निरामय / खंड 1 / भाग-1 / कमलेश पुण्यार्क
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मीरा तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला।
प्रिय मीरा, प्रियतम मीरा, तू मेरी साकी बाला।।
अपने हाथ पिला दे मुझको, मैं छक कर पीलूँ हाला।
फिर तू न रहे फिर मैं न रहूँ, बस रह जाए प्यासा प्याला।।
प्रियतम आज पिला दे इतना पी न सकूँ जितनी हाला।
तूही मेरी साकी बन जा, तू ही बन मेरी हाला।।
मेरे तन के रोम-रोम में बस जाए हाला-हाला।
आज पिला दे तू इतना कि फिर न कभी पीऊँ हाला।।
जाने किस मंजिल पर मिल कर हम दोनों टकरायेंगे।
फूट पड़ेगा प्यासा प्याला, चू जाएगी सारी हाला।।
प्रियतम आज समा जाने दे मुझको इन प्यासे प्यालों में।
खो जाने दे इन प्यालों की खन-खन करती गुँजारों में।।
सो जाने दे छाँव अलक में बन जाने दे मीरामय.....
‘मीरामय ’............ कहीं दिव्य लोक से आती स्वर-लहरी अचानक टूट गई। काश! यह सम्भव हो जाता- मैं हो पाता मीरामय! मीरामय!
‘निरामय ’ यानि निःआमय, विकार रहित, शून्य, बिलकुल अकेला, बेसहारा सा।नीरा एक अनुपमेय देव दुर्लभ पेय, और मीरा, उसे पान कराने वाली एक अद्भुत नारी।और मैं मीरामय बनने की चाह हृदय के अन्तस्थल में दबाये, बन गया निरामय, बिलकुल निरामय।
नींद से बोझिल पलकें खुल गयी थी।अचानक एक झटका सा लगा, मानों कोई झकझोर कर जगा गया हो। नींद की खुमारी अभी भी बनी हुई थी।गीत के बोल अभी भी उसी तरह कानों में मधु-रस घोल रहे थे।घोल रहे थे, घोलते जा रहे थे।
मैं न तो कवि हूँ, और न कभी कविता करने का प्रयास ही किया हूँ।किन्तु अनजाने ही आँखें मलते हुए बैठ जाता हूँ, डायरी खोल कर;और लिख डालता हूँ उपरोक्त पंक्तियों को, जिसे अभी-अभी सुना कर, साथ ही मुझे जगाकर, न जाने वह अदृश्य शक्ति स्वयं कहाँ गुम हो गयी।
काश! फिर सुन पाता उन झंकारों को...उन गुंजारों को...देख पाता रूप की उस देवी को...छू पाता सौन्दर्य की मलिका को...।
जल्दी-जल्दी डायरी के पन्नों में कैद कर डाला उन पंक्तियों को ताकि भूल न जाँयें जैसा कि अब तक सब कुछ भूलता आया हूँ, खोता आया हूँ....।
विचारों का जोरदार झोंका मस्तिष्क के वातायन से होकर आया, और अतीत डायरी के कितने ही रंगीन और कोरे पन्नों को फड़फड़ा कर पलट गया, पलटता गया...और पलटता गया।
दुर्भाग्य की काली चादर में उलझाकर खो दिया है मैंने अपने स्वर्णिम भविष्य को, गवां दिया है- अपनी शक्ति को।
शक्ति! जिसे समाप्त हुए आज कितने वक्त गुजर गए- यह बतलाने की भी शक्ति मुझमें नहीं रही।अगर रहती तो भी शायद पूर्णतया स्पष्ट बतला पाने में अशक्त ही रहता।
शक्ति! आह मेरी शक्ति!! मेरी मानसिक शक्ति...मेरी हार्दिक शक्ति...मेरी शारीरिक शक्ति...मेरी बौद्धिक शक्ति...मेरी आह्लादिनी शक्ति...मेरी सर्वस्व शक्ति...ओफ!
ओफ! मैंने खुद के हाँथों ही तो ‘उसका’ गला घोंट डाला। उसके पार्थिव काय पर अभी भी मेरी ‘शक्ति’ के दाग हैं।मेरी दसों अँगुलियों के दाग हैं, उन अँगुलियों के जिसे देख कर अनायास ही उस "दक्षिणी " ने कहा था एक दिन, "अरे तेरी तो सारी की सारी अँगुलियाँ चक्र पूर्ण हैं...तू तो बड़ा सौभाग्यशाली है।"
हस्तरेखा विज्ञान शायद बतलाता है, इन चक्रों का महत्त्व।ये चक्र भगवान कमलापति विष्णु के कर कमलों में सुशोभित सुदर्शन चक्र नहीं हैं।यह है मनुष्य की अँगुलियों के अग्रभाग पर विधाता द्वारा रचित, सुदर्शन चक्र का प्रतीक मात्र।कहा जाता है कि जिस व्यक्ति की दसों अँगुलियाँ चक्र के निशान-युक्त होती हैं, वह बड़ा ही भाग्यवान होता है।
“आज प्रजातान्त्रिक युग में भी, चक्रवर्ती राजा और सम्राट तो नहीं परन्तु तत्तुल्य धन, ऐश्वर्य, श्री, शक्ति सम्पन्न तो हो ही सकता है, इन चक्रों के बदौलत कोई भी मानव।"- इतना कह कर ऊपर की ओर नजरें उठायी थी, उस दक्षिणी हस्तविशारद ने और पल भर में ही किसी मनचले नौजवान सा मचल कर उठ खड़ा हुआ था, पास खड़ी शक्ति का हाथ लपकने को, “लाओ बेटी, अब तुम्हारा भी भविष्य जरा देख लूँ।तेरे पति का भाग्य तो बड़ा ही उत्तम है।विधाता ने तेरे हाँथों में क्या लिखा है, जरा उसे भी तो परख लूँ।"
किन्तु विजली की नंगी तार छू जाने का सा झटका लगा शक्ति को।पलक झपकते ही गौरैया सी फुदकती कमरे में घुस बैठी, यह कहते हुए, “छोडि़ये जी, मैं हाँथ-वाथ नहीं दिखती।"
मैं कहना ही चाहा था, ‘दिखा लो न शक्ति, पंडितजी बहुत अच्छा हाथ देखते हैं।’ पर मेरी बातें गले में ही अटकी रह गयी। कुछ देर बाद वह फिर दाखिल हुई उस कमरे में, हाँथ में एक हरा नोट पकड़ें हुए, जिसे दक्षिणी ब्राह्मण के आगे अवज्ञा पूर्वक फेंककर मेरी ओर मुखातिव हुई, “आप भी अजीब हैं, जिस-तिस के सामने हाँथ फैला देते हैं।क्या रखा है इन टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों की श्रृंखला में? बस खाने कमाने का एक जरिया भर ही तो है यह विद्या। गर्भस्थ बालक के लम्बे समय तक मींची मुट्ठी के कारण ही तो ये रेखायें कोमल हथेली पर उभर आती हैं। मैं नहीं समझती, इससे भी कुछ अधिक महत्त्व है या हो सकता है, इन बेतरतीब लकीरों का।यदि हाथ ही फैलाना है तो उस निर्गुण-निराकार-परब्रह्मपरमेश्वर, अचिन्त्य -सच्चिदानन्द-आनन्दकन्द, त्रिलोकी नाथ के सामने क्यों नहीं फैलाते? जो अपरिमेय है, अखण्ड है, अविनाशी है, सर्वव्यापी है, सर्वशक्तिमान है, नियंता है, रचयिता है, इस सृष्टि का मेरा और आपका...।"
शक्ति कहती जा रही थी, मैं सुनता जा रहा था।उधर बेचारा दक्षिणी, तुम्बी सा मुंह लटकाए अपने भाग्य को कोस रहा था, शक्ति द्वारा अनादर पूर्वक फेंके गए पांच रूपये के नोट को जमीन से उठाते हुए, अपना पोथी-पतरा समेट रहा था, मानों अपने अरमानों के लाश पर का कफन समेट रहा हो लगता है, दुनियाँ के हाँथ की लकीरें बाँचने वाला आज अपने ही लकीरों में उलझ गया है। तभी तो सबेरे-सबेरे प्रथम यजमान के साथ ही ऐसी दुर्घटना घट गई, जिसका उसे स्वप्न में भी गुमान न रहा हो।
शक्ति भीतर कमरे में जा चुकी थी।पूर्व प्रसंग पर व्याख्यान निर्वाध जारी था।मैं भी छेड़-छाड़ करने न गया।क्यों कि इसके दुष्परिणाम से अवगत हूँ, और इससे भी पूर्णतया अवगत हूँ कि आज
नास्तिकों सा प्रलाप करती शक्ति वस्तुतः कितना आस्तिक है।कितना विश्वास है इसे, लकीरों की लिपि पर, इस ‘सामुद्रिक शास्त्र ’ पर।यह दृढ़ आस्था यदि न होती, तो क्या मैं पा सकता था शक्ति को?
अतीत डायरी का एक और पन्ना पलट पड़ता है।
उस दिन रंगीन महफिल सजी थी, मेरे चचेरे भैया की बारात की महफिल।गाजे-बाजों का शोर शान्त होने लगा था।बरामदे में बैठी किन्नरियों का मधुर गुंजन भी लगभग समाप्त हो गया था।क्यों कि सभी ‘सराती’ अब बारातियों की भोजन व्यवस्था में जुट गए थे।बाराती प्रायः बाहर निकल गए थे, भोजन वाले पंडाल में।अन्दर आंगन में बस रह गए थे- भैया, जिनके बगल में लाल जोड़ें में लिपटी, गुडि़या सी सिमटी बैठी थी भाभी।मेरे और भैया के दो-चार मनचले दोस्तों के साथ मैं भी वहीं खड़ा, भीतर वरामदे की ओर कनखियों से निहार रहा था, जहाँ कुछ पल पूर्व इन्द्रलोक से उतर आयी अप्सराओं सी सजी-धजी गोरियाँ झाल-ढोलक-हारमोनियम की धुन पर थिरक रही थीं।उनमें भी अधिकांश जा चुकी थी।एक-दो जो पाये की ओट में खुद को छिपाने का निरर्थक प्रयास करती, हुलक रही थी, उन्हीं में एक पर अनचाहे ही मेरी निगाहें फिसल-फिसल कर फिर चिपक गई, क्यों कि यदि मेरी याददाश्त दुरूस्त है, तो निश्चित ही उस षोडशी को कहीं देखा हूँ, किन्तु कब..?कहाँ..?कैसे..?कुछ भी याद नहीं।
भूली-बिसरी बातों को याद करने में हृदय और मस्तिष्क की जो दुर्गति होती है, इसे कोई भुक्तभोगी ही समझ सकता है।प्रकाश से भी तीव्र गति से घूम गया मेरा मन न जाने कहाँ-कहाँ, और अन्त में आकर अटक गया- बर्षों पूर्व के एक दृश्य पर।
महानगर- कलकत्ता।बागड़ी बाजार के नुक्कड़ पर बने छावडि़या-निवास की पांचवीं मंजिल पर रहते थे- श्री देवकान्त भट्ट जी।न जाने कितनी बार गया था उनके निवास पर।हर बार साथ में रहता था वसन्त, मेरा ममेरा भाई।
उस दिन भी उसीने मुझे भी जबरन खींच लाया था।उसका रोज का यही कार्यक्रम रहता था- प्रातः छः बजे ही चल पड़ना किताब-कॉपी लेकर ट्यूशन के लिए। कोई दो घंटे बाद उधर से वापसी कार्यक्रम में शामिल रहता छावडि़या कोठी का दर्शन।उसके लिए यह अत्यावश्यक कार्यसूची में समाहित था।और फिर वहाँ पहुँच कर घंटो क्या, पहरों गुजर जाया करता किसी-किसी दिन।दरअसल, घर में दुलारे लाडले से पूछने वाला तो कोई था नहीं कि क्या तुम्हारा ट्यूशन एक घंटे के वजाय चार घंटे तक चलता है? उस दिन भी मैंने टोका था-वसन्त को- ‘व्यर्थ का मुझे क्यों घसीटते हो? तुम वहाँ चक्कलस करते हो, मैं बेकार बोर होता हूँ।’
मजाकिया अंदाज में होठ चुनते हुए वसन्त ने कहा था- “अरे मेरे दोस्त, क्यों अधीर होते हो, ऊपर वाले की कृपा यदि हुई तो तुझे भी कुछ मिल ही जाएगा।"
किन्तु क्या मैं सच में उसकी बातों को ब्रह्मवाणी मान लिया था उस दिन, जो वस्तुतः सही सिद्ध हुई कुछ ही काल बाद?
यही कोई सुबह के साढ़े आठ बजे होंगे।वहीं पास ही, छावडि़या कोठी के ठीक पीछे वाली गली में मास्टर केदारनाथ रहते थे, जिनके पास हम दोनों नित्य जाया करते थे, ईंगलिश ट्यूशन के लिए। उनके डेरे से छावडि़या कोठी पहुँचने में यही कोई पांच-सात मिनट का समय लगता होगा।और फिर पांच मंजिले इमारत की ऊँची दूरी विद्युत-चालित लिफ्ट मिनटों में ही तय कर देता था।परन्तु उस दिन काफी देर हो गई थी।कुछ तो केदार सर के यहाँ ही, और कुछ वक्त गंवा डाला बेरहम लिफ्ट, जो दूसरी मंजिल पर ही आकर अटक गई थी, विद्युत आपूर्ति में बाधा के कारण।उस बेज़ान को क्या पता था कि उस पर सवार है.एक कुँआरा धड़कता दिल।
खैरियत इतनी ही थी कि रूकी थी लिफ्ट ठीक दूसरी मंजिल पर पहुँच कर ही, जहाँ करीब पांच मिनट तक चालू होने की प्रतीक्षा करने के बाद हम दोनों लाचार होकर, बोझिल कदमों से सीढि़याँ नापने लगे थे।जल्दबाजी में वसन्त कभी-कभी एक के वज़ाय दो-दो पायदान तय कर रहा था।
हाँफते हुए जब हमलोग ऊपर पहुँचे तो वहाँ विचित्र बाजार सा जमघट लगा हुआ पाए। मलमल की समूची थान सिर पर बाँधे, बाजार का सारा गोपी चन्दन माथे पर पोते-स्फटिक, रूद्राक्ष, पद्माख, प्रवाल, मुक्ता, वैजयन्ती आदि न जाने कितनी ही मालाओं से ठसा गर्दन; पूरे शरीर को भस्मीभूत किए, कौपीन-धारी एक महात्मा का दर्शन हुआ।
कुल मिलाकर विचित्र ही वेश बना रखा था उन महानुभाव ने।एक ओर सिर पर पांच किलो की पगड़ी और दूसरी ओर नंग-धड़ंग --मात्र कौपीन।सिर्फ वह घर ही नहीं, वल्कि लगता था कि समूची कोठी ही उस छोटे से कमरे में समाकर महात्मा के श्रीचरणों में लोट जाना चाहता था।
महात्माजी बिजली-सी गति से धड़ाधड़ तत्रोपस्थित भक्त मंडली में किसी को भभूत, किसी को ताबीज, किसी को प्रसाद, किसी को मात्र आशीर्वाद बांट रहे थे।किंचित अत्यधिक जिज्ञासु और श्रद्धालु भक्त का पल भर के लिए हांथ थाम, टेपरिकॉर्डर सा बज उठते, और उसके भूत-भविष्य-वर्तमान को एक ही ‘एक्स-रे’ प्लेट में खींच कर रख देते।वाणी में इतना आकर्षण था कि चाह कर भी कोई विरोध न कर पा रहा था, उनके हड़बड़ी पर।
ज्यों ही हम दोनों वहाँ पहुँचे, दूर से ही देखकर पुकार उठे, मानों मैं उनका पूर्व परिचित हूँ- “आओ बेटा! आओ, मेरे करीब बैठो।तुम्हें तो मैं ताबीज़ बाद में दूँगा, पहले तेरा हाथ देखूँगा, क्यों कि तुम्हारा तो ‘लिलार’ चमक रहा है।"
किसी अज्ञात शक्ति से प्रेरित हो, मैं खिंचा चला गया उनके चरणों के करीब और जा बैठा अपने भाग्य की झोली फैलाए- दोनों हथेली पसार कर।
महात्माजी काफी देर तक निहारते रहे मेरे मुख मण्डल को।फिर बड़े मनोयोग पूर्वक देखने लगे मेरे हाथ की रेखाओं को।ऐसा प्रतीत होता था कि मेरी दुरूह हस्तलिपि उनसे पढ़ी न जा रही हो। उनके चेहरे पर बनती बिगड़ती सिलवटों को गौर से देखकर घबराया हुआ सा पूछा था वसन्त ने- “क्यों महाराज!क्या निहार रहे हैं इतने गौर से? क्या कोई दुर्भाग्य सूचक रेखा है मेरे मित्र की ...?"
परन्तु वसन्त की बात अधूरी ही रह गई। हंडे सा सिर हिलाते हुए महात्मा जी बोले, “नहीं...नहीं बेटा! ऐसी कोई बात नहीं है। तेरा मित्र बड़ा भाग्यवान है।इसे तो राजा होना चाहिए।इसी बात पर मैं गौर कर रहा हूँ, क्यों कि इसकी सभी अँगुलियों के अग्र पोरुए पर चक्र-चिह्न विद्यमान हैं, साथ ही हथेली पर ध्वज और मत्स्य के भी संकेत हैं; किन्तु ‘विनस’ पर्वत का जाल किंचित संशय का जंजाल बन रहा है।?
महात्मा जी की बात पर वसन्त मुंह मिचकाते हुए पूछा- “क्या होता है इसका मतलब? क्या विनस का जाल विनास की...?"
वसन्त की उत्सुकता को अधर में ही थाम लिया श्रीमान जी ने- “नहीं बेटा, ऐसी बात नहीं।जिस भाग्यवान के हाथों में भगवान ने दशों अवतार के प्रतीक को रख छोड़ा है, उसे यह साधारण सा जाल क्या विगाड़ सकता है?"
मैं अपनी रेखाओं का और अधिक स्पष्टीकरण चाह ही रहा था कि मेरे हाथ को उनके हाँथ से खींचते हुए वसन्त ने अपनी दोनों हथेलियाँ फैला दी, यह कहते हुए- “तुम क्या करोगे ज्यादा बातें सुन-जान कर? तुम तो स्वयं ही खानदानी ज्योतिषी ठहरे।"
वसन्त के मुंह से इतना सुनना था कि दिव्य महापुरुष निस्तेज हो गए, जैसे अरूणोदय के साथ ही तारिकाएं निस्तेज होने लगती हैं।तेजोदीप्त मुखमण्डल कोलतार सा हो गया।सिर उठाकर मेरे चहरे को गौर से एक बार देखे।पलकें शीघ्र ही गिर पड़ीं, जैसे सूर्यास्त के साथ पंकज-पुष्प पंखुडि़याँ समेटने लगता है।वसन्त ने बहुत आरजू-मिन्नत किया, “महाराज! मुझ अकिंचन पर कृपा करें, मेरा भी भविष्य कुछ उजागर कीजिए।"
परन्तु अब महात्मा जी कहाँ रूकने वाले थे।जल्दी-जल्दी अपना तुम्बा-सोंटा समेट, लिफ्ट की राह देखे वगैर खटाखट सीढि़याँ उतरने लगे।उपस्थित जन समूह की कातर दृष्टि उनके पृष्ट प्रदेश को ही निहारती रह गई।कितनों की लालसाएँ मन की मन में हीं दबी रह गईं।न जाने अभी कितने श्रद्धालु पुत्रान्वित-धनान्वित होते महात्मा जी की कृपा से;पर बीच में ही दाल-भात में मूसलचन्द की तरह हम दोनों टपक पड़े थे।कुछ लोगों को खीझ भी हो रही थी, वसन्त की बतफरोशी पर, किन्तु अब पछताए होत क्या....कृपानिधान तो ओस की बूंद हो गए।
महात्मा जी के पलायन के साथ ही श्री देवकान्त भट्ट ने आड़े हाथों लिया वसन्त को, “तूने आज तक कभी बतलाया भी नहीं मुझे कि तुम्हारा मित्र इतना गुणज्ञ है।" फिर मेरी ओर मुखातिब हुए- “आओ बेटा, बैठो न इधर।"
भट्ट जी के आह्नान पर मैं वसन्त के साथ अन्दर आकर बैठ गया।वही भट्टजी जो आज के पूर्व कभी बैठने तक भी न बोले थे, आज इतने सम्मान सहित भीतर बुलाकर सोफे पर आसन दिए।जब कि पहले स्थिति यह थी कि पहुँचते के साथ वसन्त खट से अन्दर घुस जाता, और मैं बाहर रेलिंग के पास खड़ा, नीचे आंगन में उड़ते कबूतरों को निहारता घंटों बिता देता।प्रायः नित्य की यही स्थिति थी। किन्तु उस दिन वसन्त द्वारा दिए गए संक्षिप्त परिचय की डोर ने मुझे तराई से खींच कर ‘एवरेस्ट’ पर पहुँचा दिया; जहाँ से यदि फिसल जाऊँ तो हड्डी-पसली एक हो जाए।आखिर हुआ भी तो कुछ ऐसा ही।
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