निजता की रक्षा का महान निर्णय / जयप्रकाश चौकसे

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निजता की रक्षा का महान निर्णय
प्रकाशन तिथि :31 अगस्त 2017

राजकुमार अपनी विशिष्ट संवाद अदायगी के लिए जाने जाते थे। हिंदुस्तानी फिल्मों में विजुअल से अधिक महत्व ध्वनि को दिया गया। परदे पर प्रस्तुत डायलॉगबाजी से दर्शक खुश होते हैं। इस तरह नाटक का प्रभाव सिनेमा पर आज भी जारी है। नाना पाटेकर भी अपनी संवाद अदायगी के लिए लोकप्रिय रहे हैं। सच तो यह है कि विशुद्ध शास्त्रीय सिनेमा में संवाद की आवश्यकता ही नहीं होनी चाहिए। हम बहुत वाचाल लोग हैं। हमारे यहां तो ध्वनि को ब्रह्म माना गया है। राजकुमार को अपनी निजता की रक्षा करना बखूबी आता था। उनके आदेश पर ही उनके परिवार ने उनकी शव-यात्रा की सूचना भी किसी को नहीं दी! अपनी निजता की रक्षा के प्रति वे अत्यंत सजग थे, जिस कारण उन्हें घमंडी समझा गया। हमारे यहां मेलजोल और संपर्क बनाए रखने को महत्वपूर्ण माना जाता है। निजता, तन्हाई और अकेलेपन के महत्व को स्वीकार नहीं किया जाता।

सामान्य जीवन में हम प्राय: बिना अनुमति लिए किसी के भी कक्ष में प्रवेश कर जाते हैं। अनौपचारिकता को हमने रिश्ते की नज़दीकी का प्रतीक बना दिया है। निजता की रक्षा को मनुष्य के जन्मना स्वाभाविक अधिकार के रूप में मानते हुए सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में फैसला दिया है, जिससे सरकार की बड़ी किरकिरी हुई है, क्योंकि वे स्वतंत्र विचार को ही पसंद नहीं करते। प्राय: राजनीतिक दल उस सदस्य को अलग-थलग कर देते हैं, जो अपने विवेक पर निर्भर होना चाहता है और राजनीतिक दल केवल भेड़ियाधसान को महत्व देते हैं। विविधता एवं सिंथेसिस को मटियामेट करने के प्रयास हो रहे हैं।

दरअसल, एकांत वह आईना है, जिसमें मनुष्य अपने अवचेतन को देख सके। संसार में सबसे बड़ी दूरी यही है कि व्यक्ति स्वयं के निकटतम नहीं पाता। 'आत्मानं : विदी' हमारा अपना मौलिक विचार है परंतु हम स्वयं को जान नहीं पाते। हर व्यक्ति अपने लिए एक छवि का निर्माण करता है और फिर उसके अनुरूप आचरण करता हुआ स्वयं से दूर हो जाता है।

कबीर जब कहते हैं कि 'घूंघट के पट खोल तोहे पिया मिलेंगे' तो इसका अर्थ है कि मनुष्य स्वयं की आंख पर अपनी धन संपत्ति, मान-मर्यादा, अपनी छवि के अनुरूप आचरण इत्यादि के घूंघट डाले बैठा है। सत्य को किसी घूंघट या आवरण की आवश्यकता नहीं, वह तो निर्वस्त्र हमारे सामने खड़ा रहता है। हम अपने आप को अनेक घूंघटों से ढंके बैठे हैं, इसलिए वह नज़र नहीं आता। इसी विषय पर राजकपूर 'घूंघट के पट खोल' नामक फिल्म बनाना चाहते थे और उन्होंने मनोहर श्याम जोशी से इस पर लंबी बातचीत भी की थी।

उस सृजन बैठक में रवीन्द्र जैन भी मौजूद थे और उन्होंने त्वरित कहा था, 'गुण-अवगुण का डर भय कैसा, जाहिर हो भीतर तू है जैसा'। इस बैठक के चंद महीने बाद ही राज कपूर का देहांत हो गया और उनके साथ कई अलिखित पटकथाएं भी काल कवलित हो गईं।

इसी तरह गुरुदत्त भी 'अलीबाबा और चालीस चोर' नामक फिल्म बनाना चाहते थे, परंतु उनकी मृत्यु के साथ भी कई फिल्म कहानियां मर गईं। 'प्यासा' और 'कागज के फूल' जैसी सोद्‌देश्य गंभीर फिल्में बनाने वाला व्यक्ति अलीबाबा की फंतासी बनाना चाहता था, जिसे उसका पलायन नहीं माना जा सकता। यह संभव है कि वे इस फंतासी के माध्यम से देश के चालीस चोरों के मुखौटे नोचना चाहते हों। क्या उन्होंने अलीबाबा की तरह हुक्मरान की पूर्व कल्पना कर ली थी। सृजनशील लोग पानी की उत्तंग लहर में भूत, भविष्य व वर्तमान को एक ही क्षण में मौजूद होने को देख लेते हैं। भूत, वर्तमान एवं भविष्य के समय विभाजन हमारी सुविधा के लिए हमने रचे हैं, समय तो पानी की तरह सतत प्रवाहित रहता है।

राजकुमार की तरह निजता की रक्षा करने वाले लोग प्राय: नापसंद किए जाते हैं, जबकि निजता की कोख से साहित्य व कला संसार में अनेक कृतियों का जन्म हुआ है। यह भी सच है कि शैलेन्द्र जैसे लोग भी हुए हैं जो हजारों की भीड़ में भी सृजन कर लेते थे। जब राज कपूर ने उन्हें अपना 'जोकर' आकल्पन सुनाया और फिर कुछ समय के लिए वे बाहर गए तो शैलेन्द्र ने कागज खोजने का प्रयास किया। कागज नहीं मिलने पर अपने सिगरेट के खाली खोखे पर उन्होंने लिख दिया 'जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां'। राज कपूर जब लौटे तो उन्होंने यह लिखा हुआ देखा। शैलेन्द्र उठकर जा चुके थे।

गौरतलब यह है कि निजता की रक्षा का सीधा संबंध मनुष्य के आनंद से जोड़ा जाता है। अत: निजता को सीमित करने के तानाशाही प्रयास जीवन से आनंद का ही लोप करना चाहते हैं। इसी विचार का शिखर यह है कि निजता आध्यात्मिकता की अनिवार्य शर्त है। साधक नितांत अकेला बैठकर अपने भीतर यात्रा करता है। हमारे किसी भी प्राचीन ग्रंथ में यह नहीं कहा गया है कि सैकड़ों लोग एक साथ बैठकर ध्यान करें। सामूहिक योग प्रदर्शन भी राजनीतिक उद्‌देश्य से आयोजित कार्यक्रम होते हैं। मनुष्य के विचार, भीतर की यात्रा, आत्मा के ताप का हवन इत्यादि क्षेत्र सरकारी नियंत्रण एवं अंकुश के बाहर ही होना चाहिए।