नियति / राजा सिंह

Gadya Kosh से
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पिछली रात उदी को लगा कि कोई पुराना सपना अचानक उसके जेहन में साकार होकर तैर गया। यह उसकी कल्पना से परे था कि ऐसा भी हो सकता है। किन्तु हकीकत कल्पना से ज़्यादा विचित्र थी। वह अपनी नींद के आगोश में आया ही था कि उसकी आँख मोबाइल की ट्रिग-ट्रिग-ट्रिग से खुल गई. उसे बड़ी कोफ्त हुई, ध्वनि बड़ी कर्कश लगी हालांकि उसका स्वर पूर्ववत मृदु ही था। शायद असमय बजना उसे बेसुरा लगा। वह झुंुझलाया और आलस में ही बोला, 'हेलो।' ...

' हेलो। एक फुसफुसाती हुई मादक आवाज।

'हाँ, कौंन?'

-पहचाना नहीं। इतनी रात में अनजान अपरचित और अधीर स्वर। उसका कौतुहल बढ़़ता है। ऐसा कौंन है जिसकी आवाज वह नहीं पहचान पा रहा है। उसका नींद का नशा छू मंतर हो गया।

-नहीं...देखो। ...देखों। जल्दी बताओ. मुझे नींद आ रही है।

-आपने ही नम्बर दिया और आप ही।

उसकी आवाज कुछ खोती हुई-सी लगी।

-अच्छा। ...क्या नाम है?

-जिया परवीन।

-और...मेरा?

-उद्भ्रान्त शुक्ला। पहचान की एक रोशनी चमक उठी। अभी दो-तीन दिनों पूर्व ही उससे बस में मुलाकात हुई थी। वह कानपुर से लखनऊ जा रहा था। वह हर सप्ताह आता जाता है। उस समय बस काफी खाली थी। ड्राइवर कंडक्टर सहित 15-20 लोग थे। वह कंडक्टर के पीछे वाली दो सीटों की रो में अकेला बैठा था। अपोजिट में तीन सीेटों की रो थी। वह गेट से घुसी और सीट की तलाश में नजरें इधर-उधर घुमाई और उसकी एक जोड़ी आंखें उस पर स्थिर हो गई. वह थोड़ी देर गेट पर खड़ी-खड़ी उसे तांक रही थी। फिर वह चलकर उसके पास आ गई और उसी के पास बैठ गई. हालांकि, 'सीट खाली है'-पूछा था इशारों में। वह मंत्र मुग्ध था। उसने अनुरोध किया कि विंडो वाली सीट उसे दे दी जाय, उसने सहर्ष स्वीकृत दी। उसके साथ एक थैला था जिसमें शायद किताबें थीं। उसने उस थैले को दोंनों के बीच रख लिया, जिससे कि समीपता कम हो गयी। वह पीला सलवार कुर्ता पहने थी और दुपट्टे को उसने नकाब की तरह इस्तेमाल किया था। उसके सारे शरीर में सिर्फ़ आंखें खुली थीं चंचल चपल और बोलती हुई. हथेलिओं और पैरों को देखकर लगता था कि वह काफी गोरी होगी। फीगर देखकर उसने अनुमान लगाया कि वह काफी सुन्दर हैं। वह शालीन, सुसंकृत और सलीकेदार लगी। बातचीत की पहल उसी ने की। फिर दोनों ने आपस में कैसी बेतरतीब बातें की, कुछ याद नहीं रह गया। वह बीच-बीच में शान्त हो जाती और खिड़की से बाहर बेमतलब देखने लगती। वह बोलती कम देखती ज़्यादा थी। उसकी दो उत्सुक चमकती आंखें बराबर उसे भेद रही थीं। कंडक्टर के आने पर दोंनों ने टिकट लिया। कंडक्टर ने बाकी बचे पैसों के लिए टिकट के पीछे लिख दिया। उसने अपने टिकट को हथेलिओं में भींच रखा था। कंन्डक्टर से वापसी पैेसे लेते वक्त उसने उसका टिकट खुद रख लिया और अपना टिकट उसे दे दिया। उसके पसीने से भीगे टिकट की भींनी-भींनी खुशबू से वह भींगता रहा था। -हाँं, हांँ, याद आया। कैसी हो? कैसे?

-अच्छी हँू। इतनी जल्दी भूल गये।

-नहीं इतनी रात को काल आने पर मैं अचकचा गया।

अकल्पनीय था इस समय तुम्हारी आवाज।

-आज क्या किया? उसने पूछा।

-दिन भर कालेज में था। उसने कहा।

-और...और क्या किया। उसके स्वर में आग्रह था।

-पढ़ता रहा...फिर पढ़ाने के लिए लगातार पढ़ते रहना ज़रूरी

है। ...और पढ़ना मेरा शौक भी है।

वह कुछ ही दिनों पूर्व कालेज में लेक्चरार बना था। वह हिन्दी साहित्य में पी0एच0डी0 कर रही थी, ऐसा उसने बताया था, जब उसने उनके बीच किताबों की दीवार के विषय में पूछा था। ऐसे परिचय अच्छे होते हैं जो अपने आप हो जाते हैं और धीमी गति से चलते हैं। उनमें कोई बंधन नहीं होता। इच्छा ज़रूर होती है कि एक-दूसरे के विषय में ज़्यादा से ज़्यादा जाने, परन्तु हिम्मत नहीं पड़ती।

यह सिलसिला चल निकला। हर दूसरी तीसरी रात में 12 से 2 बजे के बीच किसी समय उसकी काल आती और फिर घंटे दो घंटे कटना लाजिमी था। बातों का दायरा असीमित था। फ़िल्म, टेलीविजन, पढ़ाई लिखाई, खाना-पीना से लेकर राजनीति तक फैली थी बातचीत। एक दूसरे को हर तरह से सम्पूर्ण जान लेने की अधीरता, समाप्त होने का नाम नहीं ले रही थी। उसे भी उसकी काल का इन्तजार रहता। जिस दिन उसकी काल न आये वह काफी अनमन्यस्क रहता था। उत्सुकतावश वह अगले दिन में काल करता जिसे वह कभी नहीं उठाती थी। कई अन्तरालों की काल के उपरान्त काल रिसीव भी की थी, तो चन्द सेकेन्डों के लिए 'क्या है? ...रात में बात करेंगे। ...अभी नहीं...इतना-सा संक्षिप्त कह कर मोबाइल बंद। एक दिन उसने पूछ लिया,' रात में ही क्यों? '

'क्योंकि उस समय मैं अपने कमरे में अकेले होती हँू। बेफिक्र होकर बात कर सकते हैं।'

अब वह हर काल पर मिलने को कहने लगी। उसका दिल भी उसके दीदार के लिए मचलने लगा। परन्तु पहल के लिए वह उसका इन्तजार कर रहा था। वह जानता था शीघ्र ही वह उसके इलाके में खड़ा उसकी प्रतीक्षा कर रहा होगा।

कल रात उसका फोन आया था। कहा कि आज सुबह वह हीरालाल मिठाई वाले की दुकान पर मिले। उसने और कुछ नहीं कहा था...उस रात ज़्यादा बातें भी नहीं की। वह तय समय से पहले पहुँच गया। वह जब खड़ा-खड़ा बोर हो गया तो उसने दुकान में समय काटने की सोची। इसमें वह बहुत कुछ खा गया और कई बार चाय पी डाली। वह आयी। उसने चेहरा नहीं ढका था। उसे लगा संगमरमर की कोई प्रतिमा सजीव होकर चली आ रही है। उसकी भौंवे बिना सेट किये कमानदार थी और नाखून बिना नेलपैंट के गुलाबी थे...साधारण लिबास में असाधारण थी। वह उसके आकर्षण में खोया भूल गया कि कहाँ खड़ा है? जब तक कि उसने आकर उसे छू नहीें लिया।

'चलो...उँपर बैठते हैं।' उसने उस दुकान की बालकनी की तरफ इशारा किया। वहाँ कोई नहीं था। जगह ज़्यादा थी, एकान्त और बाहर की नजरों से दूर।

'तुम कुछ लोगी?'

'जी, आप लेंगे।'

' मैं, तो इन्तजार में ही काफी खा-पी चुका हूँ।

' तो, मैं भी कुछ नहीं। उसने दो काफी आर्डर कर दी। वह चुप बैठी रही। उसकी मुख-मुद्रा से लग रहा था कि बात करना चाहती है। कैसे शुरू करे इस असमंजस में थी।

' आज का अखबार देखा। उसने पूछा।

' न-उसने सर हिला दिया।

' अगले हफ्ते पुस्तक मेला लग रहा है।

' चलेंगे। शायद मेरे मतलब की कोई बुक्स मिल जाये।

' ठीक है।

' क्यों ...? आपको दिलचस्पी नहीं है?

' है...जी...बिल्कुल है। उसने बात को टालने की गर्ज से कहा परन्तु उसकी स्वीकोरोक्ति उसे संतुष्ट न कर सकी। उसकी प्रश्नवाचक निगाहों ने उसे बांध लिया था। वह अपने बचाव में कुछ सोचता कि लड़का आया और काँफी रख गया। वह दोनों काँफी सिप करने लगंें।

' तुम्हारा घर कहाँ है? लड़के ने कहा।

' यहीं पास में है, थोड़ी दूर चलकर, अकबरी गेट के भीतर।

'और आपका?'

' मेरा यहँा से दूर है, आशियाना में।

रात में बात करते हुए वे काफी एक दूसरे से खुल से गए थे, परन्तु इस समय वे संकुचित थे। कस्टमर बढ़ते जा रहे थे।

'आज बहुत सुन्दर दिन है।' उसने कहा।

'हाँ।' उसने उसके हाथ पर अपनी हथेली रख दी। उसकी हथेली पर उसका हाथ था नरम-नरम। वह मुस्कराने लगा, वह भी मुस्कराई. उसने धीरे से अपना हाथ उसकी मुट्ठी से आजाद किया।

'क्यों, आप तो मेरी थीसिस में मदद कर सकते हैं।'

'अरे। मैं नहीं। इतना काबिल नहीं हँू।'

' बनाते हैं, आप?

' आप लिखते भी हैं?

' हाँ, थोड़ा-बहुत।

'कभी दिखाइये।'

'ज़रूर।' ं-ं ं

'कुछ कस्टमर ऊपर भी आ गये। अब बैठना दूॅभर हो गया। अभी तक वे बातें नहीं कर पाये थे जैसी वह सोचकर आये थे। औपचारिक बातचीत से वह ऊब गये लगते थे। कोई जानने वाला भी आ सकता है, लड़की उठ खड़ी हुई.' चलते हैं। ' कह कर नमस्कार किया। लड़के ने काउन्टर पर भुगतान किया और उसके साथ हो लिया। अकबरी गेट पर आकर वह बिछड़ गये। वह और दूर तक साथ देना चाहता था परन्तु नहीं। लड़की के स्वर में अनुनय नहीं निर्णय था, ठंडा-कठोर। वह लौट पड़ा।

वेे मिलने लगे थें। परन्तु अब हीरालाल शाप से चलकर वे वाजिद अली शाह के मकबरे पर आ जाते थे। वहाँ पर बिछी घास जो करीने से तराशी गई होती, उसमें वह नंगे पाँव चलती और उसे भी प्रेरित करती थी वैसे ही टहलने और घूमने के लिए. वे अपने चप्पल, जूते एक बेंच पर छोड़कर आये थे। वे दोनों एक दूसरे का हांथ पकड़े अलमस्त वेफिक्र टहल रहे थें उसके अंगप्रत्यंग से खुशी टपक रही थी। वह घास पर बैठ गई और उसे भी बैठायाँ फिर धीरे से पूछा था।

' तुम मुझे प्यार करते हो? उसकी निगाह उसकी आँखों में सिमट आई. गोया, उसके जबाब की सच्चाई उसी की ऑंखों से परखना चाहती हों।

' यह भी पूछने की बात है? उसके मुंह से बेसाख्ता निकल गया और उसकी आंखें उसकी प्रतिक्रिया देखने उस पर टिक गईं। पता नहीं क्यों? उसका जबाब उसे विश्वसनीय नहीं लग रहा था।

शाम को कुंहासा घिर आया था। उसका चेहरा दिखाई दिया-अटल और तल्लीन। सुख और विषाद से मुक्त। वह अपने में विलुप्त लगी। दोनों अपने में चुप बैठे रहे। उसने उसे देखा और मुस्कराने लगी...एक अजीब आश्वासन भरी मुस्कराहट। वह उसके पास खिसकी और उसने अपना सर उसके कंधे पर रख दिया। उसके लिए लड़की के स्पर्श को अपने कंधे पर महसूस करना, जीवन का सबसे दुर्लभ और अलौकिक सुख था। उसे लगा लड़की ने उसका प्यार स्वीकार कर लिया हैं। उसे तसल्ली हुई. वह अपने संगमरमरी हांथों से उसके बालों को सहला रही थी। उसने उसका हांथ पकड़कर खींच लिया। उसने कोई विरोध नहीं किया। लड़की की गरम सांसें उसके गालों को सहलाने लगी। उसने उसके गालों का एक चुम्मन ले लिया।

अचानक वह छिटकी और उठ खड़ी हुई.

'चलो, यहाँ से चलो।' लड़की ने सिर उठाया और उसे विस्मित अबूझी आंखों से देखा। उसे यह छिछोरापन लगा या अभद्रता, उसके आशय को पकड़ना मुश्किल था। वह निकल ली। बिना उसकी परवाह किये।

वे दोनों अक्सर वहीं मिलने लगे थे, उतरती शाम को। उसे यह सोचना अच्छा लगता था कि वह दोनो एक ही शहर में रहते थे। बाद के दिनों वे जब वे एक दूसरे से काफी घुल-मिल गये थे। उसने एक दिन लड़की से पूछा। दरअसल वह काफी दिनों से उससे वह पूछना चाहता था, जो प्रथम मिलन से ही उसके जेहन में चक्कर काट रहा था। वह बात कांेचती रहती थी।

सड़क पर चलते हुुए बस की प्रतीक्षा करते हुए रात में सोने से पहले और सोते हुए उससे बात करते हुए, मिलते हुए, हरपल-छिन सोचता रहता हैं। उसे लगता है, अब ज़रूर वह सही-सही बता देगी। उसने लड़की से पूछा, 'उस दिन बस में किसकी तलाश कर रही थीं?'

'आपकी।' वह हँसने लगी।

'नहीं...सच बताओ?' किसके तलाश में तुम बिचलित थीं? वह जोर देता है।

'आपकी।' वह दोहराती है।

'मजाक मत करो। तुम किसकी तलाश में थीं?'

'बताऊँगी, तो विश्वास नहीं करोगे?'

' क्यों नहीं करेंगे? ऐसी कौंन-सी विचित्र बात होगी कि मुझे विश्वास नहीं होगा? वह जानने को आतुर था।

लड़की में अजीब निष्क्रिय-सा भाव था। वह एकटक उसे देख रही थीं। फिर बोली-

कभी-कभी ख्याबों, ख्यालों और तसव्वुर में आये लम्हें और इन्सान जब हकीकत में दिखाई पड़ जाते हैं तो उन्हें लपककर पकड़ लेना मुनासिब होता है, वरना वे फिर कभी नहीं आते। उनका दुबारा मिलना नामुमकिन हो जाता है। वैसा ही उस दिन मैंने किया और मेरी तलाश आप पर जाकर ठहर गई. यह कहकर वह शर्म और खुशी से लाल हो उठी। वह निरूत्तर था परन्तु विस्मित भी था। देर रात तक नींद नहीं आई...और वह इस अजीब इŸाफाक के विषय में सोचता रहा।

एक दिन वह उसके फलैट पर आ गई. यूॅ ही टहलते हुए. हालांकि उसने उसे पहलें नहीं बताया था, फिर भी वह मिल गया। उस शाम आस-पास कोई नहीं था। वह चुपचाप लड़की को देखता रहा।

'कल रात मुझे एक सपना आया। उसने वहाँ आने का कारण बताना चाहा। यह बात तो फोन पर भी कह सकती थी, फिर भी उसके वहाँ होने से वह प्रफुल्लित था।'

"कैसा सपना?" एक छोटी-सी मुस्कान।

" मैंने देखा तुम मुझे छोड़कर जा रहे हो। मैं आपको आवाज देकर बुलाना चाहती थी, परन्तु आपने कोई तवज्जो नहीं दी। मैं आपको बेवस जाते देखती रही...मैं मर रही थी। ...

"सच?" वह हंसने लगा। वह सपने को अपशगुन समझ रही थी। वह डरी हुई छोटी बच्ची की तरह मासुम लग रही थी।

'मैं आपकी डायरी देखना चाहती हूँ।'

'कैसी डायरी?'

'अपने मन की बात डायरी में लिखते होगे, मुझे वही डायरी देखना है।'

'मैं ऐसी कोई डायरी नहीं लिखता।' उसने संयत और निर्विकार स्वर में कहा। उसे विश्वास नहीं हुआ। वह उठी और वनरूम फ्लैट की तलाशी में जुट गई. उसने सारी किताबें रजिस्टर फाइलें कापियाँ और डायरी उलटपुलट कर देख डाली। परन्तु उसे मनवांछित डायरी न मिली। उसने हर कोना छान मारा। उसके चेहरे पर पसीने की बूदें चुंचुहा आयी थीं। उसने उसे नर्मी से अलग किया और उसे बेंत की आरामकुर्सी पर बड़ी सहूलियत से बिठाया। वह अशांत लग रही थी।

'तुम डरी हो?'

' हाँ। उसने सर हिलाया

'कोई बात हुई है?'

लड़की हकबकाई.

'नहीं, ऐसे ही।' उसने उड़ते स्वर में कहा।

उसने लड़की के गालों को अपने दोनों हाथों से छुआ और नीचे झुक आया। लड़की उठ गई उसने उसे आलिंगन में लिया और पीठ थपथपाई जिसमें आश्वासन था। उसने उसे तसल्ली देने की कोशिश की। वह द्रवित हो उठी। उसे हौंसला मिला। वैसे ही उसने कहा-

' एक बात पूछूं?

'क्या?'

' आप, मुझसे शादी करोगे? वह चौंक गया। ऐसे में भी वही चिरपरिचित प्रश्न। एक दूसरे से अलग हुऐ. उसने देखा उसके चेहरे पर एक गहरी उत्तप्त जिज्ञासा थी।

'निष्चय ही।' उसने आश्वस्त किया।

'हम साथ-साथ रहेंगे।'

'क्यों नहीं?'

वह सिर्फ़ उसे चाहता था और वह अपना प्यार किन शब्दों और अर्थो में सम्यक रूप से प्रेषित कर सकें इससे वह अनभिज्ञ था।

'सच?' उसने पलके झपकायीं। '

उसे लगता कि वह सच नहीं बोल रहा है। हर बार उसे कोई भ्रम पकड़ लेता था और वह उससे खुल नहीं पाती थी। उसने एक लम्बी साँस ली और होंठों के भीतर बुदबुदाने लगी। एक ऐसी भाषा जो समझ से परे थी। वह समझ नहीं पाता था कि उसे किस तरह से तसल्ली दे। उसने बैग उठाया और बाहर निकलने को आतुर हुई.

"मैं भी चलँू?"

"आप?"

"बस स्टेशन तक साथ चलूँगा।"

वह एक क्षण उसे देखती रही। फिर कहा-

'नहीं। मैं चली जाऊँगी।' वह देखता रह गया।

उस प्रकरण से वह थक गया कि खाने के तुरन्त बाद ही वह सीधा लेटने चला गया, वरना वह सोने से पहले कुछ पढ़ता-लिखता ज़रूर था। वह जानता था जिस दिन प्रत्यक्ष मुलाकात होती है... उस दिन उसका फोन नहीं आता।

उसे पता ही नहीं चला कि कितनी रात बीत चुकी, जब अचानक उसकी नंीद खुली। उसे जिया के शक से दहशत-सी महसूस होने लगी थी। उसे लगता है कि वह ठीक से अपनी भावनायें व्यक्त नहीं कर पाता। बाद में उसे लगता है कि यह कहना चाहिए था यह नहीं। जबकि वह जो कुछ है वही कह पता है। उसे अपने पर गहरी शर्म-सी हो आई कि वह अपने को ठीक-ठीक संम्प्रेषित नहीें कर पाता। उसे दुख था कि वह उस पर विश्वास क्यों नहीं कर पा रही है। वह सतर्क हो गया उसे लगा कि कहीं कुछ खो तो नहीं रहा है।

दिन अच्छे बीत रहे थे दोनों खुश थे। रात में काल्स और जल्दी नहीं मिलते हो, उसका उलाहना उसकी तरफ से आता रहता था।

'आपकी इच्छा नहीं होती है मिलने की?'

'क्यों नहीं हफ्ते दस दिन में मिलना क्या नाकाफी है?'

'और क्या मैं तो रोज चाहती हॅू?'

खिलखिलाहट भरी मादक हंसी आमंत्रित करती। रात में एक दूसरे के फरमाइशी प्रोग्राम गीत-गज़लों-शेरों, शायरी के चलते रहते। अब वह अपनी तरफ से भी फोन कर दिया करता, क्योंकि एक बार उसने बताया कि मोबाइल का बैलेन्स खतम हो गया है मैं बन्द करती हॅूं अब आप काल करिये। उसे अपनी लापरवाही पर कोफ्त हुयी और उसने उसका मोबाइल वर्ष भर के लिये रिचार्ज करवा दिया, ... उसे अच्छा नहीं लगा।

कल रात में उसने अगली शाम को चिरपरिचित जगह हीरा लाल शाप में नहीं, जहॉं से वे दोनों टहलते हुये वाजिद अली शाह के मकबरे तक जाते थे, बल्कि नींबू पार्क पॉंच बजे बुलाया था। वह कुछ अनुमान नहीं लगा पाया कि ऐसा क्यों शायद कोई बात हो? किन्तु उसने कोई जिक्र नहीं किया। वह चाहना के दिन थे-इन्तजार रहता था एक दूसरे के साथ की, मिलने का कोई भी स्थान हो, उससे मिलना उसे तृप्त कर देता था। फिर भी कोई कारण होता तो वह अवश्य बताती।

दोनों करीब-करीब साथ ही पार्क के गेट पर पहुॅंचे। वह एक हरे-भरे किस्म का पार्क था। घास बहुत थी, शायद कटाई-छटाई नहीं हुयी थी। पेड़ भी भरे हुये थे। पार्क के चारों तरफ ऊॅंची-ऊॅंची दीवारें थी। काफी लम्बा-चौड़ा मैदान और साइड में, बीच में पगडन्डियाँ। काफी जोड़े इधर-उधर छितराये पड़े थंे। एकान्त तलाशना मुश्किल लग रहा था। वे हिचकिचा रहे थे यहॉं बैठे या कहीं और चले। वह कुछ बैचेन-सा दिख रहा था, शायद और नहीं भटकना चाहता था। लेकिन वह कुछ तय नहीं कर पा रही थी। जाड़े का महीना था, पेड़ों से निकलती धूप सिमट रही थी। वह चारों तरफ देख रही थी कि एक एकान्त उसे दिखाई पड़ गया। वह जगह उजाड़-सी थी और साथ में एक लोहे की बैंच भी थी। वह उधर ही चल दी। बैंच पर बैठते ही अब वह कुछ निश्चिन्त दिखाई दी। हालॉंकि चेहरे पर अब भी अधीरता थी। कितनी देर बैठेगी या जल्द ही चल देगी, कहना मुश्किल लग रहा था।

'आज क्या खाया? उसने पूछा वह बातचीत का प्रारम्भ ऐसे ही करती थी उसे मालूम था कि अकेले उसका खाना कितना असीमित, असमय और असंगत रहता है।'

'आज, कुछ नहीं खाया। आज भूखें हैं।' कह कर वह मुस्कराया।

'क्यों?'

'आज व्रत है।'

'अच्छा, जन्माष्टमी का व्रत रहे हो। ओह...हो।' आपके इष्ट देव श्री कृष्ण भगवान है, क्या? '

'हॉं'

'और तुम्हारे?'

'मेरे-शंकर भगवान।'

'क्यों?'

'वे भोले भंडारी है। दयालू है। ओर बहुत जल्दी पसीज जाते है।'

'अच्छा!'

'और क्या! एक बात और वे बाडी-बिल्डर है, जो अन्य देवता नहीं है।' उसकी बातें दिलचस्प होती जा रही थी।

'और तुमने क्या खाया? तुम तो मुर्ग-मुस्सलम खाकर आई होगीं?'

'जी...नहीं। आप क्या समझते है कि हम लोग रोज मीट-मछली खातें है?'

'तो-क्या?'

'वही सब जो आप लोग खाते है, दाल-भात सब्जी रोटी.' हॉं, कभी-कभी हफ्ते-दस दिन में मीट भी बन जाता है, रोज नहीं।

'अच्छा।'

'हॉं, वैसे भी आपकी जानकारी के लिए बता दॅू, मैं प्योर वेजीटेरियन हॅू।'

वह उसे प्रशंसात्मक नजरों से देखने लगा और भरपूर प्यार उमड़ आया।

इस बीच अवश्य कुछ समय गुजरा होगा। बाद में जब उसका ध्यान अपनी तरफ गया तो उसे हैरानी हुयी। दरअसल पिछले कुछ समय से वह उसकी तरफ बिना किसी प्रयोजन के देख रहा था। उसकी ऑंखें उस पर चिपकी हुयी थी। वह काफी आतुर और विह्वहल ऑखों से देख रही थी। उसका देखना ऐसा था कि वह बंॅंध गया और उसमें सिमट गया। यकायक वह बोली-

'मुझसे शादी करोंगें?'

'ज़रूर-निःसंदेह।'

'कब?'

'जब तुम्हारी पी.एच.डी. कम्पलीट हो जायेगी।' अत्यन्त निश्चिन्त और जोर लहजे में उसने कहा।

'नहीं...यह देर है-इतनी देर नहीं।' अभी करो। अच्छा यह बताओ...आपकी सैलरी कितनी है?

'लगभग पचास हजार, प्रति माह।' उसने संयत स्वर में बताया।

'तब क्या ज़रूरत है पी.एच.डी. की? मेरे लिये इतना ही काफी है।' वह मचल उठी।

'अपने प्यार को तुम्हारी उन्नति में बाधा पड़ना मुझे मंजूर नहीं है।' पढाई तो पूरी करनी ही पड़ेगी। ' उसके शब्दों में दृढ़ता थी।

'शादी के बाद कर लेगें।' उसने जैसे अनुमति मॉंगी हो।

'नहीं। अभी बहुत कुछ बाकी है...सबकी अनुमति, सहमति'।

वह चुप हो गई-सोंच में पड़ गई. एक लम्बी चुप्पी दोनों के बीच खिसक आई थी। इस विषय में ज़्यादा बातचीत अर्थहीन और हास्यापद होती। उस समय उसे लगा कि उसकी दिलचस्पी और रूकने में खतम हो गई है।

अंधेरा पेड़ों से उतर कर जमीन पर आ गया था। सरदी बढ़ रही थी। लड़की ने जाने का इरादा कर लिया। वह उठ खड़ी हुई और उसने हाथ पकड़ कर लड़के को उठाया। गरम और मुलायम हाथ का स्पर्श उसमें चेतना भर गया। दोनों जुडे़ हाथ उल्लसित हो साथ-साथ चल पड़े। उसने अपना हाथ धीरे से उससे छुड़ाया और नाजुक कमर में डाल दिया। उसने अपना सर उसके कंधे पर रख दिया, वैसे ही चलते हुये वे गेट के बाहर आ गयें। अब वे अलग हुये और साथ-साथ चलने लगे। उनकी ऑंखों में तसल्ली थी और मन संतृप्त लग रहा था।

वे धीरे-धीरे कदम बढ़ाते चौपटिया की गलियों से गुजरते हुये अकबरी गेट की तरफ बढ़ रहे थे। वह वहॉं तक छोड़ने जाता था हालॉंकि लड़की मना करती थी, परन्तु और साथ रहने का लालच काम करता था। कुछ लमहों के लिये वे एक-दूसरे में खो गये थे। सहसा वह मायावी क्षण टूट गया। विपरीत दिशा से चार-पॉंच युवक उनकी तरफ लम्बे-लम्बे डग भरते आ रहे थे। दोनों वापस अपने में आ गये थे।

'ओह! ये लोग यहॉं भी आ गये?' वह बुदबुदायी। शायद लड़की उनमें से कुछ को पहचानती होगी। वे काफी उत्तेजित थे और गुस्से में थे। लगातार उनकी दूरी उनसे कम होती जा रही थी।

अचानक वह चिल्लाई "खतरा भागो।" वह अचकचाया। कुछ देर अनिश्चित मुद्रा में खड़ा रहा और फिर लड़की की दिशा में दौड़ पड़ा। वह काफी डर गयी थी और बेतहाशा भाग रही थी। वह रास्ता जानती थी और शीघ्र ही उसकी नजरों से ओझल हो गई. वह उसे फालों नहीं कर पाया और घिर गया।

गली में धंुवा, कोहरा, गंदगी, अँधेरा और कीचड़ था। उस समय गली सुनसान पड़ी थी। उनके पदचापों के अलावा कुछ नहीं था। गालियों का झंूड पीछे-पीछे था और उसे घेर लिया। उसने भयभीत आशंकित दयनीय नजरों से देखा, वह चारों के घेरे में था।

'हरामी! हमारे इलाके की लड़की को छेड़ता है। एक ने झपट कर उसका गिरहवान पकड़ा और बाकी ने भी उसे अपनी गिरफ्त में ले लिया।' उनकी ऑंखें आक्रांत थी। एक अजीब-सा तनाव फैलने लगा। लड़के ने उनकी ऑखों में सीधा देखा और बोला, ' मैं जिया से प्यार करता हॅू और उसी से शादी करूॅंगा। दूसरे नवयुवक ने उसकी हथेलियों को अपने हाथों की जकड़ में ले रखा था। बाकी अन्य उस पर आक्रामक मुद्रा में प्रहार के लिये कटिबद्ध थे। अब उनके चेहरें पर रहस्यात्मक मुस्कान छा गई. उन्होनें उसकी बातों को फ़िल्मी डायलाग करार दे दिया।

पता नहीं उसमें कहॉं से ताकत आ गई और उसने धक्का देकर अपने को छुड़ाया और बदहवास भागा। वह बहुत देर तक भागता रहा। एक अंधेरी गली से दूसरी गली में। बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा था। चीखें-चीखें गूंज रही थी पकड़ो-पकड़ो। एक गली के बन्द मोड़ पर वह फंस गया। वह अचानक पीछे मुड़ा और एक सरसराती चीज उसके सर पर लग कर गिर पड़ी और उसी के साथ वह भी। वे सभी अंधा-धुंध उस पर टूट पड़े। सर से खून बह रहा था और सारे शरीर पर उन सभी की चोटे पड़ रही थी, हाथों-पैरों, मुक्कों जूतों की। उसकी देह थरथरा रही थी और संज्ञा शून्य होते उसे आभास हुआ कोई उसके सिर के बाल पकड़कर घसीट रहा है। शरीर के छिलने की आवाज उसे महसूस हो रही थी। वह पूरी शक्ति से चीखने की चेष्टा करता है किन्तु भयावह घुर्र-घुर्र की आवाज आती है सिर्फ। एक टूटती-सी सॉस कोई उसे हिलाता है एक बार, दो बार फिर कई बार फिर चेतना शून्य होते उसे दूर आती आवाज आते सुनाई पड़ती है 'साले अगली बार साथ देखा तो जिंदा न छोड़ेगें।' ...और फिर कुछ नहीं। ...सहसा उसे लगा कि वह अपने को उठा सकता है। ' उसकी ऑंख खुलती है और फिर अँधेरा छा जाता है।

उसे कुछ याद नहीं है, वह कितनी देर ऐसे ही पड़ा रहा। गली की दीवार से सटा हुआ। गंदगी और कीचड़ से सरोबोर तनबदन, टूटा-फूटा एक शराबी की मानिंद। फिर उसे लगा कि वह भयानक दुःस्वप्न में है।

उसके कान सुनने लगे है। सतर्क हो गया। पैरों की आहट आ रही है। बहुत ही मंद गति से। कोई बहुत धीमे-धीमें उसके कंधे को हिला रहा है। उसकी आधी पलकें खुली, एक मासूम कमनीय हसीन चेहरा उसके उॅपर झूका हुआ था। उसके दयनीय चेहरें पर अवश-सी कातरता थी और रोकर धुली ऑंखों से करूणा झर रही थी। -उदी...उदी...आवाज... उसके मस्तिष्क से टकराती है... उसकी ऑंखें खुलती है। वह पहचान गया ...जिया है...जिया ही है। उसमें चैतन्यता लौट आती है। वह उठने की कोशिश करता है और बैठ जाता है। फिर इच्छा होती है, लेट जाने की उसी गली में। उसके पैरों, हाथों, छाती और सर में पीड़ा उठती है, बहती है और फिर ठिठक जाती है। -उदी...उदी...की आवाज फिर उसे झकझोरती है। लड़की के स्पर्श से उसमें चेतना आती है और साथ-साथ पीड़ा भी। उसे आश्चर्य होता है कि वह बच गया। ं -उदी...उदी... क्या ज़्यादा चोट आयी है? उसने पूॅंछा। उसके स्वर में पीड़ा थी और आवाज अपराधबोध से ग्रसित थी। -नहीं... कुछ ज़्यादा नहीं, वह खड़ा होता है और फिर लड़खड़ाता है। लड़की उसे सहारा देकर उसे गिरने से रोकती है। लड़की की कॉंपती अंगुलियाँ उसे सहारा देती है, उसे उन नाजुक हाथों से एक आश्वासन एक भरोसा झर रहा था। इतनी पीड़ा पर भी लड़के के चेहरे पर कृतज्ञता की मुस्कराहट झलक उठी। वे दोनों चुपचाप कुछ कदम चल कर सड़क पर आ गये और फिर रिक्से से अस्पताल। उस समय वह सोंच रहा था कि हरदम हम कभी मौत यातना या दुर्घटना की बात सुनते है या अखबार आदि में पढतें है, तो कभी भी ये नहीं सांेचते ये चीजें हम पर भी हो सकती है या हो सकती थी। नहीं यह सब अकल्पनीय होता है।

कालेज के शरदीय अवकाश पर वह अपने घर कानपुर चला आया था। उस हादसे ने उसे कमजोर नहीं किया था बल्कि उसमें दृढ़ता भर दी थी। जिया से हर हाल में जुड़े रहने की। फिर भी वह चिन्तित, उत्सुक और व्यग्र था, अपने सम्बन्धों को लेकर। जिया और करीब आ गई थी। यहॉं पर वह लखनऊ की दहशत से परे था और दृढचिन्त होकर कुछ अपने विषय में सोच सकता था। उसके मॉं बाप को कोई अंदाजा नहीं था कि वह क्या गुल खिला रहा है और कितने बड़े संकट से दो चार होकर आ रहा है। अब की बार वह दो तीन हफ्ते छोड़कर आया था, उसने कालेज में व्यस्तता का बहाना बना कर न आने की सफाई पेश कर दी थी और पूर्वत हो गया था। वह कालेज में नया-नया लेक्चरार बना था और नौकरी भी रूचि की थी। किसी तरह का लफड़ा उसकी नौकरी की छुट्टी न करवा दे, इस बावत वह सतर्क था। उसे लगा कि वह अपने बारे में ही सोेच रहा है। उसे जिया के बारे में क्या पता? जिया की तकलीफों के बारे में उसे पता होना चाहिये। रात के काल्स पर वह उसके विषय में ही पूछती रहती थी और अन्त में शादी करोंगे न? और हॉं में उत्तर पर कर उसकी बातचीत समाप्त होती थी। वह उसकी परेशानियों दुशवारियों और चिन्ताओं के बारे में अनभिग्न था। एक अजीब-सा गुस्सा उसके भीतर उमड़ने लगा था, उसके प्रति लापरवाही को लेकर। दस बारह दिन हो गये है, उसे यहॉं पर आये। उसका मन बैचेन होने लगा, उससे मिलने के लिये। एक माह से ज़्यादा समय व्यतीत हो गया, जब वह मिले थे और वह आखिरी मिलन टीस भर गया। वह संदेह से घिर गया था कि अब क्या मिल पायेगें?

वह उॅपर यहॉं अपने कमरे में, बीतें दिनों का लेखा-जोखा कर रहा था। कमरें में अँधेरा है और वह घुप अंधेरे में भी सर ढक कर लेटा हुआ है। उसकी पीड़ा, उसे भीतर-भीतर छील रही है। सब कुछ खाली-खाली-सा है। जनवरी के प्रारम्भ के दिन-कुछ अबूझा-सा है। खिड़की का एक पर्दा कभी-कभी हिल जाता है और रोशनी भीतर झांकने लगती है।

फाटक खटकने की आवाज सुनाई पड़ती है। वह ध्यान नहीं देता। नीचे मॉं है देख लेगी, अभी तो पिता भी होगें?

उसके कमरे का दरवाजा भिड़ा है, वह ऑंखें बंद किये खटर-पटर सुनता रहता है। कौन आया है, अनुमान से परे है? भिड़ा दरवाजा खुला। कोई भीतर तक आया? कौन होगा, वह मन ही मन सोचता है, परन्तु ऑंखे नहीं खोलता है।

'उदी...उदी...देखो! कौन आया है?' मॉं का स्वर मुलामियत और लाड़ भरा। जब से वह बाहर नौकरी पर गया है, मॉ उससे अतिरिक्त कोमलता से बोलती है। उसने सर से रजाई हटाई और ऑंख खोलकर दरवाजे की तरफ तॉंका।

'अरे तुम यहॉं...?' उछल पड़ा। झटके से रजाई फेंकी। आश्चर्य मिश्रित खुशी से उसने जिया को पास पड़ी कुर्सी पर बैठाया।

'मॉं। चाय।' इतना ही कह पाया कि मॉं मुस्करायी। उसकी प्रसन्नता देखकर, मॉं खुद चल दी बिना कोई पूंछ-तॉंछ किए.

'अरे, यार! बिना कुछ बताये कैसे? घर कैसे पता किया? कोई तकलीफ तो नहीं हुई आने में?' वह अपने पलंग पर पालथी मारकर, रजाई लपेट कर उॅंतावला हो उठा।

'क्यों, क्या यहॉं आ नहीं सकती? उसने बनावटी गुस्सा दिखाते हुये ऑंखें तरेरी।'

'नहीं ऐसी बात नहीं है, फिर भी।'

'अपने गाइड से कन्सल्ट करने आयी थी। मैंने मौके का फायदा उठाया और आपकी खबर लेने आ गई.' वह चावल भर मुस्कराई.

'आओ...आओं।' उसने हाथ बढ़ाकर उसे अपने पास पलंग पर बिठा लिया।

'अभी मम्मी जी आती होगीं ।' वह शरमाई और सकुचाई फिर भी बैठी रही।

' उदी। मुझे बहुत अफसोस है, आपके साथ वह सब हुआ। ये तो खुदा का शुक्र है कि तुम पूरी तरह ठीक हो गये। वह अपनी बात कहते हुये, हमेशा सकुंचाती है ...वह ठीक से संवेदना प्रगट करने के लिये शब्दों का चुनाव नहीं कर पा रही थी। उसकी ऑंखे फफक पड़ी। उसके चेहरे पर शर्म और सहानुभूति का अजीब मिला-जुला भाव था। ...मेरे कारण आपकों इतनी चोट सहनी पड़ी... आपके दुखः का कारण में हॅू। ...मुझे पहले ही आपको अगाह कर देना चाहिए था। ...उसने सुबकते हुये कहा।

'क्यों, क्या हुआ? तुम पहले से क्या जानती थी?' उसकी उत्सुकता जाग उठी।

'हमारे, सम्बन्धों के विषय में हमारा खानदान जान गया था। अब्बू तो काफी नाराज थे, कई बार सख्ती से मना किया था। परन्तु मैंने परवाह नहीं की क्योंकि मैं अब्बू की लाडली थी। उन चार-पॉंच लड़कों में दो तो मेरे कजिन थे। हमारे अब्बू चार भाई और दो बहन है। सबका परिवार एक ही जगह पर एक ही ईमारत में रहते है। मेरे खानदान में मेरे सिवा कोई लड़की नहीं है। सभी को मेरे लिये चाहना बनी रहती है...तथा किसी और से सम्बन्ध...तो कोई बरदास्त नहीं कर सकता...फिर किसी गैर से तो कतई नहीं। ...मेरा आपसे मिलना गुनाह है उनकी नजर में।' वह निराश, दुखी और पस्त नजर आ रही थी। ऑंसुओं की अनवरत धार, गालों से होती हुयी गरदन तक फैल गई. '

उसने उठकर जल्दी से एक हैण्ड टॉवेल उसे दी, जिसे उसने सहजता से स्वीकार कर लिया। उसने ऑंसू पोंछें और पलंग से उठ कर कुर्सी पर बैठ गई. अब वे दोनों एक दूसरे से पृथक आमने-सामने बैठे थे। वह पूरी तरह से शान्त और सुस्त थी। कुछ देर तक वे वैसे ही चुप बैठे रहे। कुछ देर बाद उसकी पलकें उठीं-

'क्या सोंच रहे हो? उसने पूंछा।' उसने कोई उत्तर नहीं दिया। वह गमगीन था।

'उदी...क्या तुम नाराज हो?'

'नहीं...वह अपना सर हिलाता है।'

'मैं...बहुत बुरी हॅू...न?' उसने मासूमियत से कहा।

'जिया। तुम दुनिया की सबसे अच्छी लड़की हो।'

वह भावुक हो उठा। उसकी आखों की कोरे गीली हो गई और गला भर आया।

-अच्छी...बुरी ... मैं नहीं जानती। परन्तु मैं ग़लत नहीं हॅू और मेरा आपसे सम्बन्ध एकदम सही है। उसकी आखों में उसके प्रति चाहत थी और उसके लिये आग्रह था। वह बार-बार अपने को परख रहा था कि क्या वह भी इतना ही बेजार है उसके लिए ...और जवाब हॉ में ही आ रहा था। वह फिर बोली...

'मैंने कहा था कि हम लोग शादी कर लेते है...परन्तु पता नहीं क्यों...? आप सबकी सहमति एवं अनुमति के फेर में पड़े हो।' वह एकटक, सीधी नजर से उसकी ओर देख रहा था और उसके एक-एक शब्द दिलों-दिमाग में पिन की तरह छेद कर रहे थे।

'साथ दिखने मेें तो यह हाल किया गर शादी कर लेते तो मार ही डालते।' उसने मुस्करा कर कहा।

'प्यार किया तो डरना क्या?' यह कहकर वह भी मुस्करा पड़ी।

' उसी समय मॉं चाय-नास्ता लेकर आ गई. वह ललक कर बोली-

'उदी ...! तुम्हारी दोस्त न केवल अच्छी एवं संुन्दर है वरन् संस्कारी भी बहुत है। बेटा आते ही इसने हमारे और बाबू जी के पैर छुवें।' हमने भी जी भर के आशीर्वाद दिया। यह सुनकर दोनों मंद-मंद मुस्कराने लगे। मॉं सोच रही थी कि काशः ऐसी बहू मिल जाये और वह सांेच रहा था कि काश मॉं-पिता जी को पता होता कि जिया कौन है?

मॉं पुनः उत्साह से बोली, 'भई हम दोनों को लड़की बहुत पसंद है।' वह बुरी तरह शर्मा गई और वह गर्व से भर गया। उसने सोचा वह दोनों अपने मॉं-बाप की एकलौती संतान है-यह संभव हो सकता है।

' अब ...क्या? उसने मॉं के जाने के बाद तुरन्त पूछा। वह निमग्न थी।

'ऐसा है ...मुझे पूर्णरूपेण ठीक हो जाने दो।'

मैं किसी दिन स्वयं आकर तुम्हारे पैरेन्ट्स से मिलकर अपनी शादी की बात करूगां। उसे कोई दुविधा न थी। वह अविश्वासनीय कृतज्ञ नजरों से उसे देखने लगी और उसकी ऑंखें ऑंसुओं से भर गयी। अब वह कुछ निश्चित-सी दिखती थी हालॉंकि चेहरे पर अब भी अधीरता छाई थी। उनकी ऑंखों में अजीब-सी तसल्ली थी, जैसे कि समस्या का हल मिल गया हो।

अकबरी गेट तक तो वह बिना किसी कठिनाई के आ गया, अब इसके आगे? वह पुराना मार्केट था बड़ी भीड़ थी। जिया से उसकी बात हुई, जैसा उसने बताया था वैसा कुछ याद न रहा। ग़लत बात यह थी कि उसने कुछ नोट न किया था। गेट में प्रवेश करते चलते जाना है, दोनों तरफ दुकानें सजी हुई होगी, उनको छोड़ते हुये आगे बढना है और आखरी मोड़ पर एक पुरानी लाल लाखौरी ईटों की बनी इमारत होगी, जिसमें आठ दरवाजें होगें। उसके आगे मैदान पड़ा होगा, उसी किनारे कोने पर एक पुराना कुऑं होगा, जो अब भी चलता है। आठ दरवाजों में किनारे से दूसरा वाला दरवाजा मेरे घर का प्रवेश द्वार है। वहॉं तक आसानी से आ जाओंगे कोई दिक्कत नहीं होगी। मुझे इन्तजार रहेगा। जब अपने घर से चलो तो रिंग कर देना। ' ...वह जिया के दिशा निर्देश के अनुसार चल रहा था। वह हर मकान को ऐसे देख रहा था जैसे कि किसी आदमी को खोज रहा हों कई बड़े-बड़े मकान थे जिनके दरवाजे बंद पड़े थे उन्हें खटखटाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी।

आखिर में वह मकान मिल गया-मकान क्या हवेली थीं। फाटक खोलकर वह अंदर धंसा। फाटक भी टूटा-फूटा-सा था जो कि सिर्फ़ अपनी उपस्थित दर्ज करा रहा था। मैदान में कुछ बच्चे खेल रहे थे। उन्होंने अपरिचित को आते देखा, कौतुहवश कुछ देर देखते रहे फिर अपने खेल में व्यस्त हो गये। उसने दूसरा दरवाजा मार्क कर लिया और उसी की तरफ मुखातिब हो बढ़ रहा था कि वह उस दरवाजे के बाहर दिखाई दी। वह आश्वस्त हो गया कि सही जगह बिना किसी मदद के, बिना पूछे आ गयाँ अब दरवाजा उसे ही खटखटाना था जिससे वह सुनिश्चित हो सके कि वह खुद आया है, बुलाया नहीं गया।

भीतर एक बड़ा मेहराबदार कमरा था, जहाँ एक दीवार पर एक दाढ़ी वाले सज्जन विराजमान थे। उसने अनुमान लगाया यही जिया के पिता होंगे। एक सेन्ट्रल टेबुल, एक स्टूल और मुगलकालीन सोफा शोभायमान था। वहाँ एक मूढ़ा भी रखा था।

'नमस्कार।' उसने उनसे अभिवादन किया। जिसके एवज में उन्होंने एक हाथ उठाकर कहा 'सलाम' कहा और बैठने का इशारा किया। वह मूढ़े में बैठ गया। उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ा।

'आपको तकलीफ तो नहीं हुई मकान ढुढ़ने में?'

'नहीं।' आसानी से मिल गया। जिया ने लोकेशन सही बयाँ कर दी थी। उनको यह बात नागवार गुजरी। उनके चेहरे पर कोई भाव आया और लुप्त हो गया। लड़की ने उसे बता रखा था कि उसके पिता मदरसे में टीचर हैं। उसे वह मौलवी साहब जैसे लगें छोटा पजामा अलीगढ़ टाइप, लम्बा कुर्ता बिना कालर का, सर के बाल छोटे, बड़ी दाढ़ी और मूछें नदारत।

उन्हें देखकर वह क्या कहना है? भूल गया। वह असमंजस में था कि बात कैसे शुरू की जाये। तब तक उसकी माँ आ गई. पानी आदि लेकर और स्टूल में रख दिया। अनुरोध नदारत था। फिर वह अपने मियाँ के पास दीवान में बैठ गई. उसकी माँ की उत्सुक निगाहें उस पर जम गईं थी कि देखें कैसे बात करता है?-बरखुरदार । फरमाइयें क्या कहना है। वह सकुचा रहा था। परन्तु आज बात करनी है, इसलिये वह आया है। वह दृढ़ निश्चय करके आया था उन्हें मना ही लेगा। अगर आज ये मौलवी साहब मान जाएँ तो अपने घर को तो वह हर हाल में राजी कर लेगा। वह अपने एकलौता होने की अहमियत जानता था। -सर, मैं आपकी बेटी जिया से शादी करना चाहता हॅू, प्लीज आप इजाजत दीजिए. वह झटके से बोल गया, जैसे डर हो कि एकदम से नहीं बोला तो कह नहीं पायेगा।

फिर मौलवी साहब ने उसका इन्टरव्यू शुरू कर दियाँ क्या नाम है? वालिद का नाम, धर्म, जाति, रहने वाले कहाँ के हो? क्या करते हो? मेरी लड़की से ही शादी क्यों करना चाहते हो आदि आदि। वह सभी प्रश्नों का सफलता पूर्वक उत्तर देता रहा और पूरी तरह से संतुष्ट था कि पास हो जायेगा। उसने धीरे-धीरे जब सब कुछ बता दिया, अपने रहने, खाने, घर और कालेज के बारे में और जब सब कुछ कहकर वह चुप हो गया, तो देखा दरवाजे पर वह भी खड़ी है एकदम निश्चल। पता नहीं, वह कितनी देर से चुपचाप देहरी पर खड़ी हुई मेरा इन्टरव्यू देख रही थी। सब कुछ सुनने के बाद वह आंतरिक गम्भीर विचार विमर्श में लीन हो गये लगते थे। अम्मी कभी उनका मँह देखती कभी लड़के का चेहरा। उसके भीतर एक अजीब-सा डिप्रेशन घुलने लगा था, जैसा कि मुजरिम को अपना फैसला सुनने की प्रतीक्षा करते होता है। हाँ, ऐसा ही लग रहा था कि वह मुूजरिम है, वे मुन्सिफ, लड़की शिकार है और साथ में गवाह। बिना शब्दों के खाई बढ़ती जा रही थीं।

"चलिए, चाय पी लीजिए." लड़की ने मुस्कराते हुए, इतने सहज भाव से कहा कि किसी ने कुछ सुना ही नहीं। उसने पानी का गिलास खिसकाते हुए चाय की केतली और प्यालों को स्टूल पर सजा दिया। चिकों से छनती धूप आ रही थी और मौलवी साहब का फैसला सभी पर गिर पड़ा।

'यह मुमकिन नहीं है।'

'क्यों? ...क्यों?' वह दोनों एक साथ बोल पड़े।

'यह रिश्ता अल्लाह की मर्जी के खिलाफ है। हम कट्टर सुन्नी मुसलमान हैं और हम इस्लाम के खिलाफ नहीं जा सकते।' फिर उनके मँुह में ताला लग गया। उसने बहुत-सी दलीलें पेश की। प्यार, मोहब्बत, दोस्ती की दुहाई दी। इन्सानियत की नजरें पेश कीं सब कुछ कहना उनके लिए औपचारिकता का निर्वाह मात्र सिद्ध हुआ। उसे धक्का-सा लगा। उसे अपना अपराध समझ में नहीं आ रहा था। जैसे याचक बिना भिक्षा प्राप्त किये उस जगह से जा रहा हो जहाँ से उसे सबसे ज़्यादा उम्मीद हो। 'अच्छा! चलते हैं।' उसने कुछ बिद्रुप हँसी के साथ कहा। हालांकि उसने अभी तक मूढ़े को छोड़ा नहीं था।

'अबू। मान जाइये।' उसके स्वर में अजीब-सी कोमलता और दीनता थीं। अम्मी को उसने कुछ दुविधा से देखा, शायद कुछ पिघली।

' क्या, कोई तरीका हो सकता है? अम्मी ने मौलवी साहब को टटोला। सभी की उत्सुक नजरें उन पर टिक गई मौलवी साहब मूक बधिर के तरह निस्पंद थंे। उसे न जाने क्या सूझा, वह हकबकाकर उठने लगा कि उन्होने धीरे से उसके कंधे पर हांथ रख्कर कहा, हाँ-हाँ एक तरीका हो सकता है...उन्होने कुछ झिझकते हुए कहा।

' अगर तुम जिया से बहुत प्यार करते हो, उसके बगैर रह नहीं सकते। उससे ही शादी करना चाहते हो तो एक शर्त पर तुम्हारी जिया से शादी हो सकती है...तुम्हें कलमा-पढ़ना पड़ेगा।

' क्या...क्या मतलब है...वह क्या होता है? उसकी पेशानी पर बल पड़ गए.

'नहीं...नहीं ऐसा कुछ नहीं...मेरा मतलब है कि शादी के लिए तुम्हें इस्लाम धर्म अपनाना पड़ेगां' , यह कहकर वह हुक्का गुड़गुड़ाने लगे। वह स्तब्ध रह गया। उसके भीतर सब कुछ भरभराकर गिर गया। अम्मी की सुगबुगाहट विराम पा चुकी थी और एक संतोष का भाव, ऐसा पसर गया था जैसे समस्या का हल निकल आया हो।

जिया के मँुह से वेसाख्ता निकल गया 'ये तो नाइंसाफी है।' उसे अपने पर गहरी शर्म हो आई. उसे लगा कि उसे बहकाकर फुसलाया जा रहा है। वह विस्मय से अम्मी अब्बू को देखने लगी।

'चुप...रह बेगैरत लड़की। खानदान का नाम डुबोकर इंसाफी-नाइंसाफी की बात करती है।' मौलवी साहब दहाड़े।

अम्मी की चमकती आंखें बराबर उसे और लड़की को भेद रही थीं। उसका चेहरा म्लान पड़ गया। वह धीमे कदमों से लड़खड़ाते हुए कमरा पार कर रहा था। परन्तु उन्हें ऐसी अजीब बात कहते हुए कोई पछतावा नहीं था। बल्कि उसके जाते-जाते ही बोल उठे, जिया से निकाह करना है तो कलमा पढ़ना पड़ेगा...आमीन।

वह भागकर चला गया। बहुत देर तक वह मौलवी का चेहरा उसके पीछे भागता रहा। फिर अचानक वह गायब हो गया और उस औरत का चेहरा, कुटिल मुस्कान की तरह उसके आगे-पीछे डोलने लगा। लड़की कहीं नजर नहीं आ रही थी एक चमक की तरह उभरती और छिप जाती थी।

वह न जाग रहा था, न सो रहा थां। वह सोच रहा था, जब वह दस महीने पहले लड़की से मिला था तब कितना जुड़ा था अब कितना अलग है। तीन छोटे दिन और दो लम्बी रातें, जिनके बीच लड़की ने घर आफिस रात-विरात सैकड़ों फोन किए परन्तु उसने कोई काल नहीं उठाई. वह डूब गया था। लड़के का फलैट तीसरे खण्ड पर अंधेरे में डूबा पड़ा था गली के नुक्कड़ पर सिगरेट की दुकान थी और आगे मेन रोड पर व्हिस्की की...काश मैं पी सकता। उसने कभी ये चीजें छुई नहीं थीं परन्तु वह सोचता है, कहते हैं इससे गम को भुलाया जा सकता है ...और उसने इन सब को आजमाने का निश्चय किया परन्तु एक डर उसके भीतर आ बैठा, वही जिया ने उसे सिगरेट एवं शराब पीते देख लिया तो? यह जगह सुरक्षित नहीं है। वह किसी वक्त आ सकती हैं संदेह और अनिश्चय ने उसमें तनाव भर दियाँ उसे विश्वास नहीं आ रहा था कि वह वही आदमी है जो दस माह पूर्व था।

एक दिन लड़की उसके फ्लैट पर आ गई. कारण तलाशने। सप्ताह से ज़्यादा हो गया था किसी भी तरह का सम्पर्क नहीं हो पा रहा था। वह फ्लैट की सीढ़ियों पर खड़ी है-सफेद और स्तब्ध। उसका रूम बंद था। वह पिछली रात को ही चला गया थां। वह कहीं बीमार न हो गया हों कानपुर में हो सकता है? परन्तु सेल...स्वीच ऑफ क्यों...खो सकता है...गिरकर टूट सकता है...शायद चोरी हो गया हो...वह समझी नहंी...निराश वह बैरंग वापस आ गईं। उसके शहर जाना पड़ेगा। परन्तु क्या अम्मी अब्बू जाने देंगे?

वह शहर से दूर मोहनलालगंज चला आया था, वहाँ उसका कालेज था। वह तमाम झमेलों से दूर होना चाहता था, उसने कालेज क्वार्टर एलाट करवा लिया था, परन्तु शहर का फ्लैट छोड़ा नहीं था। यहाँ से हर सप्ताह अपने घर जाना दूॅभर हो गया और फिर इच्छा भी नहीं रही थी। वह अपनी स्थिति को लेकर हमदर्दी नहींे चाहता था। उसे हमदर्दी से चिढ़ होती थी। कालेज से सीधा क्वार्टर आ जाता और सिगरेट शराब में डूब जाता। शाम का खाना अक्सर रह जाता था। वह एक तरह की हार थी, जब हम नियति के आगे घुटने टेक देते हैं।

एक दोपहर जब वह अपना आखिरी पीरियड समाप्त कर स्टाँफ रूम के पास पहँुचा ही था कि उसके पांव ठिठक गये, वह खड़ी थी। स्टँाफ रूम के बाहर गलियारे में बेहद उत्सुक, गम्भीर और रूंआंसी मुखमुद्रा में इन्तजार में बोझिल आंखें, उसी तरफ तांकती हुई जिधर से उसे आना था। वह उदासी में भी खूबसूरत लग रही थी। 'तुम कहॉं हो?' बरबस उसके मूॅह से निकल गया-उसने दो कदम आगे बढकर उसे लपक कर पकड़ लिया। जैसे आईसपाईस खेलते हुये किसी छुपे लड़के को पकड़ा जाता हो।

'आपने पहॅंचाना नहीं?' यह व्यंगोक्ति थी या कटाक्ष्य? उसके चेहरे पर ज़रूर कुछ रहा होगा, अविश्वास या निराशा? वह झेप गया।

'क्या कोई और क्लास बाकी है?'

नहीं, नहीं। यह मेरी आखिरी क्लास थी। ताज्जुब है, तुम्हें यहॉं के विषय में पता था?

'आपने एक बार कालेज यहॉं पर है बताया था।'

उसे याद नहीं आया कब उसने उसे बताया था, लेकिन इस तरह उससे कालेज के गलियारे में बात करना कुछ अजीब-सा लग रहा था। आते-जाते स्टूडेन्ट एवं अध्यापक देख कर खड़े हो जाते थे और दुऑ, सलाम करने लगते। सोचा, स्टाफ रूम या कैन्टीन में ले जाऊॅं लेकिन वहॉं एकान्त नहीं मिलेगा। उसकी शिकवें शिकायतें होगीं? कालेज कैम्पस से बाहर ठीक रहेगा।

'कहीं बाहर बैठते है।' उसने कहा। लड़की ने उसकी तरफ कुछ उलझन भरी निगाहों से देखा। उसके भीतर धुकधुकी शुरू हो गयी। क्या पूछेगी? क्या जबाब देना होगा?

कालेज के अहाते से बाहर निकलते ही उसका मन बदल गया और वह उसे अपने क्वार्टर ले आया।

क्वार्टर एक तरह से खाली पड़ा था। लड़की की निगाह चारों तरफ घूम गई. एक फोल्डिंग पलंग, एक फोल्डिंग चेयर, एक स्टूल और एक स्टोव था। एक अल्मारी में ब्रेड का आधा पैकेट, एक दूध का पैकेट एक थैली में शक्कर, चाय का अध खुला डिब्बा रखा था। लड़की हैरान होकर ताकती रह गई जब उसने देखा आधा बोतल व्हिस्की और सिगरेट के दो चार पैकेट जिनमें एक पैकेट से कई सिगरेट गायब थी। कमरा धूल-धूसरती हो रहा था। सिंगरेट के टोटें और तीलियाँ चारों तरफ बिखरे पड़े थे। इस चीज ने उसे पीड़ित कर दिया।

बड़ी-बड़ी ऑंखों में छोटे-छोटे ऑंसू चमक उठे। उसने ऑंखों से पूछा क्या है ये सब? ऐसे रहते हो? ...उसकी ऑंखों में ढेरों प्रश्न थे। उसने कभी इस तरह नहीं सोचा था। 'आप को यह पसंद है?'

वह चुप खड़ा रहा। उसकी ऑंखें इधर-उधर भटक रही थीं। उसने उसके दोनों हाथ पकड़कर उसे कुर्सी पर बैठाया और बोला, 'तुम्हें, चाय बनाकर पिलाता हॅू फिर बात करेंगें।'

उसने उसे रोका और खुद चाय बनाने में जुट गई. उसे यह नापसंद था कि उसके होते वह घर का काम करें॥ उसने धीरज की सॉंस ली, कुछ देर के लिये लड़की के प्रश्नों का जबाब देने के लिये बचा रहेगा। वह जानता था कि वह उस नीरस अर्थहीन प्रश्नों का उत्तर खोजने आयी है, जो उसके पिता ने शर्त के रूप में थोंपे थे। उसने जल्दी चाय बना ली थी और उसे चाय देकर खुद कुर्सी पर बैठ गई. लड़का चुप रहा।

कभी वह अक्सर ऐसा सोचा करता था कि लड़की से नितान्त अकेले में मिलेगा, सिर्फ़ वे दो एक अकेले कमरें में। परन्तु आज सब कुछ वैसा ही है सिर्फ़ मन कुछ अलग-सा है।

'मुझे...! आपसे कुछ कहना है।' उसकी ऑखें उस पर स्थिर थी।

'मुझे मालूम है।' उसने कहा।

'आपको मालूम है, मैं आपसे क्या कहने आई हॅू?' उदासी की एक परत उस पर चढ गयी। वह चुप रहा।

'आप, अब्बा की शर्त मान क्यों नहीं लेते?' वे भी जानना चाहते है कि आपने क्या फैसला किया? वह हैरान रह कर उसे ताकता रह गया।

'यह तुम कह रही हो? तुम भी ऐसा चाहती हो।' उसकी ऑंखों में विस्मय और कुछ डर था।

'क्या करे? मजबूरी है।' यही तरीका है हम दोनों के एक होने का।

'जब प्यार करने में जाति, धर्म, उम्र, आदि नहीं देखते, तो उसी प्यार से शादी करने में यह सब क्यों?' वह चुप बैठी रही। एक आतुर-सी प्रार्थना उसमें थी। उसे उसका चेहरा साफ-सुथरा एवं निष्कलंक लगा।

'मेरे सामने कोई यह शर्त रखता तो प्यार के लिये मैं तुरन्त मान लेती।'

'तुम्हारी बात दूसरी है।' लड़की की कोई जाति धर्म नहीं होती। वह जहॉं ब्याह दी जाती है, या कर लेती है वही उसकी जाति धर्म हो जाती है। मैं तो आपने मॉं-बाप से भी बेगाना हो जाऊॅंगा। खामोशी का एक लम्बा अन्तराल और लटकते प्रश्न।

'आप से बहुत-सी आशायें थी।' उसने उनकी तरफ देखा'

'आशाएँ कैसी?' उसने कुछ नहीं बताया।

'हम लोग भाग कर शादी कर लेते है।' घर वालों की अनुमति-सहमति की ज़रूरत नहीं, जैसा पहले तुम चाहती थी। ' उसने उल्लसित होकर कहा। लड़की को उसकी बात असंगत लगी।

'पहले की बात अलग थी, तब आपको कोई नहीं जानता, पहचानता नहीं था।' अब वे आपको मार डालेगें। ...मैं आपसे कह रही हॅू। वे आपको मार डालेगें...यह कहते हुये उसका गला अजीब ढंग से रून्ध गया।

'अरे! कुछ नहीं होगा।' अनागत् की आशंका से विषाद कैसा? ' और फिर तुम्हीं तो कहती थी कि प्यार किया तो डरना क्या?

'कहा होगा?' परन्तु हम दोनों के ऐसा करने पर वे आपको मार डालेगें और मेरी शादी किसी से भी करवा देगें। वे बड़े कट्टर और जालिम है उन्हें कोई रोक नहीं पायेगा। मैं आपको सजीव पाना चाहती हॅू, निर्जीव नहीं। मैं मरकर मिलने में यकीन नहीं करती। मुझे इसी जन्म में मिलन चाहिये।

वह भ्रमित था। वह बेचैनी में था। उसकी उलझन बढती जा रही थी। उसे लगा कहीं उसका सर न फट जाये। परन्तु वह किसी हल के तलाश में थे। अचानक उसके दिमाग में एक विचार कौंधा-

'उदी...! ऐसा हो सकता है कि अभी हम अब्बू की बात मान ले...फिर रूक कर... फिर शादी के बाद हम लोग घर वापसी कर लेगें।' ...उदी-सोचो सोचकर विचार करो ऐसा हो सकता है। उसने इस पर जोर दिया।

इस बार उसके होठों पर अप्रत्याशित विकृत हंसी आ गई. उस हंसी में विवश निरीहिता थी, मानों हंसकर उसे विश्वास दिलाना चाहता हो कि उसकी सोच कितनी बचकाना है।

'ऐसा भी कहीं होता है? घर वापसी बड़ी हास्यापद चीज है।' इसमें बड़ा बवाल मचता है। यह न हो पाता है, न कोई छोड़ता है और न कोई स्वीकार करता है। न इधर के रहे न उधर के रहे। प्लीज मुझे माफ करियेगा। ' और वह ढह गया।

वह उŸाप्त हताशा के परे चली गई. वह उसे देख रही थी, जैसे कुछ फैसला कर ही न पा रही हो। समझ न पा रही हो, यह सब क्या हो रहा है, पूरी तरह सर चक्कर खा रहा था।

'चलती हॅू। उसने कहा और उठ खड़ी हुई.' क्या यह शुरूआत थी, उनके अलग होने की, बिखरने की, यह अनुत्तरित था।

वह भी खड़ा हो गया। उसके भीतर कुछ मर गया था। वह निष्प्रभ उसे जाते हुए देखता रहा-दुखी-दयनीय और अकेली सी. जब वह बिल्कुल ऑंखों से ओझल हो गई तो होश आया कि यही उसकी नियति है और उसकी भी