नीले पानियों की शायराना हरारत - न्यूजीलैंड / संतोष श्रीवास्तव
सिडनी के किंग्सफोर्ड स्मिथ अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से अभी-अभी सिमरन जेरी, लॉयेना बिछुड़ी हैं और अभी-अभी ही न्यूज़ीलैंड के लिए जेट एयरवेज़ की उड़ान लेते हुए मेरे दिमाग़ में ख़याल आया कि किसी देश की आत्मा को समझना इंसान की आत्मा को समझने से भी ज़्यादा दुश्वार है। हर शहर का अपना मिज़ाज होता है। वह मिज़ाज ही शहर को हमारी नज़रों में अच्छा बुरा बना देता है। सिडनी मुझे अच्छा लगा था।
छै: घंटे की उड़ान के बाद हम कुल जमा बारह लोग क्राइश्चर्च इंटरनेशनल हवाई अड्डे पहुँच गये। यहाँ आना भी महज़ इत्तफ़ाक था। भारत से हमारा सोलह सदस्यों का प्रतिनिधिमंडल ऑस्ट्रेलिया का मेहमान बनकर आया था और न्यूज़ीलैंड की यात्रा में हम केवल पर्यटक थे...ऑस्ट्रेलियाए हैं तो न्यूज़ीलैंडदेखे बिना कैसे लौटे? न्यूज़ीलैंड केआठ दिवसीय प्रवास का पूरा इंतज़ाम फ्रिज़ ने क्राइश्चर्य में रहने वाली अपनी दोस्त अमेंड्रा के द्वारा करवाया था। अमेंड्रा की ख़ुद की टूरिस्ट एजेंसी थी लेकिन हमेंरिसीव करने वह ख़ुद आयी थी। फ्रिज की ही तरह मोटी, थुलथुल लेकिन बेहद ज़िन्दादिल। कुछ दिन अमेंड्रा हमारे साथ रहेगी। वह हमारी कोच की ड्राइवर भी थी और गाइड भी। मौरी कबीले की इस युवती का अंग्रेज़ी पर अच्छा अधिकार था सिवा उसके देहाती उच्चारण के जो कभी-कभी मेरी समझ में नहीं आता था।
क्राइश्चर्य को गार्डन सिटी ऑफ़ न्यूज़ीलैंड कहते हैं...प्रकृति ने मानो यहाँ बसेरा कर लिया है। हर पेड़ फूलों से लदा, हर क्यारी फूलों से सजी फूल...फूल ही फूल...सब तरफ...हवाई अड्डे से कोच तक जाते हुए जैकेट पहनना पड़ा। स्कार्फ बाँधना पड़ा। ठंडी हवा में हथेलियाँ जैकेट की जेब में अपने आप ठुँस गईं। इस ठंड का एहसास तब बहुत अधिक हुआ जब अमेंड्रा हमें एंटार्कटिका सेंटर ले आई। यहाँ मनुष्य निर्मित एंटार्कटिका बनाया गया है जहाँ पहुँचकर लगता है जैसे हम एंटार्कटिका ही पहुँच गये हों। बर्फ़ीले पर्वत, बर्फ़ की गुफ़ाएँ, स्लेज़ गाड़ी, पिग्मीज़ के पुतले, घनघोर गर्जना करते बादल और बादलों के बीच लपलपाती बिजली। हमेंकनटोपे वाली मोटी जैकेट पहनाई गई। हमारे जूतों पर प्लास्टिक के कव्हर चढ़ाए गए ताकि बर्फ़ मैली न हो। ऊनी दस्ताने पहन कर जब हमने गिरती हुई बर्फ़ के फ़ाहों को अपने कँधों पर महसूस किया तो लगा जैसे हम सचमुच अंटार्कटिका में ही हों। वहाँ लाल कपड़े पहने एकदम सजीव लगते पर्वतारोहियों के पुतले और उनके तंबू देख मैं चकित रह गई। तापमान 8 डिग्री सेल्सियस और 40 किलोमीटर की रफ़्तार से चलता बर्फ़ीला तूफान। तूफान में शरीर का संतुलन रखना कठिन हो रहा था। यह शो कुल छै: मिनट का था पर बहुत अधिक प्रभावशाली।
अब हम बहुत बड़ी झील की ओर बढ़ रहे थे जिसमें बर्फ़ के ग्लेशियर बह रहे थे। किनारे पर पेंग्विन पक्षी झुंड में बैठे थे। यहसेंटर न जाने किसके दिमाग़ की उपज है। पूरे सेंटर में कहीं कोई भटक नहीं सकता। पेंग्विन देखने जाना हो तो झील की ओर जाने वाले रास्ते पर पेंग्विन के पंजों के निशान। तूफान झेलना हो तो रास्ते पर बूटों के निशान...मनुष्य के दिमाग़ के आगे प्रकृति हारी हुई नज़र आ रही थी।
अमेंड्रा क्या आज ही क्राइश्चर्च की सैर करा देगी? सूर का वही हाल...अस्त होना जानता ही नहीं रात नौ बजे लुप्प से ग़ायब हो जाता है और दनदनाता हुआ अँधेरा शहर को अपनी गिरफ्त में ले लेता है। सुहानी शाम से यहाँ के निवासी परिचित नहीं। इस वक़्त यहाँ दोपहर के चार बजे हैं। मेरे देश में सुबह के नौ बजे होंगे... पूरे सात घंटे का फ़र्क।
एंटार्कटिका सेंटर से मोनावेल पार्क तक का लम्बा रास्ता जैसे सपनों की लम्बी गली हो। खुशनुमा मगर सुनसान...यह सड़क दोनों ओर ऊँचे-ऊँचे पाइन, साइप्रस, ओक की बाहों के बीच से गुज़रती और इसे दो हिस्सों में बाँटती रंगबिरंगे फूलों की क्यारियों से भरा डिवाइडर...और उफ़ इतना खूबसूरत नज़ारा भी धरती पर हो सकता है। सड़क के संग-संग दौड़ती, मचलतीआइवॉन नदी। नदी की हरी नीलाहट इतनी शायराना भी हो सकती है। मेरी आँखें नदी की तलहटी के सफेद पत्थरों तक को तलाश लेती हैं। सड़क से उतरकर घास की ढलान, जामुनी फूलों वाले छतनारे दरख्त...फिर नदी...फिर घास की चढ़ान और वीपिंग बिलो की ढलकी हुई डालियों वाले दरख़्त कि जैसे आँख से बही आँसू की लकीर...चारों ओर कश्मीरा पर्वत श्रेणियाँ। मैं कह सकती हूँ कि यह शहर खुशहाल होगा। यहाँ बसंत जो डेरा डाले हैं। परियों की कहानी जैसे चॉकलेटी, गुलाबी, पीले, सतरंगी मकान...आँखें ठहरें तो आख़िर कहाँ?
78 मीटर लम्बा हेसुली पार्क खेलकूद के लिये, क्रिसमस मनाने के लिए प्रसिद्ध है। तो क्राइस्ट कॉलेज आर्ट गैलरी, ब्रिज ऑफ रिमेंबरस, बड़े से आर्च गेट का पुल इस शहर की शान हैं।
धूप थोड़ी नरम पड़ी है। अभी क्राइस्ट चर्च कैथेड्रल देखा था। प्रभु यीशु शयन मुद्रा में। दीवारों, छतों पर बनी रंगीन कलाकृतियाँ देखने में लीन थी मैं कि मोमबत्तियों की थरथराती लौ में प्रार्थना के अस्फुट स्वर मेरे कानों में गूँज उठे...एक अजनबी भाषा लेकिन प्रार्थना तो वैसी ही होगी न। जैसे हम अपनी भाषा में करते हैं। यही प्रार्थना की एकता तो पूरे विश्व को एक दूसरे से जोड़े है।
मैं अकेली ही बापिस्ट चर्च से खुलने वाले पाँच रास्तों पर चहलकदमी करती रही। लोगों की आवाजाही बहुत कम थी लेकिन जितनी थी उसमें चीनी, जापानी और सिंगापुर, मलेशिया के पर्यटक ही नज़र आ रहे थे। चीनी लड़कियाँ जब हँसती हैं तो आँखें न जाने कहाँ गायब हो जाती हैं उनकी। मीनादीदी ने जो कलकत्ते से आई पत्रकार हैं और होटल के कमरे मेरे साथ शेयर करती रही हैं ऑस्ट्रेलिया से ही...मुझे हाथ के इशारे से बुलाया उधर जहाँ कोच खड़ा था।
अमेंड्रा हमें मोनावेल पब्लिक पार्क ले आई इस चेतावनी के साथ कि वह जहाँ-जहाँ हमें घुमाएगी और उन जगहों के बारे में जो भी बताएगी आखिरी दिन वह एक क्विज़ रखेगी और जो जीतेगा उसे गिफ़्ट देगी। सभी एक स्वर से बोल पड़े..."तब तो वह क्विज़ हमारी राइटर जीतेगी।" वे मुझे राइटर ही कहते थे।
मोनावेल पार्क के गेट से लगा जो किलेनुमा बंगला है वह इस पार्क के रखरखाव का ऑफिस है। अंदरप्रवेश करते ही एपल क्रीम के दरख़्त की डालियों पर लगे नीबू बराबर क्रीम कलर के फल प्रफुल्ल ने तोड़कर सबको चखाए... खट्टा मीठा सेब का स्वाद मुँह में घुल गया। पार्क के अंदर भी आइवॉन नदीबहती है। यह पार्क नहीं बल्कि मुझे तो फूलों की नदी लगी। जिधर नज़र घुमाती हूँ फूल ही फूल। इतने तरह के गुलाब मैंने पहली बार देखे। गुलाब के नीले और काले फूल देख मैं पलक झपकाना भूल गई। पार्क में पर्यटक अधिक थे।
अब थकान घेरने लगी थी। सभी की इच्छा तरोताज़ा होने की थी सो प्रकृति की गोद में बसे शानदार होटल हॉलीडे इन में हम अपने-अपने कमरों में दुबक गये। कमरेका लैच कार्ड डालने पर खुलता था। वह कार्ड अंदर बिजली के स्विच के नीचे बने होल्डर में डालने से लाइट जल उठती थी। खूबठंडा था कमरा। हमें हीटर ऑन करना पड़ा। तरोताज़ा हो एक कप स्वादिष्ट कॉफी ने सारी थकान मिटा दी। घंटे भर बाद रिसेप्शनिस्ट का फ़ोन था-"मैडम, नीचे आ जाइए, आपकी टूर मैनेजर डिनर के लिए आपका इंतज़ार कर रही है।"
घड़ी देखी सात बजे थे। सूरज अभी अपनी धूप को समेटने से इंकार कर रहा था। ऑस्ट्रेलिया में भी तो सात बजे ही डिनर लेना पड़ता था। यहाँ भी भारतीय रेस्तराँ...नाम लिटिल इंडिया। मेनेजर केरल का था। लेकिन हिन्दी बेहतरीन थी उसकी। बतलाने लगा-"मेरी हिन्दी पर फ़िदा होकर दिल्ली की एक लड़की ने मुझसे शादी कर ली।"
"यहाँ आपका बिज़नेस कैसा चल रहा है?"
"खूब चलता है मैडम। अब तो पूरा विश्व भारतीय खाने का दीवाना है। साल भर यहाँ टेबिल बुक रहते हैं। हमें तो दम मारने की फुर्सत नहीं। वह दिल्ली वाली कहती है-" हमें ब्याह कर क्यों लाए। " औरहँसने लगा। लिटिल इंडिया की दीवारों पर कृष्ण की लीलाओं की पेंटिंग्स थीं। दीवार पर टँगे बड़े से स्क्रीन के टी.वी. सेट पर मधुबाला नाच रही थी। 'मोहे पनघट पर नंदलाल छेड़ गयो रे।'
न्यूज़ीलैंड उत्तरी और दक्षिणी द्वीपों में बँटा है। राजधानी विलिंग्टन उत्तरी न्यूज़ीलैंड मेंहै और इस समय हम दक्षिणी द्वीप पर जा रहे हैं जो पेसिफिक महासागर से घिरा है। इस महासागर का पूर्वी तटवर्ती इलाक़ा काईकोरा कहलाता है जो मछलियों के मीटिंग प्लेसनाम से प्रसिद्ध है। गहरेसमुद्रसेव्हेल, डॉल्फिन, सील आदि निकलकरउथलेपानी में आती हैं। तट पर पेंग्विनों का झुंड विचरता है। समुद्र बेहद खूबसूरत है। हरा, नीला और सफेद पानियों से भरा झागदार लहरों वाला। ज़्यादातर चट्टानें हैं तट पर। कहीं सिलेटी, कहीं काली, कहीं एकदम चिकनी ग्रेनाइट जैसी। पीछे साल के ज्यादातर महीनों में बर्फ़ से ढँके पर्वत शिखर हैं। जिन पर बादल लेटे रहते हैं। तटवर्ती इलाकों में उगी अल्पाइन वनस्पति सहित पूरा माहौल ऐसा जादुई संसार रचता है कि पर्यटक खिंचे चले आते हैं। काईकोरा का बहुत बड़ा हिस्सा घने जंगलों, जंगली जानवर और रंगबिरंगी चिड़ियों के लिए भी प्रसिद्ध है।
अमेंड्रा सिगरेट की आदि है। ड्राइविंग के दौरान सिगरेट पीना यहाँ कानूनी अपराध है। इसलिए रास्ते में वह सुंदर दृश्य देखकर गाड़ी रोक लेती थी-"यहाँफोटो खींच लीजिए।" और ख़ुद सिगरेट पीती थी।
"काईकोरा के निवासी समुद्र, तरह-तरह के प्राणी और प्राकृतिक सुंदरता पर बहुत गर्व महसूस करते हैं।" बताया अमेंड्रा ने।
यहाँ के निवासी मौरी आदिवासी ही कहलाते हैं। काइकोराने 1987 से व्हेल वॉचिंग टूर अर्रंज करने शुरू किये। टूर एजेंसी काइकोरा में क्राइश्चर्च से ढाई घंटे की सड़क यात्रा की दूरी पर है। कोच ने हमें सागर तट पर उतारा जहाँ से हम व्हेल वॉचिंग बोट पर बैठे। यह बोट एक साथ 150 यात्रियों को ले जाती है। बाहर की ओर रेलिंग लगी खुली बाल्कनी है। ऊपर डेक है जहाँ तेज़ हवा में खड़े होना मुश्किल है। ड्राइवर की सीट काफ़ी ऊँचाई पर थी। ऊँची-ऊँची लहरों में डोलती हमारी बोट गहरे समुद्र में बढ़ती चली गई। किनारे दिखने बंद हो गये। थोड़ी देर में हम बाल्कनी में आकर खड़े हो गए। सामने अद्भुत नज़ारा था। बीस मीटर लम्बी और 50 टन वज़नी विशाल काली व्हेल पानी के ऊपर दिखाई दी। वह उलटती, पलटती काफ़ी देर तक साँस लेती, छोड़ती रही। जहाँ वह साँस छोड़ती तो पानी की सतह पर जैसे फ़व्वारा चल पड़ता। जब उसने भरपूर ऑक्सीज़न जमा कर ली तो वह अपनी पूँछ करीब दो मीटर ऊँची उठाकर गहरे समुद्र में उतर गई। अबबोट वहाँ पहुँची जहाँ 194 डॉल्फ़िन समुद्रीलहरों में अठखेलियाँ कर रही थीं। मैंने ऐसा नज़ारा सिर्फ़ डिस्कवरी चैनल पर देखा था। उसे सजीव देखते हुए मैं रोमांच से भर उठी। शरारती डॉल्फिन कहीं पूँछ फटफटाती, कहीं तीन-तीन की संख्या में इकट्ठी हो दो-दो मीटर हवा में उछलतीं। काफ़ी देर उनका ये सर्कस चलता रहा। बोट अब चट्टानी इलाके की ओर मुड़ी जहाँ चट्टान पर पेंग्विन बैठे थे। बोतलनुमा, राजा की तरह राजसी, मस्ती भरी चाल...दूसरी ओर चट्टानों पर सील बैठी थी। सील का क्या बैठना क्या लेटना...न उसके हाथ होते हैं, न पाँव, न पंख...विधाता ने उसे पोटलीनुमा शरीर दिया है जिसे बेचारी ताउम्र ढोती है। यह इलाक़ा समुद्री चिड़ियों के लिए भी प्रसिद्ध है। सील के शरीर को चोंच मारती रॉयल अल्बेट्रॉस चिड़ियों का झुंड चट्टानों पर फुदक रहा था।
अचानक मुझे-सी सिकनेस शुरू हो गई। शरीर काँपने लगा, ठंडापसीना छूटने लगा। बोट में जो लड़कियाँ मदद के लिए थीं वे मेरी देखभाल करने लगीं। उन्होंने मुझे दवा दी। जब मुझे कै हो गई तब जाकर तबीयत शांत हुई। मेरेलिए क्रूज़ यात्रा माफ़िक है। बोट ने तबीयत अखल-बखल कर दी थी।
क्राइश्चर्च लौटकर सबने तुलसी रेस्टॉरेंट में डिनर लिया। मैंने सिर्फ़ दही खाया।
क्राइश्चर्च से क्वींस्टाउन का रास्ता पहाड़ी उतार चढ़ाव वाला हरा भरा और माउंट कुक पर्वत से घिरा है। जब हम क्वींस्टाउन रवाना हुए सुबह के आठ बजे थे। ठंडी हवा ने स्वेटर और स्कार्फ़ के अंदर भी घुसपैठ मचा दी। सड़कों पर सन्नाटा पसरा था। मुम्बई में तो इस वक़्त सड़कों पर कुंभ का मेला होगा। खूबसूरत सफेद गुलाब के फूलों से घिरी थी सड़क। मोड़ पर इतने रंग बिरंगे फूलों के पौधे थे जैसे किसी ने बुके सजाए हों। वैसे तो हर देश में वाहनों के अब अलग-अलग ट्रेक होने लगे हैं पर यहाँ खासियत यह थी कि कार की ट्रेक पर कार का, स्कूटर के ट्रेक पर स्कूटर का, बस के ट्रेक पर बस का और साईकल के ट्रेक पर साईकल का चित्र सफेद पेंट से सड़क पर बनाया गया था। अनजान लोगों के लिए-नो कन्फ्यूज़न।
कोच कूकीज फैक्ट्री, विला मारिया कॉलेज, लस्टन साउथ ब्रिज से गुज़रते हुए पहाड़ी चहागाहों के किनारे चल रही थी। यहाँ से माउंट कुक के शिखर सफेद, नीले और भूरे दिख रहे थे। चरागाह पर लामा झुंड में घास चर रहे थे। लामा जानवर बकरी की ऊँचाई वाला सफेद, चॉकलेटी और पीले रंग का होता है। इनके शरीर पर के बालों से ऊन बनाकर गरम कपड़े बनाए जाते हैं। अमेंड्रा ने फार्मर्स कॉर्नर के सामने कोच रोकी। यह एक बड़ी दुकान है जहाँ लामा के ऊन से तैयार जैकेट, स्वेटर, कंबल आदि मिलते हैं। लाल रंग की जैकेट मुझे बहुत पसंद आई। जैकेट खरीद कर मैं दुकान के पीछे चरते लामाओं के नज़दीक गई। एक लामा के माथे पर ऐसे बाल थे कि उसकी आँखें पूरी ढँक गई थीं। उसका चेहरा बहुत भोला लग रहा था।
क्वींस्टाउन तक पहुँचने वाले सफ़र को अगर मैं झीलों भरा सफ़र कहूँ तो बेजा नहीं होगा। सबसे पहले पड़ने वाली झील थी टोकेपो...
"मैडम...इस झील को आप सागर नहीं कहेंगी तो क्या कहेंगी?" मैं झील के सौंदर्य पर न्यौछावर हो गई। दूर-दूर तक बहते हल्के नीले और बॉटल ग्रीन पानियों की झील मानसरोवर की याद दिला रही थी। हंस जैसे सफेद पक्षी झील की सतह पर डुबकी मार रहे थे। झील के किनारे से लगे पर्वत शिखरों पर बादल तैर रहे थे। यह न्यूज़ीलैंड की सबसे पुरानी झील है। इसकी तलहटी में मछलियों और सीपियों के ऐसे मृत नमूने मिले हैं जो अब दुर्लभ हैं। सदियों पुराना इतिहास कहता है इसका पानी...मौरियों के कबीलों का, अंग्रेज़ी हुकूमत का, न्यूज़ीलैंड की आज़ादी का, एवरेस्टपर पड़ा पहला मानव क़दम हिलेरी का, यहाँ की लोककथाओं और साहित्य का। पूरा का पूरा इतिहास समेटे बह रही है यह झील। पास ही कुत्ते का मोन्यूमेंट है। जिस पर लिखा है कि हमें हमेशा याद रखना चाहिए कि कुत्ता वफ़ादार होता है और उसकी सहायता से ही हमने इस द्वीप की खोज की। " एक शेपर्ड चर्च भी है छोटा सा...लकड़ी का...वहाँ ईसा की सूली रखी है। चर्च की सीढ़ियों से लगा हरे रंग के सेब का पेड़ था। डालियों में सेब के फल लदे पड़े थे। मैंने एक सेब तोड़कर खाते हुए सभी का ध्यान वहाँ आकृष्ट कर दिया। सभी ने एक-एक सेब तोड़ा। खट्टा मीठा, ज़ायकेदार...लेकिन अमेंड्रा ने डरा दिया कि इसको खाने से डायरिया हो जाता है। हमने अधखाए फलों को तुरंत फेंक दिया।
रास्ते में बुकाकी झील, पुकाकी झील, रूटानीव्ह झील, मरीनों झील, ओहायो झील...कोई छोटी, कोई बड़ी। एक दो नहरें भी मिलीं। इन नहरों में फिशिंग होती है। बंसी डालने से पहले 45 डॉलर भरना पड़ता है। यदि मछली नहीं फँसी तो पैसे वापिस। एक न्यूजीलैंड डॉलर के लिए 32 भारतीय रुपये देने पड़ते हैं। यानी एक मछली की क़ीमत 1440 भारतीय रुपये। क्या महँगा शौक है अमीरों का। यहाँ आसपास के गाँव गिब्सटन, अल्पाइन आदि में अमीरों के फॉर्म हाउसऔर आधुनिक सुविधाओं से संपन्न बंगले हैं। वे अपनी-अपनी कारों में शहर जाते हैं। नौकरी या व्यवसाय के लिए। ग़रीब शाहों में रहते हैं और साईकल से सफ़र करते हैं। अमीरों के अंगूर के बड़े-बड़े बगीचे हैं जिन्हें 'वाइनेरी' कहते हैं। हर वाइनेरी के फाटक पर उसके मालिक के नाम की तख्ती लगी है। बगीचे को चारों ओर से जंगली कँटीले गुलाबों से घेरा हुआ है जिन पर ठंड के मौसम को छोड़कर सफेद फूल गुच्छों में खिले रहते हैं। ये कँटीले पौधे जानवरों से 'वाइनेरी' की रक्षा करते हैं। वैसे भी अंगूर से शराब बनती है और शराब स्त्रीलिंग है, गुलाब पुल्लिंग। प्रकृति को भी नारी की सुरक्षा के लिए पुरुष की आवश्यकता पड़ गई। वाह री किस्मत!
संग संग बहती ट्विज़ल नदी का पानी वॉटर प्यूरीफ़ाई सेंटर से शुद्ध करके शहरों और गाँवों में भेजा जाता है। यहाँ पीने का पानी, नहानेका पानी अलग-अलग नहीं होता हर नल से पेयजल ही प्रवाहित होता है। पास ही माउंट कुक नेशनल पार्क है। जहाँ जानवरों और पक्षियों के बसेरों के संग उनकी देखभाल करने वालों के भी कॉटेज हैं जिन्हें सारी सुविधाएँ सरकार की ओर से उपलब्ध हैं।
क्रामवेल गाँव में मिसेज़ जोन्स फलों की शौकीन महिला थी। उन्होंने फलों के बगीचे लगाए और हर एक बगीचे के गेट पर लकड़ी के रंगीन फल बाँस की सहायता से लटकाए। इन फलों की सहायता से हमें तुरंत पता चल गया कि कौन-सा बगीचा किस फल का है। बगीचे से लगी हुई मिसेज़ जोन्स फ्रूट शॉप है। इतनी बड़ी फलों की दुकान मैंने पहले कभी नहीं देखी। दुकान के रैक सूखे मेवों, फलों से बनी चॉकलेट से भरे पड़े हैं। पूरी दुकान में रैक ही रैक, बेंत से बनी टोकरियाँ ही टोकरियाँ सब ताज़े फलों से भरी। खुशबूसे दुकान महक रही थी। बीचोंबीच गोल मेज पर बड़ी-बड़ी तश्तरियों में कटे फल, सूखे मेवे और चॉकलेट रखी थी। पहले चखो फिर खरीदो। सबने पेट भर के चखा। खरीदा तो शायद ही किसी ने होगा।
यह दुकान पाँच-पाँच फुट के गुलाब के पौधों से घिरी थी जिन पर लाल, गुलाबी, पीले, सफेद फूल खिले थे।
"जाड़ों में ये पौधे बर्फ में छुप जाते हैं।" अमेंड्रा ने बताया।
"इतनी बर्फ गिरती है यहाँ?"
"पाँच से सात मीटर तक बर्फ गिर जाती है।"
बेहद ठंड पड़ती है यहाँ। अभी यहाँ गर्मी का मौसम है लेकिन ऐसा लग रहा है जैसे शिशिर का जाड़ा हो। ठंडी हवाओं से भरा। यहाँ की झीलों के किनारे वृक्षों पर विभिन्न पक्षियों की प्रजातियाँ मौसम के अनुसार अन्य देशों से उड़कर आती है।
क्वींस्टाउन पहाड़ों की वादियों में बसा एक खूबसूरत शहर है। इसे दुनिया की 'एडवेंचर केपिटल' कहा जाता है। बिल्कुल मसूरी की तरह बसा हुआ। पहाड़ों की गोद में झील ढलते सूरज की किरनों से झिलमिला रही थी। तेज तीखी हवा बदन कंपकंपाये दे रही थी। लग रहा था अलाव मिल जाए और गरमागरम कहवा। अमेंड्रा भी सारे दिन की ड्राइविंग से थक चुकी थी। हम होटल 'ए लाईन' में रुके जो पूरा लकड़ी से बना था। बाल्कनीसे दिखता माउंट कुक पर्वत ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड का सबसे ऊँचा पर्वत शिखर है। बीच में दक्षिणी आल्प्स की चोटियाँ हैं जो क्राइश्चर्च और क्वींस्टाउन को विभाजित करती है। चोटियों का 40 प्रतिशत भाग हमेशा बर्फ़ से ढँका रहता है।
भूख ज़ोरदार लगी थी। हमने तंदूरी पैलेस में डिनर लिया और ठंड के बावजूद ऊँची नीची सड़कों पर चहल कदमी करते रहे।
सुबह अलसाई हुई थी। अमूमन जैसे हौले-हौले पहाड़ी शहर जागता है और धूप निकल आने पर बिस्तर छोड़ता है। होटल से कांटिनेंटल नाश्ता करके हम एरोटाउन जाने के लिए कोच में आ बैठे। एरोटाउन पहाड़ की गोद में बसा छोटा-सा पहाड़ी गाँव है। प्रकृति ने जैसे खुलकर अपना खजाना लुटाया है यहाँ। इसीलिए तो इस खूबसूरत घाटी को 1800 ईस्वी में अंग्रेज़ों ने खोज निकाला और यहीं बस गये। इसीलिए यहाँ अंग्रेज़ी स्थापत्य के कॉटेज, लाल ढलवाँ छतों वाले बंगले हैं। एक छोटा-सा बाज़ार है। जिसकी दुकानें इतनी करीने से बनी है जैसे हॉलीवुड की किसी फ़िल्म का सैट हो कि बस अभी शूटिंग शुरू होने ही वाली है। पीछे पहाड़ के शिखरों पर अटके बादल ऊँचे-ऊँचे चीड़ के दरख्तों में से झाँक रहे थे। 1878 में यहाँ बाढ़ आई थी। नदी और झील का पानी एकमएक हो गया था। इस बाज़ार की कच्ची दुकानें बह गई थीं। लेकिन तबाही के बाद का मंज़र जब नूतन सर्जन में बदला तो लोग वाह-वाह कर उठे। मेरे पीछे चूड़ियाँ खनकी। मुड़कर देखा हनीमून जोड़ा था-"मैडम, हमारी कुछ तस्वीरेंलेंगी?"
मैंने मुस्कुराकर कैमरा अपने हाथ में ले लिया। वे तरह-तरह के फ़िल्मी पोज़ में फोटो खिंचवाने लगे। कभी लड़की लड़के की बाहों में होती, कभी वह उसे गोद में उठा लेता, कभी दोनों चुंबन में लीन हो जाते। मैंने सोचा...संवेदना शून्य ये मशीनी पल क्या इनकी यादों में चिर होंगे? सिवा इसके कि एक अनजान औरत ने इनकी ये तस्वीरें खींची थीं।
सामने लेक्स डिस्ट्रिक्ट म्यूज़ियम भी है। छै: डॉलर की एंट्री टिकट। औरतें सभी शॉपिंग में जुटी थीं। मैं अमेंड्रा और प्रफुल्ल के साथ वादियों में टहलती रही। सोचती हूँ आख़िर क्यों इतना रुपिया ख़र्च करके इंसान यहाँ आता है जब उसे शॉपिंग ही करनी होती है।
वहाँ से हम बंजी जंप के लिए कवारु ब्रिज आये। जो कवारु नदी की सतह से 43 मीटर ऊँचा है। यह ब्रिज जहाँ एक ओर बंजी जंपिंग करने वालों के लिए जंपिंग प्लेस है वहीं दूसरी ओर मुड़कर दर्शकों के लिए एक खुली गैलरी है। मैं गैलरी के जंगले से सटकर खड़ी हो गई। धूप बदन पर अच्छी लग रही थी।
नवंबर 1988 में विश्व का सबसे पहले बनने वाला यह जंपिंग ब्रिज है। इस ब्रिज में सबसे कम उम्र के ग्यारह वर्षीय चायनीज़ लड़के और सबसे अधिक उम्र के तेरानवे वर्ष के वृद्ध ने बंजी जंपिंग की थी। पैरोंपर बंधे रस्से के सहारे आदमीऔंधाहोकरशून्य में लटकता रहता है। फिर नीचे नदी के जल पर तैरती रबर की बोट पर सुरक्षा गार्ड उसे उतार लेते हैं और वह सीढ़ियाँ चढ़कर गैलरी में आ जाता है। मेरे सामने छलाँग लगाने के लिए जो लड़की खड़ी है वह जापानी है। पैरों में रस्सा बँधा है। दोनों हाथ हवा में फैलाकर उसने संतुलन लिया, पीछे से ट्रेनर ने धक्का दिया और वह नदी की सतह से एक मीटर ऊपर औंधी झूलने लगी। है तो जोखिम का काम पर सभी जोश से भरे रहते हैं।
माउंट कुक के 3764 मीटर ऊँचे शिखर पर गंडोला की सहायता से जाया जा सकता है। गंडोला एक प्रकार की केबिल कार ही है लेकिन उसमें एक बार में चार सैलानी ही बैठ सकते हैं। यह रूकती नहीं है। स्टॉप आने पर धीमी हो जाती है। उसी धीमी रफ़्तार में चढ़ना उतरना पड़ता है। गंडोला के लिए हम बार्कन स्ट्रीट आए और 21 डॉलर की टिकट लेकर मैं मीना दीदी के साथ गंडोला में बैठी। गंडोला क्वींस्टाउन की अद्भुत खूबसूरती दिखाती हुई ऊपर चढ़ रही थी। शिखर पर पहुँचकर नीचे वादियों में झीलों, फूलों, जंगलों की सुंदरता सम्मोहित कर रही थी। एक स्काई लाईन गंडोला रेस्टॉरेंट भी है वहाँ...एक मंच है जहाँ किवी हाका शो होता है। इस शो में मौरी आदिवासियोंका इतिहास ट्रेडीशनलगानों और नृत्यों के द्वारा दिखाया जाता है जिसे कापा हाका ग्रुप आयोजित करता है। अमेंड्रा बता रही थी-"राइटर, हम यहाँ के मूल निवासी हैं...अत्याचार का एक लम्बा सिलसिला हमने झेला है। हमारे पूर्वज सदियों से यहाँ के जंगलों में कबीलों में रहते थे। हमारीअपनी संस्कृति थी, अपने रीति रिवाज़। उस समय हमारे पूर्वज पत्तों से बदन ढँकते थे। लाल, पीली, सफेद मिट्टी की धारियों से शृंगार करते थे। वे पूरी तरह समुद्री भोजन और शिकार पर निर्भर थे। शिकार वे तीर कमान से करते थे। समुद्री जीवों को तो वे तैरकर, गोता लगाकर हाथ से पकड़ लेते थे। अंग्रेजों ने जब यहाँ हुकूमत की तो मौरियों पर बहुत ज़ुल्म ढाये। उन्हें जंगलों में ही रहने पर मजबूर किया। उनके पास बंदूकें थीं। बंदूकों के आगे तीर कमान भला टिक पाते? लेकिन फिर भी मौरियों ने अपनी संस्कृति मिटने नहीं दी। अपनी परंपराएँ जीवित रखीं। देश आज़ाद हुआ तो हमने चैन कीसाँस ली लेकिन सरकार हमें हमारे परिवेश में रहने देना नहीं चाहती। आज से 38 वर्ष पूर्व 1970 में जब मैं दस साल की थी तो मुझे और मेरे जैसे कितने ही बच्चों को उनके माता पिता से छीनकर सभ्य बनाने के लिए शहरों में लाने का अभियान चला। आज हमारी पीढ़ी को 'स्टोलन जेनरेशन' कहा जाता है। मेरे माता पिता मुझसे कभी नहीं मिले। पता नहीं वे जीवित भी हैं या नहीं। लेकिन मैंने अपनी बेटियों को भरपूर प्यार दिया है। जो मुझे नहीं मिला मैंने उनको दिया। मेरी बड़ी बेटी विला रोटोरुआमें रेडियो स्टेशन में सांस्कृतिक विभाग की डायरेक्टर है। उसने आपका एक प्रोग्राम...शायद इंटरव्यू अभी से शेड्यूल कर लिया है। रोटोरुआ में वह मिलेगी आपसे।"
मेरे होंठों से एक आह निकली और सारी वादी सिसक पड़ी। दोपहर में अमेंड्रा के बारे में ही सोचती रही। रात डिनर के लिए हम लिटिल इंडिया रेस्टॉरेंट आए तो वहाँ के मैनेजर राजेंदर सिंह से मुलाकात हुई। वहचंडीगढ़ का था। मैंने पूछा... "राजेंदर सिंह बेदी को जानते हो?" खुश होकर चहका वह... "हाँ... उनके उपन्यास मैला आँचल पर फ़िल्म भी बनी है।"
मैंने सुधारा... "मैला आँचल नहीं, एक चादर मैली सी।" वह झेंप गया। मीना दीदी ने उससे कहा... "" मैडम राइटर हैं, संतोष श्रीवास्तव। "
वह आधा झुका... मुग़लिया स्टाइल में मुझे सलाम किया और खुश होकर चला गया।
तड़के सुबह हम मिल्फोर्ड साउंड के लिए निकले। मिल्फोर्ड साउंड से क्रूज़ में तीन घंटे का अलौकिक सागर भ्रमण करना था। वहाँ तक पहुँचने के लिए एग्लिंग्टन वैली पार करनी पड़ती है। वह वैली घने जंगल, झाड़ियों, पाइन और साइप्रस के घने ढलवाँ इलाकों के लिए प्रसिद्ध है। बर्फ ढके पर्वत शिखरों से घिरा यह जंगल बड़े-बड़े जलप्रपातों के संग गाता नज़र आता है। कहीं-कहीं सूत की-सी धार वाले जलप्रपात भी हैं। मौसम यहाँ आँख मिचौली खेलता है। कभी धूप छा जाती है, कभी बादल आ जाते हैं, कभी रिमझिम फुहारें तो कभी घना कोहरा। यह वैली कई झीलों और दो पहाड़ी नदियों को भी अपने में समेटे हैं। पारदर्शी पानी वाली नदियों में तल के सफेद शिवलिंग आकार के पत्थर दिखलाई देते हैं। जंगल के बीच में घुमावदार पुल पर से हमने वैली को घूमकर नज़दीक से देखा। पुल के नीचे बहती नदी के जल में मंकी क्रीक यानी बंदर के आकार के पर्वत का प्रतिबिम्ब साफ़ दिखलाई दे रहा था।
कोच 364 मीटर लम्बी होमर सुरंग से गुज़र रही थी। सुरंग जैसे ही खतम हुई, अमेंड्रा ने एक पहाड़ी नदी के पास कोच रोक दी। नाले में मिनरल वॉटर बह रहा था। सभी ने अपनी बोतलों में पानी भरकर पिया। मैंने नहीं पिया...आसाम के अनुभव से मैं डरी हुई थी जब ऐसे ही नाले का पानी पीकर मैं बीमार पड़ गई थी।
मिल्फोर्ड साउंड में आधे घंटे के इंतज़ार के बाद हम रेड बोट क्रूज़में बैठे। क्रूज़ के द्वार पर ही फोटो ग्राफ़र लड़की ने मेरी फ़ोटोखींची और मुस्कुराकर स्वागत किया। तीन घंटे की इस क्रूज़ यात्रा ने हमें स्तब्ध कर देने वाले प्राकृतिक दृश्य दिखलाए। अथाह जल राशि पर तैरती बोट के डेक से मैंने पहाड़ों से गिरते झरने, अल्पाइन वनस्पतियाँ और घने दरख्तों के जंगल, सील, पेंग्विन, समुद्री चिड़ियाँ देखीं। झरने के बहुत पास आकर क्रूज़ दो मिनिट के लिए रुका और हम बूँदों से नहा उठे। चट्टान से मुँह सटाए डॉल्फिन सुस्ताती-सी लगीं।
फूलोंसेलदी वादियों, बर्फ़ीले पहाड़ों, झीलों, नदियों के सफ़र में से मैंने एक फूल तोड़कर अपनी यादों की किताब में दबा लिया है। जब-जब किताब खोलूँगी...तुम सब याद आओगे।
अमेंड्रा के साथ अब आखिरी चंद घड़ियाँ शेष थीं क्योंकि अब हम रोटोरुआ जा रहे थे और उसे कल से योरोप से आने वाला दूसरा टूरिस्ट ग्रुप अटेंड करना था। क्वींस्टाउन से एयरपोर्ट तक के रास्ते में उसने क्विज़ रखा था। उसके सभी सवालों के मैंने सही उत्तर दिये थे। क्विज़ में मैं जीती थी और उसने मुझे न्यूज़ीलैंडके दर्शनीय स्थलों की सी.डी. भेंटस्वरुप दी थी और अब वह एक मौरी गीत गा रही थी। फिर न जाने क्या हुआ कि उसके आँसू बहने लगे। इनआँसूओं का सबब वह गीत ही था जिसमें एक माता अपनी बेटी को बिदा कर रही थी। मेरे अंदर भी कुछ पिघला...मैं जानती हूँ औलाद का दुख...
क्वींस्टाउन से एक घंटे की क्राइश्चर्च की उड़ान और क्राइश्चर्च से रोटोरुआ तक की सवा घंटे की उड़ान के बाद जब हम रोटोरुआ पहुँचे तो डेनिस और विला हमारा इंतज़ार कर रहे थे। विला तो सिर्फ़ मिलने आई थी और यह बताने के लिए कि कल दोपहर दो बजे मेरी रिकॉर्डिंग है। मैंने उसे धन्यवाद नहीं दिया बल्कि गले से लगा लिया।
कोचमें डेनिस ने सबके नामों को कन्फ़र्म किया। बहुत स्मार्ट है वह। जॉब अमेंड्रा जैसा ही...ड्राइवर भी टूर गाईड भी और टूर मैनेजर भी। वह बोलता ज़्यादा है। कोच स्टार्ट करते ही बताने लगा कि वह है तो सिंगापुर का लेकिन अब यहीं आकर बस गया है। अब उसे यही अपना देश लगता है। इस देश ने उसे बहुत कुछ दिया है। अगले महीने वह शादी भी कर लेगा। बीवी से भी नौकरी करवायेगा। यहाँयहाँ नौकर थोड़ी होते हैं। सब काम हाथ से ही करना पड़ता है। नौकर वक्त-बेवक्त 5 डॉलर में एक घंटे काम कर देते हैं। वैसे तो यहाँ मौरी ही ज़्यादा रहते हैं। आपने इतिहास पढ़ा होगा। पता ही होगा कि प्रथम विश्वयुद्ध में... द्वितीय में भी ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड की सेनाएँ मिलकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध लड़ी थीं। क्या कौम है...पूरे विश्व पर राज किया। आप शॉपिंग ज़रा सोच समझकर करना। रोटोरुआ महँगी सिटी है न...यहाँ का मुख्य आय का स्रोत पर्यटन है फिर भी बाज़ार पर्यटकों को लूटता है। जी... नहीं रोटोरुआ क्वींस्टाउन से तो काफ़ी गर्म है। लीजिए आ गयी एग्रोडोम वूलन मिल। भारी सामान बस में ही छोड़ दें...कैमरे भी, यहाँ फोटो लेने की मनाही है।
उफ़! उसका मुँह तब बंद हुआ जब हम कोच से नीचे उतरे। वह दौड़कर प्रवेश टिकट ले आया और हमें ऊन बनाने के कारखाने में ले आया। बड़ी-बड़ी मशीनें लगी थीं वहाँ जिन पर भेड़ के बालों की सफ़ाई, धुनाई, पोनी बनाने का काम हो रहा था। बड़े से चरखे में पोनी के द्वारा ऊन काता जा रहा था। हमें एक पूरी प्रक्रिया डिमांस्ट्रेशन करके बताई गई। फिर एक बड़े से हॉल में किस्म-किस्म की भेड़ों का शो हुआ। जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हॉलैंड, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, भारत आदि देशों की भेड़ें एक-एक करके स्टेज पर लाईजातीं और जहाँ उनके नाम की तख्ती होती बैठा दी जातीं। वे डंडीनुमा कप में रखे भोजन को खाती रहतीं और दर्शक तालियाँ पीटते रहते।
कोच में बैठते ही डेनिस फिर चालू... "अब हम पेराडाइज़ वेली स्प्रिंग जा रहे हैं। इस वैली में प्राकृतिक रूप से उगे मीलों फैले जंगल को ही अजायबघर बनाया गया है।" घुमावदारपुल के सहारे जंगल की सैर करते हुए विभिन्न जानवरों को देखना बड़ा रोमांचकारी है। कई जगह झरने...पुल से नीचे बहता झरनों का पानी। यहाँ एक ऐसा झरना भी था जिसके पानी में हीलिंग पॉवर है। मौरी आदिवासी इस पानी को पीकर अपने घाव भर लेते थे। हमने भीपानी पिया। प्लास्टिक के गिलास एक छोटी-सी टोकरी में रखे अजायबघर की गाइड साथ में लाई थी। फिर उसी टोकरी में हमारे जूठे गिलासों को वह वापिस भी ले गई। प्रदूषण के प्रति गज़ब की जागरूकता। अभी तक मैं ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के जिन जंगलों में घूमी हूँ सभी जगह लकड़ी से बने रास्ते मिले। सोचती हूँ शायद इसलिए कि उस पर बारिश से कीचड़, फिसलन नहीं होती और बार-बार उगी घास को काटने की ज़हमत भी नहीं उठानी पड़ती।
डेनिस हमें अजायबघर से टेपुआ गाँव ले आया जहाँ मौरी संस्कृति के दर्शन किये जा सकते हैं। प्रवेश द्वार में ही लकड़ी के स्तंभों पर मुखौटे बने हैं जो वायु अग्नि, जल और शक्ति के प्रतीक हैं। मुझे लगा मैं किसी हिन्दू आध्यात्म नगरी में आ गई हूँ। बीच में दो चट्टानें हैं जिनके बीच में बहता पानी है।
"मैम, इस पानी को हथेली पर लेकर घिसकर सुखा लीजिए दूसरी बार पानी लेकर चट्टान के ऊपर घिसिए। मौरीइस बात पर विश्वास करते थे कि यह भाग्योदय का प्रतीक है।"
डेनिस के बताने पर मैंने पानी घिसा जबकि मुझे अंधविश्वास से नफ़रत है।
हम पिकीरंगी गाँव में थे अब। यहाँ गंधक की बड़ी-सी झील है जिस पर हमेशा ठंडा धुआँ छाया रहता है। वैसे झील का तापमान 94 डिग्री और धुआँ ठंडा। झील से पास की पीली चट्टान ऊपर से गिरते गंधक के झरने के कारण कट-कटकर लाइम स्टोन जैसी हो गई थी। हम जहाँ से खड़े होकर झरने और झील को देख रहे थे वह एक रेलिंग लगा रास्ता था। रास्ते के बीच में से मिनी ट्रेन चलती थी जो पूरा पिकीरंगी गाँव घुमाती थी। आगे चलकर वेअर वरेवा मडपूल है। जहाँ से निरंतर गर्म, मुलायम, क्रीम कलर का मड उबल-उबल कर बाहर आता रहता है। यह एक प्रकार का ज्वालामुखी ही है। यहाँ भी 94 डिग्री तापमान था।
अब की बार डेनिस ने कोच ग्रांड टिआरा होटल के सामने रोकी-"लीजिए, आपका ठिकाना आ गया। मैं सबको रूम अलॉट करता हूँ। एक घंटे में फ्रेश होकर नीचे उतर आना। डिनर के लिए इन्डिया पैलेस में चलना है। लगता है बारिश होगी यहाँ के मौसम का कोई ठिकाना नहीं।"
रेडियो स्टेशन में विला को देखते ही मेरे मन में अमेंड्रा की याद अगरबत्ती की तरह जल उठी और मैं उसके धुएँ से महकने लगी।
"आइए मैम... ज़्यादा समय नहीं लेंगे आपका...बस पंद्रह मिनट का इंटरव्यू रखा है आपका।" विला मुझे गलियारों में से स्टूडियो में ले आई। मुझे गोल मेज के सामने कुर्सी पर बैठा दिया और माइक टेस्ट करने लगी।
"क्या मैं तुम्हारे सवालों का जवाब हिन्दी में दे सकती हूँ?" मैंने हिचकते हुए पूछा।
"मैम, आप हिन्दी में ही दीजिए। हम उसका अनुवाद अपनी भाषा में करके पहले आपका जवाब हिन्दी में फिर उसका अनुवाद इस तरह ब्रॉडकास्ट करेंगे।"
साक्षात्कार में एक सवाल था-"मेरे देश में आकर आपको कैसा लग रहा है?"
मेरा जवाब था-"कुछ ऐसा कि जैसे यहाँ की किताबों की अलमारियाँ और बड़ी हो गई हैं।" वह देर तक मेरा चेहरा निहारती रही।
सब कोच में मेरा इंतज़ार कर रहे थे। मेरे बैठते ही कोच चल पड़ी। हम रोटोरुआ से अब ऑकलैंड जा रहे थे। यह न्यूज़ीलैंड का वह अंतिम शहर था जिसे देखने के बाद हमें सिडनी चले जाना था। "यह एक मल्टी सिटी है" डेनिस बता रहा था। "यहाँ सभी जाति, धर्म और देश के लोग रहते हैं। ऑकलैंड की जनसंख्या 1.4 मिलियन है यह पूर्व और पश्चिम में बँटा शहर है। यह सामने जो खूबसूरत झील आप देख रहे हैं उसका नाम रुथूरुआ झील है। यह उत्तरी न्यूज़ीलैंड की दूसरी सबसे बड़ी झील है। पहली आप लोगों ने क्वींस्टाउन में देखी होगी। यहाँ तीन ज्वालामुखी है। जिनमें से एक अभी भी जीवित है जो एक हज़ार साल पहले फटा था, अभी भी उसमें से लाल सुलगता लावा निकलता रहता है। आजू बाजू के तमाम गाँवों में यहाँ के किसान रहते हैं जो आलू और मके की खेती करते हैं। हम लोग आलू बहुत खाते हैं।" कहते हुए वह हँस पड़ा। "मैं फिर भी मोटा नहीं हूँ।"
टिआरा गाँव के आगे सघन वृक्षों से घिरी सड़क थी। इतनी अधिक सघन कि दिन में भी गहराई शाम जैसा माहौल था। आसपासमोटी पींड वाले केलिफोर्निया रेट बोट के घने दरख़्त थे जो सौ-सौ साल पुराने थे। "लीजिए वाइटोमो लाइम स्टोन केव्ह आ गई। इसकी सुन्दरता पर आप लट्टू हो जायेंगे। जानते हैं इसका नाम वाइटोमो क्यों पड़ा क्योंकि यह पानी से बनी है। wai मतलब वाटर to यानी द्वारा mo याने गुफ़ा। पानी के द्वारा तरह-तरह के केमिकल बने और गुफ़ा बन गई।"
वह हमें गेट पर खड़ा करके टिकट ले आया।
वाइटोमो गुफ़ा ज़मीनी सतह से पचास से साठ मीटर नीचे नदी के अंदर है। इसीलिए इसे ग्लोवर्म अंडरग्राउंड रिवर केव्हज़ कहते हैं। ऐसी ही गुफ़ाएँ मैंने अंडमान में देखी थी। गाइड एक खूबसूरत नौजवान न्यूज़ीलैंड की लड़की थी। उसने छोटा-सा रास्ता पार कराते हुए चट्टान पर लगा बटन दबाने को कहा। मैंने जैसे ही बटन दबाया 'खुल जा सिमसिम' की तरह गुफ़ा का द्वार खुला और अंदर क़दम रखते ही खूबसूरती का समंदर ठांठे मारता नज़र आया। 900मीटर लम्बी गुफ़ा में झाड़ फ़ानूस से लटकते केमिकल्स से अपने आप बने नज़ारे आँखों की राह मन में उतरते चले गए। तीस हज़ार मिलियन साल पुरानी इस गुफ़ा की खोज 1887 में चीफ़ टेन टिनोरू ने की थी। वह समुद्र की लहरों पर तैरती अपनी बोट के द्वारा अचानक इस गुफ़ा में पहुँचा। अँधेरे में जब उसने मोमबत्ती जलाई तो उसकी आँखें गुफ़ा के असीम सौंदर्य से फटी की फटी रह गईं। उसके बाद न्यूज़ीलैंड की सरकार ने 1889 में इसे पर्यटकों के लिए खोला। यहाँ का तापमान 15 डिग्री सेल्सियस है। सफेद और क्रीम कलर के लाइम स्टोन में कभी गनपति झाँकते, कभीहाथी, घोड़ा, मगर। फॉसिल्स और केल्शियम कार्बोनेटसे बनी यह समुद्री पानी कीदुनिया मानो खूबसूरती का शो केस थी। चलते हुए कभी-कभी झाड़फ़ानूसों से मेरे सिर और कंधों पर बूँदें टपक जातीं। गाइड का कहना था कि "ये बूँदों भाग्योदय का प्रतीक है। अगर सिर पर गिरें तो।"
एक विशेष प्रकार की मकड़ी है यहाँ जो लार्वा इस तरह से गुफ़ाओं की छत पर लटकाती हैं जैसे कद्दूकस में लौकी कसी गई है। लटकते बारीक सफ़ेद लच्छे। इस गुफ़ा में सबसे ऊँची गुफ़ा 40 मीटर ऊँची है। गाइडहमें बोट के द्वारा अँधेरे पानी भरे रास्ते से ले गई। इस चेतावनी के साथ कि बोट में बात करना बिल्कुल मना है। आवाज़ से नदी के जीव डिस्टर्ब हो सकते हैं और कभी-कभी वे हमला भी कर देते हैं। हम बिल्कुल ख़ामोश बोट पर सवार थे जो एक साधारण से 15 लोगों की सीट वाली नौका थी। गाइड इस नौका को पतवार से नहीं बल्कि केबल वायर में पिरोये गये हैंडिल की सहायता से चला रही थी। जब मैंने गुफ़ा की छत की ओर देखा तो अपलक देखती ही रह गई जैसे हीरों भरा थाल किसी ने उल्टा लटका दिया हो। केमिकल से बने ये हीरे जुगनू जैसे टिमटिमा रहे थे। इतना अँधेरा कि हाथ को हाथ न सुझाई दे। थोड़ी देर में गुफ़ा ख़त्म हुई। बोट रुकते ही सामने टँगे डिजिटल कैमरे से हमारी फ़ोटो ली गई और हम उजाले की दुनिया में आ गये।
रास्ते में मन को गुदगुदा देने वालेतजुर्बेसे मैं गुज़री। न्यूज़ीलैंड की सबसे बड़ी नदी वाइकॉटो मेरे संग-संग अठखेलियाँ करती चल रही थी। अंग्रेज़ों के ज़माने में भारतीयों को इस इलाके को विकसित करने के लिए लाया गया था। भारतीयों ने यह ज़मीन धान की खेती के योग्य बनाई। पीछे जो पर्वत है उसे उन्होंने नाम दिया बॉम्बे। इलाके का नाम रखा मलबार और जो सड़क बनाई उसे नाम दिया रामारामा...आज भी ये पर्वत, ये इलाका, ये सड़क इसी नाम से जाने जाते हैं। रामारामा सड़क से गुज़रते हुए मैं धान के हरे भरे खेतों संग झूमने लगी। डेनिस बता रहा था-"यहाँ के लोग रेस के बड़े शौकीन हैं। घोड़ों की रेस के। यह जो दाहिनी ओर रेसकोर्स है इसका नाम है काराका। अच्छी नस्ल के घोड़ों पर सरकार बहुत अधिक ख़र्च करती है।"
ऑकलैंड सिटी में प्रवेश करते ही 380 मीटर ऊंचा टॉवर बिल्कुल सिडनी टॉवर जैसा ही दिख रहा था। टॉवर से लगा पाँच सितारा होटल है स्काई सिटी। हमें इसी होटल में रहना था। टॉवर में ही कसीनो है। डेनिस ने बताया कि यहाँ घूमते हुए अगर रास्ता भूल भी गये तो कोई भी टॉवर तक पहुँचा देगा। लेकिन यहाँ सड़क छाप औरतों से सावधान रहना पड़ेगा। जेबकतरी होती हैं वो। वैसे यहाँ के सभी उच्च पदों पर औरतें ही आसीन हैं। एक तरह से शहर की कमान औरतों के ही हाथ में है। शायद इसीलिए यहाँ वेश्यावृत्ति को कानूनी स्वीकृति मिली है। राइटर, आपके लिखने के लिए एक नया विषय। वह खी-खी कर हँसने लगा। मैं खिड़की के बाहर देखने लगी। कोच रेड लाइट एरिया से गुज़र रही थी। सड़कों के फुटपाथ पर अपने बदन की नुमाइश करती औरतें सिगरेट के छल्ले उड़ा रही थीं।
पूराशहर गुज़रे हुए ज़माने की कहानी कह रहा था। पुराने मकान, बंगले, कहवाघर नाचघर मानो हम सौ वर्ष पुराने समय में पहुँच गये हों। जोमेन बाज़ार है वहाँ सभी ओर से सड़कें आकर खुलती हैं। हर सड़क का अपना नाम। दुकानें शाम पाँच बजे बंद हो जाती हैं। तब तक ट्रैफिक भी रहता है। फिरसड़कों पर सन्नाटा छा जाता है। सिटी काउंसिल, आर्ट सेंटर और सामने था मेट्रो स्टेशन... बिल्कुल हमारे मुम्बई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस जैसा स्थापत्य... झक्क, सफेद बिल्डिंग के अंदर से मेट्रो ट्रेन छूटती थी। सड़कों पर लगे लैंपपोस्ट अंग्रेज़ों के ज़माने की याद दिला रहे थे।
ऑकलैंड को दि सिटी ऑफ सेल्स कहते हैं। पेसिफिक सागर के किनारे कुकरमुत्तों जैसी छाई है बोट की कतारें जो हार्बर ब्रिज को, पोर्ट को खूबसूरती का टच देती हैं।
स्काई सिटी के अपने कमरे में एक घंटे आराम करने के बाद मैं प्रफुल्ल और मीना दीदी के साथ सड़कों पर टहलती रही। एक खंभे के नीचे दो आवारा टाइप की औरतें एक दूसरे के हाथ में गिन-गिन कर पैसे रख रही थीं। शायद लूट के माल का बँटवारा कर रही हो। मैंने सोचा... फिर याद आया डेनिस ने आगाह भी किया था। हमने तुरन्त रास्ता बदला और दूसरी ओर मुड़ गये।
गज़ल रेस्तरां में डिनर के बाद हम टॉवर देखने एकदम टॉप पर गये। चमचमाती रोशनी में ऑकलैंड डूबा था। मुझे कसीनो भी जाना था जो टॉवर की दूसरी मंज़िल पर था। कसीनो पहुँचते ही लगा जैसे तिलिस्म की दुनिया में आ गये हैं। लपडुप करते बल्ब, बजता हुआ ऑर्केस्ट्रा, काउंटर से सर्व की जाती मदिरा और खिलाड़ियों को कसीनो गेम यानी जुआ खिलाती कमसिन हसीनाएँ। विशाल हॉल में पैरों के नीचे बिछे थे गुदगुदे कालीन। एकओर लाइन से कम्प्यूटर जैसे कसीनो सेट रखे थे। एक डॉलर से गेम शुरू होता था। मुझे अपनी ज़िन्दगी में एक बार तो ज़रूर कसीनो खेंलना था। दसमिनिट में ही मैं दो डॉलर हार गई। प्रफुल्ल ने सौ डॉलर लगाकर तीन सौ डॉलर जीते थे।
सुबह डेनिस ने हमें सिडनी जाने के लिए ऑकलैंड एयरपोर्ट पहुँचाया। मेरी फ्लाइट सिडनी से मुम्बई के लिए थी। मेरा सामान डेनिस ख़ुद ट्रॉली में रखकर लाया-"राइटर, मुम्बई फ़ोन कर लीजिए कि आप पहुँच रही है।"
कैसे बताती उसे कि मेरा इंतज़ार करने वाला कोई नहीं है मुम्बई में। मैं ज़िन्दगी का सफ़र अकेले तय कर रही हूँ। बस इतना ही कह पाई-"इस वक़्त तो सब सो रहे होंगे। रात का साढ़े ग्यारह बजा होगा वहाँ। यहाँ की घड़ी से सात घंटे पीछे है मेरे देश का समय।"
"सिर्फ समय राइटर... वरना हर बात में भारत सबसे आगे है।"
मैं अभिभूत हो उस बातूनी को देखती रह गई जिसने एक ही वाक्य में मेरे दिल में जगह बना ली थी।