निषिद्ध पथ के राही / पूनम मनु
पूरे मन से अपने सारे साज-शृंगार करने के बाद आइने के सामने खड़े हो, एक निगाह उसने अपनी चूड़ियों, बिछियों और माँग में भरे सिंदूर पर डाली। वह स्वयं पर ही मोहित हो उठी। काजल लगी अपनी बादामी आँखों के जादू को बार-बार पलक झपका कर अनुभूत करती हुई वह हौले-हौले मुस्कुराती रही थी। जाने कितनी देर तक। शादी की चुनरी ओढ़ते ही उसकी मुस्कान कुछ और गहरी हो उठी। शादी के चौदह साल बाद भी वह बिलकुल नई-नवेली दुल्हन-सी लग रही थी।
पति मनीष यूं ही नहीं उससे इतना प्यार करते। कुछ तो था उसमें कि शादी के इतने दिनों बाद भी वे उसी पर रीझे रहते थे। मनीष को सोचा और लजा गई. -"अरी! आजा भी अब... बहोत देर हो गई. सारी लुगाई हमारी राह देखती होंगी। तेरा तो साज-शृंगार ही न ख़त्म होवे है। करती ना तो करती ना है ... और जद करे तो इत्ती देर लगा देवे है कि बस पूछो ही मत।" सासु माँ बाहर आँगन में तैयार होकर, जाने कब से उसका इंतज़ार करते हुए, बड़बड़ाए जा रही थीं।
"आई माँ जी ..." उनकी खीज बोरियत में बदलती, वे उसे दो-चार गालियाँ और सुना देतीं उससे पहले ही उसने अपनी पूजा की थाली व जल का लौटा लिया और कमरे से बाहर आ गई.
वे पूरी प्रकृति को मदहोश करने वाले दिन थे। हिन्दू त्योहारों का मौसम शुरू हो चुका था। यानी दीवाली आने वाली थी। इस साल की भरी घमस से लोगों को मुक्ति मिल चुकी थी। इन्हीं त्योहारों के बीच एक और त्यौहार आता है करवाचौथ। जो सुहागिनों का त्यौहार माना जाता है।
पूरी साल चाहे वह बिंदी भी न लगाए. पर करवाचौथ की तैयारी / ख़रीदारी वह अपने पति की हैसियत अनुसार जमकर करती और उसी तरह इस दिन अपना शृंगार भी वह बड़े मनोयोग से करती थी।
पूरी साल को जैसे इसी एक दिन में तौल लेना चाहती हो कि ज़िंदगी के कुछ बीते-रीते दिनों की बेला, सर्दियों की धूप की मानिन्द जो दरवाजे से सीढ़ियों तक, सीढ़ियों से छत की मुंडेर के आख़िरी कोने पर भी छूने से परे बस दिखती हुई, धरती और आसमान के मध्य अपरदिशा में विलीन होते-होते, संसार को काले कोहरे में लपेट सारी आभा अपने साथ ले जाती है के सदृश्य उसके चेहरे का कितना ताब अपने साथ ले गई.
वह जानना चाहती कि बेवफ़ा प्रेमी-सी, पीछा छुड़ाने को सीरत बदलती-सी उम्र, वक़्त के बहते दरिया से बनी लकीरों को, कितना गहरा और गहरा करती जा रही है। क्या छूट रहा, क्या बाक़ी है और बचे को कितना बचा सकते हैं, इसका पूरा ध्यान भी रखना चाहती वह।
किन्तु, विपरीत इसके, दिनोंदिन बढ़ते उसके अपने सौन्दर्य पर वह ख़ुद ही निहाल हो जाती रही अब तक।
हाँ... उस बार की बात कुछ अलग थी। उस बार वह किसी को जलाना व जताना चाहती थी कि वह उससे ज़्यादा खूबसूरत है। इसीलिए सासु माँ की डांट की भी परवाह न करते हुए ख़ूब अच्छे-से तैयार हुई थी वह।
... उसे सब स्मरण हो आया... वह भी जो वह स्मृति में बाकी न रहा था... वह भी जो अमित रहा-अपनी सज-धज और सौंदर्य पर इतराती हुई, सासु माँ के साथ जब वह पूजास्थल पर पहुंची तो यह देखकर दंग रह गई थी कि जिसको जलाने की ख़ातिर, उसने अपने बनाव-शृंगार पर आज आवश्यकता से अधिक ध्यान दिया था। वह तो बहुत ही सादा-सा शृंगार किए, बिना बनावट के, सामान्य से कपड़ों में, पूजा की थाली लिए बैठी हुई है।
कहने को, यूं तो नई चूड़ियाँ, नई बिछियों के अलावा कपड़े भी नए पहने थे उसने। किन्तु बिना चटक-मटक।
बजाय ख़ुश होने के वह उसे देख, ठगी-सी रह गई. अपना बनाव-शृंगार उसे बेकार लगने लगा था। ध्यान से देखने पर लगा कि उसका उज्ज्वल रूप-लावण्य कुछ मलिन-सा है आज। कोई ख़ास जान-पहचान तो न थी उसकी उससे परंतु पत्नियों के इस त्यौहार पर उसको यूं उदास-सा देख, किंचित तरल भाव उभर आया था उसके प्रति उसके हृदय में। उसके साथ ही वहाँ पर मौजूद हर सुहागन भी उसे सज-धज की इस उम्र में इतना सादा देख
हैरान थी।
सभी ने उससे इसका कारण जानना चाहा तो वह हँसकर, इतना भर बोली थी-"अम्मा, मैं तो सदा से ही सिंपल रहती हूँ। ज़्यादा बनाव-शृंगार मुझे पसंद नहीं।"
उसकी इस बात को सभी ने मन से स्वीकार कर लिया। पर, अब तक उसके लिए हमदर्दी का पात्र बनी वह औरत यकायक उसकी कुढ़न का सबब बन गई थी।
"...तो क्या ये औरत मुझे ताने मार रही है।" उसके प्रति निषिद्ध भाव का उभर आना एक सहज प्रक्रिया थी।
मन में आए इस ख़याल के परीक्षण को उसने सभी औरतों की तरफ़ ध्यान से देखा तो पाया कि सभी औरतें ख़ूब सजी-धजी खड़ी थीं। एक अकेली वही नहीं सजी-धजी थी।
वैसे भी वह अभी इस कॉलोनी की बहुओं में गिनी जाती है और 'बहुओं को तो सज-धज के ही रहना चाहिए' का ताना सभी बुज़ुर्ग स्त्रियाँ उसे सिंपल देख मारती रहती थीं। इसलिए उसने स्वयं के प्रति उमड़े शर्मिंदा करने वाले इस विचार को बड़ी सहजता के साथ अपने मन से निकाल दिया।
कैसे, उसकी ओर बुरा-सा मुँह बना, पूजा अर्चना के लिए वह भी उसके ही सामने वाली कतार में बैठ गई थी तब। पूजा में मन कब लग रहा था उसका। वह तो कनखियों से बस उसे ही देखे जा रही थी। जाने क्या ताड़ लेना चाहती थी वह।
'ये औरत कितनी सुंदर है। इसे बनाव-शृंगार की ज़रूरत भी क्या है।' मन से महसूस किया था उसने।
उधर वह औरत बिन्नी, उससे बेपरवाह अपनी पूजा-अर्चना में लगी रही। तब बड़ी खीज हुई थी उसे। उसके इस प्रयास को कि बात कम-स-कम एक दूसरे को देख, मुस्कान तक तो पहुँचे को, पूरी तरह निष्फल कर दिया था उसने। "घमंडी कहीं की" उसकी ओर से पूर्णतया तटस्थ रही उस औरत पर लानत भेज अगले ही पल वह भी अपनी आराधना में लीन हो गई थी।
ये कोई तीन साल पहले की बात थी। जब बिन्नी का उनकी कालोनी में पहला करवाचौथ था।
ऐसे ही उसके लिए उसके अंदर का बेगानापन छितरता रहा उस दिन के बाद भी।
बावजूद इसके यदाकदा उसका सामना जब भी उससे होता, अपनत्व भरी एक मुस्कान वह उसकी ओर ज़रूर डालती पर प्रत्युत्तर में वह उसे सदा तटस्थ ही पाती रही। उसकी उसके प्रति उदासीनता अब उसमें चिढ़ पैदा करने लगी थी। कॉलोनी की सारी औरतों से बात करती पर उससे जाने क्यों इतनी दूरी बरतती कि-गमलों में उसके द्वारा की गई बागवानी को देख कभी वह उसकी दिल खोल तारीफ़ भी करना चाहती तो वह सारी वार्तालाप एक-दो शब्दों में निबटा, उसे दीवार के इस तरफ़ से उस तरफ निहारते फूल-पोधों के सन्मुख, अकेला छोड़, अंदर जा, अपने काम में मसरूफ़ हो जाती। उसके प्रति नितांत रूखापन लिए. फिर भी जाने क्या रहस्य था उसके रूप में कि उसके द्वारा की गई अपनी इतनी मूक अवहेलनाओं के बाद भी वह उसे जी भर देखने का लोभ संवरण न कर पाती थी। छत से छत मिली होने के कारण वह कई बार चोरी-चोरी अक्सर उसके कमरे-आँगन आदि से उसके रहन-सहन व सुघड़ता को ताड़ने की कोशिश में लगी ही रहती थी। इतनी डाह होने पर भी जाने कैसा-सा आकर्षण था कि वह उससे बँध उसकी अपने घर में अनुपस्थिति में भी उसके बंद पड़े घर को घंटों निहारा करती।
उसे याद है-जिस दिन वह स्त्री अपने पति और तीन बच्चों के साथ उसके पड़ोसी के ऊपरी तल पर बने मकान में किराए पर रहने आई थी। उसी दिन से उसके रूप से भय लगने लगा था उसे। मनीष यानी अपने पति को लेकर वह थोड़ा आशंकित रहने लगी थी। हालांकि मनीष पत्नीव्रता पति थे और आजतक उन्होंने कभी शिकायत का कोई मौक़ा तक न दिया था। फिर भी उसके सौन्दर्य से आतंकित-सी वह छत पर जाते मनीष की हर हरकत को नोटिस करने लगी थी। ढकी...छुपी चौकसी के साथ।
परंतु... जल्द ही मनीष की ओर से उसे राहत महसूस हुई. मनीष उससे अनचित रहे। उधर उस स्त्री को भी उनसे कोई लेना देना नहीं था। बात संतुष्टि व सुकून देने वाली थी। बेवजह का भय जाता रहा था।
लंबा कद, उजला रंग, काली-काली, बड़ी-बड़ी आँखें, उनपर घनी काली पलकें, काले स्याह केशों में दमकता सुनहरा मुखड़ा, प्राकृतिक गुलाबी रदनच्छद के साथ लाली लिए कपोल हर किसी स्त्री के मन में उसके लिए डाह पैदा करने को काफ़ी थे।
वह सोचती काश! यह स्त्री उसकी सखी होती... उसकी प्यारी वाली दोस्त। पर, सभी चाहे-अनचाहे उसके प्रयासों के बाद भी उससे उसकी दोस्ती न हो सकी।
यहाँ तक कि-उनकी कॉलोनी से आध किलोमीटर की दूरी पर लिए अपने मकान के गृहप्रवेश में उसने सभी को स्वयं निमंत्रण देकर बुलाया था। सिवाय उसके. उसका बुलावा उसने उसकी ही सासु माँ के हाथों भिजवाया था। मानो कि उसकी नज़रों में उसकी कोई हैसियत ही न थी। तब इस तरह के बुलावे पर वह बुरी तरह कुढ़ उठी थी। -"मैं न जाऊँगी इस औरत के गृहप्रवेश में ... भाड़ में जाए." क्रोध से भर फूंफकार उठी थी वह।
-"हम्म ठीक है, दिल पर मत लो, न जाना चाहती हो, तो मत जाना।" मनीष को उस औरत के प्रति उसकी बड़बड़ाहट की वास्तविकता ज्ञात थी।
...और वह नहीं गई थी, उसे याद है।
समय गुज़रता रहा... उम्र की रफ़्तार को पंख लगे थे। अपनी-अपनी ज़िंदगी में सब मसरूफ़ थे। गोकि ज़िंदगी ऊन का उलझा गोला थी। जिससे जितना सुलझती जाती वह उतना ही समय का सुंदर स्वेटर बुनता जाता। जिससे न सुलझती वह उलझा रहता उसमें... मसरूफ़ रहता। बाद इसके भी, वह उसके पास आने-जाने वालों से उसका कुशलक्षेम लेना नहीं भूलती। वह उसे याद भी नहीं करती होगी यह जानने के बाद भी।
किन्तु...
समय निर्बाध गति से दौड़ता हुआ थम-सा गया उस पल, जब एक सुबह वह, प्यासे पशु-पक्षियों की ख़ातिर घर के सामने रखे, मिट्टी के पात्र में पानी भरने को, पानी से भरी बाल्टी लिए, बाहर आई. इससे पहले कि वह पानी पलटती-
"ऐ साधना...!" ये बिन्नी की पूर्व मकान-मालकिन व उसकी पड़ोसन की आवाज़ थी।
"हाँ..." वह अचानक ही यूं पुकारे जाने पर घबरा उठी। -"साधना... तुझे पता है...? गज़ब हो गया!" -"क्या..." -"बिन्नी... बिन्नी ने आज सुबह अत्महत्या कर ली... रेल के नीचे कट के."
"हें...!"
"हाँ..."
"ओह...!"
आवाज़ की लरज और मार्मिकता की अधिकता ने महकती सुबह को किसी असहनीय दुर्गंध से भर दिया था। यूँ लग रहा था जैसे भीगे आसमान से दिसम्बर के पहले सप्ताह के अंतिम दिन की सुबह में शबनम की जगह बिन्नी के माँस के लोथड़े गिर रहे हों। उसके हाथ से पानी की भरी बाल्टी छूट गई. पैरों के नीचे बिखरा पानी लगा जैसे यह बिन्नी का लहू है और सारी दुनिया बस उसमें डूबने को है। वह फटी-फटी आंखो से पैरों के नीचे बिखरे पानी को जड़-सी खड़ी देखती रही।
पड़ोसन के हिलाने पर उसे वास्तविकता का भान हुआ। अचेत होते से बचती, सचेतन का आभास करती हुई मामले की 'स्पष्टता' को और अधिक स्पष्ट समझने की खातिर अपने हलक में अभी-अभी सूखे तंतुओं को थूक से तर कर वह पूछ उठी, "कौ...कौन बिन्नी...?"
-"अरे! वही, निलय की मम्मी..." संदेह जाता रहा। एक आस भी न बची। कलेजा धक-धक धड़ाक...
आह!
वह नहीं सोच पाई कि यह जानकारी देने वाली स्त्री खड़ी है कि चली गई. वह तो भारी पाँव और मन लिए अंदर आकर पलंग के एक कोने पर बैठ गई चुप...!
शून्य में ताकती रही बहुत देर तक। रूह तक बेचैन हो उठी उसकी। अभी 4-5 माह पहले ही तो दिल दहलाने वाली ख़बर सुनी थी उसने। ख़बर थी कि उसके पति रमेश ने कोई "दूसरी औरत" कर रखी है। वह उससे तनिक भी प्रेम नहीं करता है। रात-दिन की मारपीट, लड़ाई-झगड़े। उस दिन कुछ-कुछ समझ आई थी, उससे उसकी बेरुख़ी उसे।
वह ज़रूर लख गई होगी... उसे ज़रूर महसूस हो गया होगा कि उसकी गहरी निगाहें अवश्य उसके दर्द को पढ़ लेंगी। वे ज़रूर पढ़ लेंगी उसकी ज़िंदगी की वीरानी को। वैवाहिक जीवन के मदमाते, उत्ताल तरंगों से भरे रंगीन दिनों में उसके हद से ज़्यादा सिम्पल रहने का राज़ जान जाएगी वह। उसे अवश्य कुछ दिखाई दिया होगा कि ये पढ़ी-लिखी आँखें चालाक बेशक़ न हों पर दूसरों के दर्द उनकी साँसों के उतार-चढ़ाव से भी भाँप जाती हैं।
उसे यह मुगालता ज़रूर रहा होगा कि वक़्त का वैद्य अवश्य इससे अपने अनुभव साझा करता होगा। वरना कैसे उसे सबके चेहरे देखने भर से उनके दिल के हाल पता चल जाते है। कुछ तो वह सोचती रही होगी। वरना क्या ख़ास वजह रही कि उसकी कई चाही-अनचाही कोशिशों के बावजूद भी उसने उससे सदैव एक निश्चित दूरी बनाए रखी। दूरी... कि उसको उसकी तकलीफ पता न चले...
ये भी हो सकता है वह उसे इस योग्य ही न समझती हो कि उससे दोस्ती की जाए. या ये भी कि उसकी खुशहाल ज़िंदगी से वह अंदर ही अंदर ईर्ष्या रखती हो।
अंतिम दोनों बातों को मन मानने को कदापि तैयार न था। मन में कई प्रकार की उथल-पुथल के बाद भी उसकी ज़िंदगी में इस दर्द का होना उसके प्रति उसे कारुण्य से भर गया था। हल्के क्रोध का जो भाव उसके प्रति उसके मन में था वह अब उसके पति रमेश के लिए बेपनाह नफ़रत में तब्दील हो गया था। जो अब तक यथावत बना रहा। -"इतनी सुघड़ और सुंदर पत्नी की इसे ज़रा भी क़द्र नहीं..." एक बार तो, उसके मुख से बार-बार उसकी तकलीफ सुन, मनीष भी कह ही बैठे थे।
ओह! तो... यह असल बात रही उसकी उदास आँखों और सुनहरे चेहरे पर पसरी मलिनता की।
"दूसरी औरत" की बात जबसे उसने सुनी थी तभी से उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखों की उदासियाँ उसे समय-समय पर मौसम में घुली दिखाई देती थी।
"नाशपीटा कहीं का, शक्ल का न सूरत का... इतनी सुंदर-सुघड़ बीवी की क़द्र न कर सका।" जैसे वह बैरागी हुई जाती थी।
-"तू क्यूँ हिरान हुई जाती है खामखां... मरने दे परे को।" हर बात में उसके ज़िक्र पर सास ने टोका उसे कई बार।
उनका मानना था कि सबका अपना-अपना जीवन है। सबके अपने-अपने सुख-दुख जो स्वयं ही भोगने-जीने होते हैं। इसीलिए ज़्यादा अफ़सोस करने से कुछ नहीं होगा। सिवाय अपना वक़्त बर्बाद करने के. उनके इस कथ्य में अपना कुछ-कुछ समर्थन देने के बाद भी वह इस बात पर अफ़सोस करने से बाज न आती थी।
पर आज... बिन्नी चली गई थी। सारे अफ़सोस धरे रह गए थे। उसे किसी की भी अब सांत्वना की ज़रूरत न थी। सारे लोकाचार, सुंदरता, सुघड़ता के परे। बिना किसी को कुछ बताए. क्या कुछ बोया होगा उसने आज। क्या कुछ काटा होगा। ये तो वही जानती थी। आह...!
साधना को सुबह-सुबह अपने आँसू पोंछते देख, स्नानघर से वापस लौटे मनीष, किसी अनजानी आशंका से भर उठे।
-"क क्या हुआ...?"
-"मनीष... बिन्नी ने आत्महत्या कर ली..." आवाज़ में दर्द था।
-"कौन बिन्नी...?" मनीष का दिमाग जैसे बिलकुल खाली था। माथे की सिलवटें गहरी हो गईं।
-"मलय की माँ ने...!"
"ओहह! ..."
कई पल को निशब्दता-सी रही दोनों के मध्य।
-"बुरा हुआ...!" मनीष ने एक लंबी सांस छोड़ते हुये अफसोस जाहिर किया।
वह तो वह भी न कर सकी। बुत-सी बनी बैठी रही।
आधे घंटे की उसकी खामोशी पर आखिर मनीष को पहल करनी पड़ी। -"है तो, बहुत ही दुख की बात... पर तुम इसे दिल पर मत लो... खड़ी हो जाओ... उठो! मेरे लिए नाश्ता-पानी तैयार कर दो। आज मुझे जल्दी निकलना है। तुम्हें मैंने कल ही बता दिया था कि मेरा जाना बहुत ही ज़रूरी है। अब तुम इस तरह से गम में बैठी रहोगी तो भला कैसे जा पाऊँगा मैं... उठो! वैसे भी मुझे देर हो गई है। आता ही होगा विनय गाड़ी लेकर..."
मनीष को जाना ज़रूरी है इस बात से अंजान न थी वह। सारे दिन का सफर है वह भी ऐसी जगह पर जहाँ खाने का सामान तो क्या तकलीफ परेशानी में कोई गोली, दवाई भी दर्द की न मिले। न चाहते उसे उठना ही पड़ा।
-"ज़्यादा टेंशन मत लेना, ना ही कोई मातम मनाना... दोनों बच्चों का ख्याल तुम्हें ही रखना है। परसों तक लौट आऊँगा मैं... ठीक है! बड़ा भरोसा करके जा रहा हूँ तुम पर। अपनी सेहत खराब मत होने देना वरना बच्चे बहुत परेशान हो जाएंगे। मम्मी-पापा भी नहीं हैं घर में..." मनीष अपने तरीके से उसे समझाते हुए अपने गंतव्य की ओर निकल गए. वे जानते थे, साधना हर दुख पकड़ कर बैठ जाती है।
मनीष के घर से निकलते ही उसका मन और भी उदास हो गया। पर आज उसे ही सबकुछ समेटना, रखना था। उसने हिम्मत बांधी और जुट गई काम में।
तीन दिन बाद... मनीष लौट आए. ये तीन दिन उसने कैसे काटे बस वही जानती है। एक तो बिन्नी का दुख और ऊपर से मनीष बगैर उसके तीन दिन... उफ़्फ़!
मनीष के आते ही अब तक सहेजा अपना सारा हौसला खो बैठी वह। मानों, मातम मनाना लाजिमी था उसके लिए. कुछ था उसके भीतर जो उसे तोड़े दे रहा था। चार दिनों से वह बुखार में थी। मनीष समझ गए मामला गंभीर है। एक तो नया-नया कारोबार उसपर रात-दिन पत्नी बच्चों की देखभाल... रीमा को अपनी व्यथा फोन पर बता बैठे मनीष।
रीमा, साधना की सगी मौसी की बेटी. उसकी हमउम्र बहन। उसकी सखी। आपस में दोनों का खूब स्नेह है मनीष को पता था। इससे बेहतर उपाय मनीष को इन हालात में शायद सुझाई न दिया हो। घर पहुँचते ही सब संभाल लिया रीमा ने। मनीष को राहत हुई. उसे भी...
-"ले! साधना, तेरी पसंद का खाना बनाया है मैंने... खा...!" रीमा को उसके यहाँ आए आज दूसरा दिन था।
-"न... मेरा खाने को मन नहीं है..." रीमा के बहुत हिलाने-डुलाने पर साधना ने मरी-सी आवाज़ में कहा।
-"ऐ... खड़ी हो जा चुप! उठके खाना खा ले... तेरी सेवा टहल करने ना आई मैं... दो दिन बाद मुझे वापस लौट जाना है... और ये के तू जच्चा-सी पड़ी है... तुझे शर्म ना आ रही। बच्चे और मनीष जी परेशान हो रहे हैं। उठ...! खड़ी हो ईब... ज़्यादा ना नुकुर ना करियो। तू जाने है फिर..." रीमा की डांट ने असर किया। साधना बिना हील-हुज्जत किए उठ बैठी। उठने में उसे रीमा के सहारे की ज़रूरत पड़ी।
साधना की हालत देख, रीमा मन मसोसकर रह गई. उसका दिल किया कि वह साधना को उसकी इस हालत के लिए खूब डांटे। पर खाना खिलाना पहले ज़रूरी लगा। डांट लगा-लगाकर उसने साधना को अपने मन की संतुष्टि तक खाना खिलाया।
-"एक बात बता... या क्या स... तू इतनी बावली कसे हुई. अरे के लगे थी वह तेरी जो तू इतना मातम मनावे है..." उसकी जूठी थाली पास पड़ी मेज पर सरकाते रीमा पूछ बैठी। मनीष रीमा को सब तफसील से बता चुके थे।
"क्या खाये जा रहा तुझे... बता मुझे..." उसके जवाब की लंबी प्रतीक्षा में मिले उसके मौन पर रीमा का स्वर ढीला पड़ा।
"कुछ... कुछ भी तो नहीं..." आवाज़ में फांस थी।
"बता..."
"रहने दे... छोड़!" उसे आशंका थी कि उसकी मनोस्थिति कोई न समझेगा।
"तुझे मेरी सौं...बता...!" साधना ने रीमा के चेहरे को स्नेह से छूआ... आँखों का मूक आग्रह, मूक आँखों से पढ़ा गया।
हौले-हौले लब हिले-
-"रीमा, उसकी शिराओं में दौड़ता लहू किस वक़्त पीर बन उठा और उस हूक से किस वक़्त उसने छुटकारा पाया ये तो वही जाने। पर बताने वाले बताते हें कि मरने वाली सुबह की सारी रात उसने काम किया... सारे घर के कपड़े धोने के बाद... हर चीज की सेटिंग कर, रसोई को नए सिरे से सेट किया। पति और बच्चों के सोने के बाद सुबह चार बजे तक घर का हर कोना ऐसे सजाया उसने जैसे ज़िंदगी और गृहस्थी की नई शुरुआत हो..." साधना की आवाज़ में ठहरेपन का एहसास रीमा को अंदर तक भिगो गया।
मात्र हूंकारे में गरदन हिलाई उसने।
"...जाने क्या सोच-विचार किया होगा उसने अपनी नई यात्रा के लिए रीमा कि इसी बार के उसके जन्मदिन पर दिया बच्चों का तोहफ़ा, नया सलवार-कमीज़, नहा-धोकर पहना और... और... जानती है... पूरा शृंगार किया हुआ था उसने..." अब साधना की आवाज़ में कंपन्न उतर आया था।
-कितना-कितना उत्ताप उठा होगा उसके हूकते हृदय में रास्ते भर... देखने वाले बताते हैं... कि सुंदर सलोना मुखड़ा रेल के नीचे आते ही इतना अलोना, असौम्य हो गया कि कई देखने वालों को चक्कर आ
गए और कई लोगों को उल्टियाँ हो गईं थी...! " आवाज़ के साथ अब आँखें नम होने लगी थी।
रीमा चुप रही। पर, साधना के कंधों पर रखे उसके हाथ लगातार उसके कंधे, बाजू, कमर सहलाये जा रहे थे। वह उसके अंदर का जमा कचरा बाहर निकालना चाहती थी। वह कचरा, जो संवेदनशील लोगों को जल्द ही राख़ के ढेर में तब्दील कर देता है।
-" सुना है आत्महत्या करने के और भी कई आसान तरीक़े हैं जिनसे पलक झपकते ही इंसान को आसानी से मौत हासिल हो जाती है।
ऐसे में रेल के नीचे कटना ... उफ़! सोचकर ही दिल दहल जाता है। यदि सोचने भर से ही दहल जाता है दिल तो फिर बिन्नी कैसे कट गई...? ग़लत सोचते हैं लोग कि रेल के नीचे कटना मुश्किल है सचमुच इतना मुश्किल न होता होगा ये... हैं ना रीमा...? " साधना की आँखों से अविरल धारा फूट निकली।
रीमा आश्चर्य से साधना को देख रही थी। 'ये क्या... क्या कह रही है साधना...' -" या फिर बिन्नी की ज़िंदगी ही इतनी मुश्किल कर दी गई थी कि उसे रेल के नीचे आकर कटना भी सबसे ज़्यादा आसान लगा...
ओह...! बिन्नी, काश! काश ... मैं तुम्हारे लिए कुछ कर पाती..." साधना की हिचकी बंध गई.
रीमा उसकी हालत देख अंदर ही अंदर द्रवित हो उठी। वह समझ गई साधना के भीतर कोई गांठ है यदि वह समय रहते न खुली तो बड़ी मुश्किल होगी। बड़ी ही मुश्किल...
-"ओहह...सच कहती है साधना। ये तो बहुत ही बुरी बात हो गई... सचमुच... बेचारी बिन्नी..." यकायक रीमा ने उसके दर्द में खुद को शामिल कर लिया।
-"फिर क्या हुआ...? मतलब... उसके पति, बच्चे, ससुराल वाले... किसी को तो उस पर दया आई होगी। कोई तो उसकी बड़ाई कर रहा होगा...?" रीमा ने उसकी आँखों में झाँकते हुये पूछा।
"क्या होना था! ... कुछ भी नहीं! कुछ भी तो नहीं... उसकी मृत्यु के दूसरे दिन स्थानीय समाचार-पत्र में ख़बर छपी" रेलवे में कार्यरत, कर्मचारी रमेश की पत्नी ने गृहक्लेश के चलते रेल के नीचे आकर आत्महत्या की। " इतनी सी... बस दो लाइनों की ख़बर। जिसमें न तो बिन्नी थी। न ही उसकी ज़िंदगी के दुख-दर्द और तो और... उसका लिखा सुसाइड नोट तक उसकी सास और उसके ननदोई ने पुलिस के घर में पहुँचने से पहले ही गायब कर दिया था। यहाँ तक कि उसके तीनों बच्चों का बयान तक उनके पिता के बचाव में दिलवाकर उसे निर्दोष साबित करवा दिया गया...
...दया! सारी रात गरम लिहाफ़ में मस्ती से सोता उसका पति सुबह लोगों से कह रहा था कि-"झगड़े किस घर में नहीं होते। पर इसने ऐसा क़दम उठाकर तो उसकी समाज में नाक ही कटवा दी।" उसके जाने का उसपर क्या असर होने वाला था। कुछ भी तो नहीं... अलबत्ता उसे इसका फ़ायदा ही हुआ कि बिना रुकावट अब वह अपनी प्रेमिका के साथ रह सकता है।
...और हाँ...बड़ाई... वो, जो उसके ससुराल वाले है ना... वही... जो, उसके जीते जी उसे एक अच्छी समझदार बहू होने का तमगा देकर, अपने पति का अत्याचार सहने पर विवश करते रहे सदा। उसके ऐसा करने पर, उसे ही ग़लत ठहरा रहे थे। उनके अनुसार-'कम-स-कम इन बच्चों का तो सोचती। बेटी घर में जवान बैठी है। ऐसी भी क्या आग लगी थी कि पति, पति की ही रट लगाए रहती थी। मनहूस कहीं...सारे घर के मुँह पर कालिख पोत गई.' उफ... उसकी इतनी निष्करुण अवहेलना। आत्मरत स्वार्थी सभी। "आँखों के ज्वार भाटे की खेप में तनाव और दुख की नोकों से पिसे उसके वे क्षण। मन की उग्रता में कोई बांध नहीं। देखती रही रीमा, अपलक कई पलों तक। -" हम्म... सही कर रहे हैं वो... कायर लोगों का साथ कौन देता है..."एकाएक रीमा का स्वर तीखा हो उठा। -" क्या मतलब..."साधना जैसे सोते से जागी। -" और क्या... आत्महत्या करना को बड़ी बात ना... जी कर दिखाती तो मानते कि तेरी बिन्नी कायर ना थी। अरी, किसी भी परेशानी का हल मरना कोई है। तू भी ऐसी. तेरी बिन्नी भी ऐसी. तू भी मर जा... तो भी तो परेशान है। बिन बाप की थी तू... जब पाँच साल पहले माँ मर गई थी तो वह दुख क्यों सह लिया तूने... मर जाती। जवान भाई को मार दिया अताताइयों ने 8 साल पहले जब भी न मरी थी तू। जवान भतीजा सड़क दुर्घटना की भेंट चढ़ गया। तुझे मर जाना चाहिए था जब। उसकी पत्नी को भी तो आत्महत्या कर लेनी चाहिए आखिर बेटी 3 माह की गर्भ में थी उसके और बेटा ढाई साल का गोदी में... बावली है वह तो... भला क्यों जी रही। बगैर पति के तो मर जाना चाहिए उसे..."रीमा का सब्र जैसे जवाब दे गया था। उसका रौद्र रूप देख साधना भौंचक रह गई. -" मैं... मैं ... तो..." साधना का गला सूख-सा गया।
-"क्या...मैं तो... मैं तो! ... बता मुझे...? किसके जीवन में परेशानी ना है... तू खुद कितनी-कितनी परेशानियों से बाहर निकली है... कितने भी उदास, हताश हों, आत्महत्या के ख्याल के बहुत बहुत...बहुत पास पहुँच कर भी, कई बार लौट आते हैं हम...क्यों...?" रीमा ने सवाल दागा।
-"अपने बच्चों का मुख देखकर..." साधना के होंठों से अनायास निकला।
-"हाँ... माँ की असली ताकत उसके बच्चे हैं... उन्हें देखकर। उन्हें सोचकर। रोज दिन ब दिन जहन्नुम बनती इस दुनिया में बच्चों को यूं अकेले छोड़कर जाना कौन-सी माँ चाहेगी भला, बता तो...! दूसरे, ये जो आत्महत्या करने वाले लोग हैं, मुझे लगता है इन्हें परिस्थितियाँ कम मजबूर करती हैं आत्महत्या के लिए बलक इनमें कोई मानसिक बीमारी होती होगी। तू तो खूब पढ़ी-लिखी है सब जानती होगी। मैं तो जब भी तेरे से कम पढ़ी हूँ। पर इतना दावे से कहूँ... जिसे आत्महत्या करनी हो वह भरे पूरे परिवार में भी कर लेवे और जिसे न करनी हो या जिसकी मानसिक स्थिति मजबूत या वह जो तुम कहो विल पावर मजबूत हो तो सारी उम्र अकेलेपन से ऊबकर भी नहीं करता।"
साधना उसकी बात ध्यान से सुन रही थी। -"जानती है, जाने कितनी स्त्रियाँ बिन्नी से भी ज़्यादा बुरी हालत में जीवन बिता रही हैं। कुछ हैं जो अपनी स्थितियाँ सुधार रही हैं। कुछ हैं जो अपने प्रति होते अत्याचारों के खिलाफ उठ खड़ी हुई हैं। ऐसा ही कुछ करती बिन्नी तो एक मिसाल बनती। पर अब क्या हासिल... जो कमाया ज़िंदगी भर वह भी खो गई बावली। —जाने है... परिस्थितियों से भागे लोग... भगोड़े होते हैं, वह चाहे घर से भागे हों, चाहे देश से भागे, चाहे दुनिया से, या फिर ज़िंदगी से... जानती है न तू, भगोड़ों का कहीं सम्मान नहीं होता... निषिद्ध पथ के राही किसी के संगी नहीं होते... और सुन, धीरे-धीरे किसी के गम में यूं घुल-घुलकर मरना भी आत्महत्या समान है। सोच ले...! तेरा भी तनिक सम्मान न करूंगी मैं... ईब खड़ी हो ले बस...!"
खामोशी ठहर गई दोनों के मध्य। साधना अपलक रीमा को देखे जाती रही। शब्दों का मानों अकाल पड़ गया था। कई क्षणों की नीरवता के बाद रीमा उसके सिर पर प्यार से हाथ फेर, जूठे बर्तन लेकर रसोईघर में चली गई.
बात गहरी थी। गांठ खोलने में सक्षम।
वीरान से कमरे में मौन बैठी साधना, अंबर रूपी छत को, सूनी आँखों से टोहती हुई, लरजती हुई ख़ामोशी में जैसे उसे पुकारा उठी-" देखो, बिन्नी, देखो... तुम्हारे जाने से किसी का जीवन नहीं रुका। समय पानी-सा बह रहा है और आयु नदी-सी. पर तुम एक जगह क्यूँ ठहर गईं... क्यूँ? ' सवाल बेमायने नहीं था काश, समझता ऐसे जाने वाला।
उम्र का मौत को ठेंगा दिखाना, समय से विद्रोह कर अपनी मर्ज़ी से उसमें विलय हो जाना... और निरंकुश बगछुट दौड़ती ज़िंदगी का ठगी-सी, उसे जाते देखते रहना... अब धीरे-धीरे सब उसकी स्मृति से लोप हो रहा था...
ग्यारहवें दिन का नया सवेरा था... साधना के माथ पर ठंडा-ठंडा, गहरा लाल सूरज आज पूरी शान से दमक रहा था।