निगोड़े-भगोड़े / प्रमोद यादव

Gadya Kosh से
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पूरी निष्ठां और ईमानदारी के साथ लगभग नियमित भागने का जो कर्म करता है-उसे भगोड़ा कहते हैं. भगोड़ों के क्षेत्र अलग-अलग हो सकते हैं पर कर्म सबका एक जैसा होता है.कोई स्कूल-कालेज से भागता है तो कोई फैक्ट्री-आफिस से,कोई पत्नी-परिवार से, तो कोई दुनिया-जहाँ से. भागने का सुख अपार है तो दुःख भी कुछ कम नहीं( दुःख तभी जब भागते हुए पकडे जाएँ). मेरे एक मित्र ने अपने एक भगोड़े अफसर की सच्ची कहानी के कुछ सुपर कारनामे बताये तो सुनकर मैं दंग रह गया. प्रस्तुत है-उस निगोड़े-भगोड़े अफसर की सच्ची कहानी- मित्र की जुबानी.

बड़े कड़क किस्म के अफसर थे डाक्टर सिन्हा.(होम्योपेथी के डाक्टर थे) तीन शिफ्टों में ड्यूटी करते थे हम- ‘ए’ शिफ्ट( सुबह छः बजे से दोपहर दो बजे तक), ‘बी’ शिफ्ट(दोपहर दो बजे से रात दस बजे तक) और ‘नाईट शिफ्ट ‘ (रात दस बजे से सुबह छ्ह बजे तक). सिन्हा साहब भी हमारे साथ शिफ्ट ड्यूटी करते. छुट्टी के मामले में बड़े ‘ किच्चक ‘ थे वो.ब्रिगेड का कोई लड़का कभी छुट्टी मांगता या समय से पहले जाना चाहता तो छुट्टी की जगह अक्सर लेक्चर ही देता. बड़े प्यार से कहता- ‘ देखो बेटा, भागना बुरी बात है.. आज काम से भागोगे, कल परिवार से, नाते-रिश्तेदार से..फिर संसार से....भागना- विनाश की ओर जाना है...आज तुम्हे छोड़ दूँगा तो कल कोई दूसरा भागेगा...फिर तीसरा...चौथा...सबके सब भागोगे तो काम का क्या होगा? कंपनी का क्या होगा? कंपनी डूब जायेगी तो तनख्वाह कैसे मिलेगी? तनख्वाह न मिली तो परिवार कैसे चलेगा? भागने का ख्याल मन से बिलकुल निकाल दो बेटा, दोबारा मत आना...जाओ अपना काम करो...’

हर छुट्टी मांगने वाले को वह यही नसीहत देता. पूरा ब्रिगेड उससे खार खाए बैठा था, भागने का कार्यक्रम पूरी तरह बंद जो था. सभी मौके की तलाश में थे कि कब ऊंट पहाड के नीचे आये धीरे-धीरे ब्रिगेड के मित्रों ने उनकी पल-पल की गतिविधियों पर नजर रखनी शुरू की. ‘ए’ शिफ्ट और ‘नाईट शिफ्ट ‘ में तो वे पूरे शबाब के साथ पूरे समय नजर आते पर ‘बी’ शिफ्ट में वे संदिग्ध दिखते. शाम चार बजे से रात नौ बजे तक अक्सर वे गायब मिलते. दोपहर दो बजे बिलकुल टाईम से पहुचते. दो घंटे इधर-उधर घूमकर जल्दी-जल्दी काम निपटाते और चार बजते तक छूमंतर हो जाते. ब्रिगेड को बताते जाते कि अमुक जगह पर चल रहे काम को देखने जा रहे या फिर कभी कहते- पुराने विभाग के दोस्तों से मिलने जा रहे हैं.

शुरू-शुरू में किसी ने ध्यान नहीं दिया. उनका टिफिन का डिब्बा और एक अदद पढ़ने का चश्मा टेबल पर उनकी उपस्तिथि दर्ज कराते पड़ा रहता. यह क्रम जब कुछ अनवरत-सा हुआ तो एक दिन ब्रिगेड के कुछ जांबाजों( बदमाशों ) ने हिम्मत कर उस टिफिन-बाक्स को खोल ही डाला..देखा तो चकित रह गए....अंदर का स्टील-वाला भाग दर्पण की तरह चमचमाता दिखा, जैसे अभी-अभी ख़रीदा हो. संदेह पुख्ता हो गया. तीन-चार दिनों तक लगातार टिफिन-बाक्स खोल देखते रहे...अंदर का स्टील-वाला भाग हर बार चमचमाता रहा. सब जान गए कि टेबल पर रखा टिफिन ‘ डमी ‘ है और चश्मा भी ‘ डमी ‘ है. ओरिजनल टिफिन को वह स्कूटर की डिक्की में रखता और ओरिजनल चश्मे को सफारी के जेब में. रात नौ-साढ़े- नौ के आसपास डमी टिफिन और चश्मे को आलमारी में बंद कर फुर्र हो जाता. फिर दूसरे दिन लंच के बाद, तीन बजे के आसपास चुपके से ‘ डमी ‘टिफिन और चश्मे को टेबल पर ‘फ्लावर-पाट’ की तरह सजा देता ताकि मातहतों को लगे कि साहब यहीं कहीं आसपास ही है.

पूरा ब्रिगेड उससे नाराज था , सभी चिढे थे उनसे. एक दिन ब्रिगेड के दो उस्तादों ने तय किया कि आज इनका पीछा कर,इनकी ‘वाट’ लगायी जाए. चार बजे के आसपास जैसे ही वे अपनी स्कूटर निकाल बोले कि पुराने विभाग के दोस्तों से मिलने जा रहा हूँ- दोनों ने अपनी स्कूटर उनके स्कूटर के पीछे लगा दी...और लगे पीछा करने. सिन्हा साहब अपनी धुन में सीधे मेनगेट पहुंचे और बाहर निकल फुर्र हो गए. दोनों जांबाज चकित हुए..लेकिन पीछा कर भांडा तो फोडना ही था..सो पीछे-पीछे चलते गए. थोड़ी देर में देखा- साहब अपने कंपनी- क्वार्टर में दाखिल हो रहे हैं. दरवाजे से लगा एक अतिरिक्त कमरा और था जिसमे डाक्टरों-वाला ‘ प्लस ‘ का बोर्ड टंगा था. कमरे का दरवाजा अधखुला-सा था. अंदर दो-तीन लोग बैठे थे. थोड़ी दूर में स्कूटर खड़ी कर दोनों सोचने लगे कि अब आगे क्या करें? फिर देखा- साहब बगलवाले गैरेजनुमा अस्पताली कमरे में दाखिल हो रहे हैं. तुरंत रणनीति बनी कि दोनों में से एक ‘ पेशेंट ‘ बने और दूसरा ‘ अटेंडेंट ‘. दोनों इंतजार करते खड़े रहे कि अंदर के पेशेंट बाहर आयें तो वे अंदर

जाएँ. लगभग घंटे भर बाद जब इत्मीनान हो गया कि अंदर अब कोई नहीं , दोनों सपाटे के साथ दाखिल हो गए. देखते ही सिन्हा साहब चौंके-‘ तुम लोग... तुम लोग यहाँ कैसे आये? तुम दोनों को तो अभी प्लांट में होना था..’ अटेंडेंट बने कर्मी ने मन ही मन कहा-साले...प्लांट में तो तुझे भी होना था..धीरे से जवाब दिया- ‘ बहुत सीरियस केस है साहब..एकाएक इसके पेट में असहनीय दर्द उठा...आपको ढूंढे, आप नहीं मिले..आपके पुराने विभाग भी गए...मालूम हुआ, वहाँ तो आप महीनों से नहीं आये... दर्द बढ़ता ही जा रहा था..मेनगेट खुला दिखा तो सोचा- बाहर किसी को दिखा देंगे...इधर से गुजर रहे थे कि आपके क्वार्टर का दरवाजा खुला दिखा ...सोचा कि सौभाग्य से कहीं आप घर पर हों तो आपको ही दिखा दें....इसलिए चले आये..’

‘ठीक है... ठीक है...चलो, इसे बेंच में लिटा दो...देखता हूँ...वो क्या है ना.. आज सुबह तुम्हारी भाभी की तबियत ठीक नहीं थी..इसलिए देखने आ गया था..’

अटेंडेंट बने दोस्त ने अँधेरे में तीर फेंका, बोला- ‘ डाक्टर साहब...मेरा एक दोस्त राहुल आपके पीछे वाली स्ट्रीट में रहता है,..वो तो कहता है ,अक्सर इस समय आप यहीं होते हैं....’इतना सुनना भर था कि उनका रंग उड़ गया...बात को अनसुनी कर..बहुत ही बेमन और बेदर्दी से उस पेशेंट दोस्त के पेट को पिचकता रहा, पूछता रहा- क्या खाए हो? कब खाए हो? कहाँ खाए हो? गनीमत कि ये नहीं पूछा -क्यों खाए हो? फिर साबूदाने की( होम्योपेथी की) कुछ गोलियाँ उसके मुहं में उंडेल दी और उसे उठ जाने को कहा. दोनों को सामने की कुर्सी पर प्रेम से बिठाया और अपनी आवाज में शहद घोलते कहा- ‘देखो बेटे...मैं कोई तुम्हारा दुश्मन नहीं हूँ... तुम ही लोग तो मेरे अपने हो....मेरे दिल के एकदम करीब...कभी प्लांट से बाहर जाना हो तो चुपचाप मुझे बताकर चल दिया करो...पर वन-बाई-वन...एक दिन तुम....तो एक दिन तुम...लेकिन ब्रिगेड के किसी भी कर्मी से इस बात का जिक्र मत करना...इसी शर्त पर भागने दूँगा..’

अंधा क्या मांगे-दो आँख..दोनों दोस्त गदगद हो, खुशी से झूमते जाने लगे तो साहब बोले- ‘ अरे भई..फीस तो देते जाओ...घोडा घास से यारी करेगा तो खायेगा क्या? ‘ अटेंडेंट बने गधे ने बड़े बेमन से उस घोड़े को बीस का नोट थमाया.

थोड़े ही दिनों में एक नया तमाशा शुरू हो गया....दोनों दोस्त वन-बाई-वन भागने लगे. ब्रिगेड के बाक़ी लोग ...हैरान...परेशांन...माजरा समझने एक दिन सभी ने उन दोनों को खूब चमकाया और सीधे जी.एम्. को बताने की बात कही तो दोनों ने पूरी घटना की उलटी कर दी . कुछ लोगों ने त्वरित गति से पूरी घटना की जानकारी जी.एम् साहब को दे भी दी. सुनकर वे बौखला गए, पूछा- रोज भागकर सिन्हाजी करते क्या हैं? एक ने तुरंत जवाब दिया- ‘ साबूदाना बेचते हैं सर...’ जी.एम्. चौंके- ‘ साबूदाना....व्हाट साबूदाना..? तब कर्मियों ने बताया कि वे होम्योपेथी के डाक्टर हैं..

शिकायत की तस्दीक करने तीन-चार दिन जी.एम् साहब उसी समय वहाँ पहुँचते जब डाक्टर साहब नहीं होते . चौथे ही दिन उन्हें उनके भगोड़े होने का पूरा विश्वास हो गया.

एक दिन जी.एम् साहब ने ब्रिगेड के सभी साथियों को डाक्टर सिन्हा के आफिस में रात नौ बजे इकट्ठे होने का आदेश दिया और ठीक नौ बजे वे स्वयं वहाँ पहुँच, उनकी कुर्सी पर बैठ गए. पांच मिनट बाद ही डाक्टर सिन्हा कुछ गुनगुनाते- गुनगुनाते आफिस में घुसे तो कुर्सी पर जी.एम् को बैठे देख सकपका गए... कुछ बोल पाते कि उसके पहले ही जी.एम् साहब उबल पड़े-‘ तीन घंटों से यहाँ बैठा हूँ...आपके इंतजार में...कहाँ थे आप अब तक?’ ब्रिगेड के सारे लोगों को देख उनकी बोलती बंद हो गयी....फिर धीरे से फुसफुसाया-‘ यहीं तो था सर...देखिये न...मेरा टिफिन , चश्मा..सब यहीं रखा है..’ इतना बोलना भर था कि जी.एम् साहब चीख पड़े- ‘ ये टिफिन- चश्मा वाली सब कहानी .मालूम है.. मत सुनाओ मुझे.. शर्म आनी चाहिए आपको...आपसे लाख दर्जे अच्छे तो ये नान-एक्स हैं जो जी-जान से काम करते हैं..कभी इधर-उधर नहीं भागते और आप अफसर होकर टुच्चा काम करते हैं? भगोड़े आदमी मुझे कतई पसंद नहीं..कल सुबह तक आपको ट्रांसफर आर्डर मिल जायेगा.. उठाईये अपना ये टिफिन- चश्मा..और दफा हो जाईये..’

एक सन्नाटा-सा पसर गया आफिस में. चुपचाप वे टिफिन- चश्मा बटोरने लगे. ब्रिगेड के सारे लोग उनके ‘ बे-आबरू होकर तेरे कूचे से...’वाली सूरत देख अंदर ही अंदर गदगद हो रहे थे.

दूसरे दिन उनका ट्रांसफर एक ऐसे विभाग में हो गया जिसका नाम सुन कई विभाग दूर भागते हैं. टोटल चार लोगों का स्टाफ था वहाँ. महीने भर बाद वही दोनों दोस्त (पेशेंट- अटेंडेंट) नई स्तिथि-परिस्तिथि का जायजा लेने उनके विभाग में गए तो देखा-फिर वही डमी टिफिन और चश्मा..उनके टेबल पर पसरा मुस्कुरा रहा था. वहीँ के एक चपरासीनुमा अफसर से उनके विषय में पूछा तो मालूम हुआ-‘ पुराने विभाग के मित्रों से मिलने गए हैं ‘ सुनकर दोनों अपनी हंसीं रोक नहीं पाए....उलटे पांव लौटे और घंटों पागलों की तरह हँसते रहे

दोस्त की कहानी के चक्कर में भूल रहा हूँ कि आज बुधवार है...आज मेरी बारी है....अब ये मत पूछिए कि भागकर मैं क्या करता हूँ....हाँ..इतना निश्चित मानिये- मैं साबूदाना नहीं बेचता... मैं साबूदाना नहीं बेचता....