निरामय / खंड 6 / भाग-16 / कमलेश पुण्यार्क
दो-तीन सौ रूपये अभी मिल जायेंगे। काम भी सिर्फ दो तीन घंटे का है, वह भी शाम में, सात से दस का। इस बीच यदि स्टेनोग्राफी सीख लेते हो, तो फिर जानों कि नौकरी परमानेंट- पूरे नौ सौ मिलने लगेंगे, और क्या तुम्हें चाहिए?’
अभी सोच ही रहा था कि किन शब्दों में उसका आभार व्यक्त करूँ कि उसने आगे कहा- ‘जहाँ तक डेरे की बात है, तुम तो जानते ही हो- महानगर का सुख-दुःख, डेरा खोजने से- भगवान को खोजना अधिक आसान है। क्या मेरी इस १२×१० की बड़ी सी हवेली में काम नहीं चल जायेगा? कबूतर खाने को हवेली बता कर, विजय खुद ही हँसने लगा।
मैं उसकी हँसी में साथ भी न दे सका, सिर्फ मुस्कुरा कर रह गया। एहसान के बोझ से कुर्सी का पाया फर्श में धँसता हुआ सा लगा। कितनों का कितना ही एहसान है मुझ पर! परन्तु क्या चुका पाता हूँ- कभी कुछ उसका बदला? सोच कर स्वयं ही शरमिंदगी लगने लगी।
अगले ही दिन से विजय के दफ्तर में काम शुरू कर दिया। भगवत् कृपा, विजय से मिल कर एक ही साथ तात्कालिक सभी समस्याओं का समाधान मिल गया। अभी महीने भर देर है- महाविद्यालय का सत्र प्रारम्भ होने में। तब तक तो नामांकन व्यय भी निकल ही आएगा- एक माह के वेतन से। इन सब बातों की विस्तृत जानकारी शक्ति को पत्र लिख कर दे दिया ।
कालचक्र अपनी धुरी पर घनघनाता रहा। चार महीने पुनः हो गए- कलकत्ता प्रवास के। इस बीच दो बार पचास-पचास रूपये शक्ति को मनिऑडर कर चुका था। उसकी भी कई चिट्ठियाँ समय-समय पर आयी थी। शक्ति ने लिखा था-
‘आप इधर की चिन्ता छोड़कर अपने विकास पर ध्यान दें। घर का खर्च आज तक जैसे चलता आया है, आगे भी किसी प्रकार चलता ही जायेगा। स्टेनोग्राफी सीख कर, पक्की नौकरी में आ जाइये, फिर मेरा भी दिन पलट जाय! सौभाग्य हो सकेगा- कलकत्ता में ही साथ रहने का, जहाँ बचपन के दिन बीते हैं। ’
पत्र विजय ने भी पढ़ा था, और हँसता-हँसता दोहरा हो गया था-
‘ये औरतें भी अजीब होती हैं यार! ’- फिर जरा गम्भीर होते हुए बोला था- ‘यह जो ‘सौभाग्य’ शब्द है न, अपने आप में ही बड़ा भाग्यवान है। क्यों कमल?’
‘सो तो है हीं कहता हुआ मैं चल पड़ा था दफ्तर। विजय आज जल्दी ही आ गया था। आते ही शक्ति का लिखा पत्र दिया था, और कहा था कि उधर से लौटते वक्त सीधे चले आना है- चावड़ी बागान- आज रात वहाँ एक ड्रामें का आयोजन है।
लाख कोशिश के बावजूद दफ्तर का काम दस बजे से पहले पूरा न हो सका। दफ्तर बन्द कर चाभी दरवान को देकर, हिदायत किया कि इसे सेठजी के घर पर दे आओ, मैं जरा जल्दी में हूँ।
और निकल चला लम्बी डग मारते ‘शौर्टकट’ रास्ते पैदल ही।
काली घुमड़ती बदली सिर पर सवार थी- हड़बड़ा कर बरसने को बेताब।
चार माह लम्बे, इस बार के कलकत्ता ¬प्रवास में चाह कर भी- या कहें हिम्मत के अभाव में- उस रास्ते से न गुजर पाया था; किन्तु आज लगता है कि जाना ही पड़ेगा उस रास्ते से, क्यों कि आज का मेरा गन्तव्य- चावड़ी बागान ‘मीना निवास’ के पास ही तीन चार मकान आगे है, जहाँ विजय ने कहा है आने को। दूसरे रास्ते
से जाने में देर होगी, और बारिश में फंस जाने का खतरा है।
पता नहीं अब उस मकान का क्या हाल है! कौन देख-रेख में है उस प्रीतिकर हवेली का! चाचा-चाची तो काशी वासी बन ही चुके होंगे, जैसा कि उनका घोषित विचार था। ओफ! मैं भी कितना कृतघ्न हूँ- एक बार भी उनकी खोज खबर न लिया इतने दिनों में। क्या यह हुआ- साहस के अभाव में या कर्तव्य बोध की त्रुटि कहूँ इसे- सोचता चला जा रहा था। बूँदा-बाँदी शुरू हो गयी। बादल गरज रहे थे। हवा का झोंका तीब्र हो गया था, और साथ ही बहा ले गया था- विद्युत प्रवाह को भी। मुहल्ला अन्धकार में डूबा हुआ था। मेरे कदम कुछ और तेज हो गये थे।
अभी ठीक ‘मीना निवास’ के सामने से गुजर रहा था, सड़क की दूसरी ओर से; तभी अचानक कड़ाके की बिजली चमकी, और पूर्व विस्तृत अन्धकार को खदेड़, पल भर के लिए जगमगा गयी सभी मकानों को। आवाज इतनी तेज थी कि मैंने बन्द कर लिए अपने दोनों कानों को। फिर एक-दो-तीन...जल्दी ही लागातार कई बार कड़कती हुयी कौंध गयी विजली की चमक। क्षण भर को, जी में आया- दौड़ कर घुस जाऊँ, अपने उस पुराने घोसले में, और नजरें उठ कर ऊपर जा लगी- बालकोनी से। कड़कती विजली के क्षणिक चकाचौंध में कौंध गयी पल भर के लिए मेरी आखों में एक नारी मूर्ति, जो खड़ी थी- ऊपर बालकनी में रेंलिंग के सहारे।
चमक चम्पत हो गया था। अन्धकार फिर से ले लिया था अपने आगोश में, मकानों को। मैं आँखें तरेर कर देखता रहा था। पांव वहीं चिपक गए जमीन से। अरे! यह चेहरा- यह तो मीना का है। पर अगले ही पल अपने पागलपन पर खेद हो आया- जिसे गुजरे अरसा गुजर गया, वह यहाँ कैसे हो सकती है? तभी विजली फिर एक बार चमकी, किन्तु बालकनी खाली था- मेरे जीवन की तरह।
अतीत की पगडंडियों पर बोझिल कदमों से चलता जा रहा था, जब कि पांव तो पक्की सड़क पर घिसट रह थे। कोई पांच मिनट बाद चावड़ी बागान पहुँच गया था। विजय प्रतीक्षा करते-करते उब रहा था, बाहर ही गेट पर खड़े।
‘मैं तो सोच रहा था, अब तुम आओगे ही नहीं। प्रोग्राम प्रारम्भ हुए काफी देर हो चुकी है। ’-कहता हुआ विजय मेरा हाथ पकड़े घुस गया भीतर हॉल में।
हमदोनों अन्दर जाकर बैठ गए। कार्यक्रम चल रहा था। परन्तु उससे कोई वास्ता नहीं था मेरे मन को।
यहाँ तो अपने ही मंच पर- विचारों के रंगमंच पर अगनित नृत्य चल रहे थे। ऐसे ही, मंच के माध्यम से
ही तो एक दिन मीना आयी थी, और मेरे हृदपीठिका पर आसीन हो गयी थी किसी देवी-मूर्ति की तरह! और कक्ष के खुले वातायन से आने वाली रजनीगन्धा के सुगन्धित झोंके की तरह, एक ओर से आकर दूसरी ओर निकल भी गयी- मेरे जीवन कक्ष को ‘रीता’ छोड़ कर।
सामने मंच पर कार्यक्रम चल रहा था। मेरे मानस मंच पर भी अतीत का मंचन जारी था, पूरे कार्यक्रम
तक, या कहें उसके बाद तक भी। कब वहाँ का प्रोग्राम खत्म हुआ, कब डेरा पहुँचा, पहुँच कर क्या किया- कहना असम्भव है।
और फिर दो-तीन सप्ताह गुजर गए। कॉलेज जाना, दफ्तर जाना, डेरा आना, खाना-सोना और अतीत की परछाईयों का पीछा करते रहना- बस यही मेरा काम रह गया था।
एक दिन पुनः उसी रास्ते से गुजरना पड़ा। समय- संध्या करीब सात बजे का। मीना निवास के करीब पहुँचा था। पर वह पुरानी रौनकता अब रही कहाँ। न गेट पर लटकता ‘न्योन साइन’ ही था--‘मीना निवास’ का, न कम्पाउण्ड के चारो कोनों पर खड़े पहरेदार -‘भेपर लैम्प’ ही अपना प्रकाश विखेर पा रहे थे। लॉन की फूल पत्तियाँ भी अपनी प्यारी मालकिन के गम में सूखी-मुरझायी पड़ी थी। ‘कुत्ते से सावधान’ का प्लेट भी गेट का दामन छोड़ चुका था। गेट का पूर्वी ‘पाया’ पैंतालिस के कोण पर कमर झुकाए, बूढ़े दरवान की तरह खड़ा था, निस्तेज...
ठीक सामने पहुँच कर ठिठक गया, अचकचा कर। लॉन से गुजर कर एक सफेद लिवास शक्ल, बाहर वाली लोहे की घुमावदार सीढि़याँ चढ़ती नजर आयी। अभी मैं सोच ही रहा था कि यह कौन हो सकती है, तभी वह पल भर के लिए पीछे पलट, फिर खटाखट सीढि़याँ चढ़ती आड़ में गुम हो गयी।
उसका पीछे पलटना था कि मैं भौचंका रह गया- अरे! यह तो वही शक्ल है, जिसे उस दिन विजली की चमक में बॉलकोनी में खड़ी पाया था। यह क्या तमाशा है? क्या यह सही है, या मेरे मन का वहम? सोचता हुआ, क्षण भर को ठिठका रहा, फिर आगे बढ़ गया। भ्रम ही हो सकता है, हकीकत का सवाल कहाँ - अपने आप को समझाना पड़ा- हमेशा उसकी याद में रहता हूँ , उसी का यह नतीजा है। परन्तु क्या सिर्फ निरंतर याद आने से ही ऐसा हो सकता है? याद तो पिताजी की हमेशा आती है, पर कभी उन्हें सपने में भी नहीं देखा आज तक।
तभी दूसरी बात याद आयी- मीना ने आत्महत्या की है। अकाल मृत्यु हुयी है- वह भी भरपूर जवानी में, यौवन के तड़पन के साथ... कहीं ऐसा तो नहीं कि उसकी रूह तड़पती हुयी भटक रही है?
ओह! कितना स्नेह था, उसे इस मीना निवास से, क्यारियों में लगे गुल-बूटों से! माली था, नौकर था, दाई थी, फिर भी हमेशा अपने ही हाथों सींचा करती थी प्यारे पौधों को-‘बच्चे को ‘आया’ के हाथों दूध पिलाना अच्छा नहीं होता कमल। आगे चल कर ये ही बच्चे मातृ द्रोही हो जाते हैं। ’- ऐसा ही प्रौढ़ विचार था उसका। समय से
पहले ही बौद्धिक प्रौढ़ता आ गयी थी।
तो सच में उसकी आत्मा- प्यासी आत्मा ही भटक रही है क्या! उस दिन की फिल्म- प्यासी आत्मा देख कर कितना घबड़ायी थी वह- ‘प्यार का अंजाम ऐसा भी हो सकता है, मैं सोची भी नहीं थी कमल। ’-कहती हुयी ही तो मेरे सीने से चिपट गयी थी।
ओफ! मीना! अच्छा होता उस अजय की भटकती आत्मा की तरह, जिस प्रकार प्यार की प्यासी उस आत्मा ने अपनी प्रेयसी रीना को अन्ततः पा लिया था;तुम भी पा लेती....काश! यदि तुम्हारी आत्मा भी भटक रही है, तड़प रही है मेरे लिए, तो पा लो मीनू! अपने इस कमल को...आ जाओ मीना...समालो अपनी बाहों में...अट्टहा्य करो तुम भी उस भटकती आत्मा की तरह मुझे पाकर।
इन्हीं खयालों में खोया हुआ, डेरा पहुँचा था- रात ग्यारह बजे। आज दफ्तर में भी काम में मन नहीं लगा था। घंटे भर का हिसाब- तीन घंटे मगजपच्ची करने के बाद भी गलत ही हो गया;और फाइल बन्द कर चला आया था।
डेरा पहुँचने पर विजय ने एक लिफाफा दिया- पत्र शक्ति का था। उसने लिखा था-
‘आप सच में वहाँ जाकर भूल ही गये कि घर भी है। यहाँ भी कोई आँखें बिछाये है...छुट्टी होते ही चले आइयेगा...कहीं किसी और कॉलेजियट तितली के फेर में न पड़ जाइयेगा......। ’
सदा की भांति आज भी लिफाफा खुला हुआ ही मिला था, विजय की यह पुरानी आदत थी। आपसी खुले व्यवहार के कारण हमें भी कोई आपत्ति नहीं हुयी कभी।
पत्र पढ़ कर विस्तर पर पड़ गया औंधे मुंह। सिगरेट के टुकड़े को फर्श पर फेंकता हुआ विजय मुस्कुरा रहा था- ‘क्यों यार! लग गयी न हवा कॉलेजियट तितली की रंगीन पंखों की? औंधे मुंह क्यों पड़ गये, पत्र पढ़ कर? इसी वास्ते कहता हूँ- शादी-ब्याह के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। देखो तो मैं कितना ‘बमबम’ हूँ , अपने आप में एकदम मस्त। न बीबी का व्यंग्य, न घर जाने की फिकर। ’
पलट कर सीधा हो गया। सामने दीवार पर लगे कैलेन्डर पर निगाहें गयी, और गिने लगा था अंगुलियों पर।
‘गिनते क्या हो यार! गिनती भूल गये हो क्या? आज अभी चौदह तारीख ही है। कॉलेज की छुट्टियों में अभी दो दिन देर है। ’
‘सोच रहा हूँ कि कल भर क्लास कर लूँ, परसों तो शनिवार है, सिर्फ दो पीरियड ही होना है। कल दफ्तर से जल्दी ही छुट्टी कर लूँगा, ताकि दून एक्सप्रेस पकड़ लूँ। ’- कहते हुए सोने का उपक्रम करने लगा, आपादमस्तक चादर तान कर।
‘खाना वाना नहीं है क्या?’ - विजय ने पूछा।
‘नहीं। इच्छा नहीं हो रही है। शाम में नास्ता ज्यादा कर लिया था। ’
‘तब तो मैं बेकार ही खाना बनाया। मुझे भी इच्छा नहीं थी खाने की। दो ही रोटियाँ तो खायी है मैंने। बाकी पड़ी ही है। ’- अधजला सिगरेट नीचे फेंक कर, उसने भी चादर तान ली
‘आज कल यहाँ भी मच्छड़ बहुत हो गये हैं। ’- मैंने कहा।
‘तो कहाँ जायें ये मच्छड़ बेचारे बेरोजगारी के जमाने में इन्हें बहुत संघर्ष से भोजन जुटाना पड़ता है, आबादी बढ़ेगी तो बेरोजगारी बढ़नी ही है। वैसे भी कलकत्ता कारपोरेशन में काफी भेकेन्सी है मच्छरों की। दूसरे राज्यों से भी मच्छर बुलाये जा रहे हैं। ’- कहता हुआ विजय हँसने लगा था।
चादर तो तान लिया, पर नींद कोसों दूर थी- आँखों से। एक ओर था शक्ति का भोला मुखड़ा, तीखा व्यंग्य- कॉलेजियट तितलियों के फेर में न पड़ जाइयेगा...तो दूसरी ओर था- मीना निवास की सीढि़याँ चढ़ती सफेद शक्ल.....
....वही रूप...वही रंग...वैसा ही लिवास...वैसी ही लचक...इसी तरह ही तो मीना सीढि़यों पर थिरक-थिरक कर पांव धरती थी। इसी लचक-मचक में एक दिन गिरती-गिरती बची थी। खैरियत थी कि मैं पीछे ही था, अन्यथा उसी दिन गिर कर जान गँवा बैठती।
जान तो गँवायी ही। गिर कर ही। पर, सीढि़यों के वजाय टेªन से।
चुटकी भर सिन्दूर उठा, जा लगा था हाथ, उसकी मांग से;और कहा था मैंने- आज तुम्हारी मांग के साथ मैंने पूरे संसार को ही मांग लिया है, साथ ही स्वयं के लिए दोहरी जिन्दगी। एक ओर मेरी बाहों में तुम
रहोगी, और दूसरी ओर रहेगी- शक्ति। कितना सौभाग्यवान होऊँगा मैं।
इस पर कहा था उसने- ‘घबड़ाओ नहीं, सारी रात दोनों बाहें पसार चित पड़े रहने की संकट में न डालूँगी तुम्हें। अभी इस अवस्था में तुम्हारी गोद में पड़ी-पड़ी ही आँखें मूंद सदा के लिए सो रहने में जो स्वर्गिक आनन्द की अनुभूति हो रही है, वह क्या कभी और पा सकूँगी?’
मैंने उसका मुंह ढक दिया था, अपनी हथेली से। मेरा हाथ हटाती हुयी वह बोली थी- ‘अपने हाथों से मेरा मुंह ढककर, मेरी जुबान बन्द कर सकते हो, पर इन्हीं हाथों से यमदूत के पाश से छुड़ा लोगे- तब न देखूँगी तुम्हारी हिम्मत; जैसा कि सावित्री ने अपने तर्क-बुद्धि से छीन लिया था सत्यवान को, निरस्त कर दिया था मृत्युपाश को। ’
वास्तव में कहाँ हिम्मत हो पायी मेरी! कहाँ छीन पाया उसे मैं मौत के भयानक पंजों से! वह चली गयी यूही, तड़पती हुयी -अतृप्ता- विवाहित कौमार्य के कफन में लिपटी हुयी...जाने से कुछ पहले वह पानी मांगी थी। गिलास उसके होठों से लगा दिया था मैं। एक ही घूट में आधा खाली करती हुयी बोली थी- ‘तृप्ति नहीं हो पा रही है कमल!’
काश! वह मिल गयी होती, मैं तृप्त कर पाया होता उसे अपने प्रेमसागर से। किन्तु शीतल-सुस्वादु जल से तृप्त न हो सकने वाली, क्या मेरे मनहूस प्रेमसागर के खारे जल से तृप्त हो पाती?
हाय मीना! मैं तड़पूँ तेरे प्यार के लिए, और तू तड़पे अपूरित प्रेम और मोक्ष के लिए? हा मोक्ष! कितना कठिन है तुझे पाना!
किन्तु यह कैसे मानूँ- दाह संस्कार हुआ है, पतित पावनी जाह्नवी के तीर पर पवित्र पाटलीपुत्र में, उर्ध्व दैहिक क्रियायें सम्पन्न हुयी- पूरे विधि-विधान के साथ वैदिक मन्त्रोच्चार पूर्वक, मोक्षाधिराज की नगरी काशी में। फिर भी तड़प ही रही है उसकी आत्मा मोक्ष के लिए? वैदिक श्राद्ध में यदि इतनी भी सामर्थ्य नहीं है, फिर क्या अर्थ है इस विधान का? क्या प्रयोजन है? क्या महत्त्व रह जाता है? क्या सिर्फ आडंबर? दिखावा?अन्धश्रद्धा?
--विचारों के इसी उथल-पुथल में सबेरा हो गया था, पर निःशंक न हो पाया था- वह सफेद शक्ल वस्तुतः मीना की भटकती आत्मा है या कि मेरा भ्रमजाल मात्र?
अन्धकार में रस्सी पाकर, सर्प की प्रतीति होती है, पर इस भ्रम का हेतु तो विद्यमान होता ही है...यानि कुछ तो था- सांप न सही, रस्सी ही हो, क्यों कि दोनों का न होना तो असम्भव है...इसी सोच में सर खपाता रहा, पर कोई समाधान न पा सका।
क्या है यह सब...क्यों हो रहा है...क्या करूँ...कहाँ जाऊँ...कौन देगा समाधान....कौन करेगा मार्गदर्शन...सब अनुत्तरित....
हृदय के ऊपरी कपाटों में था- दिवंगत मीना की स्मृतियों का कसक...निचले कपाटों में थी- शक्ति के प्रेमसागर की उत्ताल तरंगे...
जीवन- प्रेम-संगीत है, जिसे गाना है शक्ति की युगलबन्दी में...और यही जिन्दगी गमों का सैलाब भी है, जिसे पार करना है एकाकी ही। फर्क सिर्फ इतना ही है कि शक्ति के प्रेमोदधि में पनडुब्बी सा गोता लगा कर पार कर जाना है; तो मीना के गम-सागर को तैर कर पार लगाना है- अकेले -‘एकला चऽल मानुष, एकला चऽल’।
हो भी रहा है ऐसा ही कुछ। गमों के सागर में तैरते-तैरते जब थकने लगता हूँ तो चुपके से पलायन की इच्छा होती है- शक्ति के प्रेम-दरिया की ओर....
हालांकि चार-साढ़े चार महीने बहुत ज्यादा समय नहीं होते, पर प्यार की तड़पन और तनहाईयाँ इसे बहुत लम्बा कर देती है। किन्तु इस कल्पना मात्र से ही थिरकन और सिहरन शुरू हो गया था कि अब देर नहीं है। घर पहुँचते ही शक्ति दौड़ कर बाहों में समा जायेगी और प्यार भरे उलाहनों से ढक देगी।
संध्या चार बजे घर पहुँचा था। माँ पड़ोस में मैना के घर गयी हुयी थी। मुझे देखते ही मुन्नी दौड़ पड़ी थी उसे बुलाने। घर में अकेली रह गयी थी शक्ति, जिसे देख मन ही मन प्रसन्न हुआ कि चलो अच्छा ही है, रात का इन्तजार किये वगैर, एक बार मिलन तो हो ही जायेगा। शक्ति वरामदे में बैठी स्वेटर बुन रही थी, शायद मेरे ही लिए, क्यों कि बने स्वेटर के हर फंदों में झलक रहा था प्रेम का पराग।
‘कॉलेज बन्द हो गया इतनी जल्दी?’- खु्श से थिरक उठी शक्ति। ऊन के लच्छे को चटाई पर रख, खड़ी हो गयी।
हाथ में लिए अटैची को एक ओर रखते हुए बोला- ‘सप्ताह भर बाद दशहरा है, अब क्या दीपावली में बन्द होता मेरा कॉलेज?’ -और लपक कर भर लिया था शक्ति को अपने आगोश में।
‘धत्! कोई आ जायेगा तो, आंगन का दरवाजा खुला है। ?’-कहती हुयी शक्ति बाहुबन्धन तोड़ने का असफल -अनिच्छित प्रयास करने लगी थी।
‘तो क्या होगा! कहेगा- दो बेकरार दिल घुल-मिल रहे हैं। कोई अतिक्रमण थोड़े जो कर रहा हूँ किसी गैर की चीज का। ’- कहता हुआ चटाक से चूम लिया था।
तभी पीछे पदचाप का आभास मिला। बन्धन शिथिल पड़ा, शक्ति झट अलग हो गयी। पीछे मुड़ कर देखा- मैंना खड़ी थी दीवार की ओट में।
‘क्यों मैना, छिपी क्यों हो?आओ इधर। ’- कहता हुआ आंगन में ही खाट पर बैठ गया। शर्म से सिर झुकाये शक्ति, बाल्टी लेकर कुंए की ओर चली गयी- पानी लाने।
पीछे से जाकर मैना उसके हाथ से बाल्टी ले ली, - ‘लाओ पानी
मैं भरती हूँ , तुम जाओ उधर ही...कुछ बाकी हो अभी शायद....। ’-कहती हुयी मैंना मुस्कुरा दी थी। शक्ति शरमाती हुयी फिर इधर ही आ गयी।
‘देखे, हुआ न धोखा। क्या कहती होगी मैना, इतने बेताब थे कि रात का....। ’
‘तो इसमें झूठ क्या है, बेताब नहीं थी तुम?’--हँसकर मैंने कहा। इस पर शक्ति कुछ कहती, तभी मैना आगयी पानी लिए।
‘माँ कहाँ रह गयी मैना?’- मैंने पूछा।
‘रामू के यहाँ गयी होगी। मुन्नी गयी है बुलाने। ’-कहती हुयी मैंना मेरा पैर पकड़ कर बैठ गयी, धोने के लिए।
‘देखे, बहन की होशियारी, नेग लेने के लिए। ’-शक्ति ने चुटकी ली।
‘छोड़ो, इसकी क्या जरूरत है?घबराओ नहीं, शक्ति के कहने से, तुम्हारा नेग नहीं कटेगा। लाओ, लोटा दो। पैर मैं खुद ही धो लूँगा। ’- कहते हुए लोटा लेकर पैर धोने लगा।
तब तक माँ और मुन्नी आ गयी।
‘आ गए बेटे!अच्छा हुआ जल्दी चले आये। मैं सोच रही थी, चिट्ठी भिजवाने को। ’- चरणस्पर्श के साथ ही पुलकित होते हुए माँ ने कहा।
‘परसों ही शक्ति की चिट्ठी मिली थी। लिखा था उसने कि तुम्हारी तबियत खराब चल रही है। आना तो था ही, कुछ जल्दी आ गया। ’
हँसती हुयी माँ ने कहा-‘तबियत में क्या हुयी है मेरी, बहू रोज अंगुली पर दिन गिना करती थी। मैंने ही कहा था एक दिन कि लिख दो चिट्ठी- जल्दी आ जायेगा। सही में इसने चिट्ठी लिख कर बुला ही लिया तुम्हें। ’
माँ की बातों पर जोरों से हँस दी मैना- ‘अच्छा तो ये माजरा है?चुपके-चुपके चिट्ठी चली भी गयी भैया के पास, किसी को पता भी न चलने दी भाभी। मैं जानती तो लिख देती कि अभी चार महीने तक घर आने की कोई जरूरत नहीं है। ’
शक्ति शर्मा गयी। उठ कर चल दी रसोई घर की ओर। हमलोग बैठे बातें करते रहे।
कुछ देर बाद नास्ता और चाय लिए शक्ति आंगन में पहुँची। मैंना को फिर नुख्ता मिला- ‘चाय की घूंट पर कचौडि़याँ खाओगे क्या भैया?’
मैंना की बातों का जवाब, मेरे बदले शक्ति ने ही दिया- ‘इनकी तो आदत ही है- चाय बिलकुल ठंढी कर के पीने की। जब तक नास्ता करेंगे, तब तक चाय ठंढी हो चुकी रहेगी। ’
‘इनकी आदत है ठंढी चाय पीने की, और तुम्हारी आदत है- उल्टी-सीधी चिट्ठियाँ लिखने की, क्यों भैया?’-मैंना ने फबती कसी, और एक साथ हम सब हँस दिये।
मुन्नी मेरा अटैची खोलने की कोशिश कर रही थी- ‘देखती हूँ- भैया क्या-क्या लाए हैं। ’
माँ ने आँखें दिखायी- ‘क्या कर रही है?’
तब तक मुन्नी अपना काम कर चुकी। खोलते के साथ ही मिठाई का पैकेट दीख गया, जिसे लेकर
सरपट भाग चली।
‘और कुछ नहीं चाहिए तुम्हें पूछते हुए मैंने इशारा किया शक्ति को, अन्य सामानों को निकालने के लिए। मुन्नी वहीं खाट पर बैठी पैकेट की मिठाइयाँ गिन रही थी- ‘चार मेरे...चार भैया के...चार दीदी के...चार माँ के...बाकी बचे सो भाभी के...ना बचे सो...सबके। ’
शक्ति उन सामानों को निकाल कर माँ के सामने खाट पर रखने लगी। उलट-पुलट कर देखते हुए माँ ने कहा- ‘मुझे क्यों दे रही हो, रखो न अपने ही पास। ’
देखो न माँ, क्या है उसमें- मेरे कहने पर माँ खोलने लगी पैकेटों को। चार-पांच साडि़याँ, मुन्नी के फ्रॉक-पैन्ट, कुछ अन्य सामान निकाल कर खाट पर फैलाती हुयी माँ ने कहा-
‘क्या जरूरत थी, इतना कुछ करने के लिए अभी तुम्हें? किसी तरह पढ़ाई पूरी करो, घर-गृहस्थी की चिन्ता अभी व्यर्थ अपने सिर पर लाद रह हो?’
काफी देर तक कुछ ऐसी ही बातें होती रही- घर-गृहस्थी, खेती-
बारी, आस-पड़ोस आदि की टीका-टिप्पणी चलती रही। बाद में मैं चल दिया उठ कर बाहर घूमने- सोनभद्र के तट पर। रामू, भोला आदि पुराने यार-दोस्त मिल गए उधर ही। उन्हीं सबसे गप्पें लड़ाता रहा। थोड़ी रात गए घर वापस आया। मुन्नी कब की सो चुकी थी। माँ बिना खाये ही, अभी तक मेरी प्रतीक्षा में बैठी थी।
शक्ति खाना परोस कर ले आयी। अभी खा ही रहा था कि बाहर से किसी ने आवाज लगायी। जल्दी से भोजन समाप्त कर मैं चला गया बाहर। देखा- भोला के बापू बैठे हुए थे। फिर उन्हीं के साथ बातचीत होने लगी। जमीन जायदाद की पुरानी चर्चा छिड़ गयी। बँटवारे के समय के पंचों के व्यक्तित्त्व और स्वभाव की आलोचना होने लगी। इन्हीं बातों में कोई दो घंटे निकल गए।
रात करीब एक बजे कमरे में पहुँचा। शक्ति निर्भेद सो रही थी। पलंग के बगल में खूँटी पर लालटेन लटक रहा था। मद्धिम रौशनी, पीली आभा पूरे कमरे में विखरा हुआ था, जिसके कारण पलंग पर पड़ी शक्ति का गोरा मुखड़ा कुछ और अधिक गोरा लग रहा था। बिलकुल चित्त होकर दोनों हाथों को सिर की ओर रखे, अर्द्धनिमीलित
पलकों में सोने की आदत सदा से रही है, शक्ति की।
गले में पड़ी सोने की सिकड़ी नीचे की घटियों में उतर आयी थी, और उसमें पिरोया हुआ लॉकेट हृदय के आकुंचन-प्रकुंचन के साथ ही नृत्य कर रहा था। कानों की बालियाँ और नाक का लौंग चम्पै साड़ी को फीका बतलाने का प्रयास कर रहा था, परन्तु माथे की विभाजन रेखा में सोये सिन्दूर के कारण थोड़ा सशंकित सा था, कारण कि उसका एक और साझीदार अभी जगा हुआ था- लाल बिन्दिया। पलंग पर बैठते हुए मैंने शक्ति के चेहरे को गौर से निहारा, और पाटल पंखुडि़यों से कोमल, किसलय-कान्ति युक्त होठों पर अपने होठ बिठा दिये। इस क्रम में मेरे सीने के दबाव से उन्नत उरोज थोड़ा दब गया था, जो बड़ी चुस्ती से तन कर बैठा था- सोयी हुयी सौन्दर्य श्री की चौकसी करने हेतु। नतीजा हुआ कि उस पहरेदार ने शोर मचा कर जगा दिया, अपनी मालकिन को।
हड़बड़ा कर शक्ति पलकें खोल दी थी।
‘जगाया भी नहीं आपने मुझे?’- कहती हुयी शक्ति अपनी बाहों को फैला कर गजले की तरह मेरे गले में डाल दी थी।
‘जगा ही तो रहा था। ’- कह कर मैं लेट गया, उसके बगल में।
‘अच्छा तरीका है जगाने का। इसी तरह से सबको जगाते हैं क्या?’- मुस्कुराती हुयी शक्ति ने पूछा।
‘तुम्हारे सिवा और किसे जगाता फिरूँगा इस तरह नींद से?’- कहता हुआ कस लिया आलिंगन में और चूम लिया उसके अधरोंष्ठों को।
ऐसी ही हरकतें होती रही कुछ देर तक, और फिर पुरुष ने कर दिया न्योछावर स्वयं को नारी पर। दे डालने की कर्त्तव्यपरायणता में नारी ने सम्पूर्णतया दे ही डाला स्वयं को; कहीं कुछ छिपा कर, बचा कर रखा नहीं। इस आदान-प्रदान में ही तृप्ति निहित है संसार मात्र की। पर यही वह मंजिल है, जहाँ पहुँच कर ज्ञान होता है भोले पुरुष
को। आँखें खुलती है जब, वर्तमान को निःशेष पाता है तब। और जब वर्तमान ही निःशेष हो जाता है, तब मानव अतीत के द्वार पर दस्तक देना प्रारम्भ करता है।
थोड़ा ही तो अन्तर है- मीना औा शक्ति में। गोरी अधिक जरूर है शक्ति, पर मीना की लम्बाई कहाँ पा सकी है, चेहरे की बनावट ऐसी है, जो अपनी तो नहीं पर चचेरी-मौसेरी का भ्रम पैदा कर जाये....और मैं खोता गया अतीत की इन्हीं बेढंगी पगडंडियों पर। काफी देर तक कमरे में मौत का सा सन्नाटा छाया रहा। दोनों ही चुप पड़े रहे, मानों दोनों ही किसी गहन चिन्तन-मनन में निमग्न हों। बात कुछ ऐसी ही थी भी। विचारों की बाढ़ में सन्नाटे की खामोशी जब काट खाने को दौड़ी तो घबड़ाकर शक्ति का मुंह खुल गया-
‘क्या सोच रहे हैं?’
‘कुछ तो नहीं। ’- मेरा संक्षिप्त सा उत्तर था, पर इतने से शक्ति को संतोष कहाँ?’
‘कुछ नहीं या बहुत कुछ?’-मुस्कुरा कर कहा उसने।
‘सोचूँगा क्या! सोना चाह रहा हूँ , पर नींद नहीं आ रही है। ’
‘जो नहीं आना चाहे, उसे जबरन बुलाने का क्या औचित्य? कुछ बात ही करें तब तक। ’-कह कर शक्ति हाथ बढ़ाकर, खूटी में टंगा लालटेन थोड़ा तेज कर दी।
‘क्या बात करूँ, कुछ सूझ नहीं रहा है। ’-कह कर मैंने आँखें बन्द कर ली। लालटेन का प्रकाश सीधे आँखों पर ही पड़ रहा था।
‘इतने दिनों बाद आए हैं, और बातें नहीं हैं कुछ करने को मुझसे अजीब है! तो क्या सिर्फ ‘इतने’ भर से ही मतलब रहता है मुझसे?- कहती हुयी शक्ति गम्भीर हो गयी थी अचानक।
‘कितने भर से?’- मैंने पूछ दिया।
‘वस वही सब...जो अभी-अभी आपने किया। ’- शक्ति की नजरें मेरे चेहरे को बेध सी रही थी।
मैंने मुस्कुरा कर पूछा- ‘तुम कहना क्या चाहती हो?’
‘गाजर...बैगन...मूली...और क्या?’
‘मतलब?’
‘कुछ नहीं, यूँही। ’- जरा ठहर कर फिर पूछा था उसने- ‘अच्छा, एक बात पूछूँ?’
‘पूछो, क्या पूछना चाहती हो?’
‘आप कहानियाँ लिखते हैं न?’
‘हाँ, लिखता तो हूँ , पर ‘था’ कहना ज्यादा अच्छा होगा। ’
‘था और है में थोड़ा सा ही तो अन्तर है।
‘थोड़ा ही क्यों? पूरे एक, ‘काल-खण्ड’ का अन्तर है। भूत और वर्तमान का अन्तर। ’
‘मैं कहती हूँ- काल के इस विभाजन का ही ‘अकाल’ हो जाना चाहिए। न रहे भूत, न आदमी झांकने जाए अतीत में। और फिर भावी की जिज्ञाशा या चिन्ता भी न रह जाए। जो रहे- बस वर्तमान...वर्तमान ही वर्तमान, और कुछ नहीं। ’
‘यह भरे पेट का ‘दर्शन’ भले हो सकता है, खाली पेट कब चाहेगा कि ऐसा हो? वह तो समय के परिवर्तन के इन्तजार में जीता है- आने वाले समय की बाट जोहते....। ’
‘भले ही आने वाला और भी बुरा क्यों न हो, क्यों?’- शक्ति ने बीच में ही टोक कर कहा- ‘खैर, यह तो बात ही बदल गयी। मैं कह रही थी कि मुझ पर एक कहानी लिखेंगे?’
‘कहानी, लिखने जैसी होगी तो जरूर लिखूँगा। ’
‘तो फिर देर क्या, शुरू ही कर दीजिये। मैं शीर्षक भी सुझाये देती हूँ। ’
‘ठीक तो कह रही हो- लगाम है ही, फिर घोड़ा खरीदने में हर्ज ही क्या?अड़चन ही क्या?’- कह कर मैंने हँसने का प्रयास किया। परन्तु शक्ति की मुद्रा पूर्ववत गम्भीर ही बनी रही।
‘हँसने की क्या बात है? हाँ, एक उपाय और हो सकता है- नयी कहानी लिखने में यदि दिक्कत हो, तो किसी पुरानी कहानी का ही नाम बदल दीजिये, मेरे मन के मुताबिक। ’
‘क्या बकती हो?’- शक्ति की कथन मुद्रा मुझे संशय में डाल रही थी।
‘क्या नहीं....बल्कि ठीक बक रही हूँ। “अविस्मरणीय अतीत" का नाम “कसक" रख दीजिये। ’
मैं मानो आसमान से गिर पड़ा था। आँखें पपोटों की मर्यादा को तोड़कर, अति विस्फारित हो गयी थी- ‘क्या पहेली बुझाये जा रही हो, शक्ति?’
‘पहेली नहीं श्रीमान! बल्कि हकीकत बयां कर रही हूँ। ’
मैं फटी-फटी आँखों से उसे देखने लगा था। वह कह रही थी-‘मैंने पढ़ी है, आपकी वह कहानी। बहुत अच्छा लिखते हैं आप, पर कुछ कसर रह गया है। जैसी वह कहानी है, और जितना गहरा छाप है, उस कहानी का आपके हृदय पर; उसके मुताबिक मैंने शीर्षक सुझायी है आपको- “कसक" । ’- शक्ति की आँखें अंगारे सी हो आयी थी। मेरी तो अजीब स्थिति हो रही थी।
मीना के निधन के बाद, बन्द कमरे की दीवारें, जब काटने को दौड़ती थी, तब उन्हीं घडि़यों को कैद कर दिया था - ‘अविस्मरणीय अतीत" में; साथ ही कुछ और छोटी-मोटी अनुभूतियों- टॉमस, बसन्त, विजय, आदि के साथ गुजारे हुए क्षणों का व्यौरेवार वर्णन था, उस छोटी सी पुस्तिका में, जिसे बड़े गुप्त रूप से रख छोड़ा था- अपने बक्से में बन्द करके। पता नहीं मेरे उस गुप्त ‘तहखाने’ की ताली, क्यों कर इसे हाथ लग गयी थी!! तो क्या उस पत्र का व्यंग्य- ‘कॉलेजियट तितलियों के फेर में न पड़ेंगे, इसकी ही प्रतिक्रिया थी?’
सोच ही रहा था कि शक्ति पुनः बोली- ‘क्यों फिर क्या सोच-विचार में पड़ गए?याद आ गयी क्या मीना की?’
‘क्यों खार खा रही हो शक्ति! वह तो एक कहानी भर है, वस एक काल्पनिक कहानी मात्र। ’-अपनी दलील पेश की मैंने।
‘कहानी काल्पनिक है...और यह है तुम्हारी कल्पना की प्रतिमूर्ति?’
क्यों?’- क्रोधानल में जलती शक्ति ‘आप’ की मर्यादा का मेढ़ तोड़ ‘तुम’ की क्यारी में कूद चुकी थी। तकिये के नीचे से एक फोटोफ्रेम खींच कर सामने रख दी थी। मेरी फटी-फटी आँखें अपलक गड़ गयी थी- शक्ति के चेहरे पर।
‘क्यों, इस तसवीर से भी अनजान ही हो क्या? क्या यह उसी नागिन की तसवीर नहीं है, जिसने डस लिया है मेरे दाम्पत्य को?’
शक्ति की आँखों से सौत की अपरिमित चिनगारियाँ फूटने लगी थी। कुछ देर यदि बैठा रहूँ तो शायद भस्म हो जाऊँ -सोचता हुआ, उठना चाहा, किन्तु हाथ पकड़ लिया उसने।
‘जाते कहाँ हो? कुछ और भी देख ही लो। ’- कहती हुयी शक्ति, धागे से बन्धा एक छोटा सा पुलिंदा विस्तर के नीचे से निकाल कर उछालती हुयी विखेर दी थी, कमरे के फर्श पर।
विगत स्मृतियों का धरोहर- मीना की कुछ चिट्ठियाँ- सूखे पत्ते सी कमरे में बिखर कर सिसकने लगी थी। मैं उठ कर उन्हें बटोरने लगा था; तभी एक झन्नाटे के साथ, फोटोफ्रेम फर्श पर आ गिरा।
‘नागन! तूने मेरे सुहाग को डंसा है। ’- दांत पीसती हुयी पलंग से उठी, और टूटे सीसे के बीच से झांकती तस्वीर को निकाल कर टुकड़े-टुकड़े कर डाली।
मेरा गला भर आया था। दम घुटता हुआ सा महसूस हुआ। ऐसा लग रहा था, मानों मेरे दिल को टुकड़े-टुकड़े कर बिखेर दिया हो उसने फर्श पर, जिसे सीसे के अस्थि-पंजरों में छिपा कर रखा था।
‘यदि आपको यही रास रचाना था, तो क्या जरूरत थी- भरे मंडप में अग्नि की साक्षी में प्रतिज्ञा करने की?’- शक्ति फुफकार रही थी।
देर से दबी मेरी जुबान में कुछ जान आयी। मैंने कहा- ‘क्या प्रतिज्ञा की थी, कछ याद भी है? संस्कृत के दुरूह मन्त्रों को, तथाकथित साक्षियों के समक्ष कहलवाया गया था, या कहो कि वह भी कहलवाया नहीं गया, बल्कि पुरोहित ने ‘बांच’ दिया, उनका कुछ अर्थ भी है पता?’
‘अर्थ ज्ञात ना ही सही, पर यह अनर्थ कैसे सहन कर सकती हूँ?’
‘ अर्थ और अनर्थ की बात नहीं है। तुम जान ही चुकी कि अब वह इस संसार में नहीं है, फिर एक तड़पती आत्मा को लांछित करना क्या तुम्हें शोभा देता है?’- मैंने कातर स्वर में कहा, और सीने पर हाथ फेरने लगा, अचानक अजीब सी टीस अनुभव किया- भीतर में।
‘मुझे तो शोभा नहीं देता, पर तुम्हें देता है यह सब नाटक करना? तुम उसको तड़पाने की बात कह रहे हो, जो राख का ढेर हो कर बह गयी नदी की धार में, और मैं, जिन्दा शरीर में वैसी ही आत्मा को लिए तड़प रही हूँ- यह तुम्हें दिखायी नहीं देता? या कि मेरे भीतर आत्मा है ही नहीं? याकि भीतर रहते भर में आत्मा पर ध्यान नहीं देना चाहिए? या कि तुम्हारे हिसाब से आत्मा महत्त्व पूर्ण तब हो जाती है, जब बाहर आ जाती है?’- क्रोधावेश में शक्ति की आवाज कांप रही थी।
‘मैंने ऐसा कब कहा? यह तो तुम इतने दिन बाद जान पायी कि मुझे मुहब्बत भी थी किसी से, पर आज तक कभी तूने पायी है किसी तरह की कमी अपने प्रति मेरे प्यार में? मेरा प्रेम-कोष न्योछावर है तुम पर, और तुम हो कि उल्टे मुझे बदनाम कर रही हो?’-मेरे होठ फड़क रह थे।
‘किया है, खूब किया है न्योछावर- कहते जरा लाज भी नहीं आती?अरे ! तुम ‘पुरुष’ सिर्फ अपनी बुद्धि पर भरोसा करते हो, और उसी के दायरे में दौड़ लगा सकते हो। पर जानते हो...नारी....? नारियाँ तो अपनी स्वज्ञा से ही पहुँच जाती हैं, उस गुप्त तहखाने तक- जहाँ पुरुष के प्यार की ताली रखी हुयी होती है....मेरी आँखों ने हमेशा देखा है, तुम्हारी आँखों में किसी और के प्रति प्यार की परछाइयाँ...जब-जब तुम्हारी बाहों में मैं होती हूँ , अपने
प्यार की झोली पसारे, दया की भीख मांगती...उस समय भी पाती हूँ - तुम्हारी आँखों में उस नागिन की तस्वीर.. .कह दो यह सब झूठ है...