नीलामी के लिये तैयार पूरा पहाड़ / भाष्कर उप्रेती
मुखपृष्ठ » | पत्रिकाओं की सूची » | पत्रिका: युगवाणी » | अंक: मई 2016 |
भाष्कर उप्रेती
नैनीताल का रामगढ़ ब्लॉक उत्तराखण्ड में निर्माण और तबाही का सबसे बड़ा उदाहरण है। कोई विकास का दीवाना चाहे तो इसे ‘उत्तराखण्ड टाइप का स्विटजरलैंड’ कह ले, लेकिन हकीकत ये है कि पूरे उत्तर भारत में अपने आड़ूओं के लिए ख्यात रहा रामगढ़ अपनी जमीन खोता जा रहा है। कहीं सलमान खुर्शीद ने 200 नाली जमीन ले ली है तो कहीं महर्षि ने उससे भी अधिक। पूर्व मुख्यमंत्री बी.सी. खण्डूड़ी के बेटे का बंगला भी बन रहा है और सतखोल का आधा पहाड़ ‘रामचंद्र मिशन’ वालों के खाते में है। मल्ला रामगढ़ तो पहले से ही सिंधिया परिवार के कब्जे में है। अभी कुछ दिन पहले शीतला के नीचे तल्ला छतोला में करीब 600 नाली जमीन एक बिल्डर ने खरीदी है। गाँव वाले बताते हैं कि इसमें 800 कॉटेज बन रहे हैं- जो अरुण जेटली, सुषमा स्वराज जैसे वी.आई.पीज. के लिए बुक हो चुके हैं। गाँव वालों के विरोध के बावजूद उनकी जमीन से वहाँ तक सड़क ले जायी गयी है। मशहूर शीतला स्टेट हेरीटेज भवन हरियाणा के एक सम्भ्रांत परिवार के पास है। प्युडा का डाक बंग्ला कोई पंजाबी सज्जन लीज पर चलाते हैं। श्यामखेत और गागर बहुत पहले हाथ से चला गया था। पास के ब्लॉक धारी में पूर्व राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा का परिवार भी एक पूरा पहाड़ कंक्रीट के जंगल से सजाये है। लगता है यहाँ से हिमालय का दिखना ही यहाँ के लोगों के लिए श्राप बन गया है। तल्ला रामगढ़, नथुआखान, ओड़ाखान, प्युडा, सिनौली, भ्याल गाँव, कफोड़ा, खेरदा, दनकन्या, हरिनगर, बड़ेत, चिन्खान, डेल्कुना, गड्गाँव, द्यारी, शीतला, मौना, ल्वेशाल, सरगाखेत, गगुवाचौड़ में हिमालय-दर्शन और सड़क किनारे की कोई जमीन नहीं बची। नव-उपनिवेश के चरण अब गहना तल्ला, देवद्वार, रीठा, दाड़िम तक भी जा पहुँचे हैं। कदम-कदम पर ‘लैंड फॉर सेल’ और ‘प्लाट फॉर सेल’ के होर्डिंग लगे हैं। मानो पूरा पहाड़ ही नीलामी के लिए तैयार कर दिया गया हो। विदित हो सम्पूर्ण भारतीय हिमालय में उत्तराखण्ड ही ऐसा एकमात्र राज्य है, जहाँ कोई भी और कितनी भी जमीन खरीद सकता है। अब ये नए जमाने के धनिक पहले यहाँ आकर बसे महादेवी वर्मा, अज्ञेय, राहुल सांकृत्यायन जैसे लेखकों और चिंतकों जैसे तो नहीं, जिनका स्थानीय समाज और उसके सरोकारों से नाता बने। इस जमाने के आगंतुक तो काले धन से भरी थैलियां लेकर आते हैं और 100 नाली, 200 नाली जमीन की माँग करते हैं, जितनी जमीन में पहाड़ का एक तोक बसा होता है। ऐसे लोगों को यहाँ लाते हैं स्थानीय नेता, ठेकेदार और प्रॉपर्टी डीलर, जिनके मुँह पर अपनी माटी के कमीशन का खून लग चुका है। संतों और साधुओं के लिए भी उत्तराखण्ड हमेशा से अपने आध्यात्मिक-अभ्यास की अनुकूल जगह रही है। जो नदी-जंगल की किसी शांत जगह पर अपनी कुटिया बनाते थे, लेकिन नए जमाने के साधू तो बड़े-बड़े रिसॉर्ट्स बनाने पर तुल गए हैं। बाबागीरी भ्रष्ट नेताओं, अधिकारियों और दूसरे गैर कानूनी धंधे करने वालों के काले धन के निवेश का बड़ा जरिया बन चुका है। जाहिर है धनी, समर्थ और सभ्य(?) लोग पहाड़ों पर अपने आशियाने बना रहे हैं। पहाड़ के मूल निवासी हल्द्वानी, रामनगर जैसी जगहों पर 100-200 गज की जमीन में ठिकाना तलाश रहे हैं। पहाड़ में बागवानी, खेती, पशुपालन पर भारी खतरा है। जो यहाँ बचे रह गए हैं वे या तो ऐसे लोग हैं जहाँ सड़कें नहीं पहुँची हैं या जिनके पास बेचने को जमीन है ही नहीं। हिमालय दर्शन वाली जगहें, सिमार यानी पानी की उपलब्धता वाली जगहें काबिल लोग कड़कड़े नोट दिखाकर झटक ले रहे हैं। ठेकेदारी से नेता बने लोगों की सारी राजनैतिक ताकत अब उन बची-खुची जगहों पर सड़क पहुँचाने में लग रही है, जहाँ जमीन बेचने का धंधा किया जा सकता हो। रामगढ़ ब्लॉक में अनुमान है कि अगले पांच साल में ऐसी सभी जगहें बिक जायेंगी, जो रहने लायक हैं। एक तरफ स्थानीय लोग बेहतर जीवन की आस में बाहर जा रहे हैं। उन्हें लगता है कि किसी होटल में बर्तन मांजकर, किसी फैक्ट्री में दो-चार हजार का काम पाकर या सिक्यूरिटी की वर्दी पहनकर वे अपनी नयी पीढ़ी का भविष्य सँवार सकेंगे। दूसरी ओर कहीं दूर देश में ऑनलाइन बुकिंग के जरिये कुछ लोग अपने रिसॉर्ट्स और होटलों से प्रतिदिन 30 से 50 हजार या इससे अधिक घर बैठे पा जा रहे हैं। उनके कमाने के रास्ते में पहाड़ बाधा नहीं है, बल्कि कल्पवृक्ष का पेड़ हो गया है। होटल और रिसॉर्ट्स वाले गाँव वालों का पानी अपने मजबूत पम्पों से सोख ले रहे हैं। हिमालय को अब उनके कमरों में लगे बड़े शीशों से ही देखा जा सकता है। उनके पास सूरज की ऊष्मा को सोखकर ऊर्जा पैदा करने वाले संयंत्र हैं। कुछ-कुछ उपनिवेशवादी सेब, आड़ू, खुबानी, चेरी और प्लम भी उगा रहे हैं और अपनी गाड़ियों में भरकर दिल्ली की मंडियों में बेच भी आ रहे हैं। उनके लिये यह भी मुनाफे का धंधा बन गया है। गाँव वालों के हिस्से वही पैकेट वाला दूध, वही हल्द्वानी से आने वाली सड़ी सब्जी और हर तरह का नकली माल है। क्या 1994 में गाँव की महिलाएँ और युवक इसी तरह के जमीन बेचू विकास के लिए सड़कों में उतरे थे? क्या गिर्दा का सपना- ‘धुर जंगल पूफल पूफलो, यस मुलुक बडूलो’ इसी उत्तराखण्ड के सृजन का सपना था? कोई आकर हिमालय का आनंद ले इसमें किसी को क्या आपत्ति हो सकती है? लेकिन कोई आकर यह कहे कि ‘ये मेरी जमीन है, बिना अनुमति प्रवेश वर्जित है’ तो दिल पे क्या गुजरेगी? कल के दिन हल्द्वानी-देहरादून की संकरी गलियों में बसे लोग अपने बच्चों को बताएँगे- ‘हाँ, कभी उस पहाड़ में हमारा भी एक गाँव था।’ चलिए मान लेते हैं जो जा सकते थे चले गए, उन्हें पहाड़ सूट नहीं करता होगा, लेकिन जो बचे रह गए हैं और कुछ भी कर लें जा नहीं सकेंगे, उनके बच्चों के लिए अच्छे स्कूल, अच्छी शिक्षा, अच्छे स्वास्थ्य और रोजगार की कोई आवाज अब कभी बन सकेगी क्या? कौन उठाएगा अब ये आवाज?