निष्काम कर्म की वर्तमान प्रासंगिकता / कविता भट्ट

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(कार्य-संस्कृति का दार्शनिक विश्लेषण)

भारतीय सभ्यता कार्य-संस्कृति के अवनयन एवं नकारात्मक संक्रमण की ओर अग्रसर हो रही है। एक वर्ग-विशेष ने अपना सम्पूर्ण ध्यान मानव-समाज को सुविधासम्पन्न करने पर केन्द्रित किए हुए है; तो वहीं दूसरी ओर उसका लाभ लेने वाला वर्ग अपने परिश्रम से दूर भागता हुआ प्रतीत होता है। हालाँकि वह उन सुविधाओं के लिए जो पूँजी खर्च करता है; उसके लिए वह भी प्रगाढ़ परिश्रम करता है; किन्तु निश्चित रूप से परिश्रम के ढंग में एक बहुत ही बड़ा परिवर्तन आया है। जब भी बात आती है कार्य-संस्कृति की तो प्रत्येक व्यक्ति हमेशा आलोचनात्मक प्रवृत्तियाँ ही अपनाता है। सभी का स्वभाव हो गया है ; आलोचना करना, इसे सुनना और सुनकर अपने उत्तरदायित्व से विमुख होकर सम्पूर्ण दोष व्यवस्था पर मढ़ देना। इन सभी तथ्यों को तर्कों की कसौटी पर रखने हेतु इसका गहन विश्लेषण आवश्यक है; जिससे नैतिक दृष्टि से व्यक्ति विशेष की प्रतिबद्धता निर्धारित हो सके; प्रस्तुत आलेख में इन्हीं तथ्यों के दार्शनिक विश्लेषण का प्रयास किया जाएगा। आलेख दो भागों में विभाजित है- प्रथम भाग में वर्तमान कार्य-संस्कृति तथा द्वितीय भाग में समस्या के समाधानस्वरूप निष्काम कर्म की वर्तमान प्रासंगिकता को विवेचित करने का प्रयास करेंगे।

प्रथम भाग कार्य निर्धारित क्षेत्रों की दृष्टि से मुख्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है। पहले भाग में व्यक्तिगत, दूसरे भाग में संस्थागत एवं तीसरे भाग में राजकीय कार्यसंस्कृति को रखा जा सकता है। व्यक्तिगत क्षेत्र में अधिकतर लोगों का ध्यान कम परिश्रम के साथ अधिक से अधिक लाभ पर केन्द्रित रहना आजकल स्वाभाविक-सी बात है; किन्तु कुछ लोग इसके विपरीत भी हैं; उनके भी अपने मापदण्ड हैं; वे चाहते हैं कि जितना कार्य वे करें, उसमें उनको धन-सुख-संसाधन प्राप्त होने के साथ ही प्रसिद्धि भी अधिक से अधिक प्राप्त हो। स्वान्तःसुखाय कार्य करने वालों की संख्या व्यक्तिगत क्षेत्र में भी कम होती जा रही है; किन्तु इतना अवश्य है कि संस्थागत एवं राजकीय क्षेत्र से अधिक ध्यान इस प्रकार के व्यक्तिगत कार्यों को लोग दे देते हैं। इस क्षेत्र में लोग परिश्रम की अतिशयता तक कार्य करते हैं; किन्तु उनकी पूर्वापेक्षा यह है कि उसमें उनका आनुपातिक लाभ होना ही चाहिए।

व्यक्तिगत क्षेत्र में कुछ लोग अभी भी आनुपातिक लाभ से वंचित देखे जा सकते हैं। उदाहरण के तौर पर एक किसान कितने परिश्रम से सभी लोगों के खाने हेतु अनाज, फल, सब्जियाँ इत्यादि की पैदावार करता है; किन्तु उसे क्या आनुपातिक रूप से उसका लाभ मिल पाता है। या फिर वह श्रमिक जो पूरे दिन परिश्रम करके भी दो वक्त की रोटी भी प्राप्त नहीं कर पाता है। एक वर्ग आज भी शोषण की समस्त सीमाओं को पार करते हुए शोषित किया जा रहा है और दूसरा उच्च वर्ग उसका पूर्णरूपेण शोषण कर रहा है। उस मजदूर, किसान या निर्धन व्यक्ति को यदि हम व्यक्तिगत क्षेत्र के मापदंडों पर रखकर परखते हैं तो क्या वह मजदूर या किसान एक बौद्धिक परिश्रम करने वाले व्यक्ति से अधिक पारिश्रमिक पाने का अधिकारी नहीं है। ज्वलन्त प्रश्न है कि इनकी तुलना में बौद्धिक वर्ग अपने कर्तव्यों का कितने प्रतिशत राष्ट्र एवं समाज को देता है? इसी क्रम में यदि हम बात करें उस वैज्ञानिक की जो मानवता को सुविधा-सम्पन्न बनाने हेतु अपने अस्तित्व को भुलाकर कार्य करता है तो क्या वह भी अपने यथार्थ पारिश्रमिक को प्राप्त कर पाता है।

अब यदि बात की जाए संस्थागत कार्य-संस्कृति की तो निश्चित रूप से व्यक्ति इसमें अत्यधिक परिश्रम से कार्य करता है; किन्तु प्रसन्नता की अनुभूति के साथ नहीं अपितु दबाव के साथ। हाँ, इतना अवश्य है कि संस्था द्वारा प्रदत्त अतिरिक्त लाभों के लालच में वह किसी भी सीमा तक परिश्रम करने को तैयार रहता है। कम्पनियों द्वारा भी अपने परिश्रमी कर्मचारियों को प्रोत्साहन के तौर पर अनेक लाभकारी योजनाओं से लाभ प्रदान करवाने का प्रयास होता रहता है; जिससे उनके कर्मचारी अधिकांश समय देकर कम्पनी को अधिक से अधिक लाभ पहुँचाएँ; किन्तु मानवाधिकारों की दृष्टि से कर्मचारियों का चौदह-चौदह घंटे कार्य करना क्या यथोचित है? यह एक विचारणीय प्रश्न है।

तीसरा क्षेत्र है- राजकीय क्षेत्र। ऐसा आरोप लगाया जाता है कि आधुनिक परिदृश्य में राजकीय क्षेत्र की कार्यसंस्कृति कामचोरी और भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ चुकी है। इस क्षेत्र में कर्मचारियों का अधिकांश ध्यान इस बात पर केन्द्रित रहता है कि कम से कम समय अपने कार्य को देना पड़े; हालाँकि इस क्षेत्र में भी कुछ लोग अभी भी सेवाभाव व नैतिक उत्थान को दृष्टिगत रखते हुए कार्य करते हैं; किन्तु प्रश्न यह है कि वे लोग हैं कितने? निश्चित रूप से उनकी संख्या उँगलियों पर गिनने लायक भी नहीं है। राजकीय क्षेत्र आज अपनी विश्वसनीयता कार्य-संस्कारों के दृष्टिकोण से अपनी नैतिकता खोता जा रहा है; परन्तु यह बात भी सोचने लायक है कि सेना पर अपने अस्तित्व की बलि चढ़ा देने वाले सैनिक भी तो इसी क्षेत्र में आते हैं। उनका राष्ट्रप्रेम तो इतना अधिक है कि उनको ये कहना कि उन्हें सीमाओं की रक्षा हेतु वेतन दिया जा रहा है; ये उनका अपमान ही होगा। सीमा की चौकसी वे समर्पण एवं सेवा भाव से करते हैं। उनके परिवार भी इस कार्यसंस्कृति को अपनाए हुए हैं कि वे समर्पण भाव से ही उनको सीमाओं की सुरक्षा हेतु भावनात्मक रूप में तैयार करते हैं। इसके अतिरिक्त अनेक ऐसे डॉक्टर, वैज्ञानिक, अधिकारी, कर्मचारी आदि भी इस क्षेत्र में हैं, जो पूर्णतः सेवा एवं नैतिक समर्पण के भाव से कार्य करते हैं; इसलिए ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि राजकीय क्षेत्र में कार्यरत प्रत्येक व्यक्ति कार्य-संस्कृति का पोषक नहीं, अपितु भ्रष्टाचार में संलिप्त है। ये सभी लोग अपने व्यक्तिगत हितों पर कभी भी केन्द्रित नहीं होते हैं; जबकि वहीं दूसरी ओर कुछ व्यक्तिगत चिकित्सक केवल अपने आर्थिक लाभ हेतु मानव अंगों का व्यापार भी करने लगे हैं। सार यह है कि किसी भी क्षेत्र को हम पूर्णरूपेण न तो नैतिक निहितार्थों का साधक मान सकते हैं, न ही बाधक।

यह तो था वर्तमान परिदृश्य में कार्य संस्कृति का आलोचनात्मक पक्ष; किन्तु अब बात आती है कि यदि प्रत्येक क्षेत्र में कार्यरत लोगों एवं उस क्षेत्र की अपनी कुछ बुराइयाँ और अच्छाइयाँ हैं, तो फिर यह भी एक तर्क है कि आदर्श स्थिति क्या है और समाज को कौन से सिद्धान्तों का अनुपालन करना चाहिए? इसका उत्तर तलाशने हेतु हमें आलेख के द्वितीय भाग पर ध्यान केन्द्रित करना होगा।

द्वितीय भाग

यद्यपि विभिन्न तथ्य जुटाए जाते रहते हों; किन्तु सत्य यह है कि ये उत्तर आधे-अधूरे ही होते हैं। यदि हम आदर्श स्थिति एवं सिद्धान्तों की बात करें, तो हमें पौराणिक भारतीय वांग्मय को खँगालना होगा। श्रीमद्भगवत्गीता का ‘योगःकर्मसुकौशलम्’‘कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः........” या निष्काम कर्म कार्यसंस्कृति के समर्पण सिद्धान्त को प्रस्तुत करता है। यह व्यक्ति के उत्थान के साथ ही समाज के उत्थान की भी बात करता है। पहला सिद्धान्त बताता है कि कुशलता के साथ कर्म करना ही योग है। ऐसा करने से निःसंदेह व्यक्ति एवं समाज दोनों को ही लाभ होगा व विकास होगा। साथ ही मनोवैज्ञानिक स्वस्थता भी व्यक्ति एवं समाज को प्राप्त होगी । गीता का निष्काम कर्म सिद्धान्त भी इस दिशा में अत्यंत उपयोगी व पूर्णतः मनोवैज्ञानिक है। ‘कार्य करते जाना और फल की इच्छा नहीं करना’ इस सिद्धान्त की कुछ लोग आलोचना भी करते हैं कि ऐसा कैसे हो सकता है। इस सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से यह कथन है कि फल को लक्ष्य के तौर पर तो हम दृष्टिगत रखेंगे ही; किन्तु ऐसा न हो कि हमारा पूरा ध्यान उसी पर एकाग्र हो और उसके कारण हम कार्य एवं परिश्रम की गुणवत्ता व अवधि को भूल जाएँ। इस प्रकार हमारा ध्यान कार्य और परिश्रम की गुणवत्ता पर जब होगा, तो फल तो निश्चित रूप से अच्छा प्राप्त होगा ही। इसलिए मनोवैज्ञानिक एवं दार्शनिक दृष्टि से हमारा ध्यान कार्य की गुणवत्ता पर होना चाहिए, न कि फल को सोचते रहने पर। वांछित फल तो कार्य के अनुसार देर-सवेर मिलना ही है।

गीता के सिद्धान्तों की प्रासंगिकता तो कार्य-संस्कृति के सन्दर्भ में है ही और हमेशा रहेगी; किन्तु इस सम्बन्ध में पाश्चात्य दार्शनिक कांट महोदय का दृष्टिकोण भी अनुकरणीय है। वे भी कुछ सीमा तक गीता का अनुकरण करते हैं। वे बात करते हैं कर्त्तव्य के लिए कर्त्तव्य की। अर्थात् कार्य को कार्य मात्र समझकर करना चाहिए; उसमें कोई भी व्यक्तिगत लालच छुपा हुआ नहीं होना चाहिए; कुल मिलाकर यदि कार्य करेंगें, तो फल तो स्वाभाविक रूप से मिलना ही है। उनका सिद्धान्त भी कार्यसंस्कृति के लिए प्राणवायु का कार्य कर सकता है। आवश्यकता इस सिद्धान्त को व्यावहारिक धरातल पर अपनाए जाने की है। इसको अपनाने से आत्म-संतोष, व्यक्तिगत एवं सामाजिक उन्नति निश्चित रूप से प्राप्त होते हैं। इन दोनों सिद्धान्तों को अपनाकर भारतीय समाज आधुनिक परिवेश में अपनी कार्यसंस्कृति को गुणवत्ता तो प्रदान करेगा ही, इसके अतिरिक्त वह मानवता के नैतिक गुणों से युक्त होकर व्यक्तिगत एवं सामाजिक उत्थान की ओर भी अग्रसर होगा। व्यवस्था की रीढ़ है- कार्यसंस्कृति; यह ठीक होगी, तो व्यवस्था स्वयं ही अच्छी हो जाएगी। इसके केन्द्र में व्यक्ति है; व्यवस्था पर दोषारोपण करने। के स्थान पर व्यक्ति को स्वयं का विश्लेषण करना चाहिए कि वह अपने कर्त्तव्यों के पालन हेतु अपने उत्तरदायित्व का निर्धारण करता है या नहीं। स्वयं के कर्त्तव्यभाव से कार्यसंस्कृति को परिवर्तित करना व्यवस्था परिवर्तन की पूर्वापेक्षा है; अन्यथा सब मिथ्या दोषारोपण । इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं में कर्त्तव्यभाव का संचार करते हुए अपनी कार्य-संस्कृति को परिवर्तित करने की आवश्यकता है; व्यवस्था स्वयं ही स्वस्थ हो जाएगी; यदि यह नहीं कर सकते, तो व्यवस्था को दोष देने का भी अधिकार नहीं।

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