निर्मल वर्मा / परिचय
निर्मल वर्मा की रचनाएँ |
निर्मल वर्मा का जन्म 3 अप्रैल, 1929 को हिमाचल के शहर शिमला में हुआ, जहां उनके पिता श्री नंदकुमार वर्मा ब्रिटिश भारत सरकार के रक्षा-विभाग में एक उच्च पदाधिकारी थे। आठ भाई-बहनों में पांचवें निर्मल वर्मा की संवेदनात्मक बुनावट पर उस पहाड़ी शहर की छायाएं दूर तक पहचानी जा सकती हैं। बचपन के एकाकी क्षणों का यह अनुभव जहां निर्मल वर्मा के लेखन में एक सतत तंद्रावस्था रचता है, वहीं उन्हें मनुष्य के मनुष्य से, व स्वयं अपने से अलगाव की प्रक्रिया पर गहन पकड़ देता है।
सन् 1956 में ‘परिंदे’ कहानी के प्रकाशन के बाद से नई कहानी के इस निर्विवाद प्रणेता का सबसे महत्वपूर्ण, साठ का दशक, विदेश-प्रवास में बीता। चेकोस्लोवाकिया व अन्य पूर्वी यूरोपीय देशों को निकट से देखने ने जहां उन्हें साम्यवादी व्यवस्था की अचूक समझ दी, वहीं उत्तर-उपनिवेशी भारत के बारे में नई अंतर्दृष्टि भी।
यह मात्र एक संयोग नहीं है कि लगभग आधे शतक की अपनी लेखकीय उपस्थिति से निर्मल जी ने न केवल मनुष्य के दूसरे मनुष्य से संबंधों की चीर-फाड़ की है, वरन् उसकी सामाजिक, राजनैतिक भूमिका क्या हो, हमारे तेज़ी से बदलते जाते समय में एक प्राचीन संस्कृति के वाहक के रूप में उसके आदर्शों की पीठिका क्या हो, इन सब प्रश्नों का भी भरसक साक्षात्कार किया है।
छात्रावस्था के दिनों में कम्युनिस्ट पार्टी के कार्यकर्ता लेकिन गांधी जी की प्रार्थना-सभाओं में हाज़िरी, इमर्जेंसी के दौरान भूमिगत विरोध, जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति और दलाई लामा के अहिंसक तिब्बत मुक्ति आंदोलन से उनके जुड़ाव में उनके जीवन की चिंताओं और चिंतन के विभिन्न आयाम देखे जा सकते हैं। वह उन थोड़े से रचनाकारों में हैं, जिन्होंने एक संवेदनशील बुद्धिजीवी की व्यक्तिगत स्पेस और उसके जागरूक वैचारिक हस्तक्षेप के बीच सुंदर संतुलन का आदर्श हमारे सामने प्रस्तुत किया है। आज भारतीय सांस्कृतिक पटल पर उनकी आवाज़, वह कितनी ही विवादास्पद और विवादाग्रही क्यों न हो, एक अनिवार्य नैतिक उपस्थिति है, यह उनके विरोधी भी मानते हैं।
वे दिन, लाल टीन की छत, एक चिथड़ा सुख, रात का रिपोर्टर "उपन्यास", पिछली गरमियों में, परिंदे, जलती झाड़ी, कौवे और काला पानी, बीच बहस में, सूखा तथा अन्य कहानियां "कहानी" तथा चीड़ों पर चांदनी, धुंध से उठती धुन "यात्रा वृतांत", शब्द और स्मृति, कला का जोखिम, ढलान से उतरते हुए तथा शताब्दी के ढलते वर्षों में उनके न सिर्फ़ महत्वपूर्ण निबंध संग्रह हैं बल्कि अपने ढंग से साहित्य की दुनिया में पूरी महत्ता भी साबित कर चुके हैं। सेंट स्टीफंस कालेज दिल्ली से इतिहास में एम.ए. करने के बाद निर्मल 1959 में चेकोस्लोवाकिया के प्राच्य विद्या संस्थान और चेकोस्लोवाकिया लेखक संघ के आमंत्रण पर वह वहां 7 वर्ष रहे। इस बीच उन्होंने कई चेक कथाकृतियों के अनुवाद किए। लंदन में प्रवास के दौरान टाइम्स आफ इंडिया के लिए उन्होंने यूरोप पर सांस्कृतिक राजनीतिक टिप्पणियां नियमित लिखीं। 1972 में वह 14 बरस बाद देश वापस आए और भारतीय डच विद्या संस्थान में फेलो रह कर ‘मेथड’ पर काम किया। 1973 में उनकी कहानी ‘माया दर्पण’ पर बनी फ़िल्म को सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म पुरस्कार मिला। फिर वह भोपाल में निराला सृजन पीठ और बाद में शिमला के यशपाल सृजन पीठ के अध्यक्ष रहे। ‘कौवे और काला पानी’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार, 1993 में साधना सम्मान और फिर उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का लोहिया अति विशिष्ट सम्मान भी उन्हें मिला। हैडिलबर्ग विश्वविद्यालय दक्षिण एशिया के निमंत्रण पर ‘भारत और यूरोप प्रतिश्रुति के क्षेत्र’ व्याख्यानमाला में निर्मल ने एक नई स्थापना रखी थी। कहा कि भारत और यूरोप दो ध्रुवों का नाम है। एक दूसरे से जुड़ कर भी ये दो अलग वास्तविकताएं हैं जिनको खींच कर या सिकोड़ कर मिलाया नहीं जा सकता।
अपने संपूर्ण कृतित्व के लिए उन्हें भारतीय साहित्य के सर्वोच्च भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार "2000" से सम्मानित किया गया है।