निर्बल के बल राम / सत्य के प्रयोग / महात्मा गांधी

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धर्मशास्त्र का और दुनिया के धर्मो का कुछ भान तो मुझे हुआ , पर उतना ज्ञान मनुष्य को बचाने के लिए काफी नही होता। संकट के समय जो चीज मनुष्य को बचाती हैं, उसका उसे उस समय न तो भान होता हैं , न ज्ञान। जब नास्तिक बचता हैं तो वह कहता हैं कि मैं संयोग से बच गया। ऐसे समय आस्तिक कहेगा कि मुझे ईश्वर ने बचाया। परिणाम के बाद वह यह अनुमान कर लेता हैं कि धर्मों के अभ्यास से संयम से ईश्वर उसके हृदय मे प्रकट होता हैं। उसे ऐसा अनुमान करने का अधिकार हैं। पर बचते समय वह नहीं जानता कि उसे उसका संयम बचाता हैं या कौन बचाता हैं। जो अपनी संयम शक्ति का अभिमान रखता हैं , उसके संयम को धूल मिलते किसने नहीं जाना हैं ? ऐसे समय शास्त्र ज्ञान तो छूछे जैसा प्रतित होता हैं।

बौद्धिक धर्मज्ञान के इस मिथ्यापन का अनुभव मुझे विलायत मे हुआ। पहले भी मैं ऐसे संकटों में से बच गया था , पर उनका पृथक्करण नहीं किया जा सकता। कहना होगा कि उस समय मेरी उमर बहुत छोटी थी।

पर अब तो मेरी उमर 20 साल की थी। मैं गृहस्थाश्रम का ठीक-ठीक अनुभव ले चुका था।

बहुत करके मेरे विलायत निवास के आखिरी साल मे, यानि 1890 के साल मे पोर्टस्मथ मे अन्नाहारियो का एक सम्मेलन हुआ था।ष उसमे मुझे और एक हिन्दुस्तानी मित्र को निमंत्रित किया गया था। हम दोनो वहाँ पहुँचे। हमें एक महिला के घर ठहराया गया था। पोर्टस्मथ खलासियो का बन्दरगाह कहलाता हैं। वहाँ बहुतेरे घर दुराचारिणी स्त्रियों के होते हैं। वे स्त्रियाँ वेश्या नहीं होती, न निर्दोष ही होती हैं। ऐसे ही एक घर में हम लोग टिके थे। इसका यह मतलब नहीं कि स्वागत समिति ने जान-बूझकर ऐसे घर ठीक किये थे। पर पोर्टस्मथ जैसे बन्दरगाह में जब यात्रियों को ठहराने के लिए डेरों की तलाश होती है , तो यह कहना मुश्किल ही हो जाता हैं कि कौन से घर अच्छे है और कौन से बुरे।

रात पड़ी। हम सभा से घर लौटे। भोजन के बाद ताश खेलने बैठे। विलायत में अच्छे भले घरों में भी इस तरह गृहिणी मेहमानो के साथ ताश खेलने बैठती है। ताश खेलते हुए निर्दोष विनोद तो सब कौई करते हैं। लेकिन यहाँ तो बीभत्स विनोद शुरु हुआ। मैं नहीं जानता था कि मेरे साथी इस मे निपुण हैं। मुझे इस विनोद मे रस आने लगा। मैं भी इसमे शरीक हो गया। वाणी मे से क्रिया मे उतरने की तैयारी थी। ताश एक तरफ घरे ही जा रहे थे। लेकिन मेरे भले साथी के मन में राम बसे। उन्होंने कहा, 'अरे, तुम मे यह कलियुग कैसा ! तुम्हारा यह काम नहीं हैं। तुम यहाँ से भागो।'

मैं शरमाया। सावधान हुआ। हृदय में उन मित्र का उपकार माना। माता के सम्मुख की हुई प्रतिज्ञा याद आयी। मैं भागा। काँपता-काँपता अपनी कोठरी में पहुँचा। छाती धड़क रही थी। कातिल के हाथ से बचकर निकले हुए शिकार की जैसी दशा होती हैं वैसी ही मेरी हुई।

मुझे याद हैं कि पर-स्त्री को देखकर विकारवश होने और उसके साथ रंगरेलियाँ करने की इच्छा पैदा होने का मेरे जीवन मे यह पहला प्रसंग था। उस रात मैं सो नहीं सका। अनेक प्रकार के विचारों ने मुझ पर हमला किया। घर छोड़ दूँ ? भाग जाऊँ? मैं कहाँ हूँ ? अगर मैं सावधान न रहूँ तो मेरी क्या गत हो ? मैने खूब चौकन्ना रहकर बरतने का निश्चय किया। यह सोच लिया कि घर तो नहीं छोड़ना हैं, पर जैसे भी बने पोर्टस्मथ जल्दी छोड़ देना हैं। सम्मेलन दो दिन से अधिक चलने वाला न था। इसलिए जैसा कि मुझे याद हैं , मैने दूसरे दिन ही पोर्टस्मथ छोड दिया। मेरे साथी पोर्टस्मथ मे कुछ दिन के लिए रुके।

उन दिनों मैं यह बिल्कुल नहीं जानता था कि धर्म क्या हैं , और वह हम मे किस प्रकार काम करता हैं। उस समय तो लौकिक दृष्टि से मै यहीं समझा कि ईश्वर ने मुझे बचा लिया हैं। पर मुझे विविध क्षेत्रो में ऐसे अनुभव हुए हैं। मैं जानता हूँ कि 'ईश्वर ने बचाया' वाक्य का अर्थ आज मैं अच्छी तरह समझने लगा हूँ। पर साथ ही मैं यह भी जानता हूँ कि इस वाक्य की पूरी कीमत अभी तक मैं आँक नहीं सका हूँ। वह तो अनुभव से ही आँकी जा सकती हैं। पर मैं कह सकता हूँ कि कई आध्यात्मिक प्रसंगों में वकालत के प्रसंगो में, संस्थाये चलाने में, राजनीति में 'ईश्वर नें मुझे बचाया हैं।' मैने यह अनुभव किया हैं कि जब हम सारी आशा छोड़कर बैठ जाते हैं, हमारे हाथ टिक जाते हैं , तब कहीँ न कही से मदद आ ही पहुँचती हैं। स्तुति, उपासना, प्रार्थना वहम नहीं हैं, बल्कि हमारा खाना -पीना, चलना-बैठना जितना सच हैं, उससे भी अधिक सच यह चीज हैं। यह कहनें में अतिशयोक्ति नहीं कि यही सच हैं और सब झूठ हैं।

ऐसी उपासना , ऐसी प्रार्थना, निरा वाणी-विलास नहीं होती। उसका मूल कण्ठ नहीं, हृदय हैं। अतएव यदि हम हृदय की निर्मलता को पा ले, उसके तारो को सुसंगठित रखे , तो उनमें से जो सुर निकलते हैं, वे गगन गामी होते हैं। उसके लिए जीभ की आवश्यकता नहीं होती। वह स्वभाव से ही अद्भूत वस्तु हैं। इस विषय में मुझे कोई शंका ही नहीं हैं कि विकार रुपी मलों की शुद्धि के लिए हार्दिक उपासना एक रामबाण औषधि हैं। पर इस प्रसादी के लिए हम में संपूर्ण नम्रता होनी चाहिये।