नीली हँसी / अज्ञेय

Gadya Kosh से
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देवकान्त ने एक बार फिर नीचे बहते हुए और ऊपर से बरसते हुए पानी की मिलन-रेखा पहचानने की कोशिश की। पर नीचे का मटमैला धुँधला आलोक, कब कहाँ ऊपर से भूरे धुँधले आलोक में परिवर्तित हो जाता था, यह पहचान पाना असम्भव था। पानी-पानी... केवल पैरों के बिलकुल निकट, जहाँ ब्रह्मपुत्र के बौराये हुए पानी ने अभी थोड़ी देर पहले किनारों के एक बड़े टुकड़े का निवाला बना लिया था, वह देख सकता था कि पानी की बौराहट मानो अन्तर्मुख होकर अपने को ही निगल जा रही थी - पानी चक्रावर्त घूमते हुए अपने को ही नीचे पाताल की ओर खींचते हुए बहते चले जाते थे... आवर्त के छोर को जो कुछ भी छूता - जलकुम्भी के बहते हुए पौधे, गली हुई टहनियाँ, पुराने छप्पर के काले पड़े हुए, बाँस, बाढ़ की दरी में बहकर आनेवाला नानाविध नमकीन कचरा - सब उसे छूते ही मानो आविष्ट हो जाता और बगूले के बीचों-बीच जाकर पाताल की ओर कूद पड़ता... दृष्टि भी तो उसे छूते ही मानो नीचे की ओर को चूस ली जाती है, तो ओर चीज़ों का क्या कहना...

थोड़ी देर स्थिर दृष्टि से बगूले को देखते रहने पर देवकान्त के शरीर में एक सिहरन-सी दौड़ गयी - उसकी देह कंटकित हो आयी। उसने फिर बलात् आँखें उठाकर उसकी ओर देखा जहाँ क्षितिज होना चाहिए। ठाकुर की एक पंक्ति उसकी स्मृति में उभरकर डूब गयी? : ‘रात्रि एशे जेथाय मेमे दिनेर परावारे’ - दिन और रात्रि तो इस निर्विशेष प्रकाश में पहचाने नहीं जाते, पर पारावार में पिस जाने का प्रत्यक्ष दृश्य इससे बढ़कर क्या हो सकता है...

लेकिन पिस जाने की बात ऐसे सोचने से काम नहीं चलेगा। नदी और सागर, दिन और रात, आकाश और धरातल, पानी और किनारा-ये उसे अलग-अलग पहचानने होंगे - इन्हें पृथक् करके ही वह उस काम में सफलता की आशा कर सकता है जिसे उसे उठाना ही है, असफलता का जोखिम उठाकर भी हाथ लगाना ही है - यद्यपि असफल उसे नहीं होना है - असफलता की गुंजाइश छोड़ सकने लायक़ गुंजाइश उसकी सहनशक्ति में नहीं है...

वह, वह-क्या वह क्षितिज-रेखा है - जल-रेखा है? क्या यह उसका भ्रम है कि ठीक वहाँ पर एक पतली-सी श्यामल रेखा भी वह देख सका है-द्वीप की तरु-पंक्तियों की रेखा? नहीं भ्रम की गुंजाइश नहीं है, आँखों को, हाथों को, जी को, किसी को भी चुकने की गुंजाइश नहीं है...

देवकान्त ने एक लम्बी साँस लेकर नाक के एक सिरे से दूसरे तक नज़र डाली, फिर उसकी रस्सी हाथ में लिए-लिए उसके किनारे पर चढ़े हुए हिस्से को ठेलते हुए, कूदकर उस पर सवार हो लिया। नाव थोड़ा-सा, काँपी, डगमगायी। फिर धार में पड़ते ही तीर की तरह एक ओर बढ़ चली... देवकान्त ने एक बार फिर पार के क्षितिज की ओर देखा, और स्थिर भाव से डांढ़ चलाने लगा। तनिक-सी देर में ही वह भी किनारे से दूर होकर इतना छोटा-सा दीखने लगा। मानो वह भी जल-कुम्भी का बहता हुआ एक पौधा हो - वह नहीं, समूची नाव एक छोटा-सा उन्मूलन पौधा हो, और वह उसका ऊब-डूब करता हुआ-सा नीला फूल, कोमल क्षणजीवी फूल, किन्तु जो जब तक है - सुन्दर है। मानो एक स्वतःसम्पूर्ण दुनिया है...

कहीं से हवा उठी। उससे पानी के ऊपर की धुन्ध मिटने लगी, वर्षा भी थम गयी, पानी स्पष्ट दीखने लगा। स्पष्ट किन्तु सम नहीं, बगूलों का स्थान उत्ताल तरंगों ने ले लिया था - पर ये छोटी-छोटी तरल पहाड़ियाँ न भी होतीं तो भी देवकान्त और उसकी नाव कब के ओझल हो चुके थे...

देश और काल का फैलाव वहीं सबसे अधिक होता है जहाँ उनका महत्त्व सबसे कम होता है -जब-जब जीवन में तनाव आता है और सारी प्राणशक्ति एक केन्द्र या बिन्दु में संचित होने लगती है, तब-तब देश-काल भी उसी अनुपात में सिमट आते हैं... देवकान्त नाव खे रहा है, उसके सामने, आगे-पीछे कहीं, उस क्षण के सिवा कुछ नहीं है जिसमें वह है और नाव खे रहा और मोहन की बड़ी-बड़ी काली आँखों की ओर जा रहा है - मोहन जो एक हिरन का छौना है जिसे नीलिमा ने उसे दिया था - किन्तु फिर भी उस क्षण में ही कई देश-काल संचित हो आये हैं - वह एक साथ ही कई स्थानों, कई कालों में जी रहा है, कई घटनाओं का घटक है...

द्वीप के आर-पार पत्थरों का ढेर लगाकर पटरी बनाई गयी है जिस पर से सड़क के पास ही नीची भूमि पर बाँस की एक बाढ़ है, जिसके भीतर कदली की घनी बाड़ है। देवकान्त बाहर बैठा बाँसुरी बजा रहा है। कदली के पत्तों के बीच में उसे कभी-कभी एक सफ़ेद आँचल की झलक मिल जाती है - नीलिमा भीतर फूल बीन रही है... वह वहीं रहती है, वहीं और लड़कियों के साथ पढ़ती है, वहीं से कभी बाहर वसन्तों के कूजन से भरा हुआ स्वर नाम-कीर्त्तन करता हुआ सुनाई दे जाया करता है, वहीं...

बाढ़ आती है तो द्वीप में पानी भर जाता है, उतरती है तो जगह-जगह खाल, बील, दिग्घी, ताल बनाकर छोड़ जाती है। निर्धन लोग बचने के लिए पेड़ों पर मचान बनाते हैं, सम्पन्न दो-एक व्यक्तियों ने बजरे रख छोड़े हैं, पानी उतर जाने पर किसी खाल-पोखर में खड़े रहते हैं। साधारण बाढ़ में यही जीवन-रक्षा के लिए यथेष्ट होते हैं - अधिक बाढ़ में उनका भी ठिकाना नहीं - पर ऐसी कौन-सी स्थिति है जिसमें किसी प्रकार भी कोई खतरा न हो... ऐसे ही एक बजरे की ओट में पोखर के किनारे उसका घर है। उसका पिता कुशल महावत है और हाथी को साधने में उसकी बराबरी सारे असम में कोई बिरला ही कर सकता है। और देवकान्त स्वयं एक मटकी दही की लेकर बजरे के नीचे से गुज़रता है - वह नाव में बैठा भी अपने को मटकी लिए जाता देख रहा है...

दो वर्ष बराबर बाढ़ आयी थी, द्वीप प्रायः नामशेष हो गया था। और अब वहाँ न जलाने को तेल था, न खाने को नमक - दोनों ही ‘चालानी’ आते थे... देवकान्त कदली के तने जलाकर उनकी राख मसल रहा है - इसी का खार उन्हें दुर्दिन में नमक का काम देता है... खार वह हँड़िया में भर लेगा - न जाने कितने दिन चलेगी वह। भोजन का धूमिल रंग मानो उसकी दृष्टि के आगे से दौड़ गया, और उसके कटु स्वाद से उसका मुँह कड़वा हो आया - वह थूककर मुँह साफ़ कर लेता पर उसे ध्यान आया कि कदली की अवज्ञा अनुचित है - जिसकी जड़ें, हाड़, छाल, फूल, फल सभी उपयोगी हैं और उनके भोजन-छाजन का सहारा है...

“देबू, यह लो!”

देवकान्त चौंककर देखता है। नीलिमा के वस्त्र उजले हैं, नेत्र काले, केश भीगे और डोर से झुलती एक छोटी-सी मुँह-बँधी हंड़िया उसकी ओर बढ़ा रही है।

“यह क्या है, नीली?”

“नमक। हमारे पास एक हांड़ी और है। बिहू तक चल जाएगा।”

“लेकिन खार तो अच्छी होती है - हमने इतनी बना ली-”

“लो - बहस मत करो!” आज्ञापना।

“अच्छा, लाओ।” कुछ विनोद का भाव, “नीली, तो आज से हम तुम्हारा नमक खाएँगे-”

“धत्!”

ढोलकों का स्वर। खोल, मादल, झांझ, वेणु, घंटी। बीच-बीच में ऊँचा उठता समवेत गायन का स्वर।

देवकान्त दौड़ रहा है। विष्णुवोत्सव का आमोद-प्रमोद, और वह अभी पहुँचा नहीं - पिता ने उसे काम में रोक लिया था...

लड़कियों की खिलखिलाहट। पुआल की और पुआल के धुएँ की गन्ध; बूढ़ों के खाँसने में भी जैसे प्रसन्नता की मींड। गुड और खीलों का कसैला मीठा स्वाद। एकाएक पुआल की आग की एक भभकती लपट, उसके लाल प्रकाश में नीलिमा का दमकता चेहरा - उन आँखों में देवकान्त के शायद वैसे ही दमकते चेहरे की उभरती पहचान - क्या पुआल की आग में उसकी शतांश भी दीप्ति है जो क्षण-भर नीलिमा की आँखों में दमक उठती है?

झांझ, मजीरा, वेणु, खोल, मादल...

कुछ नहीं बचा है, केवल द्वीप के आर-पार की ऊँची पटरी और पेड़ों के ऊपरी हिस्से-उन पर मचान, पटरी के निकट तीन-चार बजरे... और पटरी पर अनगिनत ढोर-डांगर, कुछ कुत्ते, कहीं-कहीं दुबकते लोमड़ी-सियार, जगह-जगह अधमरे रेंगते साँप तीन-चार हाथी... और कभी-कभी दूर के एक टीले की हाथी-डूब घास में से आती हुई बाघ की चिंघाड़। और कुछ नहीं बचा है, लेकिन यही तो सब-कुछ है, इससे कम पर भी बार-बार उनका जीवन फिर भरा-पूरा हुआ है, बाढ़ उतरेगी तो फिर मादक गूँजेंगे और मृदंग गमक लेंगे और ऋतुस्नाता की भाँति कान्तिमान् द्वीप-भूमि मेमनों की मिमियाती हँसी से मुखरित हो उठेगी...

अब भी बजरे की ओट में देवकान्त है। पटरी के पार मचान के पास नीलिमा आती है -उसकी गोद में एक मृग का बच्चा है। किन्तु सुन्दर! देवकान्त ललककर कहता है, “यह कहाँ पाया?”

पर नीलिमा के स्वर में अप्रत्याशित गम्भीरता है - “इसे रखोगे?”

“क्यों-क्या बात है?”

“मचान में नहीं रह सकता। तुम अपने साथ पटरी पर रखो, या बजरे पर - वहाँ बच जाएगा।”

“पर पाया कहाँ?”

“पिता लाये थे। भटका हुआ मिला था। मैंने मोहन नाम रखा है।”

“सचमुच मोहन है। इतना प्यारा है! मैं ज़रूर पाल लूँगा - बचा लूँगा।”

फिर शरारत से, “पर फिर मैं लौटाऊँगा नहीं - मेरा हो जाएगा!”

“मैंने कुछ भी जो तुम्हें दिया है कभी वापस माँगा है?” स्वर शान्त है, लेकिन उमसें दबी हुई एक कँपकँपी है जिससे देवकान्त चौंक-सा जाता है, “आगे भी जो दूँगी, वापस नहीं माँगूगी।”

“नीलिमा-नीली?”

“तुम बचाकर रख सको सही।”

“नहीं, भूल नहीं हो सकती, इस बात का मोहन से कोई सम्बन्ध नहीं है...”

देवकान्त अवाक् उसे देखता है, उनके भीतर कहीं, कुछ आ उठता है - ब्रह्मपुत्र की बहाव की तरह मन्द्र-गम्भीर, मोहन की आँखों की तरह गहरा, गहरा, गहरा...

“नीली, यह देखो, देखो, क्या लाया!”

केवड़े का फूल है गमले में लिपटा हुआ। देवकान्त खोलकर उसे दे देता है।

“गन्ध तो कभी-कभी आती थी। कहाँ पर था? पटरी पर तो मैंने सब देखा था।”

“हाँ, देखा?” देवकान्त के स्वर में विजय का गर्व है। “पटरी पर नहीं था - ऐसी चीज़ें ज़रा मेहनत से मिलती हैं। उस झोंप के अन्दर-” कहते-कहते उसने टीले की ओर इशारा किया।

“झोंप - क्या कहा” - नीली का स्वर सहसा चीत्कार-सा बन गया; उस टीले की ओर से ही तो बाघ की दहाड़ सुनायी दी थी! हटो, मुझे नहीं चाहिए तुम्हारी केतकी-”

नीली ने फूल उसके हाथ पर पटक दिया, काँटे से उसका हाथ छिल गया, पर उससे बोला ही नहीं गया।

“हज़ार बार कहा, देबू, मुझे फूल नहीं चाहिए, मुझे तुम्हारी-” सहसा रुक कर उसने ओंठ काट लिया, उसका चेहरा लाल हो आया, “अच्छा लाओ दो-” कहकर उसने फूल झपट लिया और आँचल से उसे ढाँपती हुई भाग गयी।

डिबरूगढ़ का स्कूल। देवकान्त ने पढ़ाई पूरी कर ली है, और अभी स्कूल में मास्टरी शुरू की है। इतने छोटे मास्टर से उसने स्वयं कभी नहीं पढ़ा, पर प्रगति तो इसी का नाम है कि कल जो छत्तीस बरस के बुजुर्ग करते थे, आज अठारह बरस के जवान करें...

नीली की चिट्ठी। वे लोग द्वीप छोड़कर आनेवाले हैं। बाढ़ आ रही है, और सुना है कि इस साल डूब जाएगा - मोहन की उसे चिन्ता है - अगर सचमुच उतनी बाढ़ आयी तो पटरी पर जमा असंख्य जानवरों में उसकी कौन चिन्ता करेगा? वह सोच रही है कि उसके लिए पटरी पर ही एक छोटी-सी झोंपड़ी बना जाये, पर क्यों नहीं वह आकर उसे ले जाता? जल्दी आये तो नीली भी उसे देख लेगी - लेकिन अब बड़ा आदमी होकर क्या वह नीली को पहचानेगा भी? नहीं तो मोहन को तो वह ले जा ही सकेगा - स्कूल के मास्टर साहब तो लड़कों से ढोर चरवा लेते हैं, क्या मोहन की देख-भाल नहीं करा सकेगा?

देवकान्त चिट्ठी पर मोहर देखता है, तारीख पढ़ता है, मानो उँगलियों पर कुछ गिनने को होता है - और फिर हाथ ढीला छोड़ देता है...

झांझ, मंजीरा, ढोल मादन... पानी का घर्र-घर्र, सर-सर-सर-सर, छप्प-छप्प, छप्प-छाऽप, डांढ़ो का खट्ट-हुट, देवकान्त की अपनी साँसों का स्वर जो कानों के पास से सरसराते पवन के स्वर में डूबता नहीं क्योंकि अपनी साँस भीतर से सुनी जाती है, बाहरी कान से नहीं, और डांड़ों की विलम्बित लय पर अधीर उसके हृदय का द्रुत-धक्क-धुक्-धक्क-धुकु... और स्वरों में इस छोटी-सी गठरी के आस-पास चारों ओर मटमैला ललौहां रानी-पानी... पानी...

वह - वह-वह क्या भूमि की रेखा है? वह छाया-सी क्या पेड़ हैं?

मोहन-मोहन... क्योंकि नीली का नाम वह लेगा तो चंचल हो उठेगा, और चंचल उसे नहीं होना है, उसे धैर्य रखना है, जितना धैर्य उसने जीवन में कभी नहीं रखा उतना...

धैर्य का काम अभी शेष नहीं हुआ है। नाव पर मोहन उसके साथ है पर अब हवा सामने की है, और तेज है। और मोहन की चिन्ता के मिटने में जो अनेक नयी दुश्चिन्ताएँ उसे घेर रही हैं उनसे हारना नहीं है, नहीं है...

खट्ट-हुट्, खट्ट... हुट्... सर-सर-सर सर... छप्प-छाऽप... उद्वेलित पानी का प्रसार, हवा के थप्पड़ खाकर फुफकारती हुई लहरें, धुँधला पड़ता हुआ पहले ही से मेघिल साँझ का आकाश... ऊब-डूब नाव, डांड़ चलानेवाला अकेला देवकान्त - तैरता हुआ उन्मूलित जलकुम्भी का पौधा -पौधा नहीं, फूल-फूल की एक कलगी-नीली, जैसे मोहन की आँखें नीली-

नीली...

न, न, नीली का नाम उच्चारना नहीं होगा, उसे मन ही में रहने देना होगा... ऊब-डूब जलकुम्भी पौधा... लेकिन पौधा तो डूबता नहीं, मीलों बहता है, दिनों बहता है...

पंजिका में लिखा है, इस वर्ष का नाम है, ‘प्लव संवत्सर’-

ब्रह्मपुत्र... ब्रह्मा का पुत्र और मानव? वह भी ब्रह्म की सन्तान... तो क्या यह भ्रातृ-कलह है? खट्ट-हुट्-सोचना कुछ नहीं है, ब्रह्म का केवल एक पुत्र है और उसका नाम है देवकान्त, बाक़ी केवल तत्त्व हैं, जड़ तत्त्व जिनमें आदमी नष्ट होकर मिलता है - नीचे एक तत्त्व है पानी -नष्ट होकर क्या इनमें मिलना होगा! क्यों मिलना होगा - नष्ट ही क्यों होना होगा?

लहर आती है और जलकुम्भी के पौधे को उछाल कर फेंक देती है। वह डूबता नहीं, पर जाएगा कहाँ - दिनों और मीलों तक भी बहकर...

न - यह लहर नाव से बड़ी है, यह अँधेरा साँझ से गहरा है-

भूरा और शीतल, कठोर, डगमग, बिना पेंदी का अँधेरा, बाँह के नीचे स्निग्ध, मुट्ठी में गीला और कठैठा-

दिन और रात दोनों पारावार हैं, सारे क्षितिज आकार मिल जाते हैं, जलकुम्भी डूबती नहीं है, जलकुम्भी पानी का पौधा है, लकड़ी की नाव नहीं...

फिर देश-काल का संकुल। कौन-सा देश, कौन-सा काल, न जाने, पर घोर संकुल...

द्वीप पर केवल पटरी थी और पेड़ों के शिखर थे। और पशु थे।

मोहन था। अलग एक छोटे-से बाड़े में।

और कौन कहाँ था। पर काल का संकुल था, वह जान न सका। कहीं बजरा भी रहा होगा -लोग भी रहे होंगे...

नीली - नीलिमा?

वहाँ कोई नहीं था। वे बाढ़ के पहले चले गये होंगे। पर कब, कैसे? कहाँ?

नाव में - तो नाव बाढ़ में कहाँ गयी होगी?

नीलिमा – नीली - सागर-तल नीला होता है - पर नदी-तल तो उसने छुआ है, वहाँ तो नीलिमा नहीं, कीचड़ होता है या रेती, नीलिमा तो-

कहाँ है नीलिमा?

नीलिमा... नीलिमा... नहीं, मोहन - उसकी बाँह के नीचे है, मोहन को वह बचा लेगा। वह नहीं बचेगा तो? तो भी वह मोहन को बचा लेगा, उसकी दूसरी मुट्ठी में कठैठा कुछ है - क्या है? डांड तो उसके हाथ से छूट गयी थी-

कुछ भी हो, कुछ है। कठैठा है। वह जरूर ऊपर आएगा - वह छोड़ेगा नहीं - तुम बचाकर रख सको सही - आगे भी जो दूँगी वापस नहीं मागूँगी - मैंने कुछ भी जो तुम्हें दिया है कभी वापस माँगा है? न माँगा सही, मैं दूँगा, मैं दूँगा, नीली! क्या दोगे, प्राण ही तो न? हा, हा - तभी तो तुम कुछ नहीं दे सकोगे - कुछ नहीं सँभाल सकोगे...

नहीं - नहीं-नहीं... मोहन अब भी उसकी बाँह के नीचे है, दूसरे हाथ की मुट्ठी में अब भी कठैठा - वह उभरेगा, उभरेगा - यह पानी के नीचे ऐसी जलती प्यास कैसी - यह हवा की प्यास है, वह-उसकी मुट्ठी में कठैठा कुछ...

कितनी गहरी है नीलिमा आकाश की-उस आकाश की जो आँखों के भीतर समा जाता है, कितनी स्निग्ध है तरलता जल की - उस जल की जिसमें चेतना डूब जाती है, कितना सुन्दर है जलकुम्भी का खोया हुआ फूल, वह फूल जो जीवन का प्रतीक है, कितना रसमय, स्फूर्तिमय है विस्तार अवचेतन का...

वह नहीं जानता, किन्तु वह जानता है कि वह बार-बार किसी चीज से रगड़ खा जाता है -कुछ जो चिकना है पर छील भी देता है, जिससे दर्द नहीं होता पर ठंड की सुइयाँ चुभती हैं। उसे स्पर्श-ज्ञान नहीं है पर वह छूता है एक लोमिल त्वचा को जो मोहन है, और एक कठैठे कुछ को जो न जाने क्या है। उसके मुँह में पानी का एक बुलबुला है, पर न जाने कब कैसे एक फेफड़ों में क्या चला जाता है जो गीला नहीं है...

ये स्वर हैं। पानी के नहीं, नाव के नहीं, हवा के नहीं। स्वर हैं-

मानव-स्वर हैं। झिपते-उभरते, मानो रस-हीन।

“बाँह तो उठाओ... पकड़े... गला घोंट देगा... अकड़ गयी हैं... कपड़े में लपेटो... मलो... पानी... ऊँचा... वह... हिरन... पागल...”

हिरन... हिरन...

क्या हिरन? उफ़् कितना कठिन प्रयास है यह - क्या उसे बटोरना है-

सहसा उसकी आँखें खुल गयीं - उसे स्वयं नहीं मालूम हुआ - और उसने कहा, “मोहन-हिरन-”

किसी ने कहा,”हाँ, वह है - बच जाएगा-”

कौन बच जाएगा? मोहन? वह?

वह कौन? वह देवकान्त। पर वह तो बच गया है - नहीं तो वह देवकान्त कैसे है? सोचता कौन है?

उसने फिर रसहीन स्वर से कहा, “मोहन...”

उसकी आँखें झिप गयीं! नीलिमा ने फिर उसे घेर लिया। दूर कहीं सुना, “चिन्ता नहीं - बच जाएगा-” फिर सब कुछ बुझ गया।

मन-ही-मन उसने कहा, “नीली, मैं रख सकूँगा बचाकर,” पर जैसे उसका कहा उसी ने नहीं सुना। नीली तो बहुत दूर से, जैसे पानी के नीचे से, ब्रह्मपुत्र के अथाह पानी के नीचे से -”पागल-बेहोशी में हँसता है।”

“हाँ, तो हँसता तो है, नीली हँसी - सम्पृक्त हँसी - वह हँसी जो नीली थी - उसकी नीलिमा!

(दिल्ली, सितम्बर 1954)