नियंत्रित करने की इच्छा और दुःख / कमलेश कमल

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अगर सामान्य जीवन में मिलने वाले दुःखों के प्रमुख कारणों को एक पाई चार्ट पर दर्शाया जाए, तो नियंत्रित करने की इच्छा औए उसमें असफ़लता से प्राप्त दुःख, वृत्त का सबसे बड़ा खण्ड होगा।

नियंत्रण करने की प्रवृत्ति मानव मन के साथ आरम्भ से ही अनुस्यूत है। एक छोटा बच्चा भी जब किसी खिलौने को मनमाफ़िक तरीक़े से चला नहीं पाता है, या गली में घूम रहे किसी कुत्ते के पिल्ले को पकड़ नहीं पाता है, तो पहले दुःखी और विकल होकर झल्लाता है और फिर रो पड़ता है। यह नियंत्रण न कर पाने की असफलता से प्राप्त दुःख है।

नियंत्रण की चाह वर्चस्व की चाह है। इच्छाशक्ति के प्रदर्शन और श्रेष्ठता बोध के परिणति की चाह है, जीत की चाह है। हम जिसपर नियंत्रण पा लेते हैं, उससे जीत जाते हैं। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि इस इच्छा से मानव जाति का बहुत भला भी हुआ है। अन्य जानवरों की तुलना में आदिमानव में नियंत्रण की चाह अधिक थी, तभी उसने प्रकृति पर नियंत्रण करने की कोशिश की और आग, पहिया, औजार, खेती आदि अपने लिए खोज़ सका या आविष्कार कर जुटा सका। हालाँकि, इसी मानसिक वृत्ति ने मनुष्य को अशांत भी किया है।

प्रकृति पर जितना थोड़ा नियंत्रण आदिमानव आरंभिक रूप में कर सका, वह उसकी स्मृति में रच-बस गया और उसे यह ख़ुशफ़हमी या ग़लतफ़हमी हो गई कि वह बहुत कुछ नियंत्रित कर सकता है, यहाँ तक कि दूसरे इंसानों को भी। इस क्रम में वह दो मूलभूत तथ्य को नज़रअंदाज़ कर गया-

1. प्रकृति पर वह जितना नियंत्रण कर सका, वह बहुत थोड़ा है...लगभग उतना ही जितना कि एक माँ अपने बच्चे के साथ खेलते हुए जान-बूझकर हार जाती है कि बच्चा खेलना सीखे, जूझना सीखे।

2. जैसा उसे लगता है कि वह नियंत्रण कर सकता है, वैसा दूसरे आदमियों को भी लगता है; क्योंकि वे भी विकास की उसी प्रक्रिया से गुज़रकर यहाँ तक पहुँचे हैं।

इन दो तथ्यों को न समझ पाने के कारण आज का मानव बहुत बेचैन है, बहुत दुःखी है। वह बहुत कुछ नियंत्रित करना चाहता है, पर कर नहीं पाता है। इस कारण वह पहले से ज़्यादा विकल या दुःखी है, जबकि उसके पास सुविधाएँ पहले से ज़्यादा हैं।

ग़ौर से देखें, तो अनजाने ही मानवीय सभ्यता ने किसी भी मानव की सफलता का पैमाना इसको बना दिया कि वह कितनों को नियंत्रित करता है और किस हद तक करता है। विद्यालय में शिक्षक बच्चों को नियंत्रित करते हैं, पर प्रधानाध्यापक बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों को भी नियंत्रित करते हैं-इसलिए प्रधानाध्यापक ज़्यादा शक्तिशाली और ज़्यादा सफल हुए। यही कारण है कि सभी शिक्षक प्रधानाध्यापक बनना चाहते हैं।

एक ग्रामप्रधान, एक तहसीलदार, एक कलेक्टर, एक कमिश्नर, एक मुख्यमंत्री और एक प्रधानमंत्री में क्या मौलिक अंतर है? इसका सीधा और स्पष्ट उत्तर है कि क्रमिक रूप से ये ज़्यादा बड़े क्षेत्र और ज़्यादा लोगों को नियंत्रित करते हैं।

सामान्यतः देखें, तो भौतिक जीवन में व्यक्ति की सारी दौड़ अधिकाधिक नियंत्रण पा लेने की दौड़ है-राज्य के नियंत्रण से बढ़कर देश का नियंत्रण पा लेने की होड़ है।

अब अगर गहराई में उतरकर चिंतन करें कि मनुष्य सही मायने में कितना नियंत्रण कर सकता है? सच तो यह है कि बहुत थोड़ा ही है, जिसे व्यक्ति नियंत्रित कर सकता है और इसे वह जितनी ज़ल्दी स्वीकार कर ले, उतना ही कम दुःखी रहेगा। अगर नियंत्रण कभी सफल भी रहता है, तो सूक्ष्म नियंत्रण और अल्प समय का नियंत्रण।

एक कहानी है कि किसी चौराहे पर एक-एक लाल हेट पहना व्यक्ति प्रतिदिन आता और अपने हेट को एक हाथ में लेकर बेतरतीब रूप से हिलाना शुरू करता। ऐसा वह पाँच मिनट करता और फिर छूमन्तर हो जाता। एक दिन एक पुलिसवाले ने उसे पकड़ लिया और पूछा कि वह ऐसा क्यों करता है। उस व्यक्ति ने कहा कि ऐसा कर वह जिराफ़ को शहर से दूर रखता है। "लेकिन, यहाँ तो कोई जिराफ़ नहीं है।"-पुलिसवाले ने कहा।

"इसका मतलब मैं एक नेक काम कर पा रहा हूँ।"-उस व्यक्ति ने कहा।

ग़ौर से देखें, तो नियंत्रण की दुर्दमनीय लालसा और कोशिश में रत लोगों की मनोदशा ऐसी ही होती है, उन्हें लगता है कि वे नियंत्रण कर पा रहे हैं, जबकि चीजें उनके बिना ही अपने-आप चल रही होती हैं।

व्यावहारिक अध्ययनों में पता चला है कि जो प्रधानाध्यापक यह समझते हैं कि उनकी मर्ज़ी के बिना विद्यालय में एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, वे ज़्यादा व्यस्त, अस्त-व्यस्त, अलोकप्रिय और संतप्त रहते हैं। इसी तरह किसी कार्यालय का प्रधान, राज्य का या देश का प्रधान जब अपने अंदर सब कुछ नियंत्रित करने की कोशिश करने लगता है, तब उसके विरुद्ध वे सारे खड़े हो जाते हैं जिनके अंदर भी नियंत्रण पाने की उतनी ही होड़ है।

प्रत्येक व्यक्ति विविध वस्तुओं पर और बहुसंख्य व्यक्तियों पर नियंत्रण करना तो चाहता है, पर नियंत्रित होना नहीं चाहता। जब वह दूसरों के बारे में भी इस तथ्य को याद रखता है कि उसे भी नियंत्रण करने की इच्छा होगी, तब अपनी इस इच्छा पर थोड़ा नियंत्रण रखता है, लेकिन जब वह इस तथ्य को भूल जाता है, तब निरंकुश की तरह व्यवहार करने लगता है, ख़ूब नियत्रंण करने का प्रयास करता है और असफल होकर यन्त्रणा पाता है।

नियंत्रण कब प्रभावी होता है? सबसे असली और प्रभावी नियंत्रण वह है, जो सूक्ष्म होता है। मंदिर, मस्जिद, चर्च, गुरुद्वारे व्यक्ति को सूक्ष्म रूप से नियंत्रित करते हैं। विद्यालय बच्चों को सूक्ष्म रूप में नियंत्रित करते हैं; क्योंकि सबको पता होता है कि यह बच्चों के भले के लिए है। पुलिस स्थूल रूप से नियंत्रित करती है, प्रत्युत् बैंक सूक्ष्म रूप में नियंत्रित करता है। तलवारें स्थूल रूप से नियंत्रित करती हैं, पर वाणिज्य सूक्ष्म रूप से नियंत्रित करता है। ग़ौर से देखें, तो कोई भी क्षेत्र हो, सूक्ष्म नियंत्रण ज़्यादा टिकाऊ और प्रभावी होता है; क्योंकि जो नियंत्रित किए जाते हैं, उनके स्वत्व और स्वाभिमान पर ठेस नहीं लगती।

तथ्यात्मक रूप में देखें, तो जब यह दिख जाता है कि कोई उन्हें नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा है, तब लोग उसका विरोध करने लगते हैं। जब कोई राजनेता, कोई मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री हाथ जोड़कर वोट माँगते हैं, तब वे दरअसल सूक्ष्म रूप से नियंत्रण माँग रहे होते हैं, अधिकार की याचना कर रहे होते हैं। जीतने के उपरांत भी इनका नियंत्रण सूक्ष्म रहे, तो कोई कुछ नहीं कहता, पर जैसे ही कुछ थोपा हुआ लगता है या आवाज़ ही बदली हुई लगती है, जनता समझ जाती है कि उसे नियंत्रित किया जा रहा है। ऐसे में जनता दुःखी हो जाती है, विरोध करने लगती है, प्रतिवाद करने लगती है। इसलिए शासन करने का सर्वोत्तम तरीक़ा वह माना गया है, जिसमें शासित को पता ही न चले कि उस पर शासन किया जा रहा है या उसे नियंत्रित किया जा रहा है।

नियंत्रण का यह नियम परिवार में भी लागू होता है। जो माता-पिता अपने बच्चे को भी सीधे-सीधे नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं, वे असफल हो जाते हैं। जिन बच्चों को ज़्यादा दबाया जाता है, वे ज़्यादा विद्रोही हो जाते हैं, विध्वंसक हो जाते हैं। इसका क्या कारण है? मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि जब बच्चा बड़ा हो रहा होता है, तब अपने अंदर अहं के स्फुरण को महसूस करता है। ऐसे में वह इसे आजमा कर देख लेना चाहता है कि वह कितना महत्त्वपूर्ण है, कितना मज़बूत है और स्वयं कितना कुछ नियंत्रित कर सकता है।

समझदार अभिभावक बच्चे की इस इच्छा पर, अहं के इस स्फुरण पर कभी भी सीधे-सीधे चोट नहीं करते। वे प्रेम के आवरण में और उनके प्रति अपनी चिंता दिखाते हुए उनसे वह करवा लेते हैं, जो वे चाहते हैं। वे यह दिखाना कभी नहीं भूलते कि उनके लिए भी महत्त्वपूर्ण बच्चे ही हैं, वे स्वयं नहीं। उनका तो जीवन ही बच्चों को ख़ुश देखने और आगे बढ़ते देखने के लिए है। यही सूक्ष्म नियंत्रण की विधि है, जो काम कर जाती है। इससे बच्चे का अहं नहीं टकराता, उसकी महत्ता बनी हुई रहती है। इसका प्रभाव यह होता है कि आदरवश और प्रेमवश वह अभिभावकों के पाँव भी छू लेता है और सूक्ष्म रूप से नियंत्रित भी हो जाता है।

यह एक महीन मनोवैज्ञानिक विधि है, जो अत्यंत प्रभावशाली है। चालाक अभिभावक जब देख लेते हैं कि बच्चे में भी नियंत्रण की उतनी ही चाह है, तो उसका उपाय भी कर लेते हैं। कार किस रंग की आएगी, पापा कौन-सा मोबाइल खरीदेंगे, इसका नियंत्रण तो जवान होते बेटे या बेटी के हाथ में ही होता है।

पति-पत्नी को ज़िंदगी की दुपहिया गाड़ी के दो पहियों के समान माना गया है, पर व्यावहारिक रूप में एक पहिए के पास ही हैंडल भी होता है। यह हैंडल किसके पास है, यह इतनी ज़ल्दी पता नहीं चलता। हो सकता है कि पति अर्थोपार्जन करता हो और पत्नी घर सँभालती हो। ऐसे में यह निष्कर्ष निकालना कि पति रूपी पहिए के पास ही हैंडल है और वही नियंत्रित करता है, असत्य और अयथार्थ होगा, पारिवारिक पारिस्थितिकी का भ्रांत परिचय होगा। तथ्य यह है कि लंबे समय तक हैंडल उसके पास ही रहेगा, जो सूक्ष्म रूप से नियंत्रण करने में सफल हो।

आमजनों के बीच ऐसा माना जाता है कि शादी के बाद पति-पत्नी में वर्चस्व की एक सूक्ष्म लड़ाई होती है। जो इसे जीत जाए, नियंत्रण उसी का होता है, चाहे बाहरी तौर पर कुछ भी दिखे। इस संदर्भ में पहली बात तो यह है कि प्रेम ही परिवार का सर्वप्रमुख संचालक और नियंत्रक होता है फिर भी मानवीय स्वभाव के अनुसार नियंत्रण की कोशिशें चलती रहती हैं।

देखा जाता है कि चालक पति या पत्नी कभी-कभी अनजाने में भी इस सूक्ष्म नियत्रंण के खेल में गहराई में उतर जाते हैं, यह खेल कभी भंग न हो इसका उपाय भी कर लेते हैं और नियंत्रण का परिक्षेत्र बाँट लेते हैं। पैसे का नियंत्रण एक के पास, तो सामान क्या आएगा इसका नियंत्रण दूसरे के पास। पति कौन-सा शर्ट पहने इसका नियंत्रण पत्नी के पास तो सुबह नाश्ता क्या बने,

इसका नियंत्रण पति के पास या ऐसा ही कुछ।

सहचर्यजनित प्रेम और गृहस्थ जीवन के ये रंग प्रेम और सूक्ष्म-नियंत्रण में इतने घुले होते हैं कि इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। बस, एक तथ्य निर्विवाद है कि ज़बरन, स्थूल या पूर्ण नियंत्रण की जहाँ कोशिश होती है, वहीं टकराव होता है और वहीं असफल होने और दुःख पाने का डर होता है।

घर हो या बाहर, नियंत्रण की कोशिश जब दिखती है, तब आक्रामकता और विस्थापित आक्रामकता सामने आती है। अगर सीधा-सीधा विरोध का सामर्थ्य हुआ तो ठीक, अन्यथा आँसू, चुगली, निंदा आदि का सहारा लिया जाता है। ऑफिस के संदर्भ में देखें, तो बॉस की डाँट का सीधे ज़वाब नहीं दिया जा सकता; क्योंकि नौकरी चली जाएगी। ऐसे में पीठ पीछे निंदा और चुगली का सहारा होता है। लेकिन तथ्य है कि निंदा और चुगली की प्रवृत्ति प्रसरणशील होती है, यह प्रसारित, प्रचारित, विकीर्णित होकर लक्षित व्यक्ति तक पहुँच ही जाती है जिसके पश्चात् आपसी वैमनस्य, टकराव और तांडवीय अशांति का जन्म होता है।

परिवार के परिक्षेत्र में इसे एक उदाहरण से देखें-एक पति जो मज़बूत है और परिवार के लिए द्रव्य-उपार्जन करता है, धन कमाता है, पत्नी के मायका जाने को नियंत्रित करने की कोशिश करता है, यह कहकर कि अभी पैसे नहीं हैं, या ऐसा ही कोई बहाना बनाकर। इसकी प्रतिक्रिया में पत्नी उदास होकर और आँसू बहाकर उसके नियंत्रण करने के प्रयास को असफल करने की हर मुमक़िन कोशिश करती है और कई बार असफल कर भी देती है। वह यह तो खुलकर नहीं कहती कि तुम्हारे नियंत्रण को अस्वीकार करती हूँ और चाहे कुछ हो जाए, मायके जाकर रहूँगी, पर अपनी सूक्ष्म युक्ति से पति को झुका देती है।

नियंत्रण के विरोध और प्रतिरोध का एक और भी रास्ता होता है, जिसे विस्थापित आक्रामकता कहा जाता है। कभी-कभी शिक्षक छात्रों पर नियंत्रण की कोशिश में सूक्ष्म से उग्र हो जाते हैं और उनकी पिटाई कर देते हैं। छात्रों को नियंत्रण का यह तरीक़ा पसंद नहीं आता, पर वे बदले में शिक्षक की पिटाई नहीं कर सकते। ऐसे में वे टिफिन टाइम में शिक्षक जिस कुर्सी पर बैठते हैं, उसकी एक टाँग तोड़ देते हैं कि शिक्षक जैसे ही बैठें, धम्म से गिरें।

इसी तरह बॉस कर्मी को डाँटता है। कर्मी घर आकर किसी बात पर पत्नी को डाँट देता है। पत्नी ज़रा-सी बात पर बच्चे की पिटाई कर देती है। बच्चा अपने गुड्डे की टाँग तोड़ देता है। ध्यान से देखें, तो ये दोनों उदाहरण नियंत्रण की कोशिश का प्रतिरोध है, विस्थापित-आक्रामकता है।

निष्कर्षतः कहा जा सकता है कि रिश्ता कोई टीवी या एयरकंडीशनर का रिमोट नहीं होता, जो आप नियंत्रित कर लेंगे। रिश्ता तो हवा, पानी, धूप या बरसात की तरह होता है, जिससे आपको स्वयं निर्वाह करना होता है। ऐसे में, सबसे अच्छा यह है कि आप सब कुछ नियंत्रित कर सकते हैं, यह भ्रम ही छोड़ दें और प्रेमपूर्ण होकर रहें। सूक्ष्म रूप से और प्रेमवश किसी से नियंत्रित हो भी गए और सम्बंध प्रगाढ़ बना रहे, तो फ़ायदा ही है।