निर्णय / हेमन्त शेष
बाजार में सब्जियों के आसमान छूते दाम देख कर एक दिन मैंने सोचा कि क्यों न हम घर में ही सब्जियाँ उगाना शुरू कर दें. इससे बाजार जा कर सब्जियां खरीदने का रोज-रोज का झंझट भी खत्म हो जाएगा और ताज़ा सब्जी हम जब चाहें, तोड़ कर खा सकेंगे.
-पर पानी का बिल तो बहुत बढ़ जाएगा- पत्नी ने कहा.
-रोज पानी डालने क्यारियों में कौन जाया करेगा? बेटी ने पूछा. उसे डर था घर की दूसरी ज़िम्मेदारियों की तरह ये नया काम भी कहीं उसी के गले न मंढ दिया जाये.
-कभी गलती से किसी ने फाटक खुला छोड़ दिया तो आवारा गायें सारी सब्जियां चट कर जाएंगी- बेटे ने कहा.
-कौन से पौधे उखाड़ कर सब्जियां बोई जाएंगी? कौन-कौन सी सब्जियां उगाई जाएंगी? बीज और खाद पर कितना खर्च आएगा? बीच-बीच में उन पर दवा कौन छिडकेगा? क्यारियों की ‘निराई-गुड़ाई’ कौन करेगा? तोते कौन उड़ाएगा? अगर सब्जियाँ हद से ज्यादा पैदा हो गयीं, तो उनका ‘वितरण’ कैसे किया जाएगा? हम जब कभी बाहर जाएंगे तो पीछे से सब्जियों का ध्यान कौन रखेगा? पड़ोसी सब्जी मांगने तो नहीं आते रहेंगे? अगर उत्पादन ज़रूरत से कम हुआ तो उगाने का क्या फायदा? जैसे कई सवाल मुझे भी सूझे.
इसलिए हम सब्जियाँ पहले की तरह बाजार से ही लाते हैं!