निरंतर परिवर्तन में परिवर्तनहीनता / जयप्रकाश चौकसे

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निरंतर परिवर्तन में परिवर्तनहीनता
प्रकाशन तिथि :01 दिसम्बर 2015


अमेरिका के क्वेंटिन टैरेंटीनो ने विगत दो दशकों में अधिकांश फिल्मकारों को प्रभावित किया है और विशाल भारद्वाज तथा अनुराग कश्यप के प्रेरणा स्रोत हैं। उनकी ताजा फिल्म 'द हेटफुल एट' को उन्होंने आज प्रचलित डिजिटल कैमरे से नहीं वरन् अतीत की 70 एमएम विधा में बनाया है। इसमें विराटता और भव्यता है तथा दुनिया के अनेक देशों में इसे 70 एमएम में ही प्रदर्शित करने की तैयारी हो रही है। इस विधा की सिनेमा तकनीकी 'लार्जर देन लाइफ' है। हम अपने नायकों को 'लार्जर देन लाइफ' रचते हैं। नायक एक साथ अनगिनत खलनायकों को मारता है। हम उसे अवसर की तरह रचते हैं। एक आइमैक्स विधा भी होती है, जिसकी फिल्म आधा दर्जन कैमरों से शूट होती है और प्रोजेक्शन रूम में भी अाठ मशीनें एक साथ छवि को प्रस्तुत करती हैं। इसमें दर्शक की कुर्सी कोचनुमा होती है और आप लेटकर छत तक तने परदे पर फिल्म देखते हैं। दुनिया में लगभग सौ आइमैक्स सिनेमा हैं, जिनमें से एक मुंबई में भी है और ये फिल्में प्राय: 45 मिनट की होती हैं, क्योंकि इससे अधिक अवधि की होने पर मनुष्य इस विचित्र विधा को सह नहीं पाता।

गौरतलब है कि 70 एमएम के सूर्यास्त के समय टैरेंटीनो ने यह फिल्म गढ़ी है, जबकि हर उद्योग में उगते सूर्य को ही प्रणाम किया जाता है। दरअसल, मनुष्य स्वभाव में अतीत की स्मृति के प्रति विशेष मोह होता है। युद्ध के विस्फोटक क्षणों में भी गहरे खंदक में तैनात सेना का जवान, मृत्यु के तांडव के बीच भी क्षणभर के लिए अतीत की स्मृति में चला जाता है। यह स्मृति एक मनोवैज्ञाननिक ऊर्जा है। जानवर निगले हुए भोजन को एकांत में बैठकर वापस मुंह में लाकर चबाता है, जिसे जुगाली करना कहते हैं और स्मृति भी एक तरह की जुगाली ही है। जब 1928 में अमेरिका में सवाक फिल्मों का दौर प्रारंभ हुआ और मूक फिल्मों का चलन ही बंद हो गया तब चार्ली चैपलिन ने सवाक दौर में एक मूक फिल्म बनाई और इसी तरह भारत में कथा फिल्म के जनक दादा फालके ने भी सवाक दौर में एक मूक फिल्म बनाई थी। संभवत: 2010 में अमेरिका में एक फिल्म बनी, जिसमें मूक दौर में सुपर सितारा रहे एक्टर को सवाक सिनेमा में असफलता मिलती है। यह कहानी दरअसल परिवर्तन के दौर में अपने को नहीं बदल पाने वाले व्यक्ति की त्रासद कथा थी। कुछ लोग परिवर्तन को फोटोफ्रेम समझते हैं और उसमें स्थिर चित्र की तरह समय की दीवार पर लटका दिए जाते हैं। हिंदी के महान साहित्यकार गुलशेर शानी की 'सांप और सीढ़ी' इसी विचार पर गढ़ी श्रेष्ठ रचना है। संसार की अनेक महान फिल्में 70 एमएम में रची गई हैं और टैरेंटीनो उसी की फिल्मी जुगाली प्रस्तुत कर रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि यह उनकी अन्यतम फिल्म है। विगत दो दशकों में भारतीय समाज में भी तेजी से परिवर्तन हो रहे हैं और इस आंधी ने कई चीजों को जड़ से उखाड़ फेंका है। टेक्नोलॉजी दो-धारी तलवार है, यह काटती भी है और रचती भी है। टेक्नोलॉजी उस गर्भवती सर्पणी की तरह है, जो एक कतार में दर्जनों अंडे देती है और पेट खाली होने पर यह सर्पणी लौटते हुए अपने अंडे खा जाती है। कतार से लुढ़के हुए कुछ अंडे बच जाते हैं।आज आई-पैड पर उपन्यास पढ़े जा सकते हैं, परंतु कागज पर अंकित किताब पढ़ने का मजा ही कुछ और है। उंगलियों से पृष्ठ बदलने से संभवत: वह अनुभव अवचेतन के द्वार खोल देता है और कागज पर अंकित भाव सीधे मन में समाते हैं और आई पैड पर खिसकती इबारत को कुछ लोग महसूस ही नहीं कर पाते हैं। यह पर्सनल और इम्पर्सनल का फर्क है।

दरअसल, परिवर्तन जीवन का नियम है और सामाजिक परिवर्तनों के दौर में सर्वकालीन नैतिक मूल्यों को अक्षुण्ण रखना आसान काम नहीं। केवल परिवार नामक स्कूल की शिक्षा ही इसमें मदद कर सकती है। आज के डिजिटल प्रदर्शन के दौर में सिनेमा के परदे पर प्रस्तुत छवि शूट किए का सौ प्रतिशत प्रक्षेपण नहीं है और कई डिटेल्स नज़र ही नहीं आते। प्रिंट के द्वारा दिखाई गई फिल्म शूट की गई फिल्म के साथ न्याय करती है। डिजिटल विधि पर संजोया ज्ञान किसी दिन लोप हो सकता है। आज इस नई सदी में भी हम सम्राट अशोक के पत्थर पर अंकित शब्द पढ़ सकते हैं, पुरानी प्रिंटेड किताब पढ़ सकते हैं। डिजिटल आना-जाना है। बहरहाल, यह उसी का दौर है।