निरुद्देश्‍य / राहुल सांकृत्यायन

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निरुद्देश्यप का अर्थ है उद्देश्यईरहित, अर्थात् बिना प्रयोजन का। प्रयोजन बिना तो कोई मंदबुद्धि भी काम नहीं करता। इसलिए कोई समझदार घुमक्कड़ यदि निरुद्देश्यय ही बीहड़पथ को पकड़े तो यह विचित्र-सी बात है। निरुद्देश्यई बंगला में “घर से गुम हो जाने” को कहते हैं। यह बात कितने ही घुमक्कड़ों पर लागू हो सकती है, जिन्होंंने कि एक बार घर छोड़ने के बाद फिर उधर मुँह नहीं किया। लेकिन घुमक्कड़ों के लिए जो साधन और कर्त्तव्यज इस शास्त्र में लिखे गये हैं, उन्हें देखकर कितने ही घुमक्कड़ कह उठेंगे - हमें उनकी आवश्ययकता नहीं, क्योंिकि हमारी यात्रा का कोई महान या लघु उद्देश्यक नहीं। बहुत पूछने पर वह तुलसीदास की पाँती “स्वांत: सुखाय” कह देंगे। लेकिन 'स्वांत: सुखाय' कहकर भी तुलसीदास ने जो महती कृति संसार के लिए छोड़ी क्या वह निरुद्देश्य ता की द्योतक है? खैर 'स्वांत: सुखाय' कह लीजिए, आप जो करेंगे वह बुरा काम तो नहीं होगा? आप बहुजन के अकल्याकण का तो कोई काम नहीं करेंगे? ऐसा कोई संभ्रांत घुमक्कड़ नहीं होगा, जो कि दूसरों को दु:ख और पीड़ा देने वाला काम करेगा। हो सकता है, कोई आलस्या के कारण लेखनी, तूलिका या छिन्नीद नहीं छूना चाहता, लेकिन इस तरह के स्थाकयी आत्मसप्रकाश के बिना भी आदमी आत्मे-प्रकाश कर सकता है। हर एक आदमी अपने साथ एक वातावरण लेकर घूमता है, जिसके पास आने वाले अवश्य उससे प्रभावित होते हैं।

घुमक्कड़ यदि मौन रहने का व्रत धारण कर ले, तो वह अधिक, सफलता से आत्मा-गोपन कर सकता है, किंतु ऐसा घुमक्कड़ देश की सीमा से बाहर जाने की हिम्मेत नहीं कर सकता। फिर ऐसा क्या संकट पड़ा है कि सारे भुवन में विचरण करने वाला व्यीक्ति अपनी जीभ कटा ले। केवल बोलने वाला घुमक्कड़ दूसरे का कम लाभ नहीं करता। बोलने और लिखने दोनों ही से काल और देश दोनों में अधिक आदमी लाभ उठा सकते हैं, लेकिन अकेली वाणी भी कम महत्वर नहीं रखती। इस शताब्दीर के आरंभ में काशी के सर्वश्रेष्ठं विद्वान पंडित शिवकुमार शास्त्री अपने समय के ही नहीं, वर्तमान अर्ध-शताब्दीं के सर्वश्रेष्ठ संस्कृतज्ञ थे। वह शास्त्रा र्थ में अद्वितीय तथा सफल अध्यासपक थे, किंतु लेखनी के या तो आलसी थे या दुर्बल, अथवा दोनों ही। उन्हों्ने एक पुस्तथक पहले लिखी, जब कि उनकी ख्या्ति नहीं हुई थी। ख्यालति के बाद एक पुस्तीक लिखी, किंतु उसे अपने शिष्यय के नाम से छपवाया। प्रतिद्वंद्वी दोष निकालेंगे, इसीलिए वह कुछ भी लिखने से हिचकिचाते थे। उस समय के दोष निकालने वाले संस्कृतज्ञ कुछ निम्नतल में चले गये थे, इसमें संदेह नहीं। भट्टोजी दीक्षित ने शहजहाँ के समय सत्रहवीं सदी के पूर्वार्द्ध में 'सिद्धांत कौमदी' नाम की प्रसिद्ध पुस्त क लिखी, साथ ही व्या करण के कितने की तत्वोंी की व्यामख्याे करते हुए 'मनोरमा' नामक ग्रंथ भी लिखा। शाहजहाँ के दरबारी पंडित, पंडितराज जगन्नावथ विचारों में कितने उदार थे, यह इसी से मालुम होगा कि उन्होंंने स्वधर्म पर आरूढ़ रहते एक मुसलमान स्त्री से ब्यारह किया। उनकी सारे शास्त्रों में गति थी और वह वस्तुोत: पंडितराज ही नहीं बल्कि संस्कृत के अंतिम महान कवि थे। लेकिन भट्टोजी दीक्षित की भूल दिखलाने के लिए उन्होंहने बहुत निम्न तल पर उतरकर मनोरमा के विरुद्ध 'मनोरमा-कुचमर्दन' लिखा। बेचारे शिवकुमार “दूध का जला छाछ फूँक-फूँक कर पिये” की कहावत के मारे यदि लेखनी नहीं चला सके, तो उन्हें् दोषी नहीं ठहराया ना सकता। लेकिन दो पीढ़ियों तक पढ़ाते संस्कृत के सैकड़ों चोटी के विद्वानों को पढ़ाकर क्या उन्होंफने अपनी विद्वत्ता से कम लाभ पहुँचाया? कौन कह सकता है, वह ऋषि-ऋण से उऋण हुए बिना चले गये। इसलिए यह समझना गलत है कि घुमक्कड़ यदि अपनी यात्रा निरुद्देश्यउ करता है, तो वह ठोस पदार्थ के रूप में अपनी कृति नहीं छोड़ जायगा।

भूतकाल में हमारे बहुत-से ऐसे घुमक्कड़ हुए, जिन्होंथने कोई लेख या पुस्त क नहीं छोड़ी। बहुत भारी संख्या को संसार जान भी नहीं सका। एक महान रूसी चित्रकार ने तीन सवारों का चित्र उतारा है। किसी दुर्गम निर्जन देश में चार तरुण सवार जा रहे थे, जिनमें से एक यात्रा की बलि हो गया। बाकी तीन सवार बहुत दिनों बाद बुढ़ापे के समीप पहुँचकार लौट रहे थे। रास्तेी में अपने प्रथम साथी और उसके घोड़े की सफेद खोपड़ियाँ दिखाई पड़ीं। तीनों सवारों और घोड़े के चेहरे में करुणा की अतिवृष्टि कराने में चित्रकार ने कमाल कर दिया है। इस चित्र को उस समय तक मैंने नहीं देखा था, जबकि 1930 में सम-ये के विहार में अपने से बारह शताब्दीन पहले हिमालय के दुर्गम मार्ग को पार करके तिब्ब त गये नालंदा के महान आचार्य शांतरक्षित की खोपड़ी देखी तो मेरे हृदय की अवस्थाम बहुत ही करुणा हो उठी थी। कुछ मिनटों तक मैं उस खोपड़ी को एकटक देखता रहा, जिसमें से 'तत्वथ-संग्रह' जैसा महान दार्शनिक ग्रंथ निकला और जिसमें पचहत्तर वर्ष की उमर में भी हिमालय पार करके तिब्बमत जाने की हिम्मलत थी। परंतु शांतरक्षित गुम नाम नहीं मरे। उन्होंीने स्वयं अपनी यात्रा नहीं लिखी, लेकिन दूसरों ने महान आचार्य बोधिसत्वत के बारे में काफी लिखा है।

ऐसी भी खोपड़ियों का निराकार रूप में साक्षात्काधर हुआ है, जो दुनिया घूमते-घूमते गुमनाम ही चली गईं। निजनीनवोग्राद में गये उस भारतीय घुमक्कड़ के बारे में किसी को पता नहीं कि वह कौन था, किस शताब्दीव में गया था, न यही मालूम कि वह कहाँ पैदा हुआ था, और कैसे-कैसे चक्कहर काटता रहा। यह सारी बातें उसके साथ चली गईं। वर्तमान शताब्दीक के आरंभ में एक रूसी उपन्यारसकार को निजनीनवोग्राद की भौगोलिक और सामाजिक पृष्‍ठभूमि को लिए एक उपन्या स लिखने की इच्छाे हुई। उसी ने वहाँ एक गुप्तो संप्रदाय का पता लगाया, जो बाहर से अपने को ईसाई कहता था, लेकिन लोग उस पर विश्वाएस नहीं करते थे। उपन्याासकार ने उनके भीतर घुसकर पूजा के समय गाये जाने वाले कुछ गीत जमा किए। वह गीत यद्यपि कई पीढ़ियों से भाषा से अपरिचित लोगों द्वारा गाये जाते थे, इसलिए भाषा बहुत विकृत हो चुकी थी, तो भी इसमें कोई संदेह की गुंजाइश नहीं, कि वह हिंदी भाषा के गीत थे उनमें गौरी तथा महादेव की महिमा गाई गई थी। उपन्याईसकार ने लिखा है कि उसके समय (बीसवीं शताब्दीह के आरंभ में) इस पंथ की संख्याै कई हजार थी, उसका मुखिया जार की सेना का एक कर्नल था। मालूम नहीं क्रांति की आँधी में वह पंथ कुछ बचा या नहीं, किंतु ख्या ल कीजिए - कहाँ भारत और कहाँ मध्यन वोल्गाी में आधुनिक गोरकी और उस समय का निजनीनवोग्राद। निजनीनवोग्राद (निचला नया नगर) में दुनिया का सबसे बड़ा मेला लगता था, जिसमें यूरोप ही नहीं, चीन, भारत तक के व्यायपारी पहुँचते थे। जान पड़ता है, मेले के समय वह फक्कमड़ भारतीय वहाँ पहुँचा गया। फक्क ड़ बाबा के लिए क्या बात थी? यदि वह कहीं दो-चार साल के लिए रस जाता तो वहाँ उसकी समाधि होती। फिर तो उपन्याबसकार अवश्य उसका वर्णन करता। खैर, भारतीय घुमक्कड़ ने रूसी परिवारों में से कुछ को अपना ज्ञान-ध्यावन दिया। भाषा का इतना परिचय हो कि वह वेदांत सिखलाने की कोशिश करे, यह संभव नहीं मालूम होता। वेदांत सिखलाने वाले को हर-गौरी के गीतों पर अधिक जोर देने की आवश्ययकता नहीं होती। फक्काड़ बाबा के पास कोई चीज थी, जिसने वोल्गाह तट के ईसाई रूसियों को अपनी ओर आकृष्ट‍ किया, नहीं तो वह इकट्ठा होकर पूजा करते हर-गौरी का गीत क्योंई गाते? संभव है फक्कयड़ बाबा को योग और त्राटक के लटके मालूम हों। ये अमोल अस्त्र हैं, जिन्हेंस लेकर हमारे आज के कितने ही सिद्ध पुरुष यूरोपियन शिक्षितों को दंग करते हैं। फिर सत्रहवीं-अठारहवीं शताब्दी‍ में यदि फक्केड़ बाबा ने लोगों को मुग्ध् किया हो, अथवा आत्मिक शांति दी हो, तो क्या आश्चशर्य? वोल्गाक तक फक्कबड़ बाबा भी निरुद्देश्यि गया, लेकिन निरुद्देश्यत रहते भी वह कितना काम कर गया? पश्चिमी यूरोप के लोग उन्नी सवीं-बीसवीं सदा में जिस तरह भारतीयों को नीची निगाह से देखते थे, रूसियों का भाव वैसा नहीं था। क्या जाने उसका कितना श्रेय फक्केड़ बाबा जैसे घुमक्कड़ों को हैं? इसलिए निरुद्देश्यस घुमक्कड़ से हमें हताश होने की आवश्यतकता नहीं है।

तीस बरस से भारत से गये हुए एक मित्र जब पहली बार मुझे रूस में मिले, तो गद्गद् होकर कहने लगे - “आपके शरीर से मातृ-भूमि की सुगंध आ रही है।” हर एक घुमक्कड़ अपने देश की गंध ले जाता है। यदि वह उच्चआ श्रेणी का घुमक्कड़ नहीं हो तो वह दुर्गंध होती है, किंतु हम निरुद्देश्या से दुर्गंध पहुँचाने की आशा नहीं रखते। वह अपने देश के लिए अभिमान करेगा। भारत जैसी मातृभूमि पाकर कौन अभिमान नहीं करेगा? यहाँ हजारों चीजें हैं, जिन पर अभिमान होना ही चाहिए। गर्व में आकर दूसरे देश को हीन समझने की प्रवृत्ति हमारे घुमक्कड़ की कमी नहीं होगी, यह हमारी आशा है और यही हमारी परंपरा भी है। हमारे घुमक्कड़ असंस्कृ्त देश में संस्कृ ति का संदेश लेकर गये, किंतु इसलिए नहीं कि जाकर उस देश को प्रताड़ित करें। वह उसे भी अपने जैसा संस्कृत बनाने के लिए गये। कोई देश अपने को हीन न समझे, इसी का ध्याअन रखते उन्हों ने अपने ज्ञान-विज्ञान को उसकी भाषा की पोशाक पहनाई, अपनी कला को उसके वातावरण का रूप दिया। मातृभूमि का अभिमान पाप नहीं हो। हमारा घुमक्कड़ निरुद्देश्यी होने पर भी अपने देश का प्रतिनिधि समझेगा, और इस बात की कोशिश करेगा कि उससे कोई ऐसी बात न हो, जिससे उसकी जन्माभूमि और घुमक्कड़-पंथ लांछित हों। वह समझता है, इस निरुद्देश्यो घुमक्कड़ी में मातृभूमि की दी हुई हड्डियाँ न जाने किस पराये देश में बिखर जायँ, देश की इस थाती को पराये देश में डालना पड़े, इस ऋण का ख्या ल करके भी घुमक्कड़ सदा अपनी मातृभूमि के प्रति कृतज्ञ बनने की कोशिश करेगा।

बिना किसी उद्देश्यम के पृथ्वी -पर्यटन करना यह भी छोटा उद्देश्यऋ नहीं है। यदि किसी ने बीस-बाईस साल की आयु में भारत छोड़ दिया और छओं महाद्वीपों के एक-एक देश में घूमने का ही संकल्पख कर लिया, तो यह भी अप्रत्य क्ष रूप से कम लाभ की चीज नहीं है। ऐसे भी भारतीय घुमक्कड़ पहले हुए हैं, और एक तो अब भी जीवित है। उसकी कितनी ही बातें मैंने यूरोप के लोगों के मुँह से सुनीं। कई बातें तो विश्वरसनीय नहीं हैं। सोलह-अठारह बरस की उमर में विश्वेविद्यालय से दर्शन का डाक्ट र होना - सो भी प्रथम विश्वंयुद्ध के पहले, यह विश्वाोस की बात नहीं है। खैर, उसके दोषों से कोई मतलब नहीं। उसने घुमक्कड़ी बहुत की है। शायद पैंतीस-छत्तीस बरस उसे घूमते ही हो गये, और अमेरिका, यूरोप, तथा अटलांटिक और प्रशांत महासागर के द्वीपों को उसने कितनी बार छान डाला, इसे कहना मुश्किल है। अंग्रेजी, फ्रांसीसी, स्पेननिश आदि भाषायें उसने घूमते-घूमते सीखीं। वह इसी तरह घूमते-घूमते एक दिन कहीं चिरनिद्रा-विलीन हो जायगा और न अपने न परायों को याद रहेगा, कि लास्सेएकंक्रकरिया नाम का एक अनथक निर्भय घुमक्कड़ भी भारत में पैदा हुआ था। तो भी वह शिक्षित और संस्कृत घुमक्कड़ है, इसलिए उसने अपनी घुमक्कड़ी में ब्राजील, क्यूतबा, फ्रांस और जर्मनी के कितने लोगों पर प्रभाव डाला होगा, इसे कौन बतला सकता है? और इसी तरह का एक घुमक्कड़ 1932 में मुझे लंदन में मिला था। वह हमीरपुर जिले का रहनेवाला था। नाम उसका शरीफ था। प्रथम विश्वतयुद्ध के समय वह किसी तरह इंग्लैंड पहुँचा। उसके जीवन के बारे में मालूम न हो सका, किंतु जब मिला था तब से बहुत पहले ही से वह एकांत घुमक्कड़ी कर रहा था, और सो भी इंग्लैंड जैसे भौतिकवादी देश में। इंग्लैंड, स्कामटलैंड और आयरलैंड में साल में एक बार जरूर वह पैदल घूम आता था। घूमते रहना उसका रहना उसका व्रत था। कमाने का बहुत दिनों से उसने नाम नहीं लिया। भोजन का सहारा भिक्षा थी। मैंने पूछा - भिक्षा मिलने में कठिनाई नहीं होती? यहाँ तो भीख माँगने के खिलाफ कानून है। शरीफ ने कहा - हम बड़े घरों में माँगने नहीं जाते, वह कुत्ता छोड़ देते हैं या टेलिफोन करके पुलिस को बुला लेते हैं। हमें वह गलियाँ और सड़कें मालूम हैं, जहाँ गरीब और साधारण आदमी रहते हैं। घरों के लेटर-बक्सय पर पहले के घुमक्कड़ चिह्न कर देते हैं, जिससे हमें मालूम हो जाता है कि यहाँ डर नहीं है और कुछ मिलने की आशा है। शरीफ रंग-ढंग से आत्म -सम्मा नहीन भिखारी नहीं मालूम होता था। कहता था - हम जाकर किवाड़ पर दस्तमक लगाते या घंटी दबाते हैं। किसी के आने पर कह देते हैं - क्या एक प्या ला चाय दे सकती हैं? आवश्यंकता हुई तो कह दिया, नहीं तो चाय के साथ रोटी का टुकड़ा भी आ जाता है। शहरों में भी यद्यपि शरीफ को घुमक्कड़ी ले जाती थी, किंतु वह लंदन जैसे महानगरों से दूर रहना अधिक पसंद करता था। सोने के बारे में कह रहा था - रात को सार्वजनिक उद्यानों के फाटक बंद हो जाते हैं, इसलिए हम दिन ही में वहाँ घास पर पड़कर सो लेते हैं। शरीफ ने यह कहा - चलें तो इस समय मैं रीजेंट पार्क में पचासों घुमक्कड़ों को सोया दिखला सकता हूँ। रात को घुमक्कड़ शहर की सड़कों पर घूमने में बिता देते हैं। वहीं एक अंग्रेज घुमक्कड़ से भी परिचय हुआ। कई सालों तक वह घुमक्कड़ी के पथ पर बहुत कुछ शरीफ के ढंग पर रहा, पर इधर पढ़ने का चस्काम लग गया। लंदन में पुस्तैकें सुलभ थीं और एक चिरकुमारी ने अपना सहवास दे दिया था, इस प्रकार कुछ समय के लिए उसने घुमक्कड़ी से छुट्टी ले ली थी।

ऐसे लोग भी निरुद्देश्यस घुमक्कड़ कहे जा सकते हैं। पर उन्हें ऊँचे दर्जे का घुमक्कड़ नहीं मान सकते, इसलिए नहीं कि वह बुरे आदमी है। बुरा आदमी नि‍श्चिंततापूर्वक दस-पंद्रह साल घुमक्कड़ी कैसे कर सकता है? उसे तो जेल की हवा खानी पड़ेगी। बड़े घुमक्कड़ इसलिए नहीं थे, कि उन्होंकने अपने घूमने का स्था न दो टापुओं में सीमित रखा था। छओं द्वीप-एसिया, यूरोप, अफ्रिका, उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका और आस्ट्रे लिया - जिसकी जागीर हों, वह बड़ा घुमक्कड़ कहा जा सकता है। एसियाइयों के लिए छओं द्वीपों में कितने ही स्थािन बंद हैं, इसलिए वह वहाँ नहीं पहुँच सकते, तो इससे घुमक्कड़ का बड़प्प्न कम नहीं होता।

निरुद्देश्यी घुमक्कड़ कोई उद्देश्यै न रखकर भी एक काम तो कर सकता है : वह घुमक्कड़-पंथ के प्रति लोगों में सम्मा न और विश्वाईस पैदा कर सकता है, सारे घुमक्कड़ों में घनिष्ठत भ्रातृभाव पैदाकर सकता है। यह काम वह अपने आचरण से कर सकता है। आज दुनिया में संगठन का जमाना है। “संघे शक्ति: कलौ युगे”, इसलिए यदि घुमक्कड़ संगठन की आवश्याकता महसूस करने लगे, तो कोई आश्चसर्य नहीं। किंतु किसी बाकायदा घुमक्कड़-संगठन की आवश्य्कता नहीं है। हर एक घुमक्कड़ के भीतर भ्रातृभावना छिपी हुई है,यदि वह थोड़ा एक दूसरे के संपर्क में और आयें-जायँ, तो यही संगठन का काम करेगा। स्वस्थै घुमक्कड़ के हाथ-पैर चल रहे हैं, उस वक्तँ उसको चिंता नहीं हो सकती। बीमार हो जाने पर अवश्य बिना हित-मित्र, बिना गाँव-देश के उसे आश्रयहीन होना पड़ता है। यद्यपि उसकी चिंता से कभी घुमक्कड़-पंथ में आने वालों की कमी नहीं हुई, तो भी ऐसे समय घुमक्कड़ की घुमक्कड़ के प्रति सहानुभूति और सहायता होनी चाहिए। ऐसे समय के लिए अपने भक्त और अनुयायियों में उन्हेंत ऐसी भावना पैदा करनी चाहिए, कि किसी भी घुमक्कड़ को सहायता मिल जाय। घुमक्कड़ मठ और आश्रम बनाकर कहीं एक जगह बस जायगा, वह दुराशा मात्र है, किंतु घुमक्कड़ी-पंथ से संबंध रखने वाले जितने मठ हैं, उनमें ऐसी भावना भरी जाय, जिसमें घुमक्कड़ को आवश्यककता पड़ने पर विश्राम, स्थागन मिल सके।

आने वाले घुमक्कड़ों के रास्ते को साफ रखना यह भी हर एक घुमक्कड़ का कर्तव्यक है। यदि इतने का भी ध्याेन निरुद्देश्यत घुमक्कड़ रखें, तो मैं समझता हैं, वह अपने समाज का सहायक हो सकता है। हजारों निरुद्देश्यर घुमक्कड़ घर छोड़कर निकल जाते हैं। यदि आँखों के सामने किसी माँ का पूत मर जाता है, तो वह किसी तरह रो-धो कर संतोष कर लेती है, किंतु भागे हुए घुमक्कड़ी की माता वैसा नहीं कर सकती। वह जीवन-भर आशा लगाये बैठी रहती है। विवाहिता पत्नीा और बंधु-बांधव भी आशा लगाये रहते हैं, कि कभी वह भगोड़ा फिर पर घर आएगा। कई बार इसके विचित्र परिणाम पैदा होते हैं। एक घुमक्कड़ घूमते घामते किसी अपरिचित गाँव में चला गया। लोगों में कानाफूसी हुई। उसे बड़ी आवभगत से एक द्वार पर रखा गया। घुमक्कड़ उनके हाथ की रसोई नहीं खा सकता था, इसलिए भोजन का सारा सामान और बर्तन दिया गया। भोजन खाते-खाते घुमक्कड़ को समझने में देर न लगी कि उसकी घेरा जा रहा है। शायद उस गाँव का कोई एक तरुण दस-बारह साल से भाग गया था। उसकी स्त्रीा घर में थी। उक्त तरुण ने किसी बहाने गाँव से भागने में सफलता पाई। लोग उसके इंकार करने पर भी यह मानने के लिए तैयार न थे, कि वह वही आदमी नहीं है। आरा जिले में तो यहाँ तक हो गया कि लोगों ने इंकार करने पर भी एक घुमक्कड़ को मजबूर किया। भाग्य पर छोड़ पर घुमक्कड़ बैठ गया। जिसके नाम पर बैठा था, उसके नाम पर उसने एक संतान पैदा की, फिर असली आदमी आ गया। ऐसी स्थिति न पैदा करने के लिए घुमक्कड़ क्या कर सकता था? वह जगह-जगह से चिट्ठी कैसे-लिख सकता था कि मैं दूर हूँ। चिट्ठी लिखना भी लोगों के दिल में झूठी आशा पैदा करना है।

निरुद्देश्यै घुमक्कड़ होने का बहुतों का मौका मिलता है। घुमक्कड़-शास्त्र अभी तक लिखा नहीं गया था, इसलिए घुमक्कड़ी का क्या उद्देश्यो है, यह कैसे लोगों को पता लगता? अभी तक लोग घुमक्कड़ी को साधन मानते थे, और साध्यक मानते थे मुक्ति-देव-दर्शन को, लेकिन घुमक्कड़ी केवल साधन नहीं, वह साथ ही साध्ये भी है। निरुद्देश्यय निकलने वाले घुमक्कड़ आजन्मद निरुद्देश्ये रह जायँ, खूँटे से बँधें नहीं, तो भी हो सकता है कि पीछे कोई उद्देश्यश भी दिखाई पड़ने लगे। सोद्देश्यम और निरुद्देश्य‍ जैसी भी घुमक्कड़ी हो, वह सभी कल्याण कारिणी हैं।