नीलकंठी ब्रज / भाग 14 / इंदिरा गोस्वामी / दिनेश द्विवेदी

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वह अन्धे ठाकुर साहब इन दिनों अपना अधिकांश समय भूतकाल पर चिन्तन करते हुए बिताते हैं। वर्तमान की दशा भुलाने के लिए वे अतीत में डूब जाते हैं। जब वे अपने चिन्तन से जागते हैं तब अनुभव करते हैं कि मानो उनकी आत्मा ने शरीर के नश्वर रूप में पीछा करने से छुट्टी ले रखी है। ऐसे क्षणों में वे अपने को केवल शव ही सोचते हैं। सुस्त एवं भारी, किन्तु अभी भी सक्रिय। अपनी ही उम्र के अन्य लोगों से भी वे जानना चाहते हैं कि क्या ये ही विचार उनका भी पीछा करते हैं। किन्तु उन्हें राहत पहुँचाने वाले उत्तर नहीं मिल पाते। यदि यह सम्भव होता कि किसी रहस्यमय तरीके से वह अपनी दृष्टि फिर से पा लेते, तो वे ब्रज के प्रत्येक वृद्ध के पास पहुँचते और पूछते कि उनकी आत्माएँ अभी भी उनके शरीर के निवास से अलग कैसे नहीं हुईं। जब-तब वह बूढ़ा आदमी इतनी कल्पना करता रहता था।

एक दिन शाम को काफी देर तक वे मन्दिर की सीढ़ियों पर बैठे रहे। वे गप्पबाज, जो उनके पास आकर बैठे थे, एक-एक कर चलते बने। भजन गीतकारों का एक दल गाते और रंगरेलियाँ करते हुए उस ओर से गुजरा। उन्होंने उन आदमियों से आती हुई अतर की सुगन्ध महसूस की, जिसने उन्हें अचानक बीते दिनों में पहुँचा दिया।

उस सुगन्ध का क्या नाम है। यह इतनी मीठी है। यह इतनी जानी-पहचानी लगती है। मगर वह उसका नाम याद न कर सके। किन्तु पुराने सम्बन्धों को पुनर्जाग्रत करना है। उस क्षण ठाकुर साहब एक जोड़ी पैरों की सुगठित पिंडलियों को देखते हैं, जो मधुरता में सने हैं। पर दूसरे क्षण अपने दिमाग से उस मूर्ति को झटक देने का प्रयत्न करते हैं। सचमुच मन्दिर की पवित्र सीढ़ियों पर बैठकर रखैल के बारे में सोचना पाप है और वह भी उस जुलूस के द्वारा, जो रास लीला उत्सव में पवित्र नृत्य करने वाले व्यक्तियों का है। इस स्वयं पछतावे की भावना ने उन्हें हल्के से मुस्कुराने को बाध्य किया।

एक समय था, जब ठाकुर साहब ने अपने परिवार की पूर्ण उपेक्षा की और अपने आपको बिसार बैठे। उनके युवा पुत्र ने उनके विरुद्ध क्रोध किया और उन्हें स्वार्थी और बेहूदा घोषित किया। किन्तु उन सबकी ओर उन्होंने बहुत कम ध्यान दिया। परिवार दुखी बना दिया गया। बच्चे चिन्दियों पर रखे गये और पत्नी ने एक के बाद एक गहने बेचने शुरू किये। सचमुच वे बड़े भीषण दिन थे। शहर की कुछ औरतों पर उसके जीवन की बहुमूल्य बचत बर्बाद कर दी गयी। इसके अलावा...। नहीं, वे अब आगे याद नहीं कर सकते। अब वह दुखी विचार उनके होठों पर आ विराजा। पियक्कड़ पहलवान को मन्दिर में क्यों जाना चाहिए... और क्यों रास-नृत्यकार वही मधुर गन्ध वाली इत्र की सुगन्ध फैलाते हैं, जो उनकी पुरानी स्मृतियों को जगाता और उन्हें आन्दोलित कर देता है।

ठाकुर साहब देश के विभाजन की भयंकर घटनाओं की स्मृति से विचलित हो गये। ये स्वप्निल पिछली यादें मिलती-सी दिखती थीं। उस ध्वनि जैसी, जो घोड़े द्वारा खींचे जाने वाले ताँगे से आती है, जब उसका चक्र डामर बिछी सड़क से रगड़ खायी आवाज की वह कल्पना वह करते हैं। ठाकुर साहब का सिर नीचे झुक जाता है और उनके दोनों घुटनों के बीच आकर टिक जाता है। यह मुश्किल से ही होता है कि एक अकेली ध्वनि किसी आदमी के दिमाग में उसके अतीत को इस कदर स्पष्ट रूप जाग्रत कर दे।

देश के विभाजन के समय ठाकुर साहब एक सीमेंट कम्पनी में काम करते थे। अजीब तरीके से वे कल्पना करते हैं। वे धूल भरे सीमेंट के कण साफ सफेद कपड़े पर जम जाते हैं और उनका पीछा करते हैं। सीमेंट की धूल जमा वह कपड़ा कफन जैसा लगता है। तत्क्षण उनका सिर उनके घुटनों के बीच निश्चित रूप से झुक जाता है। वे अकेले ही इस महान संकटपूर्ण घड़ी के शिकार नहीं हैं। उच्च एवं शक्तिशाली भी गिरते हैं और इनमें केवल कुछ नहीं हैं और न ही यह कोई अकेली कहानी है। महान अधिपतियों की ऊँचाइयों से पतन की कहानी।

युवा युवराज दामोदर का मामला भी ठाकुर साहब के दिमाग में आया। दामोदर झाँसी की गद्दी का सच्चा वारिस था। दामोदर, जो लक्ष्मीबाई का दत्तक पुत्र था। बेचारी आत्मा। अपने बचपन में कैसे वह प्रभु राम का नाम लिखे हुए कागज के छोटे-छोटे टुकड़ों वाले कैपसूल तलैया में पाली गयी मछलियों को खिलाया करता था। उन्हें अनुकूल बनाने के लिए वह आटे की गाढ़ी लुगदी लगाया करता था। किन्तु केवल एक साल के लिए वह लाल झंडा, जो यक्ष की पूँछ के गुच्छे का चिह्न धारण किये हुए था झाँसी के किले पर फहराया। केवल एक वर्ष के लिए। फिर आक्रमणकारी अँग्रेजों के द्वारा फाड़ दिया गया। फिर दामोदर कहाँ खो गया? दामोदर देश का राजा हो सकता था। लक्ष्मण राव, दामोदर का पुत्र अभी भी इन्दौर के इमली बाजार में नंगे पाँव चलते हुए और तार-तार हुई बंडी पहने हुए देखा जा सकता है। लक्ष्मण राव की कल्पना ठाकुर साहब को हँसाने लगती है। उसी समय वे महसूस करते हैं कि आँखों के नीचे की झुर्रीदार चमड़ी नम हो गयी है।

लगता है उस धूल भरी सीमेंट का जमाव एक सफेद कपड़े के टुकड़े में परिवर्तित होकर दिन-रात ठाकुर साहब का पीछा करता है। क्या दामोदर का भी ऐसा ही अनुभव है?-ठाकुर साहब ने अपने आप से पूछा।

फिर एक बार उस बूढ़े आदमी का सिर झुक गया और उसके दोनों घुटनों के बीच जा टिका। उसने दोनों हाथों से अपनी लाठी कसकर पकड़ी। उसे नहीं मालूम था कि कितने समय तक वह अर्धचेतन स्थिति में था। फिर अचानक एक जोरदार शोर ने उन्हें जगा दिया। उन्होंने महसूस किया कि लोगों का एक पागल झुंड उनकी ओर आ रहा है। अपने कानों में शोर को घुसते हुए उन्होंने सुना-तुम्हारी पत्नी घर से गायब हो गयी हैं। क्या तुम उन्हें नहीं खोजोगे? ठाकुर साहब ने अपनी लाठी को और अधिक कसकर पकड़ लिया। फिर यत्न के साथ अपने नीचे झुके सिर को ऊपर उठाया और खतरे की चीख निकली-क्या हुआ, कहाँ हुआ, क्या कहते हो तुम?

कुछ बूढ़े राधेश्यामियों ने उन्हें देखा और झिड़कियाँ दीं। उन्होंने कहा, 'लम्बे समय तक यहाँ आलस में गुजारने की जगह तुम्हें अपनी पत्नी पर नजर रखनी थी। तुम्हारी आँखें चली गयीं, पर तुम्हारे हाथ-पैर तो सही-सलामत हैं। तुम उसे बाहर जाने से रोक सकते थे। वह बेचारी तुम्हारी बेटी अपनी माँ के लिए कितनी निराश-सी दिखाई दे रही है!'

भीड़ से कोई चिल्लाया, 'अन्धे बूढ़े व्यक्ति के पास खड़े होने से कोई लाभ नहीं। मैं सोचता हूँ, वह बूढ़ी महिला मौनी बाबा के देवालय की ओर गयी है। किसी बदमाश ने महन्त के हाथी को भाँग के गोले खिला दिये हैं और जानवर नशे में हो गया है। कल रात महन्त मुश्किल से ही मुरलीधर के सम्मान में निकले जुलूस में उसे नियंत्रित कर पाया।' ऐसा कहते हुए उस आदमी ने अपनी लाठी को कठोर धरती पर पटका और खोज में लगे लोगों से जा मिला।

ठाकुर साहब ने महसूस किया कि उनका गला पूरा सूख गया है। एक बार फिर उनका सिर झुक गया, घुटनों से जा लगा।

बातें उनके सामने बिल्कुल साफ हो गयीं। मन्दिर में थोड़ी-बहुत बिक्री होती है। मृणालिनी उसे चालाक दावेदार से बचा रखती है। जगप्रसिद्ध दानव के समान आने वाले समय में हम तीनों के लिए सांसारिक क्रियाकर्म के लिए। मन्दिर न्यास से प्रति माह मिलने वाले बीस रुपये, थोड़ी-सी भिक्षा और भिक्षाघर से एकत्रित किये गये रूखी-सूखी रोटी के टुकड़ों पर वे जीवित रह रहे हैं। स्वाभाविक है कि भूख की मार को बर्दाश्त करने में असमर्थ वह बेचारी औरत भोजन की तलाश में बाहर गयी होगी। उस बूढ़े आदमी ने यह नौबत क्यों आने दी?

एक बार उस बूढ़े आदमी ने फिर वही शोरगुल सुना-लाठियों का पटकना, जूतों का जोर से पटकना, और शोर-शराबा। खोजी दल लौट आया। वह बुरी तरह काँप उठे और अपने पास की सारी ताकत के साथ अपनी लाठी से अपने वक्षस्थल को दबा लिया।

फिर उन्होंने मृणालिनी को पूरी ताकत के साथ चिल्लाते सुना-वहाँ जमा लोगों को सम्बोधित करते हुए उसने कहा, 'वह अन्धा बूढ़ा ही इस पूरी यातना की जड़ है। उसने हम सबको बर्बाद कर दिया है। अपने जीवन भर उसने हमें आधापेट खिलाया और अपनी कमाई का अधिकांश भाँग पीने में लगा दिया, फिर उसे इस जगह पर पहुँचा दिया गया।'

मृणालिनी ने अपने पिता के विरुद्ध भर्त्सना के शब्द उगलना बन्द कर दिया। अपने ब्लाउज का एक भाग फाड़ दिया और हिम से भी बहुत अधिक श्वेत वक्षस्थल को राधेश्यामी के सामने उघाड़ कर चिल्लायी, 'तुम बताओ, क्या मैं माँ नहीं बन सकती थी? क्या मैं एक शिशु को जन्म नहीं दे सकती थी? मुझे क्यों मजबूर कर दिया गया कि मैं सारा जीवन और कुछ न करके इन दो प्रेतों की रक्षा करती रहूँ? क्या तुममें से किसी ने मेरे जैसा सुख भोगा है? तुम, जो झोपड़ों में गरीबी और भुखमरी में अपना सारा जीवन जी रही हो, मेरी जैसी परिस्थिति का तुमने सामना किया है? तुममें से कोई?

एक राधेश्यामी ने, जिसने अपने साथियों से अन्तिम संस्कारों के लिए भी कुछ पैसा मार लिया था, मृणालिनी के पास आयी और नरमी से उसे बताया, 'अपने कपड़ों को व्यवस्थित करो, तुमने बहुत बड़ा बलिदान किया है। तुमने बड़ी प्रशंसा पायी है। वे अब लम्बा नहीं जिएँगे। उनका अन्तिम संस्कार करो और तुम स्वतन्त्र हो जाओगी।'

दूसरे राधेश्यामी ने कहा, 'मूढ़ के लिए अधिक बचाने का क्या फायदा है। मैंने सुना कि तुमने सारा जीवन उनकी देखभाल की। अब तुम अपने हाथ झाड़ अपने आप आनन्द करो। यही क्षण है।'

मुरलीधर के मन्दिर की घंटियाँ बजने लगीं। फिर एक बार आगे बढ़ती हुई एवं जमीन पर लाठियाँ पटकती हुई भीड़ की आवाज आने लगी। एक राक्षस-से पंडे ने उस वृद्धा को बालों से पकड़ कर करीब-करीब घसीट डाला और मृणालिनी के सामने धक्का दिया। वह उसकी माँ थी।

उस आदमी ने घोषणा की, 'वह गौशाला के पास उस हौज पर पानी की एक बूँद के लिए देखते हुए पायी गयी। शायद लम्बे समय से वह प्यासी है।'

ऐसा कहते हुए उस पंडे ने बुरी तरह ठहाका लगाया। राधेश्यामी भी उसमें शामिल हो गयी। वह हँसने से ज्यादा टरटराती सुनाई दे रही थी। मृणालिनी ने अपनी माँ का हाथ पकड़ा और ऊपर की घेरी माँद की सीढ़ियों की ओर ले गयी।

अँधेरे में भी मृणालिनी को सीढ़ियों का पता लगाने में कोई कठिनाई नहीं हुई। क्योंकि वह अँधेरे में आसपास की जगह से बखूबी परिचित थी। उस परिवार के लिए प्रकाश और अन्धकार के बीच किसी अन्तर की उपस्थिति व्यावहारिक रूप में नहीं रह गयी थी।

अत: हाथ पकड़ कर मृणालिनी अपनी माँ को ले गयी। वह उन अँधेरी सीढ़ियों को पार कर रही थी।

मन्दिर के फाटक पर अब सब कुछ शान्त था। राधेश्यामी के छोटी-छोटी बातों पर के झगड़े खत्म हो चुके थे। मरघट-सी नीरवता उस जगह पर उतर आयी थी। वह बदनसीब बूढ़ा पहले-सा शान्त बैठा रहा। उपेक्षित, नितान्त अकेला। जब-तब यमुना को पार कर आने वाली हवा का झोंका उसके दुबले-पतले शरीर से टकराता था। उसने पतली-सी बंडी मात्र पहन रखी थी।

बहुत बार वह काँप रहा था। किसी ने उसे ऊपरी मंजिल पर ले जाने का नहीं सोचा। बिना सहायता के वह हिल नहीं सकता था। अँधेरा बढ़ता गया और रात आ पहुँची। निस्सहाय, अपने हाथों में लाठी रख उसने सीढ़ियों पर पैर रखा। उसने सोचा, और वहीं लेट गया, ठीक सड़क के उस पार के दोनों छोटे अनाथों जैसा।

अपनी स्थिति के लिए उसने अपना हाथ उस स्थान का पता लगाने के लिए फैलाया। उसने महसूस किया कि सीढ़ी सँकरी और खुरदरी है। फैलने की छोड़ो, वह वहाँ बैठ भी नहीं सकता था। उसने बहुत अधिक परेशानी महसूस की। लगा, तीखी ठंडी हवा उसके मांस को चीर देगी। और अब रात में काफी देर हो गयी थी।

वह वहाँ बैठे-बैठे कुछ आश्चर्य के घटने और दुर्दशा से अपनी रक्षा होती सोच कर ऊँघने लगा। फिर चौंककर वह जाग उठा, क्योंकि उसने महसूस किया मानो उसके बाजू में कोई खड़ा हुआ है। चिन्तित हो उसने प्रश्न किया, 'वहाँ कौन है? तुम कौन हो?' उस अजनबी ने कहा, 'मुझे तुम्हारे झोपड़े तक ले चलने दो। उस सड़क पर शाम को मैं तीन बार गुजर चुका हूँ। और तीनों बार मैंने तुम्हें यहाँ बैठे देखा है। मुझे मालूम है कि आज तुम्हें मदद करने के लिए कोई नहीं है।'

'पर बेटे, तुम हो कौन, जो देवदूत-से इस अँधेरी रात में मेरे बाजू में खड़े हो?'

उस अजनबी, छोटे लड़के ने कोई जवाब नहीं दिया।

'दीपक के प्रकाश-सा तुम्हारा दिमाग प्रकाशित है। किन्तु तुम अँधेरे में काम करते हो। अजीब बात है,' ठाकुर साहब ने कहा और अचानक अपने पैरों पर खड़े हो गये। उनके घुटनों के जोड़ चटक उठे। उन्होंने अपने हाथ फैलाये ताकि वे उस लड़के के कन्धों तक आधार के लिए पहुँचें, ताकि कन्धों की जगह उसके गालों को छू सकें और तत्क्षण वह बूढ़ा आदमी यह पाकर चौंका कि लड़का रो रहा है।

'मेरे बेटे, तुम रो रहे हो! मेरी उँगलियाँ तुम्हारे आँसू से गीली हो गयी हैं। किन्तु तुम्हें रोना क्यों पड़ा? तुम्हारा दु:ख क्या है? बेटे, तुम सब कुछ मुझे बताओ!'

'मैं सब कुछ नहीं बता सकता।'

'क्यों?'

लड़के ने कहा, 'बूढ़ा आदमी देर रात तक अकेला बैठा हुआ था, इसने मुझे बहुत पीड़ा पहुँचायी।'

उस लड़के के उत्तर ने ठाकुर साहब को विचलित कर दिया। काँपते हाथों से उन्होंने लड़के के चेहरे और कन्धों को टटोलना शुरू कर दिया। और कहा, 'मेरे छोटे दोस्त, सुनो, अब मैं ऐसी स्थिति पर पहुँच गया हूँ कि कभी भी मैं अपने को छोटा बालक समझने लगता हूँ, जो अपने दादा के मन्दिर के पुजारी की गोद में उछल-कूद कर रहा है। मेरा शरीर अब समय के द्वारा बनाया गया टूटा-फूटा घर है। ये दुख वास्तविकताएँ हैं मेरे बच्चे, पर ये बड़ी कीमती हैं। प्रत्येक के पास वे आती हैं। किन्तु जीवन में देर से आती हैं। वे हमारे दुखों को हल्का-भारी बनाती हैं। पर वे बहुत उपयोगी हैं।'

लड़के ने मौन रहकर, जो कुछ बूढ़े आदमी ने बड़बड़ाया, सुना। वह काफी छोटा था, उसमें इतनी दृष्टि नहीं थी कि वह जीवन के गूढ़ बिन्दुओं की व्याख्या कर सके। किन्तु उसकी संवेदनशील आत्मा थी। उसने बूढ़े आदमी के लिए दया का अनुभव किया और कहा, 'अब समय बर्बाद न करें। देर हो रही है। मेरे साथ आओ।'

दोनों सीढ़ियाँ चढ़ने लगे। लम्बे कदम सावधानी से रखते हुए। जैसे ही वे ऊपर की पतली सीढ़ी पर पहुँचे, बूढ़े आदमी ने कहा, 'मेरे प्रिय, तुम्हें आशीर्वाद देता हूँ। तुम्हारे पास हमेशा ऐसा हृदय हो, जो दूसरों के लिए रो सके। मैं एक जर्जर बूढ़ा आदमी हूँ। पर मैं तुम्हें जो बता रहा हूँ, वह झूठ नहीं है। हो सकता है यदि तुम जीवन में उस राह पर चलो, जिसे मैंने दिखाया है, तो बाद में तुम्हें कभी पछताना नहीं पड़ेगा। तुम फिर महसूस करोगे कि तुम ब्रज के प्रभु के साथ ही हो। उन दो हजार राधेश्यामियों-सा उस परम पवित्र की उपस्थिति के आनन्द में मग्न हो जाओगे। अत: आगे बढ़ो, मेरे पुत्र। सावधानी बरतो। सीढ़ियाँ सँकरी फिसलन भरी हैं और काई से पटी। अत: राधेश्यामी मुझे नीचे ले जाने की इच्छुक नहीं होती थीं। मकान का बूढ़ा मालिक शायद यह देख नहीं पाया कि उसके बाद आने वाले किसी के लिए ये सीढ़ियाँ बहुत अधिक आवश्यक हो सकती हैं।'

सुरक्षित उन्होंने सीढ़ियाँ चढ़ लीं। आखिरी सीढ़ी पर खड़े होकर ठाकुर साहब ने अपना हाथ बालक के सिर पर रखा और बिल्कुल फुसफुसाते हुए कहा, 'जो भी दुखी है, उन सबके साथ तुम्हारी सहानुभूति हो।'

पर अचानक ठाकुर साहब को एक असाधारण अनुभव हुआ। उन्होंने अनुभव किया कि एक पवित्र प्रकाश उनकी आँखों के सामने कौंधा-एक रहस्यपूर्ण प्रकाश।

फिर उस बूढ़े आदमी ने लड़के से कहा, 'मुझे एक इच्छा पूरी करनी है। मुझे पक्का मालूम है कि जो देवदूत-सा इस अँधेरी रात में आया है, वह उस अनुभव को प्राप्त करने में मेरी मदद करने में सक्षम है। बताओ तुम मदद करोगे?'

'निश्चित, यदि मेरी शक्ति के भीतर हो।'

'रघुनाथ प्रभु का रथ उत्सव होने को है। तुम मुझे उसकी एक झलक पाने में सहायता करोगे।'

'खुशी से, मैं पूरे समय तुम्हारे साथ रहूँगा।' अँधेरे में भी उस लड़के ने उस बूढ़े आदमी के होंठों पर आयी मुस्कुराहट को देखा। उसे यह भान भी नहीं था कि किसी आदमी की मुस्कुराहट इतनी हृदय जीतने वाली हो सकती थी। ठाकुर साहब अन्धे थे। वे उस उत्सव के शोर और कोलाहल के सिवाय और किसका आनन्द उठा सकते थे। पर यह सब कुछ, उस लड़के के पास इतना हृदय नहीं था कि उस बूढ़े के सामने रख सके।

'सचमुच तुम्हें बहुत धन्यवाद, अब मैं अपने आपकी मदद कर सकता हूँ। केवल मेरी प्रार्थना को मन में रखना।'

फिर अपनी लाठी से रास्ता खोजते हुए ठाकुर साहब ने कमरे के अपने कबूतर खाने में प्रवेश किया। मानो कोई जीवित प्रेत अपने ताबूत से उठा हो और कुछ समय तक बाहर घूमने-फिरने के बाद फिर अपनी कब्र में प्रवेश कर गया हो।