निरामय / खंड 4 / भाग-11 / कमलेश पुण्यार्क
मेरी टिप्पणी सुन मीना ने कारण स्पष्ट किया- ‘तुम नहीं समझते, इसकी हरकत। कितनी मक्कार है यह, मैं जानती हूँ। शैतानी कूट-कूट कर भरी है इसमें। साथ यहाँ-वहाँ घूमती, रास्ते भर हमलोगों की बातें सुनती और घर जाकर बज उठती बिना बैटरी के ही। ’
मीना उसके स्वभाव की बखिया उघेड़ती हुयी, गाड़ी पुनः मोड़ दी चितरंजन एभेन्यू की ओर।
अब किधर चलने का विचार है?’- मैंने पूछा था।
सामने लाल सिगनल देख गाड़ी रोकती हुयी बोली- ‘चौराहे पर तो खड़ी हूँ , जिधर बोलो चल दूँ। ’
‘मेरी ही मर्जी से चल रही हो क्या इधर-उधर चक्कर मारती?मेरा तो विचार हो रहा है- कालीघाट चाचा के डेरे पर चलने का। आज दशहरा है। बुजुर्गों का आशीर्वाद लेना चाहिए। ’- कहते हुए उसके चेहरे के भावों को पढ़ने की चेष्टा की मैंने।
सिगनल ग्रीन हो गया।
‘हुँऽह! चाचा का आशीर्वाद या कि चाची का अभिशाप?’- मुंह विचका कर कहती हुयी मीना, गाड़ी सीधे ‘स्प्लैनड’ की ओर बढ़ा दी। मैंने कुछ कहा नहीं।
अभी कुछ ही आगे बढ़े थे, कि एक गाड़ी ओभर टेक करती हुयी, थोड़ा आगे बढ़ बायीं ओर ‘कोका फाउण्टन’ के पास सड़क के किनारे खड़ी हो गयी। मीना ने हाथ के इशारे से बताया कि यह गाड़ी टॉमस की है। फिर मेरी ओर देखती हुयी बोली- ‘क्यों न कुछ ठंढा लिया जाए। टॉमस से भी भेंट हो जाएगी। ’
मेरी इच्छा तो नहीं थी, कारण - जानता हूँ कि मीना को मेरे साथ देखकर टॉमस मन ही मन जल-भुन जाएगी। पर मेरे कुछ कहने के पूर्व ही उसके ठीक पीछे जाकर इसने भी गाड़ी खड़ी कर दी।
‘उसे कुढ़ाने की क्या जरूरत पड़ गयी तुम्हें?अनावश्यक किसी का जी नहीं दुखाना चाहिए। ’-मैंने गाड़ी में बैठे-बैठे ही कहा।
‘तो तुम उसके डर से उतरोगे भी नहीं क्या?’- स्वयं गाड़ी से उतरती हुयी मीना बोली।
अभी मैं सोच ही रहा था, कुछ कहने को उधर से लपकता हुआ वसन्त आ गया। थम्सअप की घूँट लेते हुए बोला- ‘वाह यार कमल, कमाल हो तुम भी, मीना का साथ, इतना हीना बना गया मुझे?अरे दोस्त, कभी-कभी तो याद कर लिया करो इस गरीब बन्दे को भी। ’
वसन्त को देख कर गाड़ी से उतरते हुए मैंने कहा -‘क्या बात करते हो, दोपहर में ही गया था तुम्हारे यहाँ। मामी ने बतलाया कि तुम सुबह से ही निकले हो टॉमस के साथ। ’
‘क्या बकवास करते हो? वैसे भी तुम्हारी आधी बात ही सही है। ’- वसन्त थोड़ा झल्लाकर बोला।
‘आधी बात?’- इसका मतलब?’--मैंने हाथ मटका कर पूछा।
‘आपका बयानबाजी आधा झूठ इसलिए है, क्यों कि टॉमस-वामस
के बारे में माँ-पापा को कुछ भी अता-पता नहीं है। ’- वसन्त ने हँसते हुए कहा, और, मेरा हाथ खीचते हुए, ले जाकर टॉमस के सामने खड़ा कर दिया, इजहार के लिए, जो स्टॉल पर खड़ी लेमनड्रॉप पी रही थी।
^^ Hello! Kamal ! How are you? Happy Dashahara both of you.” कहती हुयी बड़ी ही गर्मजोशी से टॉमस ने हाथ मिलाया था, और मेरे बगल में खड़ी मीना की निगाहें पैनी होती चली गयी थी, उसके चेहरे पर धँसने के लिए, और उसकी इस हरकत को देखकर, मीना पांव पटकती चली गयी थी बगल के ही काउण्टर पर।
मैंने वसन्त को छेड़ते हुए, अपने गँवई जुबान में कहा ताकि कोई और समझे नहीं- ‘इस परी को कहाँ लिए फिर रहे हो?’
‘परी?’- वसन्त समझकर भी नासमझी का भाव बनाया।
‘हाँ यार, मुझे तो डर लगता है कि कहीं अपने पंखों की हवा में उड़ा न ले जाए। ’
हँसते हुए वसन्त ने कहा था- ‘तुम्हारी उर्वशी से कहाँ मुकाबला कर सकती है बेचारी?इन भूरी आँखों की कोई तुलना है, उन रतनारी आँखों से?’
मीना दोनों हाथों में ‘डबल सेवन’ की दो बोतलें पकड़े हुए आगयी। गुस्सा तब तक हीरन हो गया था।
‘चलो अच्छा हुआ, वसन्त से भी मुलाकात हो गयी। ’-मुझे एक बोतल पकड़ाती हुयी बोली।
चारो वहीं खड़े होकर देर तक बात करते रहे थे। हाथ का खाली बोतल क्रेट में डालते हुए वसन्त ने पूछा- ‘तुमलोगा का किधर जाने का प्रोग्राम है?’ और टॉमस की ओर देखने लगा था- मानों प्रश्नोत्तर उसी के पास हो।
मेरा बोतल भी खाली हो चुका था। क्रेट में डालते हुए मैंने कहा- ‘यूँही निकल पड़ा हूँ। कोई खास प्रोग्राम नहीं है। बस इधर-उधर घूमना, और क्या। ’
‘तो फिर चलो, कोई फिल्म ही देखा जाए। ’- जेब से मनीपर्स निकालते हुए वसन्त ने कहा।
‘पर अभी कहाँ?’- कलाई घड़ी पर निगाह डालती हुयी मीना ने कहा- ‘अभी तो सिर्फ चार बज रहे हैं। ’ और हाथ में बोतल लिए हुए काउण्टर की ओर चली गयी थी, बिल अदा करने।
‘दो-चार पंडालों का चक्कर मारा जाएगा, उतनी देर में। ’-टॉमस ने कहा। और बगल में खड़े वसन्त की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि डाली थी। वसन्त बिना कुछ कहे, सिर्फ ‘हाँ’ में सिर हिला दिया।
‘तुम्हारी क्या राय है मीना?’-बिल चुका कर वापस आ चुकी मीना से मैंने पूछ दिया।
मेरी बात का जवाब उसने देना ही चाहा कि पर्स दिखाते हुए वसन्त ने कहा, ‘मैं तो बिल देने ही जा रहा था, तुम क्यों चुका दी?’
‘मेरी मर्जी। ’- वसन्त के सवाल का बेवाक जवाब देती मीना हाथ में चाभी का छल्ला नचाती गाड़ी में जा बैठी।
चलो चला जाए। - कहता हुआ मैं भी बढ़ चला गाड़ी की ओर। वसन्त टॉमस के साथ उसकी गाड़ी में बैठा।
‘तुम भी अजीब हो मीनू। ’- कहता हुआ मैं आ बैठा मीना के बगल में ।
फिर काफी देर तक चक्कर लगाते रहे थे हमलोग इस पंडाल से उस पंडाल। वसन्त ड्डर टॉमस भी चल रहे थे साथ-साथ ही ।
वैसे तो दुर्गापूजा लगभग देशव्यापी है। फिर भी बंगाल की यह पूजा बेमिशाल है। किसी मैदान में, किसी चबूतरे पर वांस-बल्ली घेर कर मूर्ति रख कर, शंख फूंख देना और बात है, सिर्फ कोरम पूरा करने जैसी। किन्तु यहाँ की पूजा, पूजकों का उत्साह, समर्पण, उद्गार अकथनीय है- गूंगे की मिठाई जैसी। पूजा के नाम पर चन्दा तो हर जगह लिया जाता है- वसूला जाता है-टोल टैक्स की तरह। बहुतों का व्यवसाय भी है यह। किन्तु उसका कौन सा हिस्सा वास्तविक पूजा में व्यय होता है? न सजावट, न सामग्री, न कुछ और ही। नियम और मर्यादाओं की धज्जी उड़ाते वीभत्स गाने और डीजे के कर्कस धुन पर नशे में धुत्त नाचते युवक। आम तौर पर यही तो
मिलता है- मनोरंजन के जगह शान्ति भंजन।
कलकत्ते का दशहरा अपने आप में परिष्कृत सामाजिक सौहार्द पूर्ण व्यवस्था है। नवरात्र के पूर्व दिन से ही वातावरण स्वच्छ होने लगता है। ब्रह्म मुहुर्त में आकाशवाणी से प्रसारित श्री दुर्गा सप्तशती का सस्वर पाठ अद्भुत परिष्कार कर जाता है- चारो ओर, मानों माँ दुर्गा के आगमन के लिए बुहारी और छिड़काव किया जा रहा हो।
अगले दिन कलश स्थापन करके जगह-जगह पाठ शुरू होता है। विलकुल वैदिक वातावरण बन जाता है। झांझ-मजीरे-करताल, घंटा-घडि़याल का धूम-धड़ाका, सुगंधित वातावरण- अजीब सा समा बंधा जाता हैं।
सप्तमी से पंडालों में पट खुलते हैं। श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है, दर्शन के लिए। मूर्तियाँ ऐसी कि लगता है - बोल पड़ेगी। कोई मूर्ति को देख कर मुग्ध होता है, कोई कारीगरी पूर्ण सजावट को। आधुनिक तकनीक का सहारा लेकर गत्यमान बनाई गई मूर्तियाँ बरबस ही मन मोह लेती हैं। पंडाल भी कोरे पंडाल नहीं होते। विभिन्न कृत्रिम प्रसाधनों से निर्मित- मन्दिर, भवन, कन्दरे, पहाड़, झरने, जंगल सब कुछ दिखाने का सफल प्रयास होता है, इन पंडालों में। कलाकार पूर्णतः समर्पित हो जाता है- माँ के श्रीचरणों में अपनी कला को लेकर।
मीना ने कहा था- ‘जब से होश सम्हाली, देखते आरही हूँ , यहाँ की पूजा व्यवस्था। पापा कहते हैं कि तुम क्या मैं अपने होश से देख रहा हूँ- कला का अद्भुत प्रदर्शन। ’
वसन्त और टॉमस भी अभिभूत थे।
अचानक चेहरे पर विखर आयी गेशुओं को हटाती हुयी मीना ने मुझसे सवाल किया- ‘विचार है फिल्म देखने का?’
‘जैसी तुम्हारी इच्छा, क्यों कि आजकल तो तुम अपनी मर्जी के मुताबिक चल रही हो। ’- कहता हुआ मीना की आँखों में आँखें डाल दिया उसकी प्रतिक्रिया जानने को।
‘अपनी मर्जी?’- विस्फारित आँखों से मेरी ओर देख कर पूछा उसने- ‘क्या मतलब?’
‘और नहीं तो क्या, बेचारा वसन्त पर्स लिए ताकता ही रह गया, और तुम सबका बिल अदा कर आयी। ’-मैंने कहा था।
‘धऽऽत् तेरे की! तो तुम्हारा दिमाग अभी वहीं काउण्टर पर ही अंटका हुआ है इतनी देर से?’- ठठा कर हँसती हुयी मीना ने कहा।
‘चलो, चलो देख लिया जाए फिल्म। पिछले आठ महीनों से कहाँ देख पाए हैं हमलोग कोई फिल्म?’- बड़े अफसोस की मुद्रा में कहा था मीना ने, मानों बहुत दुःख की बात हो गयी हो- इतने दिन सिनेमा न देखना।
कुछ देर बाद हमलोग ‘पैराडाइज’ पहुँच चुके थे। यहाँ भी मीना चालाकी कर गयी। वसन्त पूछ रहा था कि किस क्लास का टिकट लिया जाय, जिसके जवाब में टॉमस ने कहा कि ड्रेस सर्किल का ही अच्छा रहेगा, परन्तु उसकी बातों को नजरअन्दाज करती मीना लपक कर आगे बढ़ गयी थी, और स्पेशल बॉक्स की चार टिकटें ले आई। टॉमस और वसन्त ताकते ही रह गए थे।
कुछ देर तक ‘विन्डोड्रेसिंग’ का अवलोकन करने के बाद हमलोग हॉल के अन्दर घुसे। फिल्म बड़ी दर्दनाक थी- “प्यासी आत्मा"
सीट पर बैठती हुयी मीना बोली- ‘बहुत दिनों से सोच रही थी, इस फिल्म को देखने के लिए, पर मौका न मिला। शानदार पचहत्तरवाँ सप्ताह चल रहा है, पर देखो अब भी हाउस फुल जा रहा है। ’
मैंने सीट पर बैठते हुए पूछा- ‘यह तो वही फिल्म है न जिसकी कहानी मिस्टर अशोक राज ने लिखी है, और पटकथा उसकी पत्नी आएशा ने तैयार की है?’
‘हाँ, उसी की कहानी है यह। बड़ा ही दर्दनाक कथानक रचता है वह। उसकी मिसेस- आएशा भी लाजवाब है। ‘ए’ हटा दो बीच से तो हो जाए आशा, पर काम है निराशा वाला। ’
फिल्म शुरू हो गयी। मीना की आँखें अविराम टिकी थी पर्दे पर। ध्यान तो मेरा भी वहीं था, पर बीच-बीच में नजरें बचा कर देख लिया करता कनखियों से उसे भी। हर बार उसे जरूरत से ज्यादा ही गम्भीर पाता। दृश्य कुछ ऐसा ही दर्दनाक चल रहा था। यहाँ तक की उसकी आंखें सावन-भादो की बदली सी बरसने लगी थी, जिसे मेरी निगाह बचा कर बीच-बीच में रूमाल से छिपाती जा रही थी। मेरी आँखें भी सजल हो आयी थी।
एकाएक मीना चीख पड़ी जोरों से, और लिपट गयी मुझसे-‘कमल छिपा लो मुझे। ’- कहती हुयी मेरे सीने में अपना सर घुसाए जा रही थी, मानों सच में घुस कर अन्दर समा जाएगी। मुझे कुछ अजीब सा लगा, साथ ही यह भी ध्यान आया कि लोग देखेंगे तो क्या सोचेंगे- कैसे असभ्य हैं सब। खैरियत था कि टू-सीटेड बॉक्स में थे।
मैं मीना को झकझोर रहा था- ‘मीना...मीना...क्या हुआ तुझे, इस तरह क्यों कर रही हो पागलों जैसी हरकत?’- किन्तु वह चिपटी जा रही थी मेरे सीने से। पत्ते सी कांप रही थी। कुछ देर बाद हकलाती हुयी बोली, -‘ कमल, मुझे बाहर ले चलो...बाहर ले चलो कमल जल्दी से...मेरा मन बहुत घबड़ा रहा है...नहीं देखा जायगा ऐसा दृश्य मुझसे...अजय...अभागा अजय..रीना...उसकी असफल प्रेमिका...देखा नहीं तुमने, कैसे भयानक पंजे थे, उस प्यासी आत्मा के...अगर दो-चार बार ड्डर ला दे इस दृश्य को सामने तो मेरी तो जान निकल जाएगी। ’
मैंने हँसते हुए कहा था- ‘बस इतनी ही हिम्मत है? जरा सा भयानक दृश्य क्या देखी कि पसीने छूट गए। ’
मीना प्रकृतिस्थ होते हुए ठीक से सम्हल कर बैठती हुयी बोली-‘कमल, मैंने आज तक किसी से प्रेम नही किया है। उमर ही अभी क्या बीती है प्यार करने की, पर प्यार इतना खतरनाक हो सकता है, इसकी कल्पना भी तो नहीं किया था मैंने। ’
‘जब प्रेम की ही नहीं फिर उसके परिणाम की परिकल्पना कैसे हो सकती है?’-मैं कह ही रहा था कि मेरे हाथ का स्पर्श करती हुयी मीना, मेरा ध्यान पर्दे पर खींच ले गयी।
हमने देखा.प्यासी आत्मा-अजय की आत्मा ने अपनी असफल प्रेमिका - रीना को अपने भयानक पैने पंजों में दबोच लिया है। रीना चीख रही है- ‘बचाओ...बचाओ..। ’- और इधर मीना फिर सरक आयी है मेरे समीप। मेरे कंधे पर सिर टिका कर बोली- ‘कमल, छोड़ो इसे। चलो घर चला जाय। बाज आयी ऐसी फिल्म देखने से। फिल्म तो देखता है कोई मनोरंजन के ख्याल से; पर यहाँ तो रोते-रोते आँखें सूजती जा रही हैं। ’
मेरे कंधे से सिर हटा कर मेरा हाथ पकड़.खड़ी हो गयी थी।
‘इन्टरवल के पहले तक तो सिर्फ प्यार की तड़पन थी, किन्तु बाद में इस भयानक आत्मा ने आकर तहलका ही मचा दिया। ’- कहती हुयी मीना अपनी घड़ी की ओर देखी- ‘ अभी आधा घंटा से अधिक बाकी है। ’ और मेरा हाथ खींचती हुयी चलने को कहने लगी मुझे भी।
मैंने उसे समझाते हुए कहा- ‘बस, आधे घंटे की तो बात है, जरा सब्र तो करो। ’- और हाथ खीच कर पुनः बैठा दिया सीट पर।
फिल्म चल रही थी- अजय की आत्मा बारम्बार प्रयास कर रही थी- रीना को पाने का। एक बार रीना किसी जलसे से लौट रही थी। वहीं उसको नया प्रेमी मिल गया था- रमेश। पार्टी समाप्त होने के बाद उसके साथ ही
गाड़ी में लौट रही थी। मधुर प्रेम की रागिनी छिड़ी थी। रात के दो बज रहे थे। मुख्य शहर से कुछ हट कर रीना का निवास था। चौराहे पर पहुँच कर दोनों को दो ओर जाना था। रीना कुछ कहना ही चाही थी कि अचानक बोल्डर से टकरा कर गाड़ी का चक्का पंचर हो गया।
रमेश ने कहा- ‘बड़ी मुश्किल हो गयी। स्टेप्नी भी नहीं है पास में। अब तो गाड़ी छोड़ कर आधा मील पैदल ही जाना पड़ेगा। ’
‘कोई बात नहीं, तुम चले जाओ, मुझे घर छोड़ने के चक्कर में और देर होगी। ’-रीना ने कहा था, और गाड़ी से उतर कर चल दी।
रमेश ने उसे टोककर कहा- ‘वाह, भागी कहाँ जा रही हो, विदाई भी नहीं कर पाया मैं। ’- और पास आ रीना को अपनी बाहों में भर कर उसके होठों पर प्यार का मुहर लगाते हुए कहा- “Good night Rina.”
रीना ने भी कहा था- “Good night Ramesh.To-morrow we shall meet.” और आगे बढ़ गयी थी, सुहानी चाँदनी रात को चीरती हुयी, परी की तरह। रमेश भी उस चौराहे से ही दायीं ओर अपने घर का रास्ता लिया।
कुछ आगे जाने पर रास्ते में एक नाला पड़ता था, जिसके किनारे पीपल का विशाल वृक्ष था। यही वह प्राकृतिक सीमा थी, शहर से रीना के मुहल्ले को अलग करने वाली । रीना पीपल के पास से गुजर रही थी। चाँदनी पूरे यौवन पर थी। पूनम का चाँद ठीक माथे पर चमक कर रीना के रूप में चार चाँद लगा रहा था।
एकाएक रीना चौंक कर इधर-उधर देखने लगी। रात के सन्नाटे में उसे पुकार सुनाई पड़ी- अपने नाम की, स्वर में कसक थी, और दर्द भी- ‘रीऽ....ऽना....मेरी.....रीना....कहाँ हो...आ जाओ...। ’
रात्रि के निस्तब्ध वातावरण में गूंज रही थी आवाज, पर प्रेत का कुछ पता न था। शुरू में उसे लगा कि दूर जाने पर रमेश के साथ कुछ खतरा हुआ है, वही पुकार रहा है। किन्तु यह भ्रम शीघ्र ही दूर हो गया। सामने एक साया नजर आया।
साया पल-पल समीप होने लगा। यहाँ तक कि बिलकुल पास आ पहुँचा। उसकी विशाल बाहें रीना को ग्रसने लगी। रीना चीख पड़ी।
हॉल में बैठे दर्शकों के मुंह से भी लगभग चीख निकल गयी- ‘अरे यह तो अजय है। ’ हाँ, अजय ही था। पर स्वयं नहीं, उसकी प्यासी आत्मा। भयानक पैने पंजे पर्दे पर भी बहुत खौफनाक लग रहे थे। बड़े जीवटों का भी सांस फूलने लगा था, उसके भयानक शक्ल और गूंजती डरावनी आवाज सुनकर। जालिम पंजों ने लपक कर रीना को अपने आगोश में ले लिया।
चीखती हुयी रीना वहीं पीपल के जड़ पर गिर पड़ी। भयानक अतृप्त प्रेतात्मा तृप्ति लाभ कर अट्टहास करने लगी- ‘आ...ऽहा...ऽ...आज मिल गयी मेरी रीना मुझे हमेशा हमेशा के लिए। ’
रीना की चीख आखिरी थी वह। और उसके साथ ही हॉल के
वातावरण में एक और चीख उभरी -मीना की चीख।
मीना लपक कर मेरे सीने से चिपट गयी थी- ‘कमल, छिपा लो कमल...। ’ और वह बेहोश हो गयी।
फिल्म समाप्त हो चुकी थी। आवाज सुन कर बगल से वसन्त और टॉमस भी अपने बॉक्स से बाहर आए। झकझोर कर मीना को होश में लाया गया। वह बहुत घबड़ायी हुयी थी।
वसन्त ने कहा- ‘अजीब फिल्म थी। ’
‘अजीब तो तुमलोग हो। जान बूझकर ऐसी भयानक फिल्म देखने चले आते हो। ओ गॉड! मैं तो डर कर मर ही गयी थी। ’- कहती हुयी टॉमस रूमाल से अपने होठों को पोंछने लगी थी।
‘तो फिर जिन्दा कैसे हो गयी?’- कहता हुआ वसन्त टॉमस का हाथ पकड़ बाहर निकलने लगा।
मैं भी बाहर निकला, मीना को लेकर। टॉमस के साथ बैठते हुए वसन्त ने कहा- ‘कमल! तुम तो मीना के साथ जा रहे हो। उसे अभी सीधे घर ही जाना चाहिए। तबियत ठीक नहीं है उसकी। मैं टॉमस को लेकर कैनिंग स्ट्रीट जा रहा हूँ। भेंट करनी है, इसके अंकल से। ’
‘ठीक है, जाओ तुमलोग। कल मुलाकात होगी। ’- कहता हुआ मीना को लेकर गाड़ी में जा बैठा मैं।
मीना अभी भी पूर्ण स्वस्थ नहीं अनुभव कर रही थी स्वयं को। बगल में बैठती हुयी बोली- ‘गाड़ी तुम ही चलाओ कमल। मेरे तो हाथ-पांव अभी भी कांप रहे हैं। ’
स्टीयरिंग सम्हालते हुए मैंने कहा- ‘इतना भाउक नहीं होना चाहिए मीनू। दृश्य तो एकाध ही भयानक था, पर तुम अपनी भावना में इतना बह गयी कि पूरी फिल्म को ही भयानक बना डाली। ’
‘मैं क्या बना डाली शौक से? थी ही ऐसी। यह कोई मतलब हुआ कहानी का, जरा भी खुशी नहीं दिखलाया पूरी फिल्म में। अगर ऐसी ही रही तो मैं कान पकड़ती हूँ, इसकी कोई भी फिल्म नहीं देखूँगी। ’-अपने दोनों कानों को पकड़कर कर मीना ने कहा।
‘और मैं कसम खाता हूँ कि इसकी हर फिल्म देखूँगा, और हर उपन्यास भी पढ़ूँगा। ’ -मैंने हँसते हुए कहा था।
‘इसी लिए तो कहती हूँ कि बड़े ही शोख हो तुम। मेरे गाल पर चिकोटी काटती हुयी तुनक कर मीना बोली-- ‘ तुम्हें उसी चीज से मुहब्बत है, जिस चीज से मुझे नफरत। ’
मेरे मुंह से निकला ही चाहता था- ‘और तुमसे....?’
गाड़ी मीना निवास के सामने पहुँच गयी थी।
पोर्टिको में गाड़ी लगाकर हम दोनों ऊपर पहुँचे। बॉलकनी में ही रामू बैठा इन्तजार कर रहा था। फौजी सलीके से सलाम बजाते हुए बोला- ‘मीना बेटी! साहब अभी घंटे भर बाद आने बोले हैं। घोषाल बाबू के यहाँ गए हैं। ’
मीना ने कमरे में घुसते हुए कहा- ‘ये लो, मैं तो समझी थी कि हमलोग ही लेट हैं। फिर कीचन की ओर जाती हुयी बोली- ‘मुई वसन्ती भी अभी तक आयी नहीं। अच्छा तुम बैठो मैं तब तक चाय बना लाती हूँ। ’
मैं कूलर ऑन कर वहीं सोफे पर पड़ गया। दिन भर की थकान, कूलर की ठंढी हवा, आँखें झपकने लगी। घूमने जाने को बेताब रामू हमलोगों के पहुँचते ही चला गया था- कहते हुए कि घंटे भर में
घूम-घाम कर आता हूँ। आज छुट्टी-त्योहार के दिन भी बेचारा पूरे दिन ड्यूटी किया है।
नींद से बोझिल पलकें अचानक खुल गयी, मीना की चीख से -‘ बचाओ...बचाओ...। ’
आवाज सुन कर मैं दौड़ पड़ा कीचेन की ओर। बीच में ही मीना से टकरा गया। वह चिल्लाती हुयी भागी आ रही थी, इसी ओर।
‘कऽ..म..ऽ..ल...। ’- उसकी आवाज कांप रही थी। रूक-रूक कर निकल रही थी। कदम लड़खड़ा रहे थे। मैं घबड़ा गया, कहीं गिर न पड़े फर्श पर ही। यह सोच, उठा लिया उसे गोद में बच्चे की तरह। भीगी बिल्ली की तरह कांपती मीना को जा सुलाया सोफे पर ही ड्राईंग हॉल में।
‘क्या हो गया मीनू , क्यों डर गयी?’- -उसके माथे को सहलाते हुए मैंने पूछा।
कूलर की ठंढी हवा लगने से वह कुछ राहत महसूस की। कुछ देर बाद आँखें खोली तो खुद को मेरी जांघों पर सिर रखे सोफे पर पड़ी पायी।
कुछ शरमाती हुयी सी, उठना चाही, परन्तु मैंने पूर्ववत लिटाते हुए पूछा- ‘क्या हो गया था मीनू, क्यों डर गयी?’- ललाट पर अठखेलियाँ करती लटों को हटाते हुए मैंने प्रश्न दुहराया।
शर्म और भय के मिश्रण से मुंदी पलकों को झपकाती हुयी धीरे से बोली- ‘वही भयानक आत्मा...रीना की चीख...अजय का चिघ्घाड़ कानों से टकराया। लगा कि नीचे लॉन में ही आवाज हुयी हो। ’
मीना उठ कर मेरे सीने से फिर चिपट गयी। मैंने उसे समझाते हुए कहा- ‘इस तरह नादानी करोगी तो कैसे काम चलेगा? वहाँ हॉल में भी इसी तरह लिपट गयी थी।
‘तो छोड़ दो न, मुझे मरने दो। ’- अपनी पकड़ थोड़ा ढीला करके बोली।
मैंने उसे ठीक से बैठाते हुए कहा- ‘तुम्हारी यही तुनुकमिजाजी मुझे पसन्द नहीं। यह क्या तरीका है?तुम स्वयं सोचो, अब क्या हम बच्चे हैं?
‘नहीं, बुढि़या हो गयी सत्तर साल की। ’- कहती हुयी दोनों गाल पर हाथ टिका, बैठ गयी बुढि़या सी पोज बना कर।
‘मेरे कहने का क्या यही अर्थ है कि...। ’मैं कह ही रहा था कि बीच में ही टोकी- ‘तो क्या अर्थ है? तुम्हारे हर बात का अर्थ क्या डिक्सनरी में ही ढूड़ना पड़ेगा मुझे?’
‘मेरे कहने का मतलब है कि कोई देखेगा तो क्या कहेगा, क्या सोचेगा? मुफ्त ही तो बदनाम कर जाएगा। क्यों कि दुनियाँ एक ही रिस्ता सिर्फ जानती है- किसी लड़के-लड़की के बीच। वे एक अच्छे दोस्त भी हो सकते हैं- यह कोई सपने में भी नहीं सोच सकता। यह दुनियाँ मानसिक रूप से बीमारों की दुनियाँ है, मीनू। ’
‘तो करता रहे बदनाम, सोचता रहे जो सोचना है उसे। हम तो अपना जीवन अपने ढंग से जीना पसन्द करते हैं। ’- मीना ने सहज भाव से कहा था।
‘तो तुम्हें इसकी जरा भी परवाह नहीं नाम-बदनाम...। ’
‘पागलों की सोच पर परवाह किसे और क्यों हो?’- मैं तो सिर्फ यही जानती हूँ कि कोई गलत काम नहीं कर रही हूँ। मेरे मन में किसी तरह का पाप नहीं बैठा है। डर से प्राण सूखने लगे, तुम पास में थे, लिपट पड़ी तुमसे; तो कौन सा गुनाह कर गयी? तुम्हारी छोटी मुन्नी डर कर तुमसे लिपट जाएगी तो क्या कहोगे? क्या करोगे? पास में मम्मी होती, पापा होते, तो भी यही करती, जो तुम्हारे साथ की। ’- मीना बड़े सहज भाव से, लापरवाही पूर्वक कह गयी।
तभी मुझे याद आयी-‘अरे, गैस पर चाय चढ़ा आयी हो न?’-कहता हुआ झपट पड़ा रसोई की ओर। पीछ-पीछे वह भी चली आयी।
‘मुझे छोड़ कर क्यों चले आए कहीं वह भयानक आत्मा फिर...। ’
‘तुम्हारे अन्दर वहम बैठ गया है, इसे जल्द ही निकालना होगा। अन्यथा...। ’- केटली का ढक्कन हटाते हुए कहा मैंने- ‘अरे, पानी तो लगभग सूख चुका है। तुम इतमिनान से बैठो यहीं। आज चाय मैं तुम्हें पिलाता हूँ, तुम तो बहुत बार पिला चुकी हो। ’
चाय तैयार हो जाने पर मीना को साथ लिए अपने कमरे में आ गया था। चाय पीती हुयी उसने फिर छेड़ी चर्चा, प्यासी आत्मा की।
‘सच में कमल! प्यार भी इतना खौफनाक हो सकता है, सोचा भी नहीं जा सकता। आखिर अतृप्त प्यार ने अन्त में रीना को मार ही डाला। ’
‘मार क्या डाला, इसे तुम मरना-मारना क्यों कहती हो? ये क्यों नहीं कहती कि प्यार एकांगी हो गया था, एकाकार हो गया। सार्थक होगया। दो प्रेमी, एक ही पदार्थ के दो खण्ड- एक हुए बिना कैसे तृप्त हो सकते हैं? इस एकत्व के पीछे ही दुनियाँ पागल है। पुरुष और नारी, एक ही महाप्राण के दो टुकड़े हैं। वस्तुतः ये दो है ही नहीं। वस सृष्टि का खेल रचाने के लिए विधाता का खिलवाड़ है यह। एक ही प्राण के दो हिस्से दो शरीर बन कर प्राकृतिक चुम्बकीय बल से वशीभूत चक्कर लगाते रहते हैं। मिले बगैर उन्हें तृप्ति कैसे होगी?शान्ति कैसे मिलेगी?’
‘वाह रे तुम्हारे प्यार की सार्थकता। ’- खाली प्याला मेज पर रखती हुयी मीना ने कहा।
अपना प्याला मेज पर रखते हुए मैंने बात आगे बढ़ायी- ‘हाँ, प्यार में यही होता है। मरा हुआ अजय बारबार मर रहा था। रीना के प्यार में तड़प-तड़प कर, और रीना, जी कर भी मरी हुयी सी ही थी। देखने में लगा कि वह अजय का विकल्प पा चुकी है, रमेश में; किन्तु क्या सच्चे प्रेम का भी कोई विकल्प होता है? यह भ्रम है।
जीवन ‘जी लेना- और बात है, और जीवन जीना बिलकुल ही और बात। सच्चे प्रेम का कोई विकल्प हो ही नहीं सकता।
जरा ठहर कर मैंने फिर कहा- ‘प्रेम प्यार का पर्याय नहीं है मीना। प्रेम का पर्याय होता भी नहीं है। प्रेम अकेला है, अकेले के लिए सिर्फ। यहाँ दो का प्रश्न ही नहीं है। प्रेम गली अति सांकरी ता में दोउ न समाए। प्रेम एक अबूझ पहेली है मीना, अकथ्य अनुभूति। जिसने किया वही जाना। वह जीवन ही क्या जहाँ प्रेम की हरीतिमा न हो। रही बात तड़पन की, तो इसे समझो- गुलाब के पौधे में कांटे की बात। क्या तुमने कोई ऐसा गुलाब देखा है, जिसमें कांटे न हों?’
मीना ने बातों को नया मोड़ दिया- ‘वैज्ञानिक नित नूतन खोज में जुटे हैं.हो सकता है- कोई ऐसा गुलाब भी बना लें जिसमें कांटे न हों। खैर छोड़ो इसे, एक बात बताओ - यह सब केवल सिद्धान्त बघार रहे हो या अनुभव भी है प्रेम का कुछ? तुमने क्या कभी किसी से प्रेम किया है? चाहा है किसी को?दिया है जगह अपने इस पत्थर दिल में जरा सी भी?’- कहती हुयी मीना मेरे सीने पर हथेली से थपथपाने लगी।