही होगा दिल्ली वाला निगरानी अफसर।
नायब साहब उसके बगल में पहुँचे, अपने आगे निकले पेट को जितना वे दबा सकते थे, उतना दबाते हुये अधझुके से होकर उस खडूस से आदमी से बड़े मीठे स्वर में वे पूछने लगे-आप कोहली साहब हैं ना सर।
"हूँ!" एक लम्बे हंुकारे ने नायब साब को और झुका दिया, "नमस्ते सर। मैं आपकी कॉस्टीटयूऐन्सी का लायजिंग अफसर हूँ-नायब तहसीलदार टी.आर.खुर्राट।"
"तुम्हारा कलेक्टर कहाँ है? उसे फुरसत नहीं मिली मुझे लेने आने की।" कोहली की त्यौरियाँ चढ़ गयी।
"सर" नायब साब ने ऐसा शब्द कहा, जिसके मनमाने अर्थ निकाले जा सकते थे, यानी कि "जी सर" भी ़-़ ़ ़ या फिर "नही सर" भी, ़-़ ़ ़ या फिर आप माई बाप हैं हुजूर, जो कुछ कहें वही सच है श्रीमान"। नायब साब की चालाकी पर मन ही मन हँसा-पंछीराम।
"चलो" कोहली ने हुकुम दागा।
और नायब साब ने एक सूटकेस उठा लिया, ...दूसरा पंछीराम को लादना पड़ा।
स्टेशन के बाहर लाल बत्ती लगी वातानुकूलित कार खडी थी, नायब साब ने ड्रायवर को इशारा किया, तो उसने पिछला दरवाजा खोल दिया। ड्रायवर ने डिग्गी खोलकर पीछे दोनो सूटकेस जमा दिये।
नायब साब खिड़की से झांकते हुये बोले "हम अगली गाड़ी में हैं सर, अभी होटल चल रहे हैं, फिर फील्ड के लिये चलेंगे। अपना एरिया यहाँ से चालीस किलो मीटर बाद शुरु होगा सर ओैर डेढ सौ किलोमीटर तक रहेगा"
"हँू!" फिर लम्बा हुंकारा गूंजा, तो नायब साब वहाँ से हट गये। चपरासी पंछी राम उनके पीछे था। आगे एक और कार खड़ी थी, वे दोनों उसमें बैठ गये पिछली कार को संकेत देती हुई वह कार चल पड़ी।
होटल में पंछीराम को कुछ भी नहीं करना पड़ा। वर्दीधारी बैरे ने कोहली की अटैची उठाने से लेकर भोजन परोसने तक का सारा काम अपने हाथों निपटाया। तब तक पछीराम ने बरसात में भीग गये अपने कपड़े सुखा डाले।
दोपहर दो बजे दिल्ली वाले अफसर ने नायब साब को तलब किया और ढाई बजे दोनों कारें होटल छोड़कर चल पड़ी। तब भी हल्की बूंदाबांदी हो रही थी। जिला मुकाम यहाँ से अस्सी किलोमीटर दूर था।
रास्ते में वे लोग कहीं नहीं रूके सीधे कलैक्ट्रेट पहुँचे।
खबर लगी तो कलेक्टर दौड़े-दौड़े बाहर आ पहुंचे-"आइये सर! मैं आई.सी. घोश!"
"इलैक्सन का ऑफिस कहाँ है?" कोहली के स्वर में उपेक्षा का भाव था, और कलेक्टर समेत सारे कर्मचारी डरे से दिख रहे थे। पंछीराम मन ही मन खुश हुआ-अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे। इस पल वह अपने आपको इस दफ्तर का कर्मचारी नहीं मान रहा था, उसे लग रहा था कि मानो वह भी दिल्ली से आया है और कलैक्टोरेट के कर्मचारी उस के लिये कीड़े मकोड़े हैं।
कलेक्टर साब स्वयं आगे-आगे चलते हुये कोहली साब को चुनाव के दफ्तर में ले गये। कोहली ने डिप्टी साब की घूमने वाली गद्देदार कुर्सी देखी तो नाक-भाैैं चढ़ा लिये-"इसे हटाओ यहाँ से।"
पंछीराम ने तुरंत ही वह कुर्सी हटा दी और कोहली की नजर को भांपते हुए एक साधारण-सी कुर्सी उस जगह रख दी। कोहली बैठे तो पंछीराम बाहर खिसक आया और भीतर को कान लगाके दरवाजे के बाहर खड़ा हो गया।
"कितने पोलिंग सेंटर हैं इस कांस्टीट्यूएंसी में?" कोहली की तीखी आवाज में प्रश्न उछला था।
"बारह सौ सैंतीस" कलेक्टर साब का स्वर रिरियाहट लिये था "आठ सौ बीस इस जिले में और चार सौ सत्रह अटैच जिले में।"
"सैंंिसटिव कितने हैं?"
"सात सौ पाँच!"
"व्हाट? सेवन हण्डेªड फाईव!"
"यस सर, दिस इज ए डैकेट इनफैरेटेड एरिया। टोटल कांस्टीट्यूएंसी इज सेसंटिव, वट सेविन हन्ड्रेड बूथ्स आर वेरी सेंसिटिव। पिछले चुनाव में पचास पोलिगं सेटंर पर दुबारा चुनाव कराना पड़े थे सर। सत्रह आदमी मारे गये थे। इसलिये पिछली बार की तुलना में इस साल दुगने सुरक्षा गार्ड तीन हजार लगा रहे हैं और-सी आर पी भी बुला रहे हैं हूँ"
"जहाँ-जहाँ हिँसा हुई थी, वहाँ क्या बंदोबस्त है आपका?"
"वहाँ हर पोलिंगबूथ और गाँव में-सी आर पी के जवान तैनात कर रहे हैं।"
"इस बार दूसरे जिलों से भी तो चुनाव पार्टियाँ आयेंगी, उनके रूकने और खाने पीने के इन्तजाम हैं इस कस्बे में!"
"हाँ सर, कुछ भोजनालय है। ठहरने के लिए सिविल लाइंस के स्कूल में इंतजाम करा रहे है।"
"गिव मी ए मैप ऑफ दि कांस्टीट्यूएंसी एण्ड लिस्ट ऑफ पोलिंग बूथ्स।"
"जस्ट ए मिनट सर" कहते कलैैैैैैक्टर दरवाजे की और मुड़ करके बोले "खुर्राट नक्सा और वह लिस्ट लाओ"। फिर वे कोहली साब से बोले-"सर पिछली बार दर्जन भर से ज़्यादा कर्मचारी मारे गये यहाँ, इसी का ही तो डर है कि हर कर्मचारी इस बार चुनाव से बचना चाहता है।"
बाहर खड़े खुर्राट साहब ने अपना ब्रीफकेस खोल कर कुछ कागजात निकाले और खुला ब्रीफकेस पंछी राम को पकड़ा के दफ्तर में दाखिल हो गये। पंछीराम को इस वक्त खुर्राट का चेहरा उस बकरे जैसा लग रहा था, जिसे तुरन्त ही ज़िबह किया जाना है। पंछी राम को खुद की औकात मुर्गे से भी बदतर लग रही थी। घोस साहब खुद को क्या समझ रहे होंगे, पंछीराम इसका अंदाज नहीे लगा पा रहा था। अलबत्ता कोहली साब उसे जल्लाद से लग रहे थे। हिन्दी फ़िल्मों में जल्लाद का रूप कुछ अलग ही गेट अप के साथ दिखाया जाता है-कमर में काली सलवार, माथे पर काले कपडे़ से खेापड़ी बांधे, हट्टे-कट्टे बदन को उघारा करके मसल दरसाता एक क्रूर-सा व्यक्ति। पंछीराम ने मन ही मन कल्पना करी कि कोहली साहब को यदि वह ड्रेस पहना दी जाये तो कैसे लगेंगे।
पंछीराम की कल्पना को झटका देते हुये कलेक्टर अचानक बाहर आये और खुर्राट को एक तरफ ले गये। पंछीराम के कान उधर ही लगे थे। कलेक्टर पूछ रहे थे-खुर्राट तुमने इस अफसर की पसंद-नापंसद तो पता कर ली ना। देखना अपना प्लान फेल न हो जाये। ये तो सचमुच कड़क आदमी है। बहुत सारी कमियाँ ढूंढ़ लेगा।
आप चिंता न करें सर, मैं सब निपटा लूंगा। खुर्राट कलेक्टर के चरणों में झुके जा रहे थे।
मतदान दलों के पहंुचाने के इंतजामात यानी कि बसें, ट्रक, ट्रेक्टर, बैलगाड़ी और नाव तथा ऊंट भी, सुरक्षा अर्थात पुलिस वालों की संख्या, मतदान दलों की नियुक्ति और दूसरे जिलों से आने वाले दलों के ठहरने आदि के साधन वगैरह की कार्यवाहियाँ देखने मंे कोहली साब को चार घंटे लगे।
फिर एकाएक कुछ याद आया तो वे कलेक्टर से बोले-"मुझेे एस डी एम और एसडीओपी दो ज़रा जल्दी से, मैं कस्बे में जाके संपत्ति-विरूपण के कुछ प्रकरण बनाना चाहूँगा।"
पंछीराम एक अलग जीप में था। कस्बे के चौराहे पर कोहली साब रूके और रोड पार करते हुए टांगे गये कपड़े के अनेक बैनरों पर नाराजी व्यक्त करनेलगे। पंछीराम को इशारा मिला तो उसने उछल-उछल कर वे सारे के सारे बैनर खींच लिये। दीवारों पर लिखे चुनाव प्रचारों के बारे में भी उन्होने एसडीएम को प्रकरण बनाने का आदेश दिया। पंछीराम ने देखा कि कोहली साब की इस कार्यवाही पर, चौराहे से गुजर रहे तमाम राहगीर बड़े खुश दिख रहे थे। लेकिन कोहली साहब खुश नहीं दिख रहे थे, क्योंकि अब तक मीडिया का कोई संवाददाता नहीं आया था, जब एक मरियल-सा संवाददाता वहाँ आ पहंुचा तो कोहली साहब को हाजमा दुरूस्त हो गया अचानक।
सर्किट-हाउस में सारी व्यवस्था चाक-चौबंद थी। साफ और बदबू रहित बाथरूम, बेदाग चादरें, उम्दा ए.सी., फोन, फैक्स, टी.वी और कम्प्यूटर से सजे कमरे को देख इत्मीनान हुआ, तो कोहली साब ने पंछीराम को छुट्टी दे दी।
शाम को उनकी कार कस्टीटूयेंसी के दूसरे जिले को रवाना हुई तो पंछीराम और खुर्राट साब कार की अगली सीट पर ठंुसे हुये थे जबकि पिछली सीट पर कोहली साब अजीब से तरीके से लेटे हुये आराम फरमा रहे थे। कलेक्टर साब ने आग्रह किया तो कोहली साब ने सुरक्षा गार्ड लेने से कतई मना कर दिया था। बोले थे-रहने दो। आय एम स्ट्रांग। मैंने नक्सली इलाके में चुनाव कराये हैं।
कार इत्मीनान से दौड़ रही थी। तब, आधा घण्टा हो चुका था। सहसा वे बोले "रास्ते मंे कोई सैंसिटिव सेन्टर दिखे तो गाड़ी रोकना। मैं चैक करूंगा।"
और रास्ते में चार मतदान केन्द्रों पर उनकी गाड़ी रूकी, सब जगह एस.ए.एफ. के जवान तैनात थे। कोहली साब सिर्फ़ कार की खिड़की से बाहर झंाकते रहे, खुर्राट साब ने ही हर जगह तहकीकात की।
एक गाँव के निकट पहुंचते-पहुंचते सड़क पर भारी भीड़ दिखी तो ड्रायवर ने गाड़ी धीमी कर ली। वे लोग कुछ समझ पाते कि अचानक उनकी गाड़ी को उस भीड़ ने घेर लिया। खुर्राट साब तो घबरा ही गये जब भीड़ में मौजूद दर्जन भर बन्दूक धारियों ने धड़ाधड हवाई फायर कर डाले। उन्होने जैसे तैसे हिम्मत बांधी और उन्हें डाँटते हुये पूछां "ये क्या नाटक है? गाडी क्यों घेर ली है। चलो दूर हो जाओ सब! बन्द करो ये बन्दूकें।"
पंछीराम ने पीछे देखा कोहली साब थर-थर काँपते नीचा सिर किये बैठे थे।
"पहले कलेक्टर को बाहर निकालो" भीड़ में से एक नेतानुमा आदमी ने खुर्राट साब को डाँटते हुये जवाब दिया तो कोहली साब की जान में जान आई.
"गाडी में कलेक्टर साहब नहीं हैं, दिल्ली वाले अफ्सर हैं" खुर्राट साब ने नर्म पड़ते हुये जानकारी दी।
"फिर तो और अच्छा है ये तो कलेक्टर से भी बड़े होगें। उनसे कहो बाहर निकल के हमारी बात सुन ले, नहीं तो हम आज यह रास्ता आज चालू नहीं होने देगें। देखते हैं कैसे चुनाव कराओगे तुम हमारे ऐरिया में।"
खुर्राट साब भीड़ को बहलाना चाहते थे पर शायद कलेक्टर से बड़ा हुक्काम होने का प्रमाण देना ज़रूरी समझ कर अचानक कोहली साब कार का दरवाजा खोल कर बाहर निकल पड़े और पूछने लगे "क्या प्रॉबलम है?"
एक नेता होता तो बताता, भीड़ का हर आदमी अपनी बात सुनाने के लिये कोहली साब की तरफ लपक पड़ा तो कोहली साब घबरा उठे। खुर्राट साब उतरे, अब तक भीड़ ने कोहली साब को खूब धकिया लिया था।
जैसे-तैसे लोगों को दूर कर शांत किया गया, तो पता लगा कि गाँव में बिजली और पानी न मिलने के कारण इस गाँव के लोग रास्ता जाम कर बैठे हैं। इलाके के कई गाँव के लोग चुनाव का बहिस्कार कर रहे हैं। खुर्राट साब के कहने पर कोहली साब ने गाँव वालों को झूठा-सच्चा आश्वासन दिया और ऐन केन प्रकारेण वे लोग वहाँ से आगे बढे़ तो पंछीराम को लग रहा था कि अब कोहली साब ठण्डे पड़ जायेंगे। लेकिन उसे ताज्जुब हुआ कि उनके नथुने अब भी फड़क रहे थे। वे फुंफकारते हुये कह रहे थे-"देखा! ये हैं तुम्हारे कलैक्टर का लॉ एण्ड आर्डर। इतनी बन्दूकंे बाहर हैं। आर्म्स तक जमा नहीं कर पाये। मैं तो आज ही दिल्ली को लिख दूँगा कि ये कलैक्टर चुनाव नहीं करा पायंेगा। ही इस डफर एण्ड फैल्यूअर डी.एम. एज रिटर्निंग ऑफीसर।"
दयनीय मुद्रा बनाते हुये खुर्राट साब "सौरी सर" "सौरी सर" की तोता रटन्त बोलने लगे तो पंछीराम इस पहेली को बूझने लगा कि खुर्राट साहब किस बात की माफी माँग रहे हैं।
"मैं तुम सबको सस्पैण्ड करता हूँ। तुम लोग एकदम जाहिल और नाकारा हो।" कोहली साब ज़्यादा ही अकड़े तो पंछीराम की मूंछ फड़क उठी। वह खुद को रोक न सका बोला-"ये डकैतों का इलाका है हुजूर! इधर तो दिन दहाड़े गोली चल जाती है। यहाँ न कलैक्टर कुछ कर पायेगा न एस.पी.। यहाँ के तो खून में ही गर्मी रहती है। हमारे यहाँ चुनाव कराना बड़ी टेढ़ी खीर है हुजूर, कोई तुर्रम खाँ चला आये यही होगा।"
"यू शटप" चीखते हुये कोहली ने उसे डांटा।
पंछीराम का बदन फड़का, लेकिन खुर्राट साहब ने इशारा किया तो वह अपने होंठ ही कस कर बैठ गया। वह सोचने लगा कि चुनाव में अभी सात दिन बाकी हैं, और इतने दिन खुद को जप्त कैसे रख पायेगा वह। निश्चित ही इस बार के चुनाव उसकी नौकरी ले जायेंगेे। चुनाव तो दूर है आज ही नौकरी बच जाये तो बजरंग की कृपा होगी।
उनकी गाड़ी रात दस बजे सर्किट हाउस पहंुची। जिले के सर्किट हाउस में न तो कलैक्टर मौजूद मिले न डिप्टी कलैक्टर, इसके भी ऊपर तुक्का यह हुआ कि सर्किट हाउस का वी आई पी वाला वातानूकूलित कमरा खाली नहीं मिला-उसमें कोई मंत्री रुके हुये थे। सर्किट हाउस पर मौजूद गरीब से दिखते एक नायब तहसीलदार ने कोहली साहब से एक दूसरे नॉन ए.सी. कमरे में पहुचने की प्रार्थना की तो उनका क्रोध फट पड़ा-"डू यू नो, दैट आई एम सुप्रीम अफसर। यू आर टेकिंग मी फदर साइड आई विल टेक यू टू टास्क।"
बेचारा वह नायब तहसीलदार तो कुछ बोल ही नहीं पा रहा था हकलाते-अटकते हुये उसके मुंह से जो स्वर टपके, उनका आशय था कि...हजूर कृपा करें...हमारी मजबूरी है...हम विवश हैं छोटे कर्मचारी हैं...हजूर माई बाप हैं! आला हुक्काम है।! ... जो कहें ठीक है। क्षमा करंे...माफी दें।
अपने कमरे में घुस के कोहली साब कुर्सी पर बैठे, उन्होने टेबल पर रखा फोन अपनी ओर खींचा और जाने कहाँ का नम्बर डायल करने लगे। अगले ही पल उनका गुस्सा और ज़्यादा धधक उठा था "खुर्राट कम हियर।"
खुर्राट साब शायद रसोई घर में जाकर साहब के खाने के लिये खानसामा को चीजें बता थे सो पंछी राम अपना कर्तव्य समझकर कोहली साब के कमरे में घुस बैठा।
यकायक उसने महसूस किया कि उसके माथे पर आके कोई गोला-सा टकराया है और उसकी आँखों के आगे तारे नाच उठे हैं। कोहली साहब ने कोई चीज उठाकर फंेकी थी, जो उछलती हुई पंछीराम के माथे से आकर लगी थी। वह घबरा कर पीछे पलटा। बाहर निकलते-निकलते उसने देखा कि उसके माथे से टकराने वाली चीज टेलीफोन है। जो अब दरवाजे के बीचोंबीच क्षत-विक्षत-सा बिखरा पड़ा है। वह क्षुब्ध हो उठा, नाराजी का यह कौन-सा तरीका है। ये तो साला नाक में दम कर रहा है, मानो ससुराल में कोई दामाद नखरे दिखा रहा हो।
खुर्राट साब उस वक्त कोहली साब के कमरे में प्रवेश कर रहे थे, जबकि यहाँ तैनात दूसरे नायब साब जाने कहाँ गायब हो गये थे। सारे सर्किट हाउस में अफरा-तफरी थी। कुछ देर बाद पंछी राम को अपनी चोट में दर्द कुछ कम हुआ तो वह स्थानीय नायब साब को तलाशने लगा ताकि उन्हंे और यहाँ के चपरासी को अपनी बला सौंप कर वह किसी कोने में आराम से लम्बी तान कर सो जाये।
उसने सोचा कि जिस तरह से कोहली साब की एण्ट्री हुई है, उसका परिणाम तो यही लग रहा है, कि नायब साब को अचानक ही सर्किट हाउस के किसी संडास में घुसना पड़ा होगा, सो पंछीराम उन्हें उधर ही ढूढ़ने लगा।
तब तक 'सोंई-सोंई' करती दो कारें सर्किटहाउस में आ पहँुची थीं। चौकीदार ने बताया कि एक में कलेक्टर आये हैं और शायद दूसरी कार में चुनाव खर्च देखने वाले अफसर हैं। कलेक्टर एक जवान-सा लड़का था जबकि दूसरा अफसर एक प्रौढ़ दक्षिणी व्यक्ति दिख रहा था। वे लोग सीधे कोहली के कमरे में प्रवेश कर गये।
पंछी राम दरवाजे से सट के खड़ा हो गया-देखें कोहली साहब जैसे परशुराम से इस नयी उम्र के लक्षमण जैसे कलेक्टर का क्या संवाद होता है पर उसे निराशा ही हाथ लगी। कुछ देर दरवाजा बंद रहा फिर खुला। पता नहीं तीनों अफसरों ने किस भाषा मंे क्या बात की कि कोहली साहब के कमरे से बजाय गालियों के, हँसी के ठहाके गूँजते सुने पंछीराम ने। उसने पूरी प्रशासनिक बिरादरी को गरियाना शुरू कर दिया-साले सब हरामी और अपनी माँ के वह हैं। छोटे कर्मचारियों को गाली देंगे पर बड़ों की उस में घुसेंगे।
कलेक्टर तो लौट गये, दूसरे अफसर को एक और कमरा खुलवाया गया।
रात को मेहमानों के लिए मुर्गा और विदेशी व्हिस्की का इंतजाम एक्साइज अफसर की ओर से था। खर्च देखने वाले दक्षिणी अफसर ने सिर्फ़ मछली पसंद की, जबकि कोहली साहब ने मेजबान को निराश नहीं किया, न केवल मुर्गा खाया बल्कि उसके पहले पीना पसंद किया, इसके बाद उसने एक वीडियो सेट और लाने को कहा।
उसका आदेश बजाया गया। वीडियो लगा, जिसके सामने बैठ कर वह जाने कितनी रात तक बंद किवाडों के पीछे कोई खास फ़िल्म देखता रहा। पंछीराम को इसमें भला क्या आपत्ति होती, उसे और खुर्राट साहब को भी उचित पथ्य मिल गया था और रात भर के लिए कोहली से छुटकारा भी।
सुबह आठ बजे कलेक्टर खुद ही अपनी गाड़ी चलाते हुये सर्किट हाऊस आ पहुँचे वे खुर्राट को एक ओर ले गये। पंछीराम ने सुना वे खुर्राट से कह रहे थे-"इस खूंसट को चुनाव तक कैसे झेलेगें खुर्राट! ऐसा करो कि इसे वहीं घुमा-फिरा लाओ"।
' वहाँ तो बहुत खर्च होगा सर, मेरे पास तो केवल पांच-छः हजार...फिर इन्हें तो सिग्नेचर व्हिस्की के साथ तीतर का माँस पसंद है और मिल जाये तो कुछ और भी...यानी कि। इतने कम पैसे में इनके शाही-शौक कैसे। "
"इसकी चिन्ता तुम मत करो। हम एक एक्साइज इंसपेक्टर तुम्हारे साथ भेज रहे हैं।"
"ठीक है सर, आप उनसे एक बार कह दीजिये, फिर मैं उन्हे तैयार कर लूंगा।"
दिन में कोहली साब कुछ देर को कलेक्टर के चुनाव कार्यालय में बैठे तो शिकायत बाजों का तांता लग गया। उन्हंे जैसे तैसे निपटा के कोहली साब ने राहत की सांस ली ही थी कि खर्च देखने वाले पर्यवेक्षक शिवरामन वहीं आ बैठे।
पंछीराम ने सुना, कोहली साब अजीब-सी आवाज में उनसे कह रहे थे-"कमीशन ने इस कौन से जंजाल में फंसा दिया शिवरामन साब? इतने दिनों से जो हो रहा था वही ठीक था।"
शिवरामन साहब कह रहे थे "यह तो लोकतंत्र का पवित्र यज्ञ है साहब। हमारे चुनाव पर सारे विश्व की निगाह रहती है। इसलिये निगरानी अफसर रखना मुझे तो कतई ग़लत नहीं लगता। देश की सर्वोच्च निष्पक्ष और गरिमामयी संस्था के इस नवाचार में भी बड़ा विवेक छिपा है। हमें भी निष्पक्ष चुनाव कराने का प्रयत्न करना चाहिए. आखिर दिल्ली के बड़े अफसर जनहित की बात कर रहे हैं। आप ही कहें हमारे गरीब देश में अरबों का सरकारी खर्च और एक महीने तक चलने वाले भयानक शोर-शराबे प्रचार-प्रसार, जनसंपर्क, बैनर बिल्ले, पैम्पलेट, जीपों, आम-सभाओं में पार्टियों के अगणित खर्च कुल मिला कर कितना नुकसान होता होगा। प्रचार-प्रसार में बढ़ रहे व्यय को देख कर हम सोच सकते हैं कि अब गरीब आदमी तो उम्मीदवार बन ही नहीं पायेगा। शायद इसीलिये ़ ़़ ़ जनतंत्र का लाभ हर जन तक पहुंचाने के लिये यह नई व्यवस्था की गई है।"
पंछीराम ने देखा कि यहाँ की बातें उसके सिर के ऊपर से गुजर रही हैं। वह बाहर चला आया। दफ्तर के बाहर डिप्टी कलेक्टर और तहसीलदारों की पूरी की पूरी भीड़ इस प्रयत्न में थी कि चुनाव प्रक्रिया के किसी काम की शिकायत न होने पावे। इसके लिये वे राजनीतिक पार्टियों के छुटभैया नेताओं के गले लग-लग जा रहे थे। दफ्तर से दुत्कार कर भगाये जाने योग्य छोटे-मोटे कार्यकर्ता भी इस वक्त प्रशासनिक अफसरंों के सगे-सहोदर जैसा सम्मान पा रहे थे। पंछीराम को रेवेन्यू अफसरों का वह रूप याद आया, जब वे अपने सिंहासन पर बैठकर गाँव-देहात के गरीब किसानों को देखकर दहाड़ उठते हैं और कुछ वैसे ही हिँस्र भाव चेहरे पर ले आते हैं, जैसे कोई गीदड़ मोटा-ताजा शाकाहारी निरीह पशु देखकर उसे खाने को ललचा उठे। उनके चेहरे पर इस वक्त बड़ी कातरता दिख रही थी, जैसे दुनिया के सबसे दीन-हीन और अकिंचन व्यक्ति ये ही लोग हों।
वे लोग एक साथ डबल रोल कर रहे थे। कर्मचारियों से अलग और राजनीतिक कार्यकर्ताओं से अलग व्यवहार था उनका। वहाँ उनके पास जब कोई कर्मचारी अपनी चुनाव डियूटी निरस्त कराने आ जाता तो वे अपनी गर्दन फिर अकडा लेते, रीड़ की हड्डी फिर सीधी कर लेते और आवाज में फिर वही क्रूरता ले आते जो इस वक्त चुनावी अफसरों में होनी चाहिए.
ऐसे में कुछ रोचक नजारे भी देखे पंछीराम ने, हुआ ये कि किसी चुनावी अफसर की तरफ जब एक मरघिल्ला-सा आदमी हाथ में कागज ले के आगे बढ़ा, तो अफसर ने समझा कि वह चुनाव डियूटी निरस्त कराने वाला कोई कर्मचारी है, सो वह झल्ला उठा और उसे भाग जाने का हुकुम दे डाला। पर दुर्भाग्य से वह मरघिल्ला-सा आदमी किसी पार्टी का चुनावी कार्यकर्ता निकल बैठा। फिर क्या था चुनाव आयोग और अफसर से शिकायत करने की धमकी देता वह व्यक्ति खूब जोर से चिल्लाने लगा तो अफसर लपक के उसके चरणो में गिरने तक को तैयार हो गया। ऐसा भी हुआ कि कुर्ता धोती धारी जिस बुजुर्ग को व्यक्ति को अफसर ने नेता समझ कर मन का सारा सम्मान और अपनापन उडे़ल डाला, वह एक दफ्तर का बडा बाबू निकला, तो अफसर का क्रोध फट बैठा।
एक बड़ा हादसा तो तब होते-होते टल गया जब एक प्रत्याशी के प्रचार में लगी बिना झंडा की अट्ठाइस जीपों के नम्बर दूसरा प्रत्याशी सौंप रहा था कि पहला प्रत्याशी आ गया। उसका तो पारा ही चढ़ गया और वह क्रोध में चीखते-चिल्लाते हुये दूसरे प्रत्याशी तरफ झपटा तो दूसरे व्यक्ति ने अपनी जेब में रखा कट्टा निकाल कर धांय से हवाई फायर कर डाला।
गोली चलने का स्वर गूंजा तो दोनो पक्षों के महारथियों के हाथों में नाना प्रकार, नाना रंग और नाना आकृतियों के कट्टा चमक उठे।
डरता हुआ पंछीराम यह सोच रहा था कि हमारे देश में और चीजें भले न बनती हों पर कट्टा जैसी खतरनाक चीज बनाने का कुटीर उद्योग खूब पनप गया है। यही नहीं कट्टा उत्पादन में हमारे यहाँ कितनी सरलता, कैसी कलाकारी, कितनी दूर दर्शिता और कितनी विविधता आ गई है कि दिल वाह-वाह करने लगता है।
उधर दोनों प्रत्याशी आपस में भिड़ रहे थे, और इधर दोनों अफसर भीतर बैठेे थर-थर कंांप रहे थे। कुछ देर बाद कलैक्टर और एस.पी. अपने दलबल के साथ वहाँ आये तो दोनों पक्ष अलग अलग-अलग हुये, फिर किसी तरह से दोनों अफसर वहाँ से सर्किट हाउस ले जाये गये। कुछ ही देर में सारी कलैक्टोरेट पुलिस छावनी में तब्दील हो चुकी थी।
पंछीराम ने वहाँ से स्टार्ट होती एक जीप में छलांग लगा दी और उसमें लद कर वह भी सर्किट हाउस की ओर भाग निकला था। नायब साब का कहीं कोई पता नहीं था।
उसी शाम अँधेरा होते-होते उनकी कार पर्यटन स्थल पहुंच गई. पता नहीं खुर्राट साहब के पास कितनी बंधनी बंधी थी कि एक बहुत उम्दा होटल में कोहली साहब को ठहराया गया और वह लॉज भी सस्ता नहीं था, जिसमें एक्साइज इंसपेक्टर, पंछीराम और खुर्राट साब ठहरे थे। पंछीराम को अपनी जैसी कई टीम दिखीं वहाँ, तो उसने उत्सुकतापूर्वक पता लगाया। पता चला कि आस पास के तमाम चुनाव क्षेत्रों के निगरानी अफसर इन दिनों यहीं आराम फरमा रहे हैं, सो कई बारातें ठहरी हैं यहाँ के जनवासों में।
सुबह वे लोग जब मंदिर देखने निकले तो कोहली साहब के साथ थे।
मंदिर में घुसने के पहले दीवारों पर बनी हजारों पत्थर की मूर्तियाँ दिखीं। मूर्तियाँ तो सदैव भगवान की बनती हैं सो पंछीराम ने बड़ी श्रद्धा से उनके भी हाथ जोड़े और दर्शन की लालसा से उन पर नजर डाली तो पानी-पानी हो गया। ऐसी मूर्तियाँ! उफ्फो, भीतर भगवान ़़़़़ ़ और बाहर च्च-च्च च्च। फ़िल्म और टीवी पर जरा-सा अंग उघरता देख के समाज के लोग इतनी हाय तौबा मचाते हैं और यहाँ तो अंग ही अंग थे, कपड़ा थे ही नहीं। बापरे! घर के अंधियारें में होने वाले पति-पत्नी के बीच के सारे काम यहाँ तो बड़े ऐलानिया ढंग से मूर्ति बनाकर खडे़ करे गये थे कै ऐसे करो लला सिग काम, ़-़ ़ ़ ़और यहाँ तो एक-एक औरत, कित्ते-कित्ते आदमी!
अधेड़ कोहली साब अपना चश्मा साफ कर करके मूर्तियों को कामुक नजरों से घूर रहा था लेकिन पंछीराम वहाँ से तुरंत ही भाग निकला। वह अपने लॉज में लौट आया, उसका माथा जोर से खदबदा उठा था। आँख मूंदता तो बार-बार उन हँसती खिलखिलाती नौजवान औरतों के पुश्ट स्तन और नंगे शरीर दिखने लगते जो पत्थर की मूरत बनी इन मंदिरों की बाहरी दीवारों पर किलक रही थीं। उन्हें देखके कोहली साहब गदगद भाव से खुर्राट साहब से कह रहे थे-"ओ माई गॉड, एक्सीलेंट मोनुमेंट्स"। देखा तुमने यह है आर्ट, आजकल के मूर्तिकार कहाँ बना पायेंगे ऐसी मूर्तियाँ? "
वे मन ही मन कुछ और बुदबुदाते रहे थे, फिर बोले थे-इन मूर्तियों का एलबम मिलता होगा यहाँ, ! तुम तलाश करो। बेसिकली आइ एम एकेडमिक परसन। तुम ऐसा करो कि कोई नर्तकी ढूंढ़ो यहाँ। मैं चाहता हूँ कि इन मूर्तियों के सामने इसी एक्शन में खड़ा करके नर्तकी के कुछ फोटो ले लूं और यहाँ के शानदार स्मृति चिह्न अपने साथ ले जाऊँ।
शाम ढले उनके लॉज में जब खुर्राट साहब लौटे थे तो बेहद झंुझलाये हुये थे। आते ही बोले-साले इन अफसरों के लिये जाने क्या-क्या करना पड़ेगा हमे।
रात शुरू हो रही थी और उनकी कार खुर्राट साहब के निर्देशन में पर्यटन बस्ती को बाहर निकल रही थी। पंद्रह-बीस किलोमीटर दूर एक गाँव में जाकर वे लोग रूके. बस्ती से बाहर एक उम्दा पक्का मकान था जिस पर एक बड़ा-सा साइन बोर्ड टंगा था-"नृत्य कला संरक्षण गृह"।
उस संस्था की मालकिन से खुर्राट साहब इतने सयानेपन से बतियाना शुरू हुये कि पंछीराम मुंह बायें देखता रह गया।
दस मिनिट में ही दर्जन भर नौजवान लड़कियाँ उनके सामने खड़ी हो गईं थीं। नायब साहब ने छांट कर उनमें से तीखे नाक-नक्श वाली, एक गोरी सी, रूबी नामक लड़की को पसंद किया।
कुछ देर बाद वह लड़की उनके साथ कार में बैठकर होटल लौट रही थी।
पंछीराम ने छिपी नजरों से रूबी को ताका जो इस वक्त किसी कॉलेज में पढ़ने वाली शहराती युवती-सी लग रही थी। उसने आसमानी रंग का चुस्त चूड़ीदार पैजामा और कूल्हे के ऊपर से खुल-खुल जाता लम्बा-सा कुर्ता पहन रखा था। उसके कुर्ते का कपड़ा इतना पारदर्शी था कि भीतर पहनी गई ब्रेसरी का नंबर भी पढ़ सकता था पंछीराम। गले में लपेटे गये दुपट्टे का होना न होना बराबर था क्योंकि वह जिन स्तनों को छिपाने के लिये डाला गया था, वे तो वैसे ही कुर्ता फाड़कर बाहर आने को कसमसा रहे थे।
कोहली साहब के पास एक दूसरे कमरे में रूबी की अटैची पहुंचा के पंछीराम बाहर निकल ही रहा था कि कोहली साहब ने उसे टोका-"पंछीराम तुम आज मेरे दरवाजे के बाहर बैठना, स्पेशल ड्यूटी है तुम्हारी।"
"जी हुजूर" कहता पंछीराम वहाँ से बाहर निकल आया। उसे अब भी कोहली साहब का रागड़ समझ में नहीं आ रहा था।
नायब साहब को नया हुकुम था कि वे दो कैमरों का इंतजाम करें-एक वीडियो कैमरा और दूसरा सादा स्टिल कैमरा। बेचारे खुर्राट साहब उसी तरह सिर झुकाये हर आज्ञा सिर माथे धर रहे थे। जैसे बेटी का बाप दूल्हे की सेवा में घूमता रहता है।
रात के दस बजे होंगे जब नायब साहब ने कोहली साहब के कमरे में कैमरे पहुंचाये। फिर रूबी अपने कमरे से निकली और कोहली साब के कमरे में चली गयी। हुकम मिला तो पंछीराम ने रूबी का सूटकेश भी कोहली साब के पास पहुचा दिया। कुछ देर बाद खुर्राट साहब बाहर आये तोे उनके हाथों में कागजों का एक पुलिंदा था। पंछीराम के पास आकर वे बोले-"जि हैं हमाये इलाके की उम्दा निगरानी तहरीरें। बस अब अपुन को रोज एक तहरीर दिल्ली के काजे फैक्स कर देनो है। इनमें कोहली ने लिख दियो है के जि इलाके में सब अमन चैन है।"
नायब साहब गये तो अधखुले दरवाजे से पंछीराम ने भीतर झांका। अब चम्पा सोफे की बैंच पर अधलेटी-सी पड़ी थी और उसके पास उकड़ंू से बैठे कोहली जानबूझ कर उसके कुर्ते के बड़े गले से झांकती गोलाईयों को ताकने की कोशिश कर रहे थे। इस समय कोहली साहब ने आधी आस्तीन की पीली बनियान और घुटनों तक पसरी रंगबिरंगी बड़ी चड्डी डाट रखी थी। टेबिल पर बाज के आकार की एक बड़ी-सी काली बोतल और कुछ खाली गिलास भी सजे धरे थे।
यकायक पंछीराम को बड़ी तेज प्यास-सी लगी, उसने गौर किया कि यह प्यास नहीं तलब है, शराब की तलब। ऐसे शाही सरकारी दौरों में वह प्रायः दो तीन गिलास दारू खींच लेता है और बिना डगमग हुये नशे का मजा लेता है। पर इस वक्त कहाँ धरा है ये मजा!
इस वक्त तो वह स्पेशल ड्यूटी पर है। एकाएक उसकी बुद्धि ने उसे याद दिलाया।
उसका मन हमेशा उल्टा सोचता है...इस वक्त की ड्यूटी काहे की ड्यूटी है उसने खुद से प्रश्न किया-घंट पर मारी ऐसी ड्यूटी.
होटल की गैलरी में सन्नाटा था। खाली बैठा पंछीराम बुरी तरह ऊब चुका था, वह कुछ क्षणों में उठना ही चाहता था कि एकाएक उसे कुछ खयाल आया तो उसने कोहली साहब के किवाड़ों में बने चाबी के छेद से आँख लगा दी।
अंदर रूबी इस वक्त घाघरा चोली पहन कर अपनी नृत्य कला का प्रदर्शन कर रही थी-नृत्यकला काहे की वह वैसी ही मुद्रा में फोटो खिंचा रही थी जो दिन में देखी मिथुन मुर्तियों मेे बनाई गयीं थीं। रूबी कभी दोनों हाथ पीछे कर अपने दोनों उरोज तान लेती और ऊपर देखने लगती तो बगल में बैठे कोहली साहब नीचे झुककर उसका फोटो लेने लगते। कभी वह अपनी अधनंगी पीठ कोहली साहब तरफ कर खड़ी हो जाती और मुड़ के उन्हें देखने लगती-कुछ इस तरह कि तेरे जैसे लल्लू पंजू मैंने बहुत देखे हैं, तू क्या बिगाड़ पायेगा मेरा।
उधर कोहली गिलास पर गिलास दारू पिये जा रहा था और रूबी के पैरों में गिर-गिर जा रहा था।
पंछीराम को इस बात से बड़ा सुख मिल रहा था कि तीन दिन से कटखने कुत्ते की तरह उन्हें डपटने वाला कोहली इस वक्त खुद किसी पालतु कुत्ते-सा व्यवहार कर रहा है। इसके लिये उसने मन ही मन रूबी को खूब-सा धन्यवाद दिया।
केवल दो कपड़ों में कैद रूबी का माँसल बदन अब किरणें-सी छोड़ रहा था, जिसे देख कोहली फोटो खींचना भूल कर तिरछी खड़ी रूबी के चिकने बदन पर अपनी मोटी हथेली फेर रहा था। उधर बंदर को नचाते मदारी की तरह रूबी सिर्फ़ उसकी हरकतें देख रही थी। उसकी आँखों में जाने कितने भाव थे-विजेता सा, स्वामित्व-सा और कुछ-कुछ कोहली जैसे अधबूढ़े कामुक व्यक्ति के प्रति दयाद्रता का।
एकाएक कोहली ने रूबी को जकड़ लिया और उसे नीचे फर्श पर गिरा लिया। आगे का दृश्य चाबी के छेद से दिखना संभव न था सो सब कुछ गंवाने के भाव से पंछीराम दरवाजे से हटा और अपने स्टूल पर आ बैठा।
रात बारह बजे पंछीराम अपने लॉज लौटने लगा तब कमरे के अंदर से कोहली साहब के भद्दे से खर्राटे गूंज रहे थे और चाबी के छेद से रूबी कहीं नजर नहीं आ रही थी।
अगले दिन सुबह रूबी नये फैशन के स्कर्ट टॉप में कमरे से निकल कर कोहली साहब के साथ मूर्ति वाले मंदिर में चली गई थी। खुर्राट साहब को कैमरे पहुंचाने का आदेश देकर कोहली ने पंछीराम को शाम समय इसी होटल में आने को कहा था। वे रूबी के साथ अपनी बेडौल-सी तोंद उचकाते चले गये थे और इस बेतुकी जोड़ी पर पंछीराम को खूब हँसी आई थी। बाद के तीन-चार दिन पंछीराम ने मजे मारे, न कोई काम, न धन्धा। वह डट के खाता और सो जाता।
वही शताब्दी एक्सप्रेस थी, वही स्टेशन! पर इस बार नजारा बदला हुआ था। ट्रेन में बैठता अफसर चुप-चुप तो था, पर कड़क मिजाज न था। ट्रेन में चलते समय कोहली साहब अफसर ने खुर्राट साहब और पंछीराम से बाकायदा हाथ मिला कर थैंक्यू कहा।
पंछीराम चकित था। एक आदमी में इतना परिवर्तन! गजब है! वह देर तक अपना हाथ सहलाता रहा, ताकि यह अहसास बना रहे कि सचमुच कोहली साहब ने उससे हाथ मिलाया था।