नियति / पृथ्वी पाल रैणा

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कहानी: पृथ्वी पाल रैणा

न दिनों सर्दियाँ कुछ ज्यादा ही थी । सुवह चार बजे से ही बर्फबारी आरम्भ हो गई थी। पहले तो रुक-रुक कर हो रही थी लेकिन दस साढ़े दस बजे से लगातार भारी बर्फ गिरने से शाम तक लगभग डेढ़ फुट बर्फ की पर्त जमा हो चुकी थी। सब तरफ सुनसान सन्नाटा पसरा हुआ था। बीच बीच में एक दो बार कड़कड़ाहट के साथ ज़ोर के धमाके की आवाज़ अवश्य सुनाई दी थी, शायद कोई बड़े पेड़ों के गिरने की आवाज़ रही होगी क्योंकि सड़कें तो सारी बंद थी, कोई गाडिय़ाँ भी नहीं चल रही थी बस कोई सिरफिरा ड्राईवर ज़वरदस्ती एक टैम्पोंनुमा गाड़ी को ऊपर चढ़ाने की कोशिश में लगा था, शायद नशे में धुत्त भी था। गाड़ी एक ही जगह खड़ी थी केवल पिछले पहिए ज़ोर से घूम रहे थे जिसकी आवाज़ हो रही थी। दो तीन बार आवाज़ हुई फिर बंद हो गई थी। सुरेश ने सीताराम से बुखारी में एकबार और थोड़े कोयले डालने को कहा तो उसने पूछा- 'सर! चाय बनाऊँ क्या? अभी तो गुप्ता जी भी बैठे हैं। पाँच तो बज चुके हैं लेकिन इतनी बर्फबारी में बाहर निकलना भी तो मुश्किल है।

'हाँ बना लो और गुप्ता जी को भी यहीं बुला लो। इतना कह कर सुरेश खिड़की के पास जाकर खड़ा हो गया और बाहर देखने लगा। ठंडी हवा का तेज़ झोंका आया तो उसके साथ बर्फ के कुछ मोटे मोटे फाहे भी भीतर आगए। सुरेश ने खिड़की बंद कर दी और कुर्सी थोड़ा आगे सरका कर बुखारी के पास आकर बैठ गया। बुखारी काफी गर्म हो चुकी थी और आग की लपटें बुखारी के ढक्कन से बाहर निकलने लगी थी। सीताराम से चाय का गिलास पकड़ते हुए सुरेश ने उससे कहा- 'यह गुप्ता जी कहाँ रह गए, बुलाया नहीं उनको?

'आरहे हैं, सर!* उसने जवाब दिया और दोनों हाथों में चाय का गिलास पकड़ कर बुखारी के पास ज़मीन पर पाँव के भार बैठ गया। तभी गुप्ता जी भी आगए। उन्होंने पहले बाहर झांक कर मौसम का मिजाज परखा फिर चाय का गिलास लेकर बुखारी के पास बैठ गए। गुप्ता जी का पूरा नाम हरिशंकर गुप्ता था और वे मिलनसार और सरल स्वभाव के व्यक्ति थे। फालतू की बहसबाजी और झगड़ापच्ची करना उनकी आदत में नहीं शामिल नहीं था। इसीलिए सब उनकी विशेष इज्जत करते थे और उन्हें 'गुप्ता जी' कह कर ही बुलाते थे। कार्यालय के दैनिक संचालन से संबंधित सभी कार्य जैसे सामान्य रखरखाव विभागीय बैठकों का आयोजन एवं प्रबंधन आदि का जिम्मा उन्हें दिया गया था क्योंकि इन कार्यों में उन्हें महारत हासिल थी। इस काम के लिए शर्मा और भारद्वाज को उनके साथ अटैच किया गया था। भारद्वाज गुप्ता जी का भक्त और उनका पूरा साथ देता था लेकिन शर्मा टरकाऊ किस्म का आदमी था, काम-धाम कोई करना नहीं और इधर उधर की हाँकते रहना उसका काम होता था। सचिवालय में दिनभर तांक झांक करना अफसरों की चमचागिरी करना और इधर उधर की बेसिर पैर की खबरें इकट्ठी कर के आफिस में आकर डींगें हाँकना उसकी आदत थी। जानपहचान रखने और लोगों के चालचलन का व्योरा रखने में उसका कोई मुकावला नहीं था। किसी का फोन नम्बर चाहिए हो या घर का पता चाहिए हो तो लोग उसी से सम्पर्क करते थे। सुबह दस बजे और शाम को पाँच बजे ही केवल उसे दफ्तर में देखा जा सकता था, सुवह उसका काम होता था अपने कामों की सूची बनाकर निकल जाना और शाम को सारे शहर की चटखारे दार खबरों से सबका मनोरंजन करना उसका रुटीन था। इससे बिल्कुल उलट सुरेश एक गम्भीर स्वभाव का आदमी था, अपने काम से काम रखना और किसी फालतू के पचड़े में न पडऩा उसकी खास आदत थी। वह एक पढ़ाकू, बुद्धिमान् और दवंग आदमी था। वह न तो किसी दूसरे के काम में दखल देता था और न अपने काम में किसी की दखनंदाज़ी पसंद करता था। उसे केवल अपने काम में ही मसरूफ देखा जा सकता,कभी किसी दूसरे के साथ गप्पें मारते नहीं। उसका काम टैक्रिकल नेचर का होने के कारण कोई उसमें कोई दखल देता भी नहीं था। उसका अपना अलग स्टाफ था जो हमेशा फील्ड में रहता था बस शाम को कभी कभी अपनी रिपोर्ट देने या किसी प्रकार की समस्या के समाधान के लिए ही कोई आता था। आज गुप्ता जी सुबह से ही अगले हफ्ते होने वाली मीटिंग की तैयारी करने में व्यस्त थे और सुरेश को दो दिन बाद किसी ट्रेनिंग पर दिल्ली जाना था इसलिए देर तक बैठ कर अपना काम निपटाने के लिए अटका हुआ था वरन् यहाँ कोई इतनी देर तक रुकता है भला। सीताराम को तो जब तक साहब लोग चले नहीं जाते रुकना मजबूरी थी। 'सुरेश! दिल्ली कब जारह हो, परसों ?* गुप्ता जी ने बात शुरू करते हुए पूछा। 'गुप्ता जी अगर वर्फवारी का यही हाल रहा तो आप की मीटिंग हो पाएगी क्या?* सुरेश ने जबाव देने के बजाए गुप्ता जी से पूछा। 'यार! मीटिंग हो न हो, कोई आए न आए क्या फर्क पड़ता है अपनी तैयारी तो करके रखनी ही चाहिए* गुप्ता जी ने अपने टिपिकल स्टाईल में जबाव दिया। 'हाँ यह तो है। आज यह आपका भारद्वाज भी नहीं दिखा सारा दिन, कहीं बाहर गया है क्या?* सुरेश ने भारद्वाज के खाली टेबल की ओर देखते हुए गुप्ता जी को पूछा। 'हाँ उसे प्रैस भेजा था सुवह, वह रिपोर्ट की प्रिंटिंग चल रही है तो मैंने कहा जा के देखो कहीं ऐन मौके पर वे कुछ का कुछ कर के भेज देते हैं। सुरेश को अचानक ख्याल आया कि गुप्ता जी ने कु छ पूछा था- 'मैं दिल्ली कब जा रहा हंू यही पूछ रहे थे न आप? मैंने जाना तो परसों ही है बुकिंग भी हो गई है पर इसबार जाने का मन नहीं कर रहा।* 'क्यों, क्या हुआ ?* गुप्ता जी ने पूछा 'सुधीर के देहांत के वारे में सुन कर मन बहुत बेचैन हो रखा है। पता नहीं क्यों अकेले बैठ कर जी भर कर रोने को हो रहा है।पता नहीं उसके साथ क्या हुआ। जब में कुछ समय पहले उन लोगों को मिला था तो वे दोनों एक भयानक सदमें में थे। उन दिनों उनका बेटा नहीं रहा था । उसकी बीवी बहुत ही शरीफ और सीधी-सादी लड़की थी और कुछ डरी-डरी सी सहमी हुई सी लगी थी। उसका क्या हुआ होगा यह सोच कर घबराहट सी होने लगती है। अधूरी सी खबर मिली है यह पता नहीं चल रहा कि यह सब हुआ कहां और कैसे। बस 'आपके दोस्त मेरे बड़े भाई सुधीर नहीं रहेÓ करके लिखा था पोस्ट कार्ड पर उसके भाई ने और यह भी नहीं लिखा कि उसे हुआ क्या था और उसकी बीवी कहाँ है। कोई पता भी नहीं लिखा था।

'यहाँ से जाने के बाद वह शायद एक आध वार ही आया था यहाँ फिर कभी देखा ही नहीं उसे। अब तो कई साल होगए। शरीफ और भले आदमियों के साथ ऐसा हो तो ईश्वर पर से विश्वास उठने लग जाता है* गुप्ता जी ने बात आगे बढ़ाने की कोशिश करते हुए कहा। 'इस आदमी में जितनी दया और इन्सानियत देखने को मिलती थी ऐसी कम ही लोगों में मिलती है। कर्मचंद के साथ जो दुर्घटना घटी थी तो उसने महीना भर ढंग से खाना भी नहीं खाया था। जब देखो उसकी जुबान पर यही बात रहती थी कि उसने उसे काम पर रखा ही क्यों था। उसने पता नहीं कहाँ कहाँ से दस हज़ार रुपये इकट्ठे कर लिए थे उसके परिवार को देने के लिए। वह तो उसकी बहन ने कुछ भी लेने से इन्कार कर दिया था वरना वह तो अभी इसी सोच में पड़ा हुआ था कि कैसे उनकी अधिक से अधिक मदद कर सके।* सुरेश कहता चला जारहा था। 'उसे सरकार से कोई मदद नहीं मिली थी क्या?* गुप्ता जी ने पूछा तो विजय ने बताया कि वह रात को सरकारी ड्यूटी पर था यह सिद्ध नहीं हो सका। उसने कहा- 'दु:ख तो इस बात का है कि कर्मचंद के परिवार की स्थिति बड़ी ही दयनीय थी जिसे ध्यान में रखकर ही सुधीर ने उसकी विशेष मदद करने की सोच कर उसे यहाँ रखा था। वह बूढ़े मां बाप का एकमात्र सहारा था। बाप आँखों से लाचार और माँ कैंसर की मरीज। बेटी और दामाद के सहारे कब तक पड़े रहेंगे बेचारे। हालांकि बेटी और दामाद अपनी पहुंच से ज्यादा ही उनका ख्याल रखते हैं। कर्मचंद भले ही चौकीदार न सही एक मजदूर तो था ही। मजदूर के नाते ही सही कुछ मदद मिल जाती बात कुछ और थी लेकिन सरकारी काम तो नियम के अनुसार ही होते हैं। कोई क्या कर सकता है। हाँ यदि डायरैक्टर साहब का रबैया थोड़ा सा सहानुभूतिपूर्ण होता तो शायद कोई बात बन जाती। पर वह ऐसा क्यों करते!

बाहर वर्फ थम गई थी उन्होंने तय किया कि अब घर चला जाए, कहीं फिर से वर्फ लग गई तो मुश्किल हो जाएगी। दफ्तर बंद करके तीनों एकसाथ धीरे धीरे घर की ओर चल दिए। चलते चलते गुप्ता जी ने सुरेश से कर्मचंद का जि़क्र छेड़ते हुए पूछा-'असल में यह सब हुआ कैसे था, मैं तो उन दिनों गाँव गया हुआ था वापस आकर सुना था कि कोई दुर्घटना हुई थी।

'क्या कहें गुप्ता जी, वक्त बड़ा बलवान होता है जो हुआ बड़ा ही भयंकर था। अब तो पांच साल होगए इस बात को, इन्हीं दिनों की तो बात है मैं भी छुट्टी पर था। इस साल के मुकावले तब सर्दी कम थी और वर्फ भी बहुत कम थी। कहते हैं इस लड़के की तबीयत कुछ ठीक नहीं थी उसने किसी तरह हल्का फुल्का खाना तैयार किया लेकिन अभी खाने की इच्छा नहीं हुई इसलिए गार्ड रूम में एक लकड़ी के तख्त पर अपना गद्दा बिछाया फिर देखा कि अंगीठी थोड़ी बुझने लगी थी उसमें कोयले डाले और रजाई लेकर लेट गया यह सोच कर कि थोड़ी देर रैस्ट करके उठेगा और खाना खाएगा फिर आराम से पढऩे बैठ जाएगा। लेकिन किसे पता होता है कि उसके साथ अगले पल में क्या होने वाला है। उसे शायद नींद आगई होगी। खिड़की और दरवाजा बंद थे इसलिए कमरे में सुलगते कोयले की गैस फै ल गई होगी। कोयले की गैस बहुत घातक होती है जिसकी वजह से वह अचेत सा हो गया होगा। दुर्भाग्य से उसकी रजाई अंगीठी पर जा पड़ी होगी और धीरे धीरे सुलगने लगी होगी। बेहाशी के कारण उसे कुछ भी पता नहीं चला होगा और रजाई सुलगती रही जिससे उसका सारा शरीर पूरी तरह से झुलस गया था। सुधीर कह रहा था कि केवल चेहरा साफ था वाकी सारा शरीर बुरी तरह जल चुका था, पोस्ट मॉर्टम की रिपार्ट के मुताबिक 80 प्रतिशत जला हुआ था। सुबह किसी ने फ ायर आफिस और पुलिस को फोन कर दिया था कि गाडऱ् रूम में आग लग गई है। धुंआँ भरा हुआ था लेकिन दरवाजा बंद था। खिड़की का शीशा तोड़ कर एक व्यक्ति अंदर दाखिल हुआ तो अंधेरा इतना था कि कुछ दिख नहीं रहा था, दरबाजा खोलने के चक्कर में उसका पांव किसी नर्म सी चीज़ से टकराया। टॉर्च जलाकर देखा तो वह चिल्ला उठा-'यहाँ कोई सोया है।* दरबाजा खुला तो देखा कि सारी रजाई जल कर राख होचुकी थी ओर एक ओर से कर्मचंद का चेहरा केवल दिख रहा था। एक हाथ हल्का सा बाहर निकला हुआ था जब उसने उसे छुआ तो वह हाथ शरीर से अलग होकर उसके हाथ में आगया। गद्दा रजाई सारे इस तरह जले हुए थे कि लाश का उठाना बहुत कठिन हो रहा था। किसी तरह समेट कर लाश को पोस्ट मॉर्टम के लिए भेज दिया गया। वाटर सप्लाई का चौकीदार आया तो उसने सुधीर को फोन करके बुलाया था। सुधीर ने मुझे दिल्ली फोन पर सूचित कर दिया था। तीसरे दिन मैं भी लौट आया था मेरे पहुंचने से पहले ही इन लोगों ने उसका अंतिम संस्कार कर दिया था। कर्मचंद के बहन और जीजा तो आगए थे लेकिन मां बाप नहीं आ सके थे। सारा कुछ सुधीर के आंखों के सामने हुआ था। वह तो वैसे भी बड़ा भावुक और छोटे दिल वाला आदमी था। वह अपने आप को ही कसूरवार मानकर उस घड़ी को कोस रहा था जब उसने उसे काम पर रखा था। कर्मचंद के बहन और जीजा सुधीर के एक दोस्त के परिचित थे। कर्मचंद पढऩे में अच्छा था लेकिन परिवार के हालात ठीक न होने के कारण मैट्रिक से आगे पढ़ न सका और कहीं नौकरी करने लगा था। पढऩे की बड़ी इच्छा थी उसकी इसलिए अपने जीजा से कहता था कि कहीं ऐसी जगह काम पे लगवा दें जहाँ साथ साथ पढ़ाई भी कर सके। किसमत का मारा यहाँ पहुँच गया। बहुत इंटेलीजेंट और शरीफ लड़का था वह। काफी जल्दी सारा काम सीख गया था। सारा दिन डट कर काम करता था और रात को टैंट में रह कर पढ़ता था। वाटर सप्लाई के चौकीदार से उसकी अच्छी दोस्ती हो गई थी वे उसे खाना भी खिला देता था और टैंट में बिजली न होने के कारण उसे पढऩे में दिक्कत होती तो वह उसकी जगह टैंट में सो जाता और उसे गार्ड रूम में पढऩे के लिए भेज देता था। उस दिन भी ऐसा ही हुआ था। पुलिस के सामने वयान देते हुए कर्मचंद के बहन और जीजा ने कहा कि जो हुआ वह दुर्भाग्यपूर्ण जरूर है लेकिन इसमें किसी का क्या दोष। जब सुधीर ने जो कुछ पैसे इकट्ठे कर रखे थे उनको देना चाहे तो उसकी बहन ने यह कह कर लेने से इन्कार कर दिया कि उसे पैसे की कमी नहीं है उसे डर लग रहा है कि अब आगे क्या क्या होगा। उसने अपना प्यारा भाई खो दिया है अभी इस बात को सहन करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही है तो अपने लाचार माँ बाप को कैसे बताएगी कि उनका कर्मू अब उनके पास कभी नहीं लौटेगा। कैसे समझाएगी उन्हें। अम्मा जो पहले ही पता नहीं कितने दिनों की मेहमान है। वह तो पता पड़ते ही दम तोड़ देगी और बापू किस किस का शोक मनाऐंगे। इधर उधर हाथ पांव पटकने के सिवा क्या चारा रह गया है उनके पास।

कर्मचंद की बहन बिलख बिलख कर रो पड़ी तो उसका पति जो अब तक चुपचाप एक ओर खड़ा यह सब देख रहा था अचानक अपनी बीबी को बिलखता देखकर आगे आया और उसे गले लगा कर फ++फ+क पड़ा था। सभी की आखों में आंसू थे। सुधीर को अचानक चक्कर आने लगा था उसकी टांगें लडख़ड़ाते देख कर मैंने उसे सहारा देकर बैंच पर बैठा दिया था।*


इतना कह कर सुरेश थोड़ी देर के लिए चुप होगया फिर बोला-'जीवन में कितने उलझाव हैं कि ठीक ठीक कुछ भी समझ में नहीं आता। उम्र भर जो जद्दो जहद हम करते हैं वह किस ओर ले जाती है हमें। न तो हम अपने आप को समझ पाते हैं और न इस संसार को। पता नहीं यह कैसा खेल है और हम किसके इशारे पर यह सब किए जारहे हैं। कम से कम अपनी मरज़ी से तो कोई अपने साथ ऐसा नहीं कर सकता। कोई तो है जिसके इशारे पर ही यह सब होता होगा।

इस पर सीताराम कहने लगा कि वह पढ़ा लिखा तो है नहीं और इतनी समझ भी नहीं रखता फिर भी एक बात कहना चाहता है कि असल में उसे इसमें समझ में न आने जैसा कु छ भी नहीं लगता। उसे तो इतना समझ में आता है हम जब, जहां और जिस हाल में पैदा होते हैं उसी से निश्चय हो जाता है कि आगे चल कर हमारे साथ क्या होने वाला है, यह बात अलग है कि हम समझने कोशिश ही नहीं करते। उसकी बात सुन कर सुरेश एकदम रुका, शिवराम की ओर गौर से देखा और चुपचाप आगे चल दिया।