निर्माता का कार्यकारी निर्माता बनना / जयप्रकाश चौकसे

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निर्माता का कार्यकारी निर्माता बनना
प्रकाशन तिथि : 22 अक्टूबर 2014


सभी क्षेत्रों के व्यवसाय समीकरण बदल रहे हैं। परिवर्तन का हुल्लड़बाज बाजार स्वयं सबसे अधिक बदल रहा है। केवल कुरीतियां और अंधविश्वास जस के तस खड़े हैं। फिल्म क्षेत्र पर परिवर्तन का हाल यह है कि पहले सबसे अधिक रुतबा और आदर निर्माता का था क्योंकि सारा जोखिम उसका था। असफल फिल्म का घाटा निर्माता, वितरक और एम.जी. देने वाले सिनेमा मालिकों का होता था। आज निर्माता का कोई जोखिम नहीं है, उसने कोई अपनी पूंजी नहीं लगाई है, इसलिए उसका रुतबा और आदर भी कम हो गया है। वितरक और सिनेमा मालिक आज भी घाटा खा रहे हैं। आज निर्माता केवल सितारे को अनुबंधित करता है और पूंजी निवेशक कॉरपोरेट से उसे धन मिल जाता है। अत: आज का निर्माता अपने सितारे की हर आज्ञा मानता है और वह महज कार्यकारी निर्माता रह गया है। मुनाफे का भारी प्रतिशत सितारा लेता है और उसकी सहमति से सहकलाकार और तकनीशियनों का चयन होता है।

ये बातें केवल सितारा आधारित फिल्मों की है, सिताराविहीन फिल्म बनाने वाले निर्माता का जोखम दोहरा है। पांच या सात करोड़ की फिल्म पर इतना ही धन प्रचार के लिए लगता है। इसी तरह अपने स्वामित्व में छोटा उद्योग चलाने वाला उस उद्योगपति से अधिक आदर पाता है जिसने बड़े किसी कॉरपोरेट से अनुबंध करके अपनी स्वतंत्रता खो दी है। एक अनाम सा अजगर जो किसी देश या सांस्कृतिक विरासत का हकदार नहीं, सबको लील जाना चाहता है। यही हमारे काल खंड का नियामक है। इसी अनाम के नुमाइंदे सभी जगह सत्ता शिखर पर विराजमान है। खबर है कि आमिर खान ने करण जौहर की फिल्म स्वीकार कर ली है। कई महीनों से जौहर की मोटी रकम का चेक आमिर खान ने बैंक में नहीं डाला था परंतु अब प्रयोग कर लिया है। आमिर खान सबसे अधिक प्रतिशत मुनाफा लेते हैं और फिल्म पर उनका पूरा अधिकार होता है। कुछ समय पूर्व उन्होंने ऐसी ही शर्तों पर रितेश सिधवानी की 'तलाश' की थी। करण जौहर की नीति संभवत: यह है कि वे अधिकतम फिल्मों के निर्माता कहलाना चाहते हैं। बर्तन में उबले दूध के ठंडा होने पर पूरा दूध निकालने के बाद बर्तन के पैंदे में दूध की तलछट रह जाती है, करण संभवत: उसी से संतुष्ट हैं, उन्हें कोई चिंता नहीं है कि मलाई कौन खा रहा है, दूध कौन पी रहा है और छांच पर किसका अधिकार है। शायद सैकड़ों फिल्मों की तलछट भी संपदा बन जाए। जंगल में भी ऐसा ही होता है, शेर की चाकरी करो और अन्य छोटे जानवरों पर हुक्म चलाओ। सामंतवादी व्यवस्था में भी छोटी-छोटी जागीरें होती थी जो बड़े महाराज के दरबार में सजदा करते थे आैर अपनी रियाया पर कोड़े बरसाते थे।

करण जौहर को आदित्य चोपड़ा ने 'दुल्हनिया' में सहायक लिया था और उसी की प्रेरणा और परामर्श तथा शाहरुख खान और काजोल के सहयोग से करण जौहर निर्देशक बने और दो फिल्मों की सफलता के बाद उन्होंने सगर्व घोषणा की थी कि बिना शाहरुख वे किसी फिल्म की कल्पना भी नहीं कर सकते और आज शाहरुख खान को छोड़कर अन्य सब सितारों के साथ फिल्में बना रहे हैं। दरअसल इस सितारा शासित काल खंड में भी आदित्य चोपड़ा ने अधिकार और अपनी गरिमा नहीं खोई है। वह सितारों को धन देता है, आंशिक भागीदारी भी देता है परंतु अपनी स्वायत्तता कायम रखता है। उसका ओहदा कभी घटता नहीं है। वह कभी कार्यकारी निर्माता नहीं वरन् केंद्रीय निर्माता है।

दरअसल करण जौहर की प्राथमिकताएं कुछ और हैं। वह अधिकतम फिल्मों और सितारों से जुड़ना चाहता है। उनसे संबंध ही उसकी पूंजी है। उनके पिता यश जौहर भी निर्माता थे और उन्होंने अपने जीवन काल में अधिकतम लोगों की सहायता की है। उन्होंने अधेड़ अवस्था में विवाह किया था और अपने इकलौते पुत्र करण को बहुत प्यार से पाला था। दक्षिण मुंबई के श्रेष्ठि समाज की कुछ ऐसी धाक रही करण पर कि वर्षों उन्होंने अपने पिता का फिल्म निर्माता होना छुपाए रखा। वे अलग-थलग पड़े नन्हें द्वीप की तरह रहा और फिल्म से जुड़ने का कभी सोचा ही नहीं। यश जौहर के यश चोपड़ा से घरेलू संबंध थे और आदित्य चोपड़ा की पहल पर करण फिल्मों में आए। बचपन में स्वयं निर्मित भय की कंदरा में रहा, करण अब उतना अधिक उजागर होना चाहता है जितना शायद वह है भी नहीं। उसके अपने अजीबोगरीब बचपन की पटकथा पर ही उसकी जीवन की फिल्म बनी है। लाभ-हानि के परे, वह आसमान के असंख्य सितारों में खोया प्राणी है।