नीलकंठ / मोहम्मद अरशद ख़ान
मैं नीम का पेड़ हूँ। इस कॉलोनी में बरसों से चुपचाप खड़ा हूँ। किससे बात करूँ? कौन समझेगा मेरा दुख? मैं हमेशा से ऐसा चुप नहीं रहता था। ख़ूब खिलखिलाता था। हवाओं से चुहल करता था, सावन की रिमझिम फुहारों में झूमकर गाता था। कभी कंधों पर बुलबुल आकर बैठती थी, कभी कोयल तान छेड़ती थी। कभी मधुमक्खियाँ मिलकर सरगम छेड़ा करती थीं। मुझे पुलकित देखकर ईसुरी दादा कितने ख़ुश होते थे। हाँ, उन्होंने ही तो मुझे रोपा था। कितना नन्हा-सा था मैं। इतना कि बच्चों की दौड़-भाग में या जानवरों के पैरों के नीचे आकर कुचल जाने का डर था। दादा ने मेरे चारों ओर ईंटों का घेरा बाँध दिया था। कुछ दिनों बाद शरारती बच्चे खेल-खेल में ईंटें उठा ले गए। पर तब तक मेरे शरीर में इतनी ताकत आ चुकी थी कि वातावरण से संघर्ष करके आगे बढ़ सकूँ। आस-पास खड़े जामुन दादा और दूसरे संगी-साथी भी मुझे हौसला बँधाया करते थे।
यहीं सामने ही तो रहते थे ईसुरी दादा। खपरैलों से ढके बड़े-से घर में। कहने को तो उनका कोई नहीं था, पर सारी दुनिया उनकी थी। जाने कितने पक्षी आते थे उनके आँगन में। कुत्तों को जब तक खाना नहीं मिल जाता था, पंजों से दरवाज़े बजाया करते थे। छुट्टा गाएँ रोज़ सुबह उनके दुआरे आकर खड़ी हो जाती थीं। बंदर भी कितने आया करते थे।
दादा मुझे रोज़ नहलाया करते थे। मैं नन्हा-सा था। जरा-सी धूप में शरीर कुम्हलाने लगता था। पत्तियों पर धूल जम जाने से साँस घुटने लगती थी। मुझे पस्त देखकर दादा मुझ पर काँसे की लुटिया में ताज़ा पानी लाकर छिड़क जाया करते थे। सच इतनी राहत और इतनी ख़ुशी मिलती थी कि बता नहीं सकता।
और उधर मैदान के उस पार राधा दीदी भी तो रहती थीं। कितना मीठा था उनका गला। जब सावन अपने ऊदे-जामुनी बादलों से पूरा आसमान घेर लेता था, रिमझिम फुहारें कास के भुओं की तरह झरने लगती थीं तो मेरी डालों पर झूले पड़ जाते थे। ऊँची-ऊँची पींगों से झूला आसमान को छूता था। राधा दीदी सखियों के साथ मिलकर कजरी गातीं थीं। उनके साथ-साथ मैं भी गाता था। मैं ही क्या, हवाएँ भी गाती थीं। पंछी भी गाते थे। जैसे सारी दुनिया गाती थी। हालाँकि मोटे रस्सों की रगड़ और झूले के हिचकोलों से मेरा रोम-रोम खिंच जाता था। जड़ों तक दर्द की लहर चिलक उठती थी। पर सबको ख़ुश देखकर मुझे दर्द का एहसास तक नहीं होता था।
फिर एक दिन राधा दीदी बिदा होकर चली गईं, कलकत्ता। एक बार गईं तो फिर नहीं लौटीं। माँ-बाप थे नहीं। चाचा ने ही पाला-पोसकर बड़ा किया था। चाची कर्कशा थीं। बात-बात पर चिल्लाया करती थीं। घर का सारा काम करातीं और उलाहने भी देतीं। न खाने को अच्छा देती थीं, न पहनने को। चाचा तो दीदी को बेटी की तरह मानते थे, अकेले में गले लगाकर रोते थे। पर चाची के आगे मजबूर थे। फिर एक दिन कलकत्ते में मजदूरी करनेवाले एक लड़के से उनका ब्याह कर दिया गया। लड़का गरीब था, लेकिन भले दिल का था। हाँ, मैंने उसे देखा था। बारात वाले दिन मेरे ही नीचे उसका तखत लगाया गया था। ग़रीबी से उसका चेहरा भले मलिन हो गया था, पर था वह सुंदर। मुझे उम्मीद है दीदी उसके साथ बहुत ख़ुश होगी। दीदी शादी से पहले आख़िर बार मुझसे मिलने आई थीं। कैसे भूल सकता हूँ वह काली घनघोर रात। आसमान बादलों से अँटा हुआ था। रह-रहकर बिजली चमक रही थी। हल्की टिप-टिप और उमस से सारा वातावरण उदासी से भरा हुआ था। उस अंधेरी रात में दीदी चुपचाप आईं और मेरे तने से लिपटकर रोने लगीं। आह! उनकी सिसकियों से कैसा भीगा-भीगा-सा गीत फूट रहा था--
बाबा निमिया के पेड़ जिनि काटेउ,
निमिया चिरइया के बसेर, बलइया लेऊ बीरन की।
हो मोरे बाबा सगरी बिटैवा जैहैं सासुरि
रहि जाई माई अकेल, बलइया लेऊ बीरन की।
हो मोरे बाबा, बिटिया के दुख जिनि देहु
बिटिया चिरइया की नाई, बलइया लेऊ बीरन की।
आह! मेरा हृदय टुकड़े-टुकड़े हो गया। आज भी याद करता हूँ तो कहीं बहुत गहरे टीस-सी उठती है। हे, भगवान, दीदी जहाँ भी हो ख़ुश हो।
...और फिर दीदी चली गई। गई तो वापस कभी न लौटीं। लौटती भी तो किसके लिए? कौन इंतज़ार कर रहा था उनका? दीदी के जाने के कुछ दिनों बाद चाचा-चाची भी घर बेचकर चले गए। फिर उनके बाद ईसुरी दादा भी चले गए। धीरे-धीरे बाक़ी लोग भी चले गए क्योंकि यह पूरा इलाक़ा किसी बड़े आदमी ने ख़रीद लिया था, कॉलोनी बनाने के लिए।
धीरे-धीरे पुराने घर तोड़ दिए गए। हरियाली ख़त्म कर दी गई। पेड़-पौधे काट दिए गए और उनकी जगह ईंटों के जंगल उगने लगे। मैं सहाय साहब की ज़मीन में था, इसलिए बचा रहा। वह दिल्ली में नौकरी करते थे। ज़मीन यह सोचकर खरीदी थी कि दाम ज़्यादा मिलने पर बेच देंगे। लेकिन जाने क्या हुआ कि बहुत खरीदार आए पर उन्होंने ज़मीन न बेची। अब नौकरी से रिटायर होने के बाद उन्होंने यहीं बसने का इरादा कर लिया है। वह बस रहे हैं और मैं उजड़ रहा हूँ। अच्छा ही है। वैसे भी जीवन से मुझे कोई मोह नहीं रहा। लोगों को भी शायद मेरी ज़रूरत नहीं रही। उन्हें लगता है मैं सूखी पत्तियाँ बिखराकर गंदगी फैलाता हूँ। मेरी डालों पर बसेरा लेनेवाले कौए शोर मचाते हैं। मेरे सड़े फलों पर मक्खियाँ भिनभिनाकर बीमारी को दावत देती हैं।
कुछ दिनों पहले एक बूढ़ा आदमी आया करता था। सुबह-सुबह आकर दातूनें तोड़कर ले जाता था। वह गरीब बेचारा प्लेटफार्म पर दातूनें बेचकर अपना पेट भरता था। एक दिन जब वह मेरी डालों पर चढ़ा हुआ था, तो कॉलोनी वालों ने उसे ख़ूब डाँटा। ऐसा डपटा कि डर के मारे उसकी घिग्घी बँध गई। उस दिन के बाद वह दोबारा इधर नहीं आया। उसका दोष सिर्फ़ इतना था कि वह गरीब था। बत्रा जी कह रहे थे, ‘खूब जानता हूँ ऐसे लोगों को। इसी तरह किसी बहाने से कालोनियों में घुसते हैं और वहाँ का सारा भेद लेकर हाथ साफ़ कर देते हैं।’
मुझे बड़ा दुख हुआ। पर मैं कर भी क्या सकता था। किससे कहता? कौन समझता मुझे? सब लोग ईसुरी दादा तो नहीं हो सकते न? पहले गरमी के दिनों में जब पूनम का चांद आसमान में चढ़ता था तो ईसुरी दादा मेरे तने का सहारा लेकर बैठते थे और मुझसे ढेर सारी बातें करते थे। दुनिया की, जहान की, अपनी। मैं उनकी समझता था, वह मेरी समझते थे।
दो दिन पहले की बात बताऊँ। सामने रहनेवाले खान साहब कह रहे थे मेरे होने से उन्हें बहुत परेशानी है। मेरी ही वजह से कॉलोनी में बंदर आते हैं। उन्हें छिपने की जगह मिलती है। बंदर रोज़ उनका डिश एँटिना हिला जाते हैं। एक दिन गुप्ता जी भी कह रहे थे मेरी वजह से उनका घर असुरक्षित है। दिन में घर पर बच्चे अकेले रहते है। कोई भी मेरी डालों के सहारे उनके घर में उतर सकता है। सच ही तो कह रहे थे। मेरी डालें उनकी दीवार पर रखी हुई-सी हैं। मुझे ख़ुद दिन-रात उनके घर की चिंता लगी रहती थी। पर अब क्या है। अब तो हमेशा-हमेशा के लिए सबकी परेशानियाँ ख़त्म होने को हैं। सहाय अंकल ने मुझे कटवाने की अर्जी दे दी है। बस अब दो ही चार दिनों का मेहमान हूँ।
मुझे अपनी चिंता नहीं है। मेरा तो मन भी अब यहाँ नहीं लगता। दीमकों ने ख़ाकर अंदर ही अंदर खोखला कर दिया है। इतनी भी ताकत नहीं बची है कि आंधी का झोंका सह सकूँ। अच्छा है गिरकर किसी के घर को नुक़सान पहुँचाने से पहले काट दिया जाऊँ। थोड़ा-सा दर्द ही तो होगा। वैसे भी दर्द को सहने की आदत डाल ली है, मैंने। कितना कुछ अपनी आँखों के सामने बनते-बिगड़ते देखा है। मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं। बस फ़िक्र इस बात की है कि मेरी डालों पर कौए ने जो घोसला बना रखा है, उसका क्या होगा। कोटरों में दो मिट्ठू रहते हैं, वे कहाँ जाएँगे। पूरा दिन चिक-चिक करती दौड़ लगानेवाली गिलहरी क्या करेगी? उन नन्हीं चीटियों का क्या होगा, जिन्होंने मेरी जड़ों में अपनी बिलें बना रखी हैं? हवाओं के साथ हौले-हौले बसंत उतरेगा तो लोगों को ख़बर कैसे होगी?
ईसुरी दादा ने मेरा नाम नीलकंठ रखा था। कहते थे कि भगवान नीलकंठ ने संसार को बचाने के लिए सागर से निकला सारा विष ख़ुद पी लिया था, मैं भी वातावरण का विष पीकर सबको शुद्ध हवा देता हूँ। मैं अब यही सोच-सोचकर हैरान हूँ कि अगर पेड़ कटते गए तो धरती का क्या होगा। हम लोग कितना मनौवल करके बादलों को बरसने के लिए राजी करते हैं। हाथ जोड़कर धूप में झुलसते रहते हैं। समंदर तक हवाओं के संदेशे भेजते हैं। तब कहीं उनकी नींद टूटती है। अब कौन मनाकर लाएगा उन्हें। मैं चीख-चीखकर कह रहा हूँ कि हमें मत काटो। हम अपने लिए नहीं तुम्हारे लिए जीते आए हैं। पर क्या दुनिया समझेगी हमें?