निर्वासित / रूप सिंह चंदेल
अदृश्य लोक से उतरे मानव की तरह जब वे एक दिन आ उपस्थित हुए अपने श्वेत लम्बे बालों और दाढ़ी में अतीत का लम्बा इतिहास छुपाये तब गांव में तेज हलचल हुई थी. समाचार जंगल की आग की तरह गांव में एक छोर से दूसरे चोर तक फैल गया था.
गांव वाले जिसे अब तक मृत स्वीकारते आ रहे थे---- यही तो बताया गया था उनको --- आज तकरीबन पैंतीस वर्षों बाद वही बटुकेश्वर उनके सामने थे.
"हाय हम यो का देखि रहे हन ?" हजार मुंह हजार बातें होने लगी थीं. सभी अपने-अपने ढंग से उनके अतीत को खुरचने लगे थे और वे अपनी पथराई आंखों से ध्वस्त पड़े पुश्तैनी मकान को देख रहे थे, जहां दफ्न थीं उनकी बचपन की यादें, किशोरावस्था की शरारतें और चढ़ती जवानी की अल्हड़ता.
उनकी यही अल्हड़ता---- अत्याचार के विरुद्ध आवाज उठाने---- उठ खड़े होने की समझ ने जमींदार भूपति सिंह का दुश्मन बना दिया था उन्हें. बटुकेश्वर उसकी नजरों में कांटे की तरह चुभने लगे थे और भूपति उस कांटे को निकालने की कोशिश करने लगा था. ---- घटिया-से घटिया कोशिश. उनकी खड़ी फसल उजड़वा दी थी---- खलिहान में आग लगवा दी थी और ---- भैंसें-बैल चोरी करवा दिए थे, लेकिन वह उन्हें हिला न सका था. अंगद के पैर की तरह बटुकेश्वर जमे रहे थे उसकी आंखों की किरकिरी बनकर.
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वे मिट्टी में धंसी ड्योढ़ी पर बैठ गये थे. उनके पुराने साथियों में हरखू, धूमिल, किसना और मनहर आ गये थे---- कुछ और भी थे, लेकिन नयी पौध---- जवान बिरवों को वे पहचानते न थे और सर्वाधिक उत्सुक नजरों से वे ही उन्हें देख रहे थे.
"भइया इहां त हम सब आपका----." हरखू कुछ कहते-कहते रुक गया.
बटुकेश्वर मुस्कराये और पास पड़ी गिट्टी उठाकर दूर फेंक दी.
"इतने दिन कहां भटकते रहे---- पहले ही आ जाते गांव---- मां-बापू बेचारे तो तुम्हें मरा समझकर तुम्हारी याद में कुछ दिनों बाद ही चल बसे थे---- बिना देखभाल के ये घर ढह गया और वारिस के अभाव में खेत 'गांव पंचायत' ने हथिया लिए---." मनहर ने देखा उनकी आंखें गीली हो रही थीं.
"भइया मेरी बातों से ---- आपको----."
"नहीं मनहर---- सोच रहा था मैं कितना अभागा हूं---- कितना कर्तव्यच्युत, जो मां-बाप को सुख न दे सका."
"आपने गांव के लिए जो कुछ किया, गांव वाले उसे कभी भूल न सकेगें भइया --- यदि आप न आगे आए होते----तो कितने ही परिवार बर्वाद हो चुके होते---- भूपति के अत्याचार कभी शान्त न होते---- लेकिन उस दिन के बाद उसे सांप सूंघ गया था---- क्षय रोग का शिकार हो गया था---- ."
वे चुप सुनते रहे.
"भइया राजरानी की कुछ खोज खबर---- हम सबको तो यही बताया गया था कि तुम्हारे साथ ही वह भी खता कर दी गयी थी----." धूमिल ने उन्हें कुरेदा.
"इसी झूठ को शायद भूपति पचा नहीं पाया था---- इसीलिए उसे क्षय हो गया था----धूमिल, यही तो उसकी सबसे बड़ी शिकस्त थी---." वे अतीत में खोते चले गये.
चारों साथी और निकट खिसक आए, बच्चे और युवक धीरे-धीरे खिसक गये थे. बटुकेश्वर के अन्दर अतीत अंगड़ाइयां लेने लगा था.
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जवान होते-होते बटुकेश्वर भूपति के बारे में बहुत कुछ समझ चुके थे. छोटे-बडे़ किसानों को उसके सताने की कितनी ही घटनाएं वे प्रत्यक्ष देख चुके थे. किसी भी किसान से उसकी नाराजगी किसान को उसकी जमीन से बेदखल करने के लिए पर्याप्त थी. साधारण-सी बात पर किसी के भी नंगे बदन पर कोड़े बरसवाने लगना उसका प्रिय खेल था. बटुकेश्वर देखते और दांत भींच लेते.
एक दिन उन्हे उसकी एक और कमजोरी ज्ञात हुई. गांव की किसी भी जवान बहू-बेटी को बलात अपनी हवश का शिकार बनाने की उसकी आदत ने बटुकेश्वर को क्रोधोन्मत्त कर दिया था. वे हम-उम्र युवकों को संगठित करने लगे. धूमिल, मनहर, हरखू, बिसना, जो आज उनके सामने हैं और जो अब नहीं हैं---- सभी ने मिलकर प्रतिज्ञा की थी कि वे भूपति का विरोध करेंगे----- कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े.
कीमत चुकानी भी पड़ी---- किसी को भूपति ने पिटवाया---- किसी की जमीन हड़पी और किसी की फसलें नष्ट करवा दीं. लेकिन वे नहीं झुके. तभी तीन घटनाएं हुईं. पहली यह कि सरकार ने जमींदारी समाप्त कर दी. इस घोषणा के कुछ दिन बाद ही दूसरी घटना घटी. एक दिन रात में बटुकेश्वर को सूचना मिली कि तीन लठैत जंगल से लौटती लकुवा चमार की बेटी को उठाकर हवेली की ओर ले गये हैं. बटुकेश्वर की आंखॊं में अंगारे दहक उठे थे. अपने साथियों को इकट्ठा कर वे जा पहुंचे थे हवेली . हल्ला सुन दूसरे गांव वाले भी, जो भूपति से डरते थे और प्रत्यक्ष कभी न आते थे, वहां पहुंच गये थे. उस दिन वे भी उत्तेजित थे.
हवेली घिर गयी थी. भूपति बन्दूक लेकर अटारी पर चढ़ गया था , "एक-एक को भून दूंगा---- स्सालों जमींदरी खत्म हुई ----- जमींदर नहीं---." हवाई फायर करते हुए वह चीखा था,
बटुकेश्वर अकेले ही घुस गये थे हवेली के अन्दर. तीनों लठैतों ने उन्हें रोकने की कोशिश की थी, लेकिन उनसे निबटने के लिए बटुकेश्वर के दूसरे साथी पहुंच गये थे. वे सीधे धड़धड़ाते हुए जीना चढ़ने लगे थे---- भूपति बौखलाया-सा अटारी में घूम रहा था. बटुकेश्वर को सामने देख उसने बन्दूक संभाल ली थी, लेकिन गोली चलाने से पहले ही राजरानी ---- भूपति की छोटी बहन ने कहीं से आकर बाज की तरह भूपति से बन्दूक छीन ली थी. राजरानी से बटुकेश्वर ने ले ली थी बन्दूक और कारतूस निकालकर थमा दी थी भूपति के हाथ में. भूपति दांत पीसता रह गया था और बटुकेश्वर लकुवा की बेटी को लेकर हवेली से बाहर आ गये थे.
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उस दिन बटुकेश्वर ने पहली बार राजरानी को भलीभांति देखा था. राजरानी बाल-विधवा थी---- उनसे तीन-चार वर्ष छोटी. उस दिन के बाद वे अनेक बार सोच चुके थे कि राजरानी ने क्यों भूपति से बन्दूक छीनकर उनके प्राण बचाये---- क्या वह भी भाई की गतिविधियों से त्रस्त है या उसका उनके प्रति----- वह जितना ही सोचते ---- उलझते जाते---- समझ में कुछ भी नहीं आता.
और तभी एक दिन भूपति के घर की पनिहारिन के हाथों उन्हें राजरानी का छोटा -सा पत्र मिला--- उस घटना के एक साल बाद.
"तुम एक हफ्ते के अन्दर गांव छोड़ दो ----- भइया तुम्हें जान से मरवाने की योजना बना रहे हैं.... बाहर से दो आदमी बुलाये गये हैं...."
पत्र में इसके अतिरिक्त कुछ भी न था. बटुकेश्वर मुस्कराये थे. पन्द्रह दिनों के लिए भूमिगत हो गये थे. लौटे थे तब नयी ताजगी का भाव मन में लिए हुए. इसके बाद ही शुरू हो गया था पनिहारिन के माध्यम से उनका और राजरानी का पत्राचार जो धीरे-धीरे मुलाकातों में बदल गया था और एक दिन दोनों ने गांव से दूर चले जाने का निर्णय कर लिया था. निश्चित हुआ था कि राजरानी रात का अंधेरा गहराते ही बड़े पुल के पास बरगद के पेड़ के नीचे मिलेगी. बटुकेश्वर पेड़ के आस की किसी झाड़ी में पहले ही जा बैठेंगे. तीसरी घटना उस दिन घटी थी.
अकेले न जा पायी थी राजरानी वहां तक. पनिहारिन साथ थी. दोनों बरगद के पेड़ से कुछ ही दूर पर थीं, कि उन्हें भूपति की आवाज सुनाई पड़ी थी और साथ ही लाठियों के टकराने की आवाज . अंधेरे में कुछ भी समझ न आया था, लेकिन वह अनुमान कर सकी थी कि बटुकेश्वर को घेरकर मारा जा रहा है. पनिहारिन घबड़ाकर भाग गई थी, लेकिन वह एक झाड़ी में छुपकर बैठ गयी थी---- एक निर्णायक स्थिति में.
बटुकेश्वर अपनी लाठी से बेहोश होने तक चारों लठैतों का प्रतिरोध करते रहे थे. बेहोश होकर किरने से पहले वे चारों को भी भलीभांति घायल कर चुके थे. शायद वे सब शिथिल हो चुके थे, इसीलिए 'जिन्दा न छोड़ने' के भूपति के निर्देश को अनसुना कर वे बोले थे, "लगभग मर चुका है ठाकुर साहब---- जो कुछ कसर रह गयी है---- वह राते में जंगली जानवर पूरी कर देंगे----."
टॉर्च की रोशनी में कुछ क्षण तक निस्पन्द पड़े बटुकेश्वर के शरीर को देखते रहे थे भूपति---- फिर सड़क की ओर बढ़ गये थे. उनके जाते ही राजरानी बटुकेश्वर के पास पहुंची थी---- और कितनी ही देर तक कभी उनके सिर से बहते खून को साड़ी से पोंछती और कभी उनकी ह्रदय गति देखती रही थी. वह निर्णय नहीं कर पा रही थी----- क्या करे. तभी एक उपाय सूझा था उसे---- वह स्टेशन की ओर दौड़ गयी थी झाड़ियों से उलझती-टकराती. झूठी कहानी गढ़कर सुना दी थी उसने स्टेशन मास्टर को.
बताया था, " वे पति-पत्नी रात दस बजे की 'जनता-एक्स्प्रेस ' पकड़ने आ रहे थे कि डकैतों ने उन्हें लूटकर पति को इतना मारा कि वह परणासन्न पड़े हैं."
सुनकर स्टेशन मास्टर द्रवित हो उठा था. उसने दो खलासी भेज दिए थे उसके साथ. और वह दोनों की मदद से बटुकेश्वर को स्टेशन ले आयी थी और 'जनता-एक्स्प्रेस' से शहर आ गयी थी. उस समय साथ लायी निजी जेवर उसके काम आयी थी. स्टेशन से सीधे अस्पताल गयी थी वह, जहां लगभग एक महीने तक बटुकेश्वर पड़े रहे थे. उसके बाद वे सीधे अहमदाबाद चले गये थे.
अबहदाबाद में कुछ दिनों तक भटकने के बाद बटुकेश्वर को एक फैक्ट्री में काम मिल गया था और वे वहां व्यवस्थित हो गये थे.
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"भइया ---- जननी जन्मभूमि---- याद तो आती ही रही होगी ." मनहर ने मौन तोड़ा.
"बहुत कुछ याद आता रहा मनहर..... मैं आया भी इसीलिए था---- लेकिन----."
"लेकिन क्या बटुकेश्वर.....?" धूमिल ने पूछा.
"मैं सोचता हूं अब लौटना इतना आसान नहीं है धूमिल ---- चाहकर भी नहीं---- गांव वालों ने मुझे मृत मान लिया----- उन्हें यह तो सोचना ही चाहिए था कि मुझ जैसा व्यक्ति क्या मर सकता है---- वह भी एक आततायी के हाथों ---- कुछ तो प्रतीक्षा करते---- पैंतीस वर्ष भी न रुक सके---- खेत ग्राम पंचायत ने ले लिए ---- घर --- पता नहीं अब तक क्यों नही----."
सभी चुप रहे.
वे ही बोले, "अब यहां आने का मतलब है वहां की---- अहमदाबाद के ठिकाने को उजाड़कर यहां फिर से ---- नये सिरे से स्थापित होने का प्रयत्न करूं.... आज के समय में---- क्या यह संभव है....?" वे सभी की ओर देखने लगे. सभी फिर भी चुप रहे.
"मैं आज ही ग्राम प्रधान से मिलकर घर भी ग्राम पंचायत को दे दूंगा और कुछ रुपये भी---- जिससे यहां 'ग्राम सभा भवन' बन सके....."
"बटुकेश्वर अब----." मनहर ने कुछ कहना चाहा. लेकिन उन्होंने बात बीच में ही काट दी, "नहीं मनहर ---- अब यहां आना ---- रहना कठिन है.... मुझे निर्वासित ही रहने दो."
सभी ने देखा उनकी आंखें फिर गीली थीं.