निशाना / पद्मजा शर्मा
वे आठवीं और सातवीं कक्षा के छात्र थे। रोज होटल की बाहरी दीवार के पास खड़े होकर स्कूल बस का इन्तजार किया करते थे। मैं अपने दफ्तर की बस का। एक दिन उन्होंने अपने खड़े होने की जगह बदल ली। मैंने यूं ही बात करने के इरादे से कारण पूछ लिया तो एक बालक ने कहा-'आंटी, सदा एक जगह खड़े रहना, एक ही रास्ते से आना जाना ठीक नहीं रहता। अगर कोई हम पर निशाना साध ले तो?'
दूसरे ने कहा 'कोई ऐसा वैसा आदमी हमारा पीछा कर रहा हो तो? हम किसी ग़लत आदमी के चक्कर में न पड़ जाएँ इसलिए.'
'कैसा निशाना?' मैंने आश्चर्य से पूछा। एक ने कहा 'आंटी, वह तो पापा को पता है। पर वे कह रहे थे कि धीरे-धीरे तुम भी सब जान जाओगे।'
दूसरे ने कहा 'मेरे पापा कहते हैं कि हमारे पड़ौस वाले अंकल अच्छे आदमी नहीं हैं। उनके घर कभी मत जाना। उस घर का न पानी पीना, न ही खाना खाना। क्योंकि वे विधर्मी हैं। आंटी, क्या धर्म आदमी को आदमी से दूर करता है। यह सब सिखाता है?'
'नहीं बेटा, धर्म तो प्यार से रहना, हंसना सिखाता है। सुख-दु: ख में एक दूसरे के काम आना सिखाता है।'
'आंटी, मेरे पापा तो कहते हैं कि वे अंकल तुम्हें देख कर हंसें तो भी तुम उन्हें देख कर कभी मत हंसना।'
'क्या वे तुम्हें देख कर हंसते हैं?' मैंने उससे पूछा।
उसने 'हाँ' में गर्दन हिलाई. मैंने पूछा। 'तुम्हें वे अच्छे लगते हैं?'
उसने कहा-'हाँ।'
मेरा मन किया उस भले पड़ौसी से अभी जाकर कहूँ कि मित्र, बच्चों को देखकर सदा हंसते रहना। यह तुम्हारी हंसी ही है जो एक दिन जाति और धर्म की दीवारें तोड़ेगी। आदमी को आदमी के पास यह हंसी ही लाएगी।