निरामिषाहार के लिए बलिदान / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी
मेरे जीवन में जैसे-जैसे त्याग और सादगी बढ़ी और धर्म जाग्रति का विकास हुआ , वैसे-वैसे निरामिषाहार का और उसके प्रचार का शौक बढ़ता गया। प्रचार कार्य की एक ही रीति मैने जानी हैं। वह हैं, आचार की , और आचार के साथ जिज्ञासुओं से वार्तालाप की।
जोहानिस्बर्ग में एक निरामिषाहार गृह था। एक जर्मन, जो कूने की जल-चिकित्सा में विश्वास रखता था, उसे चलाता था। मैने वहाँ जाना शुरू किया और जितने अंग्रेज मित्रों को वहाँ ले जा सकता था उतनों को उसके यहाँ ले जाता था। पर मैने देखा कि वह भोजनालय लम्बे समय तक चल नहीं सकता। उसे पैसे की तंगी तो बनी ही रहती थी। मुझे जितनी उचित मालूम हुई उतनी मैने मदद की। कुछ पैसे खोये भी। आखिर वह बन्द हो गया। थियॉसॉफिस्टों मे अधिकतर निरामिषाहारी होते हैं, कुछ पूरे कुछ अधूरे। इस मंडल में एक साहसी महिला भी थी। उसने बड़े पैमाने पर एक निरामिषाहारी भोजनालय खोला। यह महिला कला की शौकीन थी। वह खुले हाथों खर्च करती थी और हिसाब-किताब का उसे बहुत ज्ञान नहीं था। उसकी खासी बड़ी मित्र-मंडली थी। पहले तो उसका काम छोटे पैमाने पर शुरू हुआ , पर उसने उसे बढ़ाने और बड़ी जगह लेने का निश्चय किया। इसमे उसने मेरी मदद माँगी। उस समय मुझे उसके हिसाब आदि की कोई जानकारी नही थी। मैने यह मान लिया था कि उसका अन्दाज ठीक ही होगा। मेरे पास पैसे की सुविधा थी। कई मुवक्किलो के रुपये मेरे पास जमा रहते थे। उनमे से एक से पूछ कर उसकी रकम मे से लगभग एक हजार पौंड उस महिला को मैने दे दिये। वह मुवक्किल विशाल हृदय और विश्वासी था। वह पहले गिरमिट मे आया था। उसने (हिन्दी में) कहा, 'भाई, आपका दिल चाहे तो पैसा दे दो। मैं कुछ ना जानूँ। मैं तो आप ही को जानता हूँ।' उसका नाम बदरी था। उसने सत्याग्रह में बहुत बड़ा हिस्सा लिया था। वह जेल भी भुगत आया था। इतनी संमति के सहारे मैने उसके पैसे उधार दे दिये। दो-तीन महीने में ही मुझे पता चल गया कि यह रकम वापस नहीं मिलेगी। इतनी बड़ी रकम खो देने की शक्ति मुझ में नहीं थी। मेरे पास इस बड़ी रकम का दूसरा उपयोग था। रकम वापस मिली ही नही। पर विश्वासी बदरी की रकम कैसे डूब सकती थी ? वह तो मुझी को जानता था ? यह रकम मैने भर दी।
एक मुवक्किल मित्र से मैने अपने इस लेन-देन की चर्चा की। उन्होंने मुझे मीठा उलाहना देते हुए जाग्रत किया , 'भाई, यह आपका काम नहीं हैं। हम तो आपके विश्वास पर चलने वाले हैं। यह पैसा आपको वापस नहीं मिलेगा। बदरी को आप बचा लेंगे और अपना पैसा खोयेंगे। पर इस तरह के सुधार के कामों में सब मुवक्किलों के पैसे देने लगेंगे , तो मुवक्किल मर जायेंगे और आप भिखमंगे बनकर घर बैठेंगा। इससे आपके सार्वजनिक काम को क्षति पहुँचेगी।'
सौभाग्य से ये मित्र अभी जीवित हैं। दक्षिण अफ्रीका में और दूसरी जगह उनसे अधिक शुद्ध मनुष्य मैने नही देखा। किसी के प्रति उनके मन मे शंका उत्पन्न हो और उन्हें जान पड़े कि यह शंका खोटी है तो तुरन्त उससे क्षमा माँगकर अपनी आत्मा को साफ कर लेते हैं। मुझे इस मुवक्किल की चेतावनी सच मालूम हुई। बदरी की रकम तो मै चुका सका। पर दूसरे हजार पौंड यदि उन्हीं दिनों मैने खो दिये होते, तो उन्हें चुकाने की शक्ति मुझ में बिल्कुल नही थी। उसके लिए मुझे कर्ज ही लेना पड़ता। यह धंधा तो मैने अपनी जिन्दगी मे कभी नही किया और इसके लिए मेरे मन में हमेशा ही बड़ी अरुचि रही हैं। मैने अनुभव किया कि सुधार करने के लिए भी अपनी शक्ति से बाहर जाना उचित नहीं था। मैने यह भी अनुभव किया कि इस प्रकार पैसे उधार देने में मैने गीता के तटस्थ निष्काम कर्म के मुख्य पाठ का अनादर किया था। यह भूल मेरे लिए दीपस्तम्भ-सी बन गयी।
निरामिषाहार के प्रचार के लिए ऐसा बलिदान करने की मुझे कोई कल्पना न थी। मेरे लिए वह जबरदस्ती का पुण्य बन गया।