निर्णय / लतिका बत्रा

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रेलवे स्टेशन से बाहर निकल कर, जब वह टेक्सी लेने लगी तो पल भर के लिये उस का मन हुआ कि घर ना जा कर वह कहीं भाग जाये सोनू को ले कर। फिर उतनी ही त्वरित गति से उस की आँखों के सामने अपनी तीनों मासूम बेटियों का चेहरा घूम गया। अपना घर, पति और बच्चे। एक स्त्री का सम्पूर्ण संसार तो बस इन्हीं तानोबानों में जकड़ा होता है। भाग सकने की गुंजाईश ही कहाँ छोड़ता है स्त्री का अपना ही मन। नहीं नही। हार मानने से नहीं चलेगा। स्त्री जब एक बार मातृत्व के गुरूगंभीर पद पर आसीन हो जाती है तो उस पद की रक्षा करने का दुर्दम्य साहस भी स्वंयमेव ही चला आता है। अपनी सुषुप्त शक्ति को पहचानने की देर होती है बस। नहीं वह हार नहीं माने गी। भीतर ही भीतर स्वंय को तौलती परखती, दृडता का पाठ पढ़ाती, वह टैक्सी में आ बैठी।

"रामबाग"

अपने घर का पता बता कर उस ने सोनू को सीट पर बिठा दिया। बैग आगे की ख़ाली सीट पर रख दिया। पर्स में से उसने सोनू की दूध की बोतल निकाली और उसे पकड़ा दी। सोनू उससे टिक कर अधलेटा हो गया। खुद को उसने सीट पर ढीला छोड़ दिया तथा आँखें बंद कर ली। अपने तीन दिन के ससुराल प्रवास की एक-एक बात उस के सिर पर हथौड़े-सी बज रही थी। विदा लेते समय छोटी ननद सरिता ने उस का हाथ कस कर पकड़ लिया था। उस ने कहा था "अपनाया है तो रिश्तों को ईमानदारी से निभाओ। सच्चाइयों से घबरा कर सम्बंधों के प्रति बेईमान नहीं हुआ जा सकता। फिर माँ और बच्चे का सम्बंध तो किसी की भी सहमति असहमति का मोहताज नहीं है।"

"ईमानदारी से ज़्यादा ज़रूरी साहस है इस रिश्ते में"

अपनी भर्राई हुई टूटती आवाज़ में कह कर वह कार में बैठ गई थी। सरिता वहीं घर के गेट पर खड़ी उसे जाता हुआ देखती रही थी। वापसी के पूरे सफ़र में सरिता कि कही बातें उस के दिमाग में घूमती रही थी। वह रोना चाहती थी। चिल्ला-चिल्ला कर अपने भीतर का पूरा आक्रोश निकाला देना चाहती थी। क्यों उसके आसपास के सारे लोग इतना स्वार्थी हो कर कैसे सोच सकते हैं। क्यों सरिता के सिवा किसी को उस का दर्द दिखाई नहीं देता। सरिता तो उसके दिल की एक-एक बात बिना कहे ही समझ जाती है। आख़िर क्यों ना समझे गी। ननद से पहले वह उस की पक्की सहेली जो ठहरी। बाक़ी अम्मा और बड़ी जिज्जी सुषमा तो ... तौबा। तानों और व्यंग्य के बिना तो वह बात ही नहीं करती। वह जब भी ससुराल से लौटी है इन दोनों की तीखी कड़वी बातों से दुखी, हताश दिल दिमाग ले कर ही लौटी है। बस एक बार, डेढ़ साल पहले जब वह पहली बार नन्हें से सोनू को ले कर ससुराल आई थी तो इन्हीं अम्मा और जिज्जी ने उसे और सोनू को पलकों पर उठा लिया था। पोते को गोदी में उठाये पूरा मुहल्ला घूम आई थी। रोज शाम को उस की नज़र उतारती थी और अब! एक सच ने ममता, प्यार, वात्सल्य पर डाका ही डाल दिया था।

यहाँ आने से पहले उसे तनिक भी अंदाज़ा नहीं था कि नीलाभ इन लोगों को सब सच बता चुकें हैं। नीलाभ के इस विश्वास घात ने उस के पैरों के नीचे से ज़मीन खींच ली थी। उसे अब समझ में आया था कि क्यों नीलाभ ने ज़बरदस्ती ठेलठाल कर उसे यहाँ भेजा था। वह तो आना ही नहीं चाहती। लड़कियों की परीक्षायें सर पर थी। फिर नीलाभ की बुआ के पोते के नामरकण पर जान ऐसा कोई ज़रूरी भी नहीं था। अम्मा, जिज्जी, सुनीता अौर जेठानी प्रभा तो सब के सब जा ही रहे हैं ना फ़ंक्शन में। पर नीलाभ नहीं माने। दरअसल उस का ससुराल और नीलाभ की बुआ का घर एक ही मुहल्ले में था। इस लिये उन का तर्क था कि बुआ के घर की खुशी में सम्मिलित होने के बहाने वह अपने ससुराल वालों से भी मिल आयेगी साथ ही पूरी बिरादरी से भी मेल मुलाक़ात हो जाये गी। उसे चिड़ हो रही थी नीलाभ की बचकानी ज़िद पर। वह उस के पीछे छिपी मंशा को भाँप नहीं पाई थी। ट्रेन चार घंटे लेट थी। ससुराल का ड्राईवर स्टेशन पर उस का इ न्तजार कर रहा था। घर पहुँची तो वहाँ की हवा में उसे कुछ भारीपन-सा लगा था। माँ व जिज्जी दोनों ही कुछ उखड़ी-उखड़ी लग रही थी। सोनू को भी पहले की भाँति गोद में उठा कर लाड़ प्यार की बौछार नहीं की। उस का जी तो उसी समय हुडक गया था। जेठानी प्रभा औपचारिक नमस्ते के बाद रसोई में जा घुसी थी। कुछ देर बाद चाय नाश्ता व सोनू का दूध रख कर फिर ग़ायब हो गई। नौकर से कह कर अम्मा ने उस का सामान उपर के छोटे कमरे में रखवा दिया था।

"अम्मा, बुआ के घर कितने बजे चलना है?" उसी ने बात शुरू की।

"संझा को। तुम जाये के उपर बैठो तब तलक" अम्मा कि आवाज़ की तुनक ने उसे उलझन में डाल दिया। इतने दिनों बाद मिले है। ना हाल चाल पूछा ना ही कोई बात। उस ने फिर हिम्मत कर के बात छेड़ी, "अम्मा सरिता से बात हुई? वह कब तक पहुँचे गी?"

"यो बात तो तुमी जानों, हमाई सगी ना हेगी वह। सगी तो तुमाई लगे वा" अम्मा ने ज़हर बुझा तीर छोड़ा।

शाम पाँच बजे तक तैयार रहने और अभी उपर जा कर आराम करने की हिदायत दे कर अम्मा उसे बैठक में अकेला छोड़ कर बाहर निकल गई। उस का और सोनू का खाना भी जिज्जी ने उपर ही भिजवा दिया जिस का एक निवाला तक उस के गले से नहीं उतरा।

उपर जा कर उसने सोचा कि नीलाभ को फ़ोन कर के पूछे कि ये सब क्या चल रहा है घर में। कोई सीधे मुँह बात तक नहीं कर रहा। सोनू की ओर भी किसी ने देखा तक नहीं। उसे यक़ीन हो चला था कि हो ना हो, उस के घर से निकलते ही नीलाभ ने इन सब को सब कुछ बता कर भड़का दिया है। बात जल्दी ही खुल भी गई।

"अम्मा मुझे तो पहले ही शक था कि ये मुआ सोनू इस का अपना जाया नहीं है" जिज्जी बोल रही थी।

ढलते हुये सूरज की तिरछी किरणें इस चारों ओर से घिरे आँगन में कुछ देर के लिये आ विराजती थी। यहीं चारपाई डाले दोनों माँ बेटी चाय की चुस्कियाँ के बीच गहन विमर्श में लीन थी। उन्हें पता नहीं था कि आँगन के उपर लगे लोहे के जाल की मुँडेर पर खड़ी वह सब कुछ सुन रही है। अभी नहा कर निकली थी वह। सफ़र में पहने अपने व सोनू के कपड़े धो डाले थे उस ने। तार पर सूखने डाल रही थी।

"इस औरत ने पता नहीं क्या जादू कर रखा है। अपना नीलाभ तो ऐसा कभी ना था। इतने दिनों तक भनक ना लगने दी सच्चाई की। अब जो भी हो पीछा तो छुड़वाना ही हो गा इस अपाहिज का भाई से।"

जिज्जी की ज़हरीली फुफकार से उस का रोम-रोम जल उठा।

"अरी ये जो अलग चुल्हा चौका बसा कर चौधराईन बनी बैठी है, उस के बल तो मैं चुटकी में निकाल दूँगी। यों सिर पर चढ़ कर नाचने ना दें गें।"

"और क्या अम्मा, नीलाभ जो चाहे गा वही हो गा। वह नहीं रखना चाहता इस लंगड़े अपाहिज को तो शालू कौन होती है मना करने वाली। बहु है बहु बन कर रहे। मर्दों के फ़ैसले मर्दों को करने दे।"

कलेजा बर्फ हो गया उस का। हाथ पाँव सुन्न हो गये। घर भर केठंडे व उपेक्षित व्यवहार का कारण अब स्पष्ट हो चुका था। उस का अंदाज़ा सही निकला। उसे ट्रेन में बिठाते ही नीलाभ ने इन लोगों के आगे वह सारा सच उगल दिया था जिसे वे दोंनो आज तक अपनी परछाईं से भी छिपा कर रखते आये थे। अम्मा ने क्या आग उगली, जिज्जी ने क्या दंश दिये, सब बेमानी हो गये नीलाभ के विश्वासघात के आगे। अपना वश नहीं चला तो उस पर घर वालों का दबाव बनाने की कोशिश कर कहे थे नीलाभ। यहीं चूक गये वह, पहचान ही नहीं पाये उसे। वह तो उसी क्षण, उसी रात पूर्णरूपेण माँ बन गई थी बेटे की। ममता भी कहीं आधी अधूरी होती है। अब शरीर में कुछ दोष है इस नन्ही-सी जान के तो क्या हुआ। यह तो हो नहीं सकता कि एक दिन अचानक से एक अनजान बालक को ला कर गोद में डाल दिया और कहा, यह लो बेटा बना लो, फिर कह दिया यह बेटा नहीं हो सकता इसे छोड़ आओ कहीं। वह हैरान थी कि शारीरिक कमी उजागर होते ही बेटे पर जान न्योछावर करने वाला पिता इतना कठोर ह्रदय कैसे हो सकता है।

चार बज चुके थे। मन ना होने पर भी बुआ के घर तो जाना ही पड़े गा और ऐसे रो धो कर कमजोर पड़ने से कैसे चले गा। उसे इस स्थिति का सामना दृडता से करना ही होगा। तैयार हो नीचे आई तो देखा अम्मा ने पूरी तैयारी कर रखी थी। बुआ के घर जो-जो नेग ले जाने थे वे सब पलंग पर फैला रखे थे। कुछ देर पहले तक की जाने वाले जली कटी बातों की छाया तक नहीं थी जिज्जी और अम्मा के चेहरों पर। उसे आया देख कर अम्मा बोली "आ जा तू भी देख ले सारा सामान। छोरियाँ चाहे बूढ़ी हो जायें, रहें गी घर की छोरियाँ ही। माई बापू और भाई का साया सिर से उठ गया तो क्या हुआ, भौजी तो ज़िन्दा है ना अभी। मेरे होते मैके की कमी ना खले गी तुम्हारी बुआ को"

फिर दो घड़ी साँस ले कर बोली, "इतने दिनों बाद आई है उस के घर खुशी, सारी बिरादरी देखे गी, इसी लिये करना पड़े है ये सब।"

दोहरी बातें करने में पारंगत है अम्मा। एक छोटी-सी व्यंगमिश्रित तिरछी मुस्कान खेल गई उस के होंठों पर। तौहफे तो उस के पास भी रखे थे। नीलाभ ने सब के लिये अलग-अलग उपहार भेज थे।

बुआ के लेजाने वाले नेग भी थे। कुछ सोच कर वह उठी और बैग में से बुआ तथा उन की बहु की साड़ी और नवजात पोते के लिये बनवाये चाँदी की तार में काले मोतियों वाले कड़े निकाल लाई। अम्मा को दिखा कर ये सामान भी उस ने अन्य वस्तुओं के साथ पलंग पर रख दिया। कुछ भी हो, बिरादरी के सामने तो घर की बातों को ढक कर रखना ही पड़ता है बहु है तो अलग से कैसे करे गी लेन देन। चाहे इस बहु को कुछ ही देर पहले 'छोरियाँ पैदा करने वाली डायन' ही क्यों ना कहा गया हो। बाक़ी के सारे तौहफे बैग में ज्यों के त्यों ही पड़े रह गये। ये जो सब मिल कर उसकी ममता कि हत्या करने पर तुले हुए हैं उन्हें किस कलेजे से जा कर थमाये उपहार।

भीतर की सारी उथल पुथल भीतर ही समेटे, उपर से सामान्य दिखने में अपनी सारी उर्जा ख़र्च करती वह बुआ के घर सब से मिलती मिलाती रही। रात्रि भोज के बाद घर लौटते ही अम्मा ने आदेश दिया कि कपड़े वगेहरा बदल कर सोनू को सुला कर शीघ्र ही वह नीचे बैठक में आ जाये उस से ज़रूरी बात करनी है। बिफर तो सुबह से ही रही थी दोनों, पता नहीं कैसे ज़ब्त किये बैठी थी। शायद उन्हें डर था कि ये बात उठाते ही क्लेश मच जाये गा घर में। उस के रोने बिसूरने तथा विद्रोह के स्वर इतने ऊँचे ना हो जायें कि बुआ के घर एकत्र मेहमानों तक ना पहुँच जायें। अम्मा को ये भी डर था कि बिफर कर कहीं वह समारोह में सम्मिलित होने से ही इन्कार ना कर दे। अम्मा सब को क्या जवाब देगी, जब कि सब को पता है कि वह विशेष तौर पर इसी लिये आई हुई है। उस के लिये तो अच्छा ही हुआ कि ये बातें सुबह नहीं उठी। वह अकेली पड जाती। पर अब तो सरिता भी है उस का साथ देने को। जब वह नीचे आई तो बैठक में पंचायत जुटी थी। जेठ, जिठानी, जिज्जी, अम्मा और सरिता सोनू को लेकर ही बहस में जुटे थे। उसे आया देख कर जेठ जी ये बोलते हुये जेठानी सहित बैठक से बहार चले गये कि ये शालू और नीलाभ का आपसी मामला है, वह जाने अम्मा जाने।

उस के जाते ही अम्मा शुरू हो गई।

"सुन बहु! नीलाभ नहीं चाहता तो तू छोड़ क्यों नहीं देती। क्यों चिपटाये रखना चाहती है इस अपाहिज को छाती से।"

तिलमिला गई वह।

"अम्मा" वह चिल्ला कर बोली, "इतना कड़वा ना बोलो। पोता है आप का"

"कैसा पोता, इतना बड़ा झूठ बोला हम सब से। ना दिन चढ़ने की ख़बर लगने दी, ना दर्द उठने की, सीधा छोरा जनने की ख़बर सुना दी थी। छोरा ना हुआ कुम्हड़ा हो गया कि गये और तोड़ लाये। हमें तो पहले दिन से ही शक था कि ये तुम्हारा जाया नहीं।" अब के जिज्जी बोली।

"अम्मा, ये सब आप के बेटे का ही प्लान था" वह बोली

"नीलाभ ने ला के झोली में डाला ना, अब वह नहीं चाहता इसे रखना तो तुझ क्या तकलीफ़ हैंगी। हम तो ना माने गे अपने जीते जी इस मुसीबत को अपने कुल वंश का वारिस।" अम्मा फुफकारी।

"अम्मा तुम समझना ही नहीं चाहती मेरी तकलीफ़ तो अब मैं क्या समझाऊँ तुम्हें"।

सिर झुकाये वह सोच रही थी। यदी सोनू की माँ का कुछ भी अता पता होता तो नीलाभ कब का इस बच्चे को उस की गोदी से छीन कर लौटा चुके होते। पर वह फटेहाल अनजान लड़की तो आसन्नप्रसवा थी जब नीलाभ के नर्सिंग होम पहुँची थी। आधी रात का समय था स्टाफ़ और मरीज़ भी अधिक नहीं थे उस समय। एक आपातकालीन रोगी को देखने के लिये रुके हुये थे नीलाभ। कुछ ही पलों में बच्चा जना और चुपचाप कब बच्चा वही छोड़ कर भाग निकली वह लड़की किसी को पता ना चला। पहले तो घबरा गये वह कि पुलिस को ख़बर करनी होगी। पर फिर उन की छठी इंद्रियों सक्रिय हो उठी। लड़का है। जो इसे यों पैदा कर के भाग निकली है वह वापिस आने से तो रही। नीलाभ ने तुरंत फ़ोन करके उसे अस्पताल बुला भेजा। एक बिस्तर पर लिटा कर पास ही पालने में वह नवजात शिशु लिटा दिया। सुबह होते-होते यह ख़बर चारों ओर फैल गई कि डॉक्टर साहब की पत्नी ने रात में पुत्र को जन्म दिया है। यह सब इतनी तीव्रता से हुआ कि उसे कुछ भी सोचने समझने का मौक़ा तक ना मिला था। सब हैरान थे, अच्छा मैडम गर्भवती थी, पता ही ना चला। अड़ोस पड़ोस भी हैरान था। सब को डॉक्टर साहब ने अपनी बातों से संतुष्ट कर दिया। वैसे भी वह कहाँ ज़्यादा उठती बैठती थी पड़ोस में। छोटे शहरों में भी आजकल वह बात नहीं रही। कौन किसीकी इतनी ख़बर रखताहै। बधाइयाँ दी गई, मिठाइयाँ बाँटी गई, जश्न हुये। यही अम्मा और जिज्जी बलायें लेती ना अाघाती थी और अब ऐसी कड़वी बातें कि सुन कर लगे कि पिघला शीशा उतर रहा हो कानों में।

"अम्मा ये तो भाई शालू के साथ सरासर ज़्यादती कर रहा हैं। पहले तो बिना उस से पूछे बच्चा गोद में डाल दिया। अब इस में ममता पड गई तो कहता है छोड़ दो।" सरिता बोली।

"हमें बताया होता तो हम ये कभी होने ही ना देते। पता नहीं किस जात कुजात का जाया है।" जिज्जी गुराई "" अपने कुल गोत्र को गंदा ना होने देंगे हम। "

"जिज्जी, तुम्हें ज़्यादा चिड़ किस बात से हो रही है? पहले क्यों नहीं बताया इस बात से या कुल गोत्र से। मुझे तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता इन बातों से। जिस बात को जानने का कोई कारण ना हो उसे ना भी बताया जाये तो क्या हर्ज है। बच्चा ऐसे ही तो नहीं छोड़ सकते।"

जिज्जी ने दोनों को एक ही थैली का चट्टा बट्टा कह दिया।

सरिता भड़क गई। बचपन की दबंगई गई कहाँ उस की। जिज्जी की बड़ी ही दुखती रग पर हाथ रख दिया उसने। सीधे कह दिया,

"जिज्जी अपना दुख बिसरा चुकी हो?"

सन्न रह गई जिज्जी। उन्हे सरिता से ये उम्मीद नहीं थी कि इस चर्चा में वह उनके पुराने ज़ख़्मों को कुरेद देगी।

तिलमिलाई हुई जिज्जी, भाड़ में जाओ तुम सब, कह कर रोती बिसूरती अपने कमरे में चली गई।

अम्मा भी उठ खड़ी हुई और ये कहते हुये बाहर निकल गई कि यदी शालू ने इस बच्चे को नहीं त्यागा तो उस के साथ अम्मा का जीने मरने तक का रिश्ता ख़त्म।

पंचायत बर्खास्त हो गई। वह बैठक में अकेली बैठी रह गई। उस की आँखों के आगे अँधेरा छाने लगा। दोनों बहनों में उस की वजह से क्लेश हो गया था। देखा जाये तो जिज्जी के दुख की विशालता का कहाँ ओर छोर था। असमय ही पति की मृत्यु, फिर कुछ ही दिनों बाद उनके बेटे को अपने पास रख कर छ: महीने की बेटी सहित जिज्जी को नंगे पाँव घर से बाहर कर दिया था उन के ससुराल वालों ने। वह समझती है जिज्जी की मनोदशा। तब की उपजी कड़वाहट ने उन का जीवन ही नहीं दिल दिमाग तथा ज़ुबान को भी ज़हरीला कर दिया है। कहीं ना कहीं ये बात भी थी कि मायके में अपने पाँव जमाये रखने के लिये वह पूरे घर की नकेल कस कर थामें रहना चाहती हैं। जब की वह फिसलती ही जा रही है उन के हाथों से। उस पर सरिता ने आ कर और गुड गोबर कर दिया था। दृढ़ प्राचीर की भाँति खड़ी हो गई थी सरिता उस के और अम्मा व जिज्जी के मध्य। निश्चय तो पहले से ही पक्का था, अब सरिता कि बातों ने उस का हौसला और बढ़ा दिया था। दृडता कि अनगिनत परतें चढ़ गई थी उस के निश्चय पर।

नीलाभ डॉ हैं। सोनू की बीमारी उन्होंने पहले भाँप ली थी। उस से कटे-कटे रहने लगे थे। सोनू के लक्षण दूसरे साल से ही प्रकट होने लगे थे। बोलता भी था, दाँत भी निकाल लिये थे। कुल्हड़ों के बल घिसीटता था। सहारा दे कर खड़ा करने पर भी पाँव नीचे नहीं रखता खा। शक तो उसे भी था। तीन साल का बच्चा, स्वस्थ और सुन्दर, पर टाँगें, जैसे सूखी हड्डी मात्र। नीलाभ ने पता नहीं कौन-कौन से टेस्ट करवाये थे सोनू के। सोनू की रिपोर्टों वाली फाईल ले कर ना जाने कौन-कौन से अस्पतालों के चक्कर काट चुके थे। ना जाने कौन कौन-सी दवाइयाँ उसे अपने हाथों से देते थे। एक बार दिल्ली के ऐम्स़ में भी दिखा आये थे। पर इस विषय में वह कुछ बात पूछती तो नीलाभ या खीज जाते या रूखा-सा जवाब दे देते कि तुम चिन्ता मत करो। कमजोरी है बस, ठीक हो जाये गी। पता नहीं ऐसा कह कर वे खुद को तस्सली देते थे या उसे, पर वह जान रही थी कि बात कुछ गम्भीर है। उस ने चुपचाप कई तरहा के आयुर्वेदिक व प्राकृतिक तेल व लेप मलने शुरू कर दिये थे सोनू की टांगों पर। दोनों पति पत्नी एक दूसरे से नज़रें चुराते, इस विषय में चिन्तित तथा किसी अनहोनी की आशंका में घुलते रहते।

"मैडम, रामबाग आ गया, अब किधर लूँ?" टैक्सी वाले ने टोका तो सचेत हो कर उस ने इधर उधर देखा। टैक्सी वाला सोच रहा था कि सफ़र की थकी सवारी शायद सो गई है। वह फिर से बोला,

"उठो जी, मैडम जी, बताओ कौन-सी गली में लूँ।"

"नीलाभ नर्सिंग होम"

"अच्छा जी" कह कर उस ने निर्दिष्ट दिशा कि ओर गाड़ी मोड़ दी।

घर पहुँच कर उस की इच्छा ही नहीं हुई कि नीलाभ से कुछ पूछे सवाल जवाब करे। जो छिपी बात बाहर निकल ही गई हो उसे पुन: छिपाया तो नहीं जा सकता और कुछ हो ना हो, पति पत्नी के मध्य का रिश्ता अवश्य ही अनाथ हो गया था। दोनों के बीच का गहन अबोला पूरे घर में सांय-सांय करता डोल रहा था। दो छोटी बेटियाँ तो अबोध थी अभी, पर किशोरावस्था कि ओर पग बढ़ाती बड़ी बेटी शिप्रा सब समझ रही थी। सोन पता नहीं किस अज्ञात प्रेरणा वश हर समय उसी के साथ चिपका रहता। अपनी सारी संचित शक्ति से वह अपने दृड निश्चय तथा साहस को जागृत रखती कि कहीं किसी कमजोर पल में निष्ठुर पौरुष उसे अपने सामने घुटने टेकने को विवश ना कर दे।

तीन दिन का छूटा घर समेटने लगी तो उसने नीलाभ की टेबल पर मेडिकल पत्रिका का एक अंक पड़ा देखा। जन्मजात एंव वंशानुगत शारीरिक विसंगतियों का विशेषांक। उस ने पत्रिका उठा कर देखी।

जो पन्ना खुला हुआ था उस का शीर्षक था, सेरेब्रल पाल्सी-न्यूरोलॉजिकल विकार। इस लेख के कई अंशों को पेंसिल से अंडरलाइन किया हुआ था।

रात को क़रीब तीन बजे कुछ खटके से उस की नींद खुली, तो देखा कि नीलाभ लैपटॉप पर दत्तचित हो कर कुछ काम कर रहे थे। थोड़ी देर बाद लैपटॉप बंद कर के कोहनियों को मेज़ पर टिकाये दोनों हथेलियों में अपना झुका हुआ सिर थामें देर तक बैठे रहे थे। सुबह नर्सिंग होम नहीं गये वे। पता नहीं किस उधेड़ बुन में लगे थे। कभी किसी को फ़ोन करते, कभी काग़ज़ पत्ते फैला कर बैठ जाते। अचानक उठे और अटेची निकाल कर सोनू का सामान उस में भरने लगे। उसे लगा वह गश खा कर गिर पड़ें गी। अपना सारा अहं, सारामान अभिमान भूल कर वह नीलाभ के पैरों पर लोट गई।

नीलाभ तड़प कर बोले, "बस करों, मेरी मुश्किलें और ना बढ़ाओ। पत्थर नहीं हूँ मैं। कोई इलाज नहीं है इस का यहाँ। मैं अपना सब कुछ बेच भी दूँ, तो भी नहीं। समझी तुम।"

पता नहीं नीलाभ की खीज क्रोध और चिल्लाहट का मूल कारण क्या था। एक असहाय, अपाहिज बेटे के प्रति पिता का फ़र्ज़ निभा पाने की अक्षमता या एक कमजोर क्षण में एक निराश्रित को अपना मान लेने का निर्णय। शिप्रा आँसुओं में भीगी डरी सहमी दरवाज़े के पीछे खड़ी सब सुन रही थी। दोनों छोटी बच्चियाँ भी डर के मारे अपने कमरे में दुबकी थी। इस से पहले उन्होंने कभी अपने पिता को इतने क्रोध में नहीं देखा था।

तभी डोर बैल बजी।

सन्नाटा पसर गया कमरे में। क्षण भर को सब ठिठक गये। वह खुद को सम्भालती उठी और दरवाजा खोला। प्रजापति जी थे। नीलाभ के मित्र और शिप्रा के लॉग जंप के कोच। घर के असहज वातावरण को भाँप कर कुछ अचकचा से गये थे वे। सोफ़े पर बैठते ही उन्होंने शिप्रा को बुलवाया और पूछा कि वह आज कल प्रेक्टिस पर क्यों नहीं आती। अंतर विद्यालय प्रतियोगिता में कुछ ही दिन रह गये है और शिप्रा अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व करती है इस खेल में।

"मुझे नहीं भाग लेना किसी प्रतियोगिता में।" उस ने नज़रें चुराते हुये कहा।

"क्यों? क्या मुसीबत आन पड़ी है पता तो चले। गोल्ड जीत सकती हो। स्टेट लेवल पर जाओ गी। दिमाग में भूसा भर गया है क्या। चाँद रोज-रोज नहीं मिलते। समझी"

नीलाभ ने शिप्रा के 'सर' के बैठे होने का भी लिहाज़ नहीं किया और अपने भीतर दबा कहीं का आक्रोश कहीं निकाला।

"रेखा के पाँव की हड्डी टूट गई है जंप लगाते हुये।" शिप्रा डरते हुयेबोली।

"तो ...?" हैरानी से प्रजापति जी बोले

उन की बात बीच में ही काट कर नीलाभ बिफर पड़े "चोट उसे लगी है। तुम्हारी तो सलामत हैं ना दोनों टाँगे। चोट के डर से क्या घर बैठ जाओ गी?"

शिप्रा आँसू रोकने का भरसक प्रयास कररही थी। आँखें जैसे जल रही थी उस की। मुँह तमतमा गया था। उस की दृष्टि सोनू के पैरों पर जमी थी।

"लग सकती है मुझे भी। कहीं मेरे पैर भी ... तो आप मुझे भी सोनू की तरह ..."

रूलाई में शब्द गड्ड मड्ड हो ग ये थे। पुत्री के टूटे फूटे अस्फुट शब्द और अधूरे वाक्यों ने अपनी पूरी बात संप्रेषित कर दी थी। नीलाभ के पैरों के नीचे की धरती घूम गयी। आँखों के आगे अँधेरा छा गया। बेदम हो कर वे पास पड़ी कुर्सी पर ढेर हो गये।