निरामय / खंड 3 / भाग-9 / कमलेश पुण्यार्क

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‘चिन्तन की भीड़ में तुम्हारे विचारों की गति से भी क्या तेज रफ्तार है मेरी गाड़ी की?’- मीना ने कहा था अपना सर झटक कर, और रफ्तार कुछ कम करती हुयी बायीं ओर मोड़ दी गाड़ी चाइना बाजार की ओर।

इधर कहाँ जा रही हो- पूछना चाहा था मैंने कि गाड़ी खड़ी हो गयी कपड़े की एक दुकान के सामने।

नीचे उतरते हुए बोली-‘आओ न इधर, कुछ जरूरी कपड़े लेने हैं। ’-कपड़े के लट्ठों की ओर अंगुली का इशारा करती हुई बोली-‘मौसी के लड़के को देने के लिए मम्मी ने कहा है। दो पैन्ट-शर्ट सेट पसन्द करो न। ’

कपड़े के बाद का पड़ाव था-जूते की दुकान। ‘आओ, जूते-चप्पल भी ले ही लूँ। ’

बिना नाप के ही, कपड़े की तरह?-मैंने कहा।

‘साइज तो तुम्हारे पैर का ही चलेगा। ’- कहती हुयी मेरा हाथ खीचती हुई अन्दर लिए चली गयी।

दुकान में काउण्टर पर बैठी जापानी षोडशी हमलोगों को देख कर मुस्कुराती हुयी अभिवादन की- ‘आझ एधर को क्यूँ कर आना हो गया मेना?’- फिर मेरी ओर मुखातिब हुयी-‘क्यूँ कोमल! टोम केढर को रहता आजकल?’

यह थी हमलोगों की पुरानी क्लासफेलो टामस। इधर एक साल पहले चली गयी नाम कटा कर कॉन्वेंट में। एक समय था, जब मीना से परिचय भी न था। स्कूल में आने के बाद पहला परिचय इसीसे हुआ था, और फिर बाहर में भी मिलने-जुलने का सिलसिला शुरू हो गया था। टामस को थोड़ा-बहुत हिन्दी सिखाने का श्रेय मुझे ही है।

पिता भारतीय, माँ जापानी। इस इण्डोजापानी किशोरी का मेरे प्रति अटूट आकर्षण रहा लम्बे समय तक। किन्तु परिचय की प्रौढ़ता और थोड़ी उन्मुक्त उडण्डता मुझे कुछ जँची नहीं। मीना ने ही कहा था, मुझसे एक बार- ‘जानते हो कमल! शी लव यू। ’ मगर यह कैसा ‘लव’ है, जिसकी परिभाषा और परिसीमा से भी हम अनभिज्ञ हैं?

उस समय दुकान के अन्दर बैठती हुयी मीना ने कहा था- ‘हाँ, बहुत दिन हो गए थे तुमसे मुलाकात नहीं हो पायी थी। लगता है, आजकल तुम ज्यादा समय दुकान पर ही देती हो? चलो इसी बहाने तुमसे भेंट भी हो गयी। हाँ, एक बढि़या सा जूता दिखलाओ। ’- हाथ का इशारा मेरी ओर था।

‘एक क्या देखेगा, बहोत देखो। ’- कहती हुयी टॉमस एक से एक बेशकीमती जूतों का अम्बार लगा दी थी;फिर उस ढेर के बीच में स्वयं बैठ कर कभी मेरा कभी मीना का चेहरा निहारने लगी थी। मानों सोच रही हो- उसकी निजी सम्पत्ति का अतिक्रमण कैसे हो गया।

मीना ने कहा था- ‘देखो न कमल, एक जूता जो अच्छा हो, पहन कर। ’

मेरे कुछ कहने से पूर्व ही स्वामी भक्त सेविका सी झुक कर बैठ गयी थी - मेरे पैरों के पास ही वह विरहिणी और एक जूता उठा मेरे पैरों में पहना कर खुद मचल उठी थी बच्चों जैसी- ‘ब्यूटीफुल...वेरी ब्यूटीफुल। ’

बेंच पर बैठी मीना ने पूछा था, उसकी कीमत। पर मुंह बिचका कर टॉमस ने कहा था- ‘ प्राइस ही देना है तो बहोत दोकान है-कोलकाता में। ’

किन्तु उसके ना-नुकुर के बाद भी मीना सौ का एक नोट उसकी ओर फेंककर उठ खड़ी हुयी थी। टॉमस का गुलाबी मुखड़ा ओले पड़े आलू के पत्ते जैसा हो गया था।

बड़े मायूसी से कहा था उसने-‘क्या मुझको इतना भी राइट नहीं है? शू तो मैंने कमल को दिया है, टाका तुम काहे को देता?’

किन्तु उसकी बातों को अनसुनी कर मीना आगे बढ़ गयी थी। दुकान की सीढि़याँ उतरती हुयी भुनभुनायी- ‘हुँऽह, ऐसी वैसी एहसान रखने वाली नहीं है मीना।

गाड़ी में बैठते हुए मैंने कहा था- स्वयं एक कंकड़ी भी बरदास्त नहीं, और दूसरे पर हिमालय...।

मीना थोड़ा गम्भीर हो गयी थी। गाड़ी स्टार्ट करते समय.मेरी ओर उठी उसकी तीखी निगाहें बतला रही थी कि यह कह कर मैंने उसके किसी कोमल मर्म को प्रताडि़त कर दिया है। संदेह तो मुझे कपड़ा खरीदते समय ही हो गया था। जूते के बाद तो स्पष्ट ही हो गया, यह सब मेरे लिए ही है- एहसानों का गट्ठर।

इन्हीं विचारों में था कि गाड़ी सडेन ब्रेक पाकर हिचकोले खाती खड़ी हो गयी- ‘नटराज टेलरिंग हाउस’ के सामने।

‘लगता है, तुम्हारी मौसी के सपूत का सब कुछ मेरे ही साइज का है...। ’- कहते हुए मैं भी साथ हो लिया था।

गम्भीर मुद्रा में मीना ने कहा था- ‘ तुम जैसा समझो। ’-और होठों पर जबरन चली आयी मुस्कुराहट को भीतर ही दबाने की चेष्टा की थी, क्यों कि उसकी चालाकी का बैलून फूट चुका था।

नाप देकर बाहर आते हुए मैंने पूछा- हो गयी मार्केटिंग या कुछ और बाकी है?

‘तुम्हें उब न हो रही हो तो एकाध आइटम और ले लेती। ’- कहती हुयी जोरों से हँस दी। अनजाने में ही हॉर्न दब कर चीख पड़ा, उसके बनावटी गम्भीरता के विखराव पर खिल्ली उड़ाते हुए। फलतः हम दोनों खिलखिला उठे। कुछ देर के लिए हँसी में ऐसा खोए कि गाड़ी ‘मीना निवास’ से थोड़ा आगे निकल गयी।

गाड़ी बैक कर अन्दर घुसे। पापा सीढि़यों पर ही मिल गए। मिलते ही टोका उन्होंने- ‘तुमने बहुत देर लगा दी मीना, हमें पुरानी गाड़ी से ही खिदिरपुर जाना पड़ा।

‘ओऽ थैंक्स पापा! तो आप लौट भी आए? दरअसल उधर से आता हुआ कमल मिल गया रास्ते में ही। बोला- कुछ मार्केटिंग करनी है। इसी में देर हो गयी। ’- मीना के कहने पर चाचाजी ने मेरी ओर देखते हुए कहा- ‘क्या-क्या खरीदे बेटे?’

मैं शायद कुछ उटपटांग कह जाता, यह सोच मीना ने जल्दी से पहल किया- बस एक पैन्ट-शर्ट पीस और जूते। ’

‘क्या जल्दबाजी थी इसके लिए? यहाँ आने पर यह सब नहीं हो सकता था। फिजूल का अपना पैसा बरबाद किए। ’- मेरी खरीददारी पर अफसोस जाहिर किया उन्होंने।

मैं कुछ कहना ही चाहा कि फिर मेरे बदले वही बोल पड़ी- ‘मैंने बहुत मना किया। पैसा भी दे रही थी। परन्तु मेरे पैसे से खरीदने से साफ इनकार कर गया। ’

मुझे खीझ हो रही थी, मीना के सफेद झूठ पर;किन्तु कुछ कह न सका।

तीनों ऊपर आ गए बैठक में। चाची काफी देर से इन्तजार कर रही थी। नजर पड़ते ही बोली-‘कब से आशा देख रही हूँ, चलो नास्ता करो। ’

‘नास्ता की तो बात ही मत करो मम्मी, हो सकता है रात खाना भी न खाऊँ। पेट सहलाती मीना ने कहा, और धब्ब से सोफे में धंस गयी।

हँसती हुयी चाची बोली- ‘ मतलब यह कि आज फिर चली है -राजपूती कचौडि़याँ और छेना पायस? कितनी बार कही- बाजार की चीजें न खाया करो, पर सुनती नहीं। ’

रोनी सूरत बना कर बोली- ‘मम्मी क्यूँ बोर कर रही हो मुझे?क्या मैं अकेली खायी हूँ सिर्फ.इसने भी तो...। ’- हाथ का इशारा मेरी ओर था- ‘ हाँ चाय जरूर पीऊँगी। ’

मुझे याद आयी- सामान तो नीचे गाड़ी में ही रह गया है। अतः नीचे जाने लगा। मीना भी उठ खड़ी हुयी, ‘तुम बैठो, मैं ले आती हूँ। ’ और मुझसे पहले ही खटाखट सीढि़याँ उतरने लगी।

थोड़ी देर बाद एक हाथ में सूटकेस और दूसरे में थैला लिए दरवान रामू ऊपर आया। उसके पीछे मीना भी आयी। साथ में विस्तर न देख मैंने पूछना ही चाहा कि वह स्वयं बोल उठी- ‘अपना विस्तर तो पीछे डिक्की में ही रखे थे न? पर है नहीं। ’ किन्तु उसका चेहरा बता रहा था कि विस्तर कहीं खोया नहीं है।

‘खैर उसकी चिन्ता छोड़ो, चलो अपने रूम में। ’

हमदोनों अपने कमरे में आ गए। रामू सामान लाकर एक ओर रख गया। उसके जाते ही मेरी ओर मुखातिब हुयी-‘क्या जरूरत थी -भानुमति के उस पिटारी को यहाँ लाने की?यहाँ पलंग और गद्दे पर नींद नहीं आती?’

‘इस अखरोटी दीवान पर ऊपर से उस चिथड़े जैसे विस्तर को डाल कर सोता, ताकि विस्मृति न हो अपनी वास्तविकता की। अन्यथा यहाँ डर है खो जाने का खुद को दौलत की चकाचौंध में और...।

मीना हँसने लगी थी। हँस तो मैंभी रहा था, पर दोनों की हँसी में थोड़ा अन्तर था।

महरी चाय लिए कमरे में प्रवेश की। देखते ही मीना ने पूछा- ‘अच्छा तो तुम आ गयी वसन्ती?कहाँ चली गयी थी?’

‘ओऽ...ओऽ बांकुड़ा से मुझे....। ’- हकलाती हुयी सी वसन्ती बोल रही थी। शायद शरमा रही हो कहने में। मीना हँसने लगी- ‘बस...बस समझ गयी मैं, तुझे देखने लड़के वाले आए थे न?’

वसन्ती ने हाँ में सिर हिलाया, और टेबल पर ट्रे रख कर उडंछू हो गयी। चाय की चुस्की लेते हुए मैंने पूछा- ‘यह कमरा तो मुझे सौंप दी, और तुम?’

‘कमरे की कोई कमी है क्या? चार सदस्य, चौदह कमरे। बस ठीक इसके बगल वाले कमरे में अपना डेरा डाल लूंगी। ’

‘तो वही कमरा क्यों नहीं दे देती मुझे? इसे तूने अपनी पसंद से सजाया है। ’- मेरे कहने पर कहा था मीना ने- ‘इसमें लगा ही क्या है, फिर उसे भी सजा लूंगी, तुम्हारे पसंद से। यह कहलाता रहेगा

मेरा कमरा, और वह कहलायेगा कमल का कमरा। ’

‘किन्तु मेरे पसंद से सजाए कमरे में तुम रह सकोगी? वहाँ न होंगे ये साजो सामान, न होंगी ये मुस्कुराती तारिकायें....। ’

‘कुछ भी हो अब तो रहना ही है। खुद को तुम सा बनाने की चेष्टा करूंगी, और तुमको अपने जैसा, तब न आयेगा मजा। ’- मीना कह ही रही थी कि वसन्ती दौड़ती हुयी आयी और बोली- ‘दीदी! एक लड़का आया है। कहता है- कमल है यहाँ?

‘कह दो उसे, यह कमल निवास नहीं है, यह तो...। ’

‘नहीं, मीना, क्या मजाक करती हो, सच में बोल देगी तो?’-मैंने कहा और प्याला वसन्ती को पकड़ाते हुए उठ खड़ा हुआ।

‘हो क्या जाएगा, बोल ही देगी यदि?कोई गलत थोड़े जो कह रही हूँ। ’- कहती हुयी मीना भी प्याला वसन्ती को पकड़ा कर उठ गयी। बाहर बालकॅनी में आकर नीचे झांका तो वसन्त को गेट पर खड़ा पाया।

‘आजाओ वसन्त। ’-कहते हुए नीचे उतरने लगा। मुझे देख कर वसन्त अन्दर आ गया। आते ही बोला- ‘कहाँ उड़ गए थे कपूर की तरह? सारा दिन खाक छानता रहा तुम्हारी खोज में यहाँ-वहाँ की। ’

‘तो क्या खाकों में रहने लगा है कमल आज कल?’- हँस कर मीना बोली।

‘सावित्री को छोड़ कर भला, सत्यवान खाकों में क्यों रहने लगा? वह तो मेरी भूल थी जो यहाँ न आकर कहीं और तलाश कर रहा था। ’- वसन्त ने चुटकी ली।

‘यमराज के भय से बेचारा आया तो सही जगह पर, किन्तु खोजी कुत्ते सा यमराज महाशय यहाँ भी आ धमके। ’- मीना की बात पर तीनों ही खिलखिला कर हँसने लगे।

‘चलो, ऊपर चला जाए। ’-वसन्त का हाथ पकड़ कर मैं चलने को उद्दत् हुआ।

ड्राईंग हॉल में चाचा-चाची बैठे चाय पी रहे थे। वसन्त को देखकर प्रसन्नता पूर्वक बोले- ‘कहो कैसे आना हुआ?’

सोफे पर बैठते हुए बसन्त ने कहा- ‘रात नाट्य कार्यक्रम के बाद मैं स्कूल में ही रह गया था, इसे भेज दिया डेरे पर। ’- हाथ का इशारा मेरी ओर था, ‘किन्तु सुबह डेरा पहुँचने पर माँ ने कहा कि वह तो यहाँ आया ही नहीं। मैं तुरत गया कालीघाट पता लगाने। वहाँ भी इसका कुछ पता नहीं चला। चाची ने कुछ स्पष्ट कहा भी नहीं। फिर सारा दिन इसी के चक्कर में गुजर गया-इस उस दोस्त के यहाँ पूछ-पाछ करते। थोड़ी चिन्ता भी होने लगी, क्यों कि रात काफी हो गयी थी, जब निकला था स्कूल से। अभी इधर से गुजर रहा था पैदल ही, तभी टॉमस से मुलाकात हो गयी। उसी के कहने पर यहाँ चला आ रहा हूँ। ’

एक ही सांस में पूरे दिन की दास्तान सुना गया था वसन्त। फिर कुछ देर इधर-उधर की बातें होती रही। चाची ने यमराज की भूमिका की सराहना की और पुनः किसी नाटक के आयोजन की फरमाइश भी की।

वसन्त मेरी ओर देखते हुए पूछा- ‘कल रात क्या यहीं आ गए थे? डेरा कब जाओगे? आठ बज रहे हैं। ’

उसकी बातों का जवाब दिया था श्री चटर्जी चाचा ने- ‘ डेरा कहाँ जाना है अब इसे। ’- और गत रात से अब तक की सारी बातें सुना डाला था वसन्त को। मेरी चाची के मन्थरा स्वभाव और घरेलू कुचक्रों से पूर्व अवगत था वसन्त। मेरा कंधा थपकाते हुए बोला - ‘बात जब यहाँ तक पहुँच गयी थी तो कब का ही छोड़ देना चाहिए था उनका डेरा। चले आते मेरे यहाँ। चाचा से कहीं अधिक मधुर रिस्ता होता है मामा का। मैं भी अकेला हूँ। एक साथी मिल जाता तुम्हारे जैसा। ’

‘सो तो ठीक कह रहे हो बेटे, मगर मुझे भी तो बुढ़ापे का एक सहारा चाहिए। बेटी आज है.कल अपने घर का रास्ता लेगी। ’-कहती हुयी चाची की आँखें किसी अतीत या भविष्य के दृश्य को देखने में निमग्न हो गयी थी शायद।

‘तो मैं चलता हूँ। बड़ी देर हो गयी है। माँ चिन्तित होगी। ’- कहता हुआ वसन्त उठ खड़ा हुआ।

‘अरे वसन्ती चाय तो पिला इसे। ’- चाची ने आवाज लगायी ।

‘इसकी अभी आवश्यकता नहीं। ’-कहता हुआ वसन्त चलने को हुआ, तभी वसन्ती ट्रे में चाय और कुछ नमकीन लिए चली आयी।

‘लो आ गयी, वसन्ती! चाय पिलाओ वसन्त को। ’- कहती हुयी मीना उठ कर दूसरे कमरे की ओर भाग गयी।

‘क्या बात है, मीना भागी क्यों?’- मुस्कुराते हुए चाचा ने कहा।

‘बड़ी शोख है। कोई बात याद आ गयी होगी। ’-कहती हुयी चाची ट्रे वसन्त की ओर सरका दी। मीना की हँसी का अर्थ शायद वसन्ती को लग चुका था, तभी तो झट ट्रे रख कर, मुस्कुराती, होठों को होठों से दबाती हुयी तेजी से वापस चली गयी थी, यह कहती हुयी-‘चूल्हे पर दूध चढ़ा आयी हूँ। ’

‘बड़ी होशियार है वसन्ती। मेहमान आया देख बिन कहे ही चाय बनाने चली जाती है। किसे कैसा स्वागत करना है, सब पता है इसे। ’-चाची अपने भगोड़न वसन्ती की सराहना कर रही थी।

चाय पी कर वसन्त चल दिया, यह कहते हुए- ‘कल स्कूल में भेंट होगी। क्लास तो है नहीं पर आना जरूर। ’

वसन्त के वापस जाने के बाद मैं मीना के कमरे में आ कर उससे पूछा- ‘क्यों भाग आयी मीना?’

‘वसन्त और वसन्ती की युगलबन्दी याद आ गयी थी। ’- कह कर वह फिर हँसने लगी। बात समझ कर मुझे भी हँसी आ गयी। आये दिन मीना ऐसी ही तुकबन्दी और चुहलबाजी करती रहती है।

फिर काफी देर तक हमदोनों मिल कर कमरा सजाते संवारते रहे थे।

अगले दिन प्रातः छः बजे ही मीना मेरे कमरे में आयी।

‘अरे तुम अभी तक सोये हुए ही हो?’-कहती हुयी मेरे वदन पर से चादर खींच कर अलग कर दी। मैं हड़बड़ा कर आँखें मलता उठ बैठा। लगा कि बहुत देर तक सोया रह गया होऊँ, किन्तु घड़ी पर ध्यान गया तो आश्वस्त हुआ। ‘अभी तो सिर्फ छः ही बजे हैं। ’ कह कर चादर पुनः तानना चाहा था।

‘तो क्या जगने का समय नहीं हुआ है अभी?’- मीना के स्वर में मासूमियत थी साथ ही आदेश झलक रहा था।

‘रात बारह-एक तक तुम्हारा सोने का समय नहीं होता?और छःबजे सुबह घडि़याल बजाने लगती हो?’-मैंने कहा।

‘कुछ याद भी है- आज वसन्त सप्तमी है। कालीबाड़ी चलना नहीं है क्या?’

उसकी बातों पर मुस्कुरा कर कहा मैंने - वसन्त सप्तमी ही है न, कमल सप्तमी तो नहीं? फिर क्यों कर हड़बड़ी रहे कमल को? अरे हाँ याद आया, वसन्त को कहा था- सुबह ही मिलने आऊँगा डेरे पर। वह प्रतीक्षा करता होगा।

‘छोड़ो भी, वसन्त हेमन्त की बात। उठो जल्दी से नहा-धो कर तैयार हो जाओ। ’- -कहती हुयी मेरा हाथ खींच कर बैठा दी और स्वयं चली गयी अपने कमरे की ओर।

करीब आधे घंटे के बाद मैं नहा-धोआ कर अपने कमरे में आया तो मीना को वहाँ बिलकुल तैयार बैठे पाया।

सद्यःस्नाता की उन्मुक्त अलकें पीठ पर लहरा रही थी। रक्त परिधान में लिपटा गेहुँआ गात बड़ा ही मनोहर लग रहा था। आज उसने साड़ी पहन रखी थी। टेपरेकॉर्डर फुल भौल्यूम में बज रहा था - ‘...पत्नींमनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम् , तारिणीम् दुर्ग संसार सागरस्य कुलोद्भवाम्....। ’

दरवाजे पर खड़ा, कुछ देर तक निहारता रहा था मैं, उस रूपश्री के पृष्ठ प्रदेश को ही, जो विस्तर पर झुकी हुयी, डायरी में कुछ लिख रही थी। वह लिखती रही थी, मैं देखता रहा था –मौन, स्थिर, शान्त, खोया हुआ सा- अतीत और भविष्य की किन्हीं सरणियों में।

अचानक डायरी बन्द करती हुयी पीछे पलटी, तो मुझे पास में खड़ा देख शरमा कर लाल हो, अपने आप में ही सिकुड़ती चली गयी। आंचल का पल्लू ठीक करती हुयी बोली- ‘अरेऽ! तुम कब से खड़े हो यहाँ? मैं समझ रही थी कि अभी बाथरूम में ही सोए हुए हो?’

‘बाथरूम में क्यों सोने लगा? मैं तो यहाँ तब से खड़ा हूँ , जब से तुम डायरी उठायी। ’- मेरे इस उत्तर से मीना कुछ अधिक चौंकी। शायद उसे मुझसे ऐसा उत्तर मिलने की आशा न थी।

‘तो तुम देखते रहे कि मैं क्या लिख रही हूँ?’- जरा गम्भीर हो कर मीना ने पूछा था।

‘देख तो रहा ही था, पर यह नहीं कि तुम क्या लिख रही हो। ’-मैंने कहा।

‘मतलब....? तो फिर क्या देख रहे थे?’- मेरी बात पर वह चौंकी।

‘घबराओ नहीं, दूर खड़ा था मैं। वैसे भी मेरी आदत नहीं है, किसी की पर्सनल डायरी देखने-पढ़ने की। ’- मैंने उसे आश्वस्त किया। उसने राहत महसूस की, और डायरी लिए कीचन की ओर चली गयी।

मैं कपड़े बदलने लगा, क्यों कि अभी तक भींगा तौलिया ही लपेटे हुए खड़ा था।

कपड़े पहन, खिड़की के पास खड़ा होकर बालों में कंघी कर रहा था। चाय का प्याला लिए मीना पुनः आयी।

इस बार पृष्ठ के वजाय मुख मण्डल प्रत्यक्ष था। क्षण भर के लिए मैं ठिठका रह गया। नजरें जा लगी थी उसके चेहरे से, जो वगैर किसी कृत्रिम प्रसाधन के ही तेजोदीप्त था। फिर खुद ही खीझ हो आयी, क्यों देखा करता हूँ- यूँ घूर कर इसे?क्या सोचेगी?

हाथ में लिए कंघी को मेज पर रख कर उसके हाथ से प्याला पकड़ते हुए पूछा-‘आज फिर तुम्हारी वसंती उड़ंछू है क्या, जो खुद चाय लिए आ रही हो?’

‘नहीं, वह वरतन धो रही है। जल्दबाजी में चाय खुद ही बनानी पड़ी। ’- उसने कहा था।

‘तो कौन सा पहाड़ ढाह आयी हो?’-चाय की चुस्की लेते हुए मैंने कहा- ‘वाकयी.चाय तो लाजवाब है। ’

‘मैं नहीं तुम ही तोड़ो पहाड़, चाय पीने में मामूली श्रम करना पड़ता है। जल्दी करो देर हो रही है। नास्ता वहाँ से लौट कर करेगे। ’

चाय पीकर हमदोनों निकल पड़े कालीबाड़ी के लिए। गाड़ी में बैठते के साथ ही मीना भजनों का कैसेट प्ले कर दी, और फिर रास्ते भर डूबे रहे भजनों की गूँज में।

मन्दिर के द्वार पर पहुँच कर कैसेट बन्द कर, पूजा की डोलची लिए नीचे उतरी।

पूजन, हवन, नैवेद्य अर्पण के बाद घृत मिश्रित कुमकुम का तिलक लगाया था मेरे ललाट पर पंडित जी ने, फिर मीना को भी लगाते हुए बोले- ‘चिर सौभाग्यवती भव। ’

शर्म से लाल पड़ती मीना ने तुनक कर कहा- ‘क्या कहते हैं पंडित जी, अभी क्या मेरी शादी हो गयी है?’ और लजाती हुयी पलट पड़ी थी।

ऊपर सर उठाया.तो पंडित स्वयं ही झेंप गया। उसकी ओर देखते हुए कहा- ‘कोई बात नहीं बेटी, विवाहित हो या अविवाहित, चिर सौभाग्य की कामना स्त्री मात्र की होती है। ’

मन्दिर से लौटते समय मीना थोड़ी गम्भीर बनी रही। सोच तो मैं भी रहा था- अनजाने में पंडित क्या अर्थ लगा गया। अजीब है लोगों की दृष्टि। नर-नारी का साथ क्या सिर्फ पति-पत्नी का ही होता है ? भाई-बहन या कुछ और भी तो हो सकता है। मीना मेरी सहपाठिन है। फिर क्यों कह गया पंडित ऐसी बात बेवकूफों जैसी, बेचारी क्या सोचती होगी?

कभी-कभी अनजाने में ही अनावश्यक बज उठता गाड़ी का हार्न स्पष्ट कर रहा था कि उसका ध्यान कहीं और है। मौन मीना सोचती ही जा रही थी। एकाएक हल्की सी मुस्कुराहट खेल गयी उसके होंठों पर।

मैंने पूछ दिया- क्या सोच रही हो मीनू?

‘तुम्हारा सर। ’- चहक कर कहा उसने- ‘खुद हमेशा कुछ न कुछ सोचते रहते हो, तो समझते हो कि हर कोई सोच ही रहा है। तुम ही बतलाओ न क्या सोच रहे थे?’

‘कुछ सोच नहीं रही थी तो मुस्कुरायी क्यों?’--जवाब के बदले मैंने सवाल ही किया।

फ्रन्टमीरर में मुझे निहारती हुयी बोली थी-‘तुम्हें देख कर हँसी आ गयी। ’

‘मैं क्या सरकस का जोकर हूँ जो मुझे देख कर हँसी आ रही है तुम्हें?’

‘जोकर से कम ही कहाँ हो, हर समय मुंह बनाकर सोचते रहते हो। बताओ न क्या सोच रहे थे?’- हवा के झोंके में विखरते अपने केस सम्हालती हुयी फिर पूछा था मीना ने।

‘पहले तुम बतलाओ, क्यों कि मैंने पहले प्रश्न किया है। ’- अपनी गोटी बैठायी मैंने।

‘वैसे मैं कुछ सोच नहीं रही थी। यूँही पंडित की बात पर हँसी आ गयी थी। मूर्ख को उमर की भी पहचान नहीं। ’

‘उमर क्या पहचानता बेचारा, तुम क्या अभी बच्ची हो?’

‘नहीं बूढ़ी हो गयी हूँ। बच्ची कहाँ रही। ’

‘सोलह की उम्र होने को आयी, शादी क्या नहीं हो सकती है इस उम्र में? मेरी भाभी की उम्र तो अभी पन्द्रह की है सिर्फ।

‘इतनी कम उम्र में तुमलोग में शादी होती होगी, हमारे यहाँ...। ’

‘बूढी होने पर, क्यों है न यही बात?’- मैंने बीच में ही टोका।

‘धत् तुम बड़े वो हो। ’- कहती हुयी गाड़ी खड़ी कर दी- घर के बाहर ही सड़क किनारे।

दोनों एक साथ नीचे उतरे। सीढि़याँ चढ़ती हुयी उसने कहा- ‘नास्ता करके जल्दी से तैयार हो जाना चाहिए। आज मूर्ति विसर्जन है न?स्कूल चलना है। ’

मैं उसे गौर से देख रहा था, जो अब तक बारह सीढि़याँ चढ़ने

में ही पांच बार आंचल गिरा और उठा चुकी थी। जी में आया, टोक दूँ- इतनी बड़ी हो गयी, साड़ी भी सम्हाल नहीं होती। किन्तु मेरे कुछ कहने से पहले वह खुद ही बोल दी- ‘मुई साड़ी जो है वदन पर रहना ही नहीं चाहती। बार-बार ठीक करती हूँ और गिर-गिर पड़ती है। कितना सम्हालूँ?’

ऊपर आकर मैं सीधे अपने कमरे में चला गया। मीना अपने कमरे में चली गयी। थोड़ी देर बाद पुनः आयी मेरे कमरे में। इस बार परिधान दूसरा ही था- साड़ी का स्थान पूर्व पोशाक ‘बेलबॉटम’ ले चुका था।