निदा फाज़ली कबीर परम्परा के हीरे / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :09 फरवरी 2016
निदा फाज़ली की मृत्यु से भारतीय साहित्य की महान कबीर परम्परा का एक और किला ढह गया। मध्य प्रदेश के ग्वालियर नगर में पले थे। एक बार उनका पुश्तैनी घर ढह गया और परिवार ने पाकिस्तान जाने का फैसला किया, परन्तु निदा ने जाने से इन्कार कर दिया। वे भारत की मिट्टी से बेहद प्रेम करते थे और गुजश्ता वर्षों में समाज में व्याप्त असहिष्णुता से जरा भी विचलित नहीं थे। उनका विश्वास था कि यह दौर भारतीय समाज का 'स्थायी' नहीं है और गुजर जाएगा। उनका ठेठ भारतीयपन उनकी शायरी में भी मुखर हुआ है।
जब 1977 में मैंने निदा फाज़ली को अपनी चार फिल्मों में गीत लिखने के लिए अनुबंधित किया, तब संगीतकार राहुल देव बर्मन को नए गीतकार के साथ काम करने में संकोच हो रहा था। मेरे आग्रह पर राहुल ने एक मुश्किल बंदिश हारमोनियम पर प्रस्तुत की और निदा फाज़ली से बोले कि आप इसे टेप कर लें और कल कुछ तैयारी के साथ आएं। निदा फाज़ली ने विनम्रता से कहा कि उनके पास टेप रिकॉर्डर नहीं है और उन्होंने बहर पकड़ ली है। उन्होंने कहा कि इस बहर पर में ये बोल सकते हैं 'तेरे लिए पलकों की झालर बुनूं, जुल्फों में गजरे सा बांधा फिरूं, धूप लगे वहां छाया बनूं'। राहुल ने बोलों को हारमोनियम पर धुन के साथ साधा और अत्यंत प्रसन्न हुए। उस गीत की रिकॉर्डिंग से समय भी लता मंगेशकर ने गीतकार से मिलना चाहा और उन्हें खूब आशीर्वाद भी दिया। निदा फाज़ली ने इसके बाद अनेक फिल्मों में गीत लिखे। उनका पहला गीत रजिया सुल्तान के लिए था, परन्तु फिल्म में केवल मुखड़ा इस्तेमाल हुआ। मेरी फिल्म 'शायद' में एक गीत स्थिति ऐसी थी कि शराब पीने से होने वाली हानि की बात कहते हुए भी शराब बंदी की बात नहीं करनी थी। सारा दिन प्रयास हुआ और शाम को बैठक छोड़ते समय निदा फाज़ली ने कहा, दिन भर धूप का पर्बत काटा, शाम को पीने निकले हम, जिन गलियों में मौत बिछी थी, उनमें जीने निकले हम'। इस गीत की धुन मानस चक्रवर्ती ने बनाई है और गाया महान मन्ना डे ने है। इसी तरह 'वापसी' एक भारत-पाक फिल्म थी, उसके लिए निदा साहब ने लिखा था 'यह पत्थर कंकर की दुनिया जज़्बात की कीमत क्या जाने, दिल मंदिर भी है, मस्जिद भी है, यह बात सियासत क्या जाने, आजाद न तू, आजाद न मैं, जंजीर बदलती रहती है, दीवार वही है बस तस्वीर बदलती रहती है।'
निदा फाज़ली शायर से भी बेहतर एक इंसान थे। एक बार मुझे मुंबई में कुछ दिन रहना था, तो उन्होंने मुझे अपना फ्लैट दिया और यह पूछे जाने पर कि वे कहां रहेंगे, उन्होंने कहा जहां उनकी इतनी उम्र कटी है। उन्हें देर रात सड़कों पर घूमने का शौक था। प्रसिद्ध गजल गायक जगजीत सिंह के प्रायवेट एलबम के लिए लिखा था 'जीवन में जादू का खिलौना है, मिल जाए तो मिट्टी है, खो जाए तो सोना है'। उन्होंने गुलाम अली साहब के लिए भी खूब लिखा है।
दरअसल, निदा फाज़ली एक जन्मना खाना बदोश थे और वे जानते थे कि कोई सराय घर नहीं होती। उनके सामने कभी हिन्दू-उर्दे विवाद नहीं थे। उनकी सादगी के साथ ही उनमें जीवन की विषम परिस्थितियों पर हंसने का माद्दा कमाल का था। एक बार मित्रों की महफिल में निदा फाज़ली ने यूं ही कहा कि कड़की के इन दिनों में, रात में ख्वाब वे चौपाटी पर खड़े मूंगफली खा रहे थे। उनके मित्र ने कहा कि कड़के शायर कम से कम सपने में तो काजू खाया करो। निदा फाज़ली ने संजीदगी से कहा कि सपने में काजू बादाम खायी जा सकती है, परन्तु उसे पचाना कठिन है। निदा फाज़ली ने अपने फाकाकशी के दिन भी खूब ठहाका लगाते गुजारे हैं। यही उनकी जीवन शैली। उनके जीवन में उन्होंने अपने मूल्य कभी नहीं खोए। जिस महिला से प्यार किया, उसकी शादी कहीं और हो गई। वर्षों बाद उसी महिला के अपने यातना कक्ष से गुजरने के बाद निदा फाज़ली ने उससे विवाह किया। वे जानते थे कि इंतजार अपने आप में एक संपूर्ण कार्य है। निदा फाज़ली की शायरी के अदृश्य सेतु पर भारत और पाकिस्तान की समान संस्कृति अपने उदात्त रूप में उजागर होती है और इस इंद्रधनुष को कोई संकीर्णता छू भी नहीं सकती। उन्होंने पिता की मृत्यु पर कुछ इस आशय की पंक्तियां लिखी थी कि कोई पिता कभी मरता नहीं, वह अपनी संतान की सांसों में जीवित रहता है। निदा साहब अपनी पुत्री के साथ ही अपने असंख् चाहने वालों की सांसों में जीवित रहेंगे।