निर्मल वर्मा से बातचीत / कुमार मुकुल

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
जबरदस्‍ती के इतिहास से बेहतर है क्रमहीनता
निर्मल वर्मा से कुमार मुकुल की बातचीत

बीस-इक्‍कीस लोग बैठे थे दरी पर पालथी मारे। बीच में एक लालटेन मद्धिम-मद्धिम जल रही थी। जिस पर कीड़े उझक रहे थे। लालटेन के पास एक किताब रखी थी 'कंपनी उस्‍ताद'। किताब से एक स्‍वर निकल कर लोगों की जुबान पर तैर रहा था - ' हंसी-हंसी पनवा खिअवले गोपीचनवा'। इन्‍हीं के बीच बैठे थे चेकोस्‍लोवाकिया और प्राग के जीवन को भारतीय साहित्‍य के लिए एक मधुर कल्‍पना में बदल डालने वाले हिंदी के महत्‍वपूर्ण कथाकार निर्मल वर्मा।

पिछले दिनों ही एक अंग्रेजी अखबार में अपने कमरे में बैठे निर्मल वर्मा की तस्‍वीर देखी थी मैंने। इसी तरह पालथी मारे बैठे थे जमीन पर। पास में घिसी चप्‍प्‍ालें। हल्‍के रंग की कमीज-पैंट। कान कुछ बड़े से, जैसे फिजां में ध्‍वनित सबसे मधुर, सबसे रहस्‍यमयी फुसफुसाहटों को समेटने की कोशिश मेकं कुछ फैल से गये हों। कद थोड़ा मध्‍यम पर मजबूत हथेलियां, जो किसी भी स्‍पर्श, किसी भी अनुभव को जैसे छोड़ना नहीं जानतीं हों। आंखें बड़ी-बड़ी बच्‍चों सी, विस्‍मय से भरीं। बस ठुड्डी के आस-पास का चमड़ा झूल आया था पर नाक वैसी ही कसी हुई।

मेरे मस्तिष्‍क में 'वे दिन' की गले में स्‍कार्फ बांधे अपनी छोटी सी बच्‍ची के साथ प्राण की सड़कों पर गुजरती स्‍त्री की यादें छिटकने लगती हैं। इतना बड़ा लेखक और ऐसी सादगी। जिसने भी चाहा उनसे बातें कीं, अपने मन की। अपनी किताबें दीं उन्‍हें। मैं भी मिला। बातचीत के लिए समय मांगा। सुबह नौ बजे बुलाया उन्‍होंने। साथ कुछ तस्‍वीरें खिचीं साहित्यिकों की। फिर दिनकर जी के आवास से विदा हुए वे।

सुबह नौ बजने में दस मिनट बाकी ही थे कि मैं पहुंचा होटल के कमरे में। किवाड़ आधी उढ़की थी। मुझे देखा तो बुलाया इशारे से। वहां उषा किरण खान बैठी थीं। खिड़की के किनारे एक छोटी मेज के दो ओर दो कुर्सियां थीं। उषा जी ने जाना कि बातचीत के लिए बुलाया है तो वे विदा होने को हुईं। निर्मल जी बोले कि वे अपनी मैथिली की पुस्‍तक को हिंदी में अनुदित कराएं, तो वे भी पढ़ सकेंगे।

...

फिर निर्मल जी ने दरवाजा सटाया। बोले - आप समय से आ गये। हां, शायद कुछ पहले ही - बोला मैं।

...

फिर मेरी जिज्ञासाएं अंकुराने लगीं। क्‍या इतिहास का अंत हो जाएगा? इसके क्‍या मानी हुए?

उनका कहना था - यहां इतिहास का मतलब मार्क्‍सवाद आदि विचारधाराओं के अंत से है। सोवियत संघ के बिखराव के बाद इतिहासकारों की जो वर्गविहीन समाज वाली परिकल्‍पना थी, उसका अंत हुआ है। जापानी विद्वान फुकियामा का इशारा इसी ओर है। यह जीवन के प्रति एक उत्‍तरआधुनिक दृष्टिकोण है। इतिहास का कोई क्रम नहीं है। वहां एक अराजकता है। कोई दिशा नहीं है। इससे निराशा होगी पर यही तर्कसंगत है। जबरदस्‍ती के इतिहास से बेहतर है क्रमहीनता।

...

मैं फिर 'वे दिन' की पृष्‍ठभूमि में पहुंच गया। वे दिन की जो रोमानियत है। जो कल्‍पना है। क्‍या वह निर्मल जी के जीवन का सच है? वह कुहरे और बर्फ के साथ घुलती जिंदगी का सुख उसका अनुभव, क्‍या वह जीवन का यथार्थ है या वह जीवन के कुछ क्षणों का विस्‍तार है।

पहले उन्‍होंने मेरी रोमानियत की प्रकृति समझने की कोशिश की, फिर बोले - हर कलाकृति के साथ ऐसा ही होता है। वहां थोड़ी कल्‍पना होती है, कुछ अनुभव, कुछ अकांक्षा। कुछ यथार्थ होता है। इस सब के मिश्रण से बनती है औपन्‍यासिक कृति। यह एक अलकेमी है। अलकेमी रसायनों के मिश्रण से सोना पैदा करने की विधि है। लेखक भी उसी तरह कल्‍पना-यथार्थ-अकांक्षा आदि के मिश्रण से अपने सत्‍य रूपी स्‍वर्ण को पाना चाहता है। अब कल्‍पना और यथार्थ का अनुपात रचना में कितना है, कैसा है, उसे नापना संभव नहीं। यह एक रहस्‍य है।

...

भारतीय से ज्‍यादा विदेशी जीवन और समाज निर्मल जी के उपन्‍यासों और कहानियों के केंद्र में रहा है। तो पाश्‍चात्‍य और भारतीय जीवन पद्धति में क्‍या कोई संभावना है?

निर्मल जी बताते हैं कि हर जगह मनुष्‍य एक है। उसका आचार-विचार, खाने का ढंग अलग-अलग हो सकता है पर मनुष्‍य के अंदर मनुष्‍यत्‍व सारी दुनिया में एक है। आदमी गोरा या काला हो सकता है पर उसकी आंखें दो ही रहेंगी, कान दो ही रहेंगे। यह नहीं कि कोई बड़ी जाति है तो तीन या चार आंखें होंगी। मतलब अंतस्‍थल एक है। घृणा, प्रेम, सेक्‍स, ईर्ष्‍या की आदिम प्रवृत्तियां सब जगह एक हैं।

...

अब एक महत्‍वपूर्ण सवाल सर उठा रहा था कि क्‍या लेखक के जीवन और उसके लेखन के कोई संगति होनी चाहिए ? निर्मल जी के अनुसार उसी संगति की खोज में लेखक ताउम्र भटकता रहता है। वह खुद असंगतियों मे मध्‍य घिरा होता है पर लगातार संगति खोजता है। यह खोज ही उसकी प्रेरणा का स्रोत है। अराजकता के बीच क्रम ढूंढने की ईच्‍छा से ही लेखन होता है।

...

निर्मल जी को दुनिया भर के पाठकों को प्रभावित किया पर उन्‍हें क्‍या चीज प्रभावित करती है, यह तो हम जानना ही चाहेंगे?

कृष्‍णमूर्ति के दर्शन से वे काफी प्रभावित हैं। उनके बनारस के आश्रम में रहे हैं वे, उनकी फिल्‍में देखी हैं। उनकी निष्‍ठा ने प्रभावित किया है उन्‍हें। वे बतलाते हैं - वे एक अवतार की तरह पूजे जाते । पर उन्‍होंने खुद को इस जंजाल से मुक्‍त किया। कृष्‍णमूर्ति की प्रसिद्ध पंक्ति है - मनुष्‍य भीतर से स्‍वतंत्र है पर वह खुद को झूठे बंधनों से बांधे रखता है। इन बंधनो से मुक्ति‍ के बिना उसका सत्‍य उसे नहीं मिलेगा।' यह मैं भी मानता हूं।

...

इसी बीच शिवपूजन सहाय शिखर सम्‍मान की बात आ गयी। चर्चा है कि यह सम्‍मान उन्‍हें देने की पेशकश की गयी है।

इससे इनकार करते हुए उन्‍हेांने पूछा कि यह खबर आपको कैसे लगी?

मैंने बताया - बिहार का महत्‍वपूर्ण सम्‍मान है।

...

उन्‍होंने थोड़ी अरूचि से पूछा - सरकारी है?

हां राजेन्‍द्र यादव को मिला था पिछली बार।

...

एक शिखर को मिल गया तो फिर मुझे क्‍यों?

...

क्‍या प्रेमचंद की कोई परंपरा है हिंदी में?

वे उत्‍साहित होकर बताने लगे कि हां, भीष्‍म साहनी, अमरकांत, मार्कंडेय ये सब उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हैं। इनके बिना प्रेमचंद की परंपरा की कल्‍पना नहीं की जा सकती। इन्‍होंने अपने अनुभवों से कहानी रची, पर भाषा, उसका गठन उनसे सीखा।

...

फिर आप किस परंपरा से आते हैं?

हंसते हुए वे बताते हैं - मैं परंपराहीन हूं। यूं प्रेमचंद मेरे बचपन से प्रिय लेखक रहे हैं। जैनेन्‍द्र के लेखन ने भी मुझे प्रभावित किया है, पर अज्ञेय के 'शेखर एक जीवनी' ने काफी प्रभाव डाला। इनसे भी ज्‍यादा रेणु को महत्‍व देता हूं। हालांकि वे मुझसे मिजाज में काफी भिन्‍न हैं, पर भाषा पर उनका नियंत्रण, उसकी चित्रमयता, उसका लोकसंगीत, वह सब मुझे भाता है। प्रकृति के साथ उनकी आत्‍मीयता भी महत्‍वपूर्ण है।

...

अब निर्मल जी बोले - बहुत बातें हुईं, और कितना पूछोगे?

यूं तुमने जल्‍दी-जल्‍दी सवाल किए, यह मुझे अच्‍छा लगा। अधिकतर लोग तो चिपक जाते हैं।

...

मैंने अंतिम जिज्ञासा जताते कहा कि कवि होने के कारण कविता पर भी आपकी राय जानना चाहूंगा। खासकर मुक्तिबोध पर।

वे उत्‍साहित होते हुए बोले - हां,हां। निराला बड़े कवि हैं। वे शक्तिशाली असाधारण प्रतिभा संपन्‍न थे। मुक्तिबोध की कुछ कविताएं बहुत अच्‍छी लगती हैं। वे एक बीहड़ अनुभव को रूप देने के लिए रास्‍ता टटोलते रहते हैं। इसी में वे भटक जाते हैं। उनका भटकाव ही मुझे अच्‍छा लगता है। अज्ञेय, श्रीकांत वर्मा, साही, रमेशचंद्र शाह, मंगलेश डबराल भी प्रिय हैं।

...

इसी क्रम में वे पूछ बैठे कि मेरे प्रिय कवि कौन हैं?

मैंने बताया - शमशेर।

जैसे कुछ भूल गये हों।

वे बोले - मुक्तिबोध से भी ज्‍यादा मुझे शमशेर प्रिय हैं।

...

मैंने कहा कि किसी कवि की पंक्तियां याद हों तो सुनाएं।

उन्‍होंने असमर्थता जताते हुए कहा कि अब स्‍मृत्तियां कमजोर होती जा रही हैं।

...

अच्‍छा, तुम्‍ही एक कविता सुनाओ।

होटल की खिड़की से बाहर देखा मैंने- पेड़, धूप में खिल रहे थे। मैंने एक छोटी सी कविता सुनाई – पहाड़।

... वे काफी खुश हुए, कहा- अंतिम पंक्त्यिां जरा दुहराओ।

मैंने दुहराया -
बादलों की तरह
उड़कर जाओगे पहाड़ तक
तो नदी की तरह
उतार देंगे पहाड़
हाथों में मुट्ठी भर रेत थमा कर।

...

उन्‍होंने पूछा - कहीं छपी है।

नहीं।

बोले - तुम तो अच्‍छे कवि निकले।

अपने अखबार की एक प्रति मुझे भेजना। मैंने उनका पता लिया।

...

मेरे हाथ में आजकल का नागार्जुन अंक था।

उन्‍होंने पूछा - क्‍या है?

देखा तो बोले - यह तो पुराना अंक है। नया आया है क्‍या?

मैंने उसी अंक पर उनके हस्‍ताक्षर लिए।

मैं उठा।

वे भी खड़े हुए।

अपनी मंद मुस्‍कराहटों और बड़ी-बड़ी अपने में समो लेती आंखों से विदा किया।

...

सर झुकाकर, एक झटके से बाहर निकल आया मैं।

बाहर एक दुनिया थी, तेज भागती हुई।