नीति-अनीति / पंचतंत्र

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

600-700 ई.पू. लिखी गयी ‘पंचतन्त्र की कथाएँ, सम्भव है, आर्यों की लौकिक नीतिकथाएँ रही हों। आर्यों ने नियमन के लिए व्यक्ति को कभी सीधे-सीधे कुछ नहीं कहा, मात्र संकेत ही किये हैं। और ये नीति कथाएँ इस दृष्टि से रोचक भी हैं और कहानियाँ भी।’

एक

एक गाँव में द्रोण नाम का एक ब्राह्मण रहता था। भीख माँगकर उसकी जीविका चलती थी। उसके पास पर्याप्त वस्त्र भी नहीं थे। उसकी दाढ़ी और नाखून बढ़े रहते थे। एक बार किसी यजमान ने उस पर दया करके उसे बैलों की एक जोड़ी दे दी। लोगों से घी-तेल-अनाज माँगकर वह उन बैलों को भरपेट खिलाता रहा। दोनों बैल खूब मोटे-ताजे हो गये।

एक चोर ने उन बैलों को देखा, तो उसका जी ललचा गया। उसने निश्चय किया कि वह बैलों को चुरा लेगा। जब वह यह निश्चय कर अपने गाँव से चला, तो रास्ते में उसे लम्बे-लम्बे दाँतों, लाल-आँखों, सूखे बालोंवाला एक भयंकर आदमी मिल गया।

“तुम कौन हो?” चोर ने डरते-डरते पूछा।

“मैं ब्रह्मराक्षस हूँ,” भयंकर आकृति वाले ने उत्तर दिया और पूछा, “तुम कौन हो?”

चोर ने उत्तर दिया, “मैं क्रूरकर्मा चोर हूँ। पासवाले ब्राह्मण के घर से बैलों की जोड़ी चुराने जा रहा हूँ।”

राक्षस बोला, “प्यारे भाई, मैं तीन दिन में एक बार भोजन करता हूँ। आज मैं उस ब्राह्मण को खाना चाहता हूँ। हम दोनों एक मार्ग के यात्री हैं। चलो, साथ-साथ चलें।”

वे दोनों ब्राह्मण के घर गये और छुपकर बैठ गये। वे मौके का इन्तजार करने लगे। जब ब्राह्मण सो गया, राक्षस उसे खाने के लिए आगे बढ़ा। चोर ने उसे टोक दिया, “मित्र, यह बात न्यायानुकूल नहीं है। पहले मैं बैल चुरा लूँ, तब तुम अपना काम करना।”

राक्षस बोला, “बैलों को चुराते हुए खटका हुआ, तो ब्राह्मण जरूर जाग जाएगा। फिर मैं भूखा रह जाऊँगा।”

चोर बोला, “जब तुम उसे खाने जाओगे, तो कहीं कोई अड़चन आ गयी, तो मैं बैल नहीं चुरा पाऊँगा।”

दोनों में कहा-सुनी हो गयी। शोर सुनकर ब्राह्मण जाग गया। उसे जागा हुए देखकर चोर बोला, “ब्राह्मण, यह राक्षस तेरी जान लेने लगा था। मैंने तुझे बचा लिया।”

राक्षस बोला, “ब्राह्मण, यह चोर तेरे बैल चुराने आया था। मैंने तुझे लुटने से बचा लिया।”

इस बातचीत से ब्राह्मण सतर्क हो गया। उसने अपने इष्ट देव को याद किया। राक्षस फौरन भाग गया। फिर डण्डे की मदद से ब्राह्मण ने चोर को भी मार भगाया।

दो

एक झील के किनारे भरुण्ड नामक पक्षी रहते थे। उनका पेट तो अन्य पक्षियों की तरह एक ही था, पर सिर दो थे।

एक बार की बात है, इनमें से एक पक्षी कहीं घूम रहा था। उसके एक सिर को एक मीठा फल मिल गया। दूसरा सिर बोला, “आधा फल मुझे दे दो।” पहले सिर ने इनकार कर दिया। दूसरे सिर को गुस्सा आ गया। उसने कहीं से जहरीला फल खा लिया। पक्षी का पेट तो एक ही था, इसलिए जल्दी ही वह मर गया।

तीन

एक राज्य में बड़ा पराक्रमी राजा नन्द राज्य करता था। अपनी वीरता के लिए वह दिग्दिगन्त में प्रख्यात था। दूर-दूर तक के राजा उसका मान करते थे। समुद्र तट तक उसका राज्य फैला था।

राजा नन्द का मन्त्री वररुचि भी बड़ा विद्वान और शास्त्र-पारंगत था, पर उसकी पत्नी का स्वभाव बड़ा तीखा था। एक दिन वह प्रणय-कलह में ही ऐसी रूठ गयी कि मानी ही नहीं।

तब वररुचि ने उससे पूछा, “प्रिये, तेरी खुशी के लिए मैं सब कुछ करने को तैयार हूँ। जो तू कहेगी, मैं वही करूँगा।”

पत्नी बोली, “अच्छी बात है। मेरा आदेश है कि तू अपना सिर मुँडाकर, मेरे पैरों पर गिरकर मुझे मना।”

वररुचि ने वैसा ही किया। स्त्री प्रसन्न हो गयी।

उसी दिन की बात है, राजा की स्त्री भी रूठ गयी। नन्द ने भी कहा, “प्रिये, तेरी अप्रसन्नता मेरी मृत्यु है। तेरी खुशी के लिए मैं सबकुछ करने को तैयार हूँ। तू आदेश कर, मैं उसका पालन करूँगा।”

राजा की स्त्री बोली, “मैं चाहती हूँ कि तेरे मुँह में लगाम डालकर तुझ पर सवारी करूँ और तू घोड़े की तरह हिनहिनाता हुआ दौड़े।”

राजा ने वैसा ही किया। स्त्री प्रसन्न हो गयी।

दूसरे दिन सुबह राजदरबार में जब वररुचि उपस्थित हुआ, तो राजा ने पूछा, “मन्त्री, तुमने अपना सिर किस पुण्यकाल में मुँडा डाला?”

वररुचि ने उत्तर दिया, “राजन्, मैंने उस पुण्यकाल में सिर मुँडाया, जिस काल में पुरुष मुँह में लगाम लगाकर हिनहिनाते हुए दौड़ते हैं।”

सुनकर राजा बड़ा लज्जित हुआ।