नीले सागर पर मरकत से बिखरे हैं अंडमान निकोबार / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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शैली की कविता है

मैनी अ ग्रीन आइल नीडस् मस्ट बी / इन द डीप वाइड-सी ऑफ मिज़री / ऑर द मैरिनर वॉर्न एंड वान / नेवर दस कुड वॉयज़ ऑन।

हरे-भरे द्वीप अवश्य ही होंगे / व्यथा के गहरे और फैले सागर में / नहीं तो थका हारा सागरिक / कभी ऐसे यात्रा करता ना रह सकता।

अचंभित हूँ मैं मुग्ध भी। भारत के नक्शे से अलग-थलग बंगाल की खाड़ी में उत्तर दक्षिण की ओर 780 किलोमीटर क्षेत्र में फैले छोटे-छोटे द्वीप समूह जिनका भूभाग 8293 किलोमीटर तक फैला है अंडमान निकोबार द्वीप समूह नाम से जाने जाते हैं और इन्हें देख कर मेरा सागरिक मन सोचने लगता है कि इसका नाम अंडमान यों पड़ा होगा कि हनुमान जी लंका की खोज में यही से गुजरे थे और उनका नाम अंडमान भी है। सागर के हजारों किलोमीटर फैले वक्ष स्थल पर आरती की सजी थालियों से तैरते ये द्वीप... 570 द्वीपों में से केवल 38 पर मानव आबादी है। इनमें 26 द्वीप अंडमान में हैं और 12 निकोबार में। पूर्वी हिमालय से होते हुए म्यांमार, अराकान और सुमात्रा के डूबे हुए पर्वतीय श्रंखलाओं के शिखर है यह द्वीप समूह। उष्णकटिबंधीय मौसम, चारों और हरियाली से भरे भारत के ये द्वीप दुनिया के हवाई द्वीपों के अनुरूप ही है। जैसी कल्पना की थी उससे कहीं अधिक सुंदर, अनदेखे, अनछुए प्रकृति की सुंदर संरचना से परिपूर्ण मानो कुदरत के करिश्मे का प्रवेश द्वार हों।

लेकिन तब ...जब भारत पर ब्रिटिश शासन था और जब 1857 का गदर हुआ था और जब अंग्रेजों ने अंडमान को एक बड़े कैदखाने के रूप में परिवर्तित कर दिया था। घने जंगल, बड़े-बड़े मच्छर, जोंक, हहराता अथाह सागर... मातृभूमि से हजारों किलोमीटर दूर इन जंगलों में बने कैदखाने में जहाँ की कोठरियों में न प्रकाश का इंतजाम था न जीवन का कोई उल्लास कैसे काटी होगी उन आजादी के दीवानों ने उम्र कैद या फांसी की सजा का इंतजार। वे आपस में बातचीत तक नहीं कर सकते थे। नारियल के टुकड़ों पर बुलबुल का झुंड चहकता बस इतना ही शोर था जीवन में। अहो! दुर्भाग्य कि सजा पाने वाला भी हिंदुस्तानी, देने वाला भी हिंदुस्तानी, निगरानी करने वाला भी हिंदुस्तानी, बस सजा सुनाने वाले भर अंग्रेज। अंग्रेज। सालों साल गुजरे हैं इस यातना में। मातृभूमि के लिए तड़पते इन शूरवीरों को कहाँ दिखा होगा रंग बिरंगा सागर? उन्हें तो बस दिखा होगा काला पानी जिसे तैरकर उस पार पहुँचने के उनके ख्वाब हर रात चकनाचूर हुए होंगे।

सेल्युलर जेल राष्ट्रीय स्मारक है जिस में कैदियों को दी यातनाओं के दस्तावेज है। मेरे साथ है लेखिका प्रमिला वर्मा, पोर्ट ब्लेयर के पत्रकार महेद्र और गौतम तथा गाइड व्यंकटेश। जैसे पैरों में पंख उग आये हो। प्रवेश द्वार के दाहिनी ओर की लकड़ी की सीढ़ियाँ मैं लगभग दौड़ते हुए तय करती हूँ। सामने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन का लेखा-जोखा विभिन्न तस्वीरों में प्रदर्शित किया गया है। नीचे उतरते ही एक बड़े हॉल में जेल का मॉडल रखा है। वेंकटेश बताते हैं " अंडमान को एक बड़े कैदखाने के रूप में परिवर्तित करने का काम 1896 में ख़ौफनाक अंग्रेज चीफ कमिश्नर एडिम की निगरानी में शुरू हुआ। सोचा गया कि 3 साल में काम पूरा हो जाएगा पर लग गए 10 साल।

सेल्युलर जेल में सात विंग बनाई गई। प्रत्येक विंग तीन मंजिली थी। कुल 698 काल कोठरियाँ बनी। साढे 13 फीट लंबी और 7 फीट चौड़ी उन कोठरियों में कैदियों के लिए टॉयलेट की कोई अलग व्यवस्था नहीं रखी गई। सातों विंग में तिन करोड़ ईंटे लगी जो इंडोनेशिया, बर्मा से जहाजों में भरकर यहाँ लाई गई।

"उतनी दूर से?"

ये द्वीप यहाँ से हैं ही कितनी दूर। बल्कि जावा, सुमात्रा द्वीप भी यहाँ से 100 से 500 किलोमीटर की दूरी पर ही तो है। उस जमाने में इसको बनाने में 517352 रुपए खर्च हुए। भारत से 600 कैदियों की पहली खेप काले पानी की सजा काटने यहाँ लाई गई। जेल की विग की घोर अंधकार भरी कोठियों में इन्हें रखा गया। हर एक विंग का आपस में कोई कनेक्शन नहीं था। कैदियों के अपनी-अपनी वर्कशॉप में जाने के रास्ते अलग-अलग थे। ताकि आपस में कोई मिले ना। तीन मंजिली इमारत में एक विंग से दूसरी विंग में लकड़ी के फट्टो से जाया जाता था। बाद में फट्टे हटा दिए जाते थे। प्रत्येक कोठरी की सांकल को आले में घुसा कर ताला लगा दिया जाता था। न आले तक कैदी का हाथ पहुँचेगा न वह जेल से भागने की सोचेगा।

"क्या दिमाग पाया है अंग्रेजो ने जैसे कैद न हो चक्रव्यूह हो"

"चक्रव्यूह ही था मैडम।"

महेंद्र ने कहा " असल में भारत से इतनी दूर अथाह सागर से घिरे इस द्वीप पर जेल बनाने का मकसद ही कैदी को आपसी संवाद, मेलजोल, आजादी की योजनाओं आदि से दूर रखना था। उनकी सजाएँ भी भयानक थी। ये कोठरियाँ भी उन्हें तब नसीब होती थी जब वे तीन तरह की सजाएँ पहले भुगत लेते थे। चेन फटेटर सजा जिसमें कमर और पैर लोहे की छड़ में फंसा कर दोनों हाथ कमर में चेन से बाँध देते थे। न कैदी बैठ सकता था न हिलडुल सकता था। बस पैर हिला सकता था। दूसरी सजा बार फ्टेटर थी। इसमें हाथ पैर दोनों चेन से बाँध देते थे। तब न हाथ पैर हिला सकते थे ना कोई काम कर सकते थे। तीसरी सजा थी क्रॉस फ्टेटर। इस में लोहे की चेन कमर से पैर तक बंधी रहती थी। तीनों सजाएँ हफ्ता-हफ्ता भर भुगत कर वह काल कोठरी में लाया जाता था वहाँ भी उसे हथकड़ी बेड़ी में जकड़ कर रखा जाता था। गर्दन के हिसाब से लोहे का रिंग डालकर लकड़ी के लंबे टुकड़े पर उनका परिचय, सजा की तारीख, कैदी नंबर आदि लिखा जाता था। वही नंबर उनकी पहचान था, सम्बोधन था। कोठरी में कटोरे में दो डिब्बे पीने का पानी 24 घंटे के लिए दिया जाता था। दूसरे कटोरे में कैदी टट्टी पेशाब करते थे। नहाने के लिए समुद्र का खारा पानी था। जो शरीर पर सूख कर खुजली पैदा करता था। कितने ताज्जुब की बात है कि चारों ओर नमकीन जल का साम्राज्य लेकिन खाना फीका, बिना नमक के उबले चावल, पनीली दाल, कच्ची अधजली रोटियाँ, सब्जियों में कीड़ों की भरमार रहती। क्योंकि अंडमान द्वीपसमूह नारियल और सुपारी के वनों से आच्छादित थे अतः इन कैदियों के काम थे प्रतिदिन कोल्हु से 30 पौंड नारियल का तेल निकालना, तीन सेर नारियल के रेशे से रस्सी बुनना, नारियल के छिलकों को कूटना। काम पूरा न कर पाने की स्थिति में टाट की वर्दी पहना कर धूप में जंगल में लकड़ी काट ने भेजा जाता था। टिकटी से बाँधकर नंगी पीठ पर तब तक कोड़े मारे जाते जब तक खून न छलक आये। काम पूरा होने पर प्रथम श्रेणी के कैदी को एक आना 9 पाई मजदूरी मिलती थी। बाद में प्रथम श्रेणी का तीन आना, द्वितीयका ढाई आना और तृतीय का एक आना तय किया गया।

1922 से 1930 के बीच मलाबार के मोपला विद्रोही और आंध्र प्रदेश के रंपा विद्रोही भी अंडमान भेजे गए।

मैं पहली मंजिल पर हूँ जहाँ की 4 कोठरियों में फांसी की सजा प्राप्त कैदी रखे जाते थे। एक-एक कोठरी जैसे उनकी पीड़ा की कहानी कहती थी। , "वह देखिए मैडम नीचे लॉन में जो सफेद चूने से पुता बिना पायो का बैंच जैसा है ना फांसी घर ले जाने से पूर्व यहाँ कैदी को मीठे पानी से स्नान कराकर पूजा पाठ कराया जाता था। उसके पीछे वह फांसी घर है।"

मेरे रोंगटे खड़े हो गए। एक छोटे से कमरे में तीन मोटे-मोटे फांसी के फंदे झूल रहे थे। वेंकटेश को बताना था, बता रहा था। भावनाओं में तो मैं बही जा रही थी। जैसे आज से सौ साल पहले मुझे यहाँ फांसी दी गई फांसी हो। फांसी एक साथ तीन कैदियों को दी जाती थी। बाद में उनकी लाश का कोई अंतिम संस्कार नहीं होता था। देश के लिए शहीद होने वाले ये मतवाले सेनानी जेल की दीवार से लगे समुद्र में फेंक दिए जाते जहाँ उनकी लाश मछली, मगर का भोजन बनती। आजादी की क्या यही कीमत है? मेरी आंखें छलछला जाती हैं। कितनी पीड़ा, कितनी निर्मम मौत। " यह जो सभी विंग्स के बीच लाइट हाउस है उस समय यहाँ खड़े होकर गार्ड सातो विंग की निगरानी करता था। फांसी के समय लाइट हाउस से जोर-जोर से घंटे बजने आरंभ होते थे और लाइट इतनी तेज जलती कि समुद्र में दूर से आते जहाज के यात्रियों को पता चल जाता कि तीन कैदियों को फांसी दी गई है। उस दौरान फांसी घर में 87 कैदियों को फांसी दी गई और उस निर्मम हिंदुस्तानी गार्ड को फांसी से कोई मतलब नहीं था। उसका काम था निगरानी करना और फांसी के बाद उजाले का जश्न मनाना। लेकिन कहते हैं किसी भी चीज की इंतहा बर्बादी का कारण है।

17 मई 1941 को चाथम द्वीप पर रॉयल एयर फ़ोर्स जापान द्वारा बम गिराए गए। इस बमबारी में सेल्यूलर जेल के चार विंग नष्ट हो गए। आजादी के बाद इन चारों विंग्स के मलबे से अंडमान के सबसे बड़े अस्पताल गोविंद बल्लभ पंत अस्पताल का निर्माण उसी जेल भूमि पर किया गया। पहले जहाँ कैदियों का लकड़ी से बना अस्पताल था वहाँ शहीद स्तंभ बना है जिसका निर्माण 1979 में किया गया। प्रथम विश्व युद्ध से पहले जो शहीद हुए थे यह उन्हीं की स्मृति में बना है। शहीद स्तंभ की ओर जाने वाली सीढ़ियों के बाई ओर शहीद ज्योति है जो हमेशा जलती रहती है। दाहिनी ओर पीपल का वह ठूँठ है जो उस जमाने का मूक साक्षी है और जो लाइट एंड साउंड शो में सिसकते स्वरों में ओमपुरी की आवाज में उस समय की यातनाओं भरी कहानी कहता है। विनायक दामोदर, इंदुभूषण रॉय, बाबा भान सिंह, पंडित रामसखा, महावीर सिंह, मोहन किशोर नामदास, मोहित मोइत्रा सबके लिए सजाएँ सुनाता था, टॉर्चर के हुक्म देता था, सामने कुर्सी पर बैठा जेलर डेविड। 123 नंबर की कोठरी में वीर सावरकर रहते थे। जिनकी कोठरी पर लिखे वाक्य विवाद का विषय बने थे। उनके भाई गणेश सावरकर भी उसी दौरान सेल्युलर जेल में थे पर दोनों भाइयों को इस बात का पता न था। वतन छुड़ाकर दूर समंदर से घिरे एक वीरान टापू पर लाए गए स्वतंत्रता वीरों की आह का असर... अत्याचारी डेविड कलकत्ते जाकर मरा। उसे अपना वतन भी दुबारा देखना नसीब नहीं हुआ। मैं डूब गई हूँ आकंठ उस काले पानी में जिसकी यातना भरी कहानी मेरी रग-रग में नुकीले दंश चुभो रही है। जब मैं रुमाल से अपनी आंखें पोछती हूँ तो मेरे बाजू में बैठा चिप्स खाता हनीमून जोड़ा मुझे आश्चर्य से देखता है। सोचती हूँ ...भावना कितनी अर्थहीन होती जा रही है। जमाने की बदली हवा का असर कि इतने गमगीन माहौल में भी लोग अपना मनोरंजन ढूँढ लेते हैं।

सेल्युलर जेल के निर्माण के दौरान कैदियों को वाइपर द्वीप में रखा जाता था। वाइपर द्वीप जाने के लिए हम वॉटर स्पोर्टस कॉन्प्लेक्स में ही बने फोनिक्स बे जेट्टी पर आए। वेंकटेश विदा ले चुका था। अपना चार्ज अनुराधा को सौंप कर। दुबली-पतली फुर्तीली अनुराधा गाइड जहाज पर बैठे यात्रियों का परिचय स्वयं ही पूछ रही थी। मौसम खुशगवार लेकिन सागर बौखलाया हुआ था। लहरें ऊंची-ऊंची मानो लपक कर जहाज में बैठे मुसाफिरों को छूना चाह रही हों। हम खुली डेक पर आ गए। धूप ऐन सर पर थी। जब अंग्रेज इन सुनसान, घने, गहरे जंगलों से भरे और चारों ओर हहराते सागर के शोर से डरावना एहसास कराते द्वीपों पर कैदियों की बस्ती बसाने आए थे तो सबसे पहले उन्होंने चाथम द्वीप पर कब्जा जमाया था। लेकिन पानी की कमी के कारण पच्चीस-पच्चीस की संख्या में कैदियों को वाइपर द्वीप भेजा गया जहाँ पहले ही दिन कैदी नंबर 46 ने आत्महत्या कर ली।

वतन की याद में तड़पते कई भूखे-प्यासे कैदी सागर में कूद पड़े पर उनमें से एक भी तट तक नहीं पहुँच पाया उन्हें या तो भूख प्यास ने मार डाला या आदिवासियों के जहर बुझे तीरों ने। 8 अक्टूबर 1858 को भारत से कैदियों के चार दल जिस जहाज पर इस द्वीप में भेजे गए थे उस जहाज का नाम वाइपर था। उसी के नाम पर इस द्वीप का नाम वाइपर रखा गया। वाइपर में पश्चिमी क्षेत्र का मुख्यालय था। अंडमान की इस पहली जेल में सजा के दौरान कैदियों ने अंग्रेजो के रहने के लिए सुंदर भवन और सड़कों का निर्माण किया था। मीठे पानी से भरे तीन गहरे कुएँ खोदे थे। यहाँ खतरनाक माने जाने वाले कैदियों को बेड़ियों में जकड़ कर रखा जाता था। सेलूलर जेल बनने के बाद भी अंडमान आने वाले हर कैदी को चेन से बाँधकर पहले वाइपर द्वीप लाया जाता था ताकि खूंखार कैदियों को दी जाने वाली रूह थर्रा देने वाली यातनाएँ देखकर वह भयभीत हो जाए। उनसे जो काम कराए जाते थे वह भी सजा जैसे ही पीड़ादायक थे। उनके औजार भोथरे थे ताकि वह किसी पर हमला न कर सके।

जहाज वाइपर द्वीप की जेट्टी पर लग चुका था। भारी मन से हम वाइपर द्वीप में प्रवेश कर रहे थे। स्वतंत्रता सेनानी ननी गोपाल, नंदलाल और पुलिन दास को भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए जिन्हे यहाँ बंदी बनाकर रखा गया था। ऊंचे-ऊंचे घने दरख्तों से भरपूर यह छोटा-सा द्वीप मूक साक्षी था उन दिनों का। लाल और सफेद रंग से पुते साफ-सुथरे वीरान उन चार कमरों के आगे बरामदे में खड़ी अनुराधा धाराप्रवाह बोल रही थी।

"इन कमरों में मृत्यु की सजा प्राप्त कैदी को लाया जाता था। फांसी से 1 दिन पूर्व यहाँ उन्हें भोजन कराया जाता था। दूसरे दिन उन्हें दूसरे कमरे में ले जाकर बताया जाता था कि उन्हें फांसी क्यों दी जा रही है। फांसी पहाड़ी के ऊपर बने कमरे में दी जाती थी जहाँ की 80 सीढ़ियों को कैदी खुद चढ़ता था। रात को 7 और 8 के बीच फांसी दी जाती थी। अधिकतर कैदी फांसी पर लटकने के बाद जल्दी नहीं मरते थे लेकिन अंग्रेजों के पास इतना समय कहाँ था। वे मूर्छित अवस्था में ही कैदी का पोस्टमार्टम कर लाश को बोरी में भरकर समुद्र में फेंक देते थे।"

उन चारों कमरों को देखने के बाद अब मैं फांसी घर देखने के लिए 80 सीढ़ियों को चढ़ रही थी। तो सर से पैर तक एक उबाल मेरे शरीर में तिर रहा था। न, यह भावना का जोर नहीं था। यह उन जीवित कटते शहीदों के लिए सुलगता दावानल था जिसने मेरी रूह को कंपा डाला था। फांसी घर में फांसी के लिए लटकते मोटे रस्से को देख अनुराधा ने अथाह पीड़ा में भरकर कहा "यहाँ शेर अली को फांसी दी गई थी।"

मैंने इतिहास में एम ए किया है और जब भी मैं नारी विमर्श पर लेख लिखती हूँ इतिहास के उन पन्नों से कुलबुला कर शेर अली बाहर निकल आता है। कौन है यह शेर अली? शेर अली पेशावर का था। वहाँ उसने अंग्रेज ऑफिसर ब्रिगेडियर ऑस्कर की हत्या की थी इसलिए उसे काले पानी की सजा हुई परंतु उसके अच्छे व्यवहार के कारण उसे जेल का नाई बना दिया गया। उसी दौरान लॉर्ड मेयो ने जेल की महिला कैदी के साथ बलात्कार किया। यह तो जेल का चलन था। अंग्रेज अपने मनोरंजन के लिए किसी भी महिला कैदी को उठा लेते थे। शेर अली के बर्दाश्त से बाहर की थी यह वारदात। उसने अपने उस्तरे से अपनी बेड़ियाँ काटी और समुद्र में छलांग लगा दी। वह तैरता हुआ होपटाउन पहुँचा जहाँ लॉर्ड मेयो एक दिन की छुट्टी मनाने रुका था। उसने उस्तरे से उसकी हत्या कर दी और अंग्रेज सरकार के सामने समर्पण कर दिया। लेकिन इसके पहले उसने पुरुष कैदियों को राजी कर लिया था कि वह महिला कैदियों से जेल में ही शादी कर लें ताकी बलात्कार की घटनाएँ दोहराई न जा सके। 1872 में वाइपर द्वीप के इसी फांसी घर में शेर अली को फांसी दे दी गई थी।

कितनी जीवट दृढ़ता थी शेर अली में। उसने औरत के ऊपर किए अत्याचार का बदला लिया। अंतरजातीय विवाह परंपरा की शुरुआत का श्रेय भी उसे ही जाता है। मेरा माथा श्रद्धा से झुक गया शेर अली की याद में। जब सेल्यूलर जेल बन गया तो वाइपर से सारे कैदी वहाँ शिफ्ट हो गए। वाइपर खाली हो गया। 87 वर्षों तक वाइपर द्वीप की अंग्रेज प्रशासन में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। 1 मार्च 1942 से जब अंडमान निकोबार पर जापानी कब्जा हुआ तो वे वाइपर पर ही ठहरे 7 थे। जापानियों ने 3: 30 साल तक यहाँ राज किया। बाद में यहाँ फिर अंग्रेजों की सत्ता थी। शासन चाहे जिस का रहा हो पर वाइपर द्वीप के ये खंडहर मूक साक्षी है कि समय किसी का एक-सा नहीं रहता। प्रकृति भी तो हर मौसम में, हर ऋतु में अपना रूप बदलती है। समय के थपेड़ों ने अंग्रेजी शानो-शौकत को आज खंडहर में बदल दिया है। मैं भारी मन से लौट रही हूँ।

सुबह हमें रॉस द्वीप के लिए निकलना था। पर हमारी वैन के ड्राइवर राजा ने बताया कि रॉस द्वीप के लिए जहाज 1: 00 बजे छूटेगा। बहराल 8: 00 बजे सुबह हम मिनी जू की ओर रवाना हुए। अंडमान निकोबार में पाए जाने वाले सभी पक्षी और जानवर वहाँ मौजूद थे। मुझे तो हीरामन तोता बहुत पसंद आया जो चार रंगों का था। वहाँ से समुद्रीका म्यूजियम गए जो नेवी के अंदर आता है और जहाँ समुद्र से सम्बंधित सारी जानकारी है। अलग-अलग विभागों में बंटे इस म्यूजियम की सैर करते हुए जब मैं ए एंड एन द्वीप, शेल्स, कोरल्स ओशन और आर्कियॉलॉजी विभाग से गुजरती हूँ तो लगता है जैसे मैं पातालपरी हूँ और सागर के अद्भुत आकर्षक और अविश्वसनीय लोक में विहार कर रही हूँ। अपने बराबर आकार की सीपी देख तो मैं चकित रह गई। म्यूजियम के लॉन में बीचों बीच बड़ा-सा नेवी का जहाज था। जिस पर नेवी का झंडा लहरा रहा था। लचीली धूप पर गौरैया फ़ुदक रही थी। पूरे अंडमान में यही एक ऐसी जगह थी जहाँ के स्टॉल पर आदिवासियों की तस्वीरें, सी डी आदि आसानी से उपलब्ध हैं।

यूं तो अंडमान में बारिश होती रहती है पर इत्तफाक देखिए कि मेरे प्रवास के उन दस दिनों में केवल दो दिन हल्के छीटे पडे। आज भी बादल लदे थे। ठंडी हवाएँ चल रही थी। मौसम खुशगवार था। ठीक 1: 00 बजे फोनेक्स बे जेट्टी से रॉस द्वीप के लिए जहाज छूटा। अनुराधा फिर मिली ...हम तीनों डेक पर खड़े समुद्र के नीले विस्तार को भर आँख देखते रहे। करीब 40—45 मिनट की समुद्री यात्रा के बाद रॉस द्वीप पहुँचे जो 200 एकड़ भूमि का बेहद खूबसूरत द्वीप था लेकिन अब केवल 70 एकड़ भूमि ही बची है। बाकी की 130 एकड़ भूमि पानी में डूब चुकी है क्योंकि जापानियों ने द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान इस पर बमबारी की थी। नारियल, सुपारी, पीपल, बरगद आदि के सघन दरख्तों से भरे इस द्वीप पर चीतल, हिरन आदि जानवर है। अनुराधा हिरणों को नाम ले लेकर बुलाने लगी। झाड़ियों में छिपे हिरण सरपट दौड़ते आए। वह कंधे से लटकते बैग में से डबल रोटी निकाल कर उन्हें खिलाने लगी। वह उन्हें बच्चे जैसा प्यार कर रही थी। उसने बताया कि इन जंगलों में लगभग 200 मोर भी हैं।

1759 में इस ग्रुप इस टापू को बसाया गया था। ईंटे रंगून, बर्मा, थाईलैंड से लाई गई। 1825 में यह अंडमान की राजधानी था। सारी अंग्रेज सरकार यही रहती थी। उस जमाने में यहाँ की आबादी 2200 थी जिसमें 165 अंग्रेज थे। बाकी भारतीय बंधुआ मजदूर। अंग्रेजों ने अपने लिए इन मजदूरों से बंगले, बार रूम, डांसिंग फ्लोर, ओपन स्टेज जहाँ हंसी-मजाक, शराब आदि का दौर चलता था, गार्ड रूम आदि बनवाए। 1740 में यहाँ एक चर्च बना जो पांच मंजिलों का था। अब सब खंडहर हो चुका है। उखडे पलस्तर और उखड़ी ईटों पर पीपल, बरगद की मोटी-मोटी सर्पीली जड़ें चिपकी है। बेकरी भी खंडहर हो चुकी है जिसके विशाल घेरे में ब्रेड, बिस्किट का आटा गूंथा जाता था। खूब बड़ा टेनिस कोर्ट है जिसके किनारे पर समुद्र की लहरें टकरातीं हैं। बेकरी के दाहिनी ओर थोड़ी चढ़ाई पर खतरनाक कैदियों की जेल कोठरियाँ हैं। इन्हीं में से एक कोठरी में शेर अली को लाया गया था। जेल कोठरियों से आगे 250 फीट ऊंचा पॉइंट है जहाँ से समुद्र बेहद खूबसूरत दिखता है। उसके पीछे कैदियों को सजा दी जाती थी।

अनुराधा हमें जंगल में बने जापानियों के बैरक दिखाने ले गई। रास्ते में अंग्रेजों की सिमिट्री पड़ी। कितने ताज्जुब की बात है कि बंगले आदि सब खंडहर हो चुके हैं लेकिन सिमिट्री वैसी की वैसी, सूखे पत्तों से घिरी जिंदगी के भयानक सच का बयान करती। बैरक देख कर लौट रहे थे तो सूखे पत्तों में छुपी सीढ़ियाँ दिखाई दी।

"ये सीढ़ियाँ?"

' नीचे मीठे पानी की पौंड है। ऐसी कई पौंड है इस द्वीप में। अंग्रेज इसके पानी में नहाते थे। कपड़े धोते थे। जबकि भारतीयों को नहाने के लिए समुद्र का पानी दिया जाता था। कदम-कदम पर अंग्रेजों के जुल्म बिछे थे। एक बरगद 500 साल पुराना मिला। जिस पर पीपल का झाड़ चढ़ गया था और डालियों पर पैसाइड फर्न निकल आया था। अद्भुत दरख्त था वह। नीचे ढलान पर तट से थोड़े फ़ासले पर नौ सेना द्वारा स्थापित स्मृतिका संग्रहालय है जहाँ रॉस द्वीप पर अंग्रेजों की जीवन शैली फोटो, पेंटिंग्स आदि के द्वारा दर्शाई गई है।

थक चुके थे एक जगह हरे नारियल बिकते देख हम कुर्सियों पर बैठ गए अचानक सामने असगर वसाहत जी दिखे। वे अकेले बैठे नारियल पी रहे थे। मैं उन्ही के पास जाकर बैठ गई।

"कहाँ ठहरी हो, फोन नंबर वगैरह दे दो। गुरुवार को यहाँ के लेखक गोष्ठी कर रहे हैं। आ जाना।" तभी गौतम बोल पड़ा "मैडम तब तो आप हैवलॉक द्वीप में होंगी"

अरे हाँ मन ही मन खुश हूँ कि एक दिन गोष्ठी बाजी से बचाकर मैं इन द्वीपों को देखूंगी, समझूंगी।

लौटते हुए एक बारह तेरह साल की लड़की अपनी नोट बुक लेकर मेरे पास आई "आंटी बताएंगी इस द्वीप का नाम रॉस द्वीप कैसे पड़ा?" मैं मुस्कुराई इस द्वीप को अंग्रेज ऑफिसर डेनियल रॉस ने बनाने की योजना बनाई थी इसीलिए इसका नाम रॉस द्वीप पड़ा। "

असगर वजाहत पैदल थे हमने उन्हें अपनी वैन से एबरडीन मार्केट तक छोड़ दिया। राजा हमें एंथ्रोपोलॉजीकल म्यूजियम ले आया। इस म्यूजियम में अंडमान निकोबार द्वीप समूह में रहने वाली जनजातियों के जीवन का विस्तृत वर्णन तस्वीरों, पेंटिंग्स, मॉडल्स आदि के द्वारा बताया गया है। न जाने कब इन्हें प्रत्यक्ष देख पाऊंगी, मिल पाऊंगी बेताब थी मै।

"चलिए मैडम, लगे हाथ फिशरीज म्यूजियम भी देख लेते हैं। अभी खुला मिलेगा।"

महेंद्र ने जल्दबाजी में मेरा हाथ पकड़ा और बाहर वह तक दौड़ा लाया। पीछे-पीछे गौतम और प्रमिला बेतहाशा हंसते चले आ रहे थे। धूप खिल आई थी। समुद्री जीवो का विशाल संग्रहालय है यह म्यूजियम। कई प्रकार की मछलियाँ अद्भुत रंग, आकार... सुंदर कोरल्स, शंख सीपियाँ और उफ़... फर्श पर इस छोर से उस छोर तक रखा विशाल व्हेल का अस्थि पंजर। उसके आगे हम बौने से। गुलीवर की कल्पना क्या व्हेल को देखकर ही की थी लेखक ने? राजा ने बताया कि सूर्यास्त देखने मुंडा पर्वत जाना है। जलती धूप देख हम तेजी से वेन में बैठ गए। इस वक्त आसमान एकदम साफ था। रास्ते में चिड़िया टापू भी देखा। यह एक अनोखा पर्यटक स्थल है। जहाँ मैंग्रोव की झाड़ियाँ तट को घेरे हैं। मैंग्रोव की जड़ें ऊपर की ओर होती हैं और पेड़ के लिए आक्सीजन लेती हैं। ऐसी झाड़ियाँ मैंने मॉरीशस में भी देखी थे। मुंबई में भी हैं वसई की खाड़ी के किनारे। मंदार पर्वत द्वीप में चमकते हुए सूरज को पहली बार अस्त होते देखा। सागर का पानी सूरज की किरणों से झिलमिला रहा था। न वह नारंगी हुआ न सतरंगी चमकता सूरज मुंडा की पहाड़ियों के पीछे छुप गया और तुरंत सुरमई अँधेरा फैल गया अद्भुत रोमांचक जैसे चांदी की माया में खो गया हो सूरज।

जब हम गांधी पार्क आये तो अँधेरा हो चुका था। गांधीजी की सफेद पेंट की हुई विशाल प्रतिमा जो बैठे हुए, किताब पढ़ते हुए थी सर्च लाइट की रोशनी में नहाई हुई थी। आगे जापानियों का पगोडा टाइप सूर्य मंदिर था। पगोडा के अंदर सफेद स्तंभ पर लगे काले पत्थर पर सुनहरे अक्षरों में जापानी भाषा में कुछ लिखा था। उसी के सामने एक नुकीली चट्टान ...क्योंकि जापानियों ने इस द्वीप के विकास के लिए करोड़ों का दान दिया था। अतः यह उनकी स्मृति में लगाई गई थी।

आज बुधवार है। मुझे असगर वजाहत याद आए पर मन तो हैवलॉक द्वीप में रखा था। हैवलॉक के लिए जहाज सुबह 7: 00 बजे छूटा। 3: 30 घंटे के समुद्री सफर के बाद जब जहाज हैवलॉक जेट्टी पर लगा तो जयंतो हमारे नाम का छोटा-सा पोस्टर लिए खड़ा दिखा। राजा और वेन पोर्ट ब्लेयर में रह गए थे। यहाँ जयंतो और उसकी जीप थी। 10 मिनट में हम डॉल्फिन यात्री निवास पहुँच गए। प्रकृति की गोद में बसे इस खूबसूरत रिसोर्ट में सफेद और नीले पेंट वाली दो-दो कमरों की हट हैं जिनमें रहना मानो परीलोक की सैर करना है। क्योंकि हट चार खंभों का आधार लेकर बनी है और उस की बालकनी में पड़ी कुर्सियों पर जब मैं बैठी तो सामने पांच रंगों का मोहक सागर था। चारों ओर नारियल आदि के दरख्त और लॉन में धूप और सफेद रेत। सफेद रेत पर नेट के झूले। यहाँ के लिए एक दिन तो बहुत कम है। दोपहर ढल चुकी थी। जयंतो हमें यहाँ से 10 किलोमीटर दूर राधानगर बीच में ले आया जो जंगल के एकांत में हमारे साहस को चुनौती देता-सा लगा। श्वेत रेत और अथाह सौंदर्य से भरे सागर के किनारे, घने जंगल से घिरा ये द्वीप शांति और सन्नाटे से भरा था। पेड़ों की सघनता से जंगल में अँधेरा था लेकिन डरावना नहीं, सुरमई ...वहीं एक मचान था जहाँ से हाथी पर बैठकर जंगल में घूमा जा सकता था। हलचल थी पर शांत ...द्वीप के अनुरूप ही। कुछ बीच पर नहा रहे थे, कुछ हाथी की सवारी ले रहे थे। विदेशी पर्यटक श्वेत रेत पर लेटे थे। सभी अपने में डूबे हुए। एक अजब-सी उदासी ने मुझे घेर लिया। डूबते सूरज के बनते बिगड़ते दृश्यों ने उदासी को और गहरा कर दिया था।

रात डिनर के दौरान गौतम और महेंद्र यहाँ के सूर्योदय की तारीफ करने लगे।

"यह जगह सनराइज पॉइंट के नाम से मशहूर है। आप मैडम रिसेप्शन में कह दे कि वह सूर्योदय के समय आपको वेकअप कॉल दे दे।" लेकिन मेरी नींद 4: 30 बजे सुबह ही खुल गई 4.40 पर सूर्य की पहली किरण इस द्वीप को छूती है। मुंबई में तो 6: 00 बजे सूरज निकलता है। हम सब समंदर में तट से लगे रिसोर्ट की दीवार पर बैठे सूरज निकलने का इंतजार करते रहे पर बादलों के कारण सूरज नहीं दिखा। मैं उदास मन झूले पर आकर लेट गई। चारों ओर से समुद्री हवाएँ मुझे छू रही थी। ऊपर पेड़ों की डालियाँ पत्तों का चंदोवा-सा ताने थी। मैंने आंखे मूंद ली। तभी प्रमिला चिल्लाई ' अरे देखो कितना प्यारा सूरज " मैंने देखा किरण विहीन ठंडा सा, शांत-सा सूरज काफी ऊपर आसमान में उगा था। नाश्ते के बाद जयंतो ने मेरा बैग जीप में रख दिया। मैंने जी भर कर समंदर और आसपास के सौंदर्य को निहारा। अलविदा जीवन में अब दुबारा कहाँ 11 आ पाऊंगी यहाँ।

हैवलॉक जेट्टी पर संजय जो जयंतो का दोस्त था ने टिकट लाकर दी। हमें रंगत द्वीप जाना था। जहाज में बेतहाशा भीड़ थी। शोर इतना की कान फ़टे जा रहे थे। टीवी, टेपरिकार्डर सब एक साथ बज रहे थे। जैसे तैसे सफर कटा। रंगत में हम पियरलेस होटल में रुके। अब राजा साथ था। वह रंगत में वैन लेकर आ गया था। बताया कि रंगत अंडमान का सबसे बड़ा शहर है। यहाँ के सागर तटो पर मौसम आने पर कछुए अंडे देते हैं।

दोपहर 3: 30 बजे हम अमकुंज बीच आये। बीच के मोड़ पर लिखा था ' बीच की रक्षा के लिए मेंग्रोव्ज़ को बचाइए। बीच क्या था मानो कोरल्स का खुला खजाना। इतने खूबसूरत कोरल पूरे तट पर बिखरे पड़े थे। हम जल्दी-जल्दी कोरल्स इकट्ठे करने लगे। तभी एक बंगाली दंपति ने बताया कि यहाँ से कोरल ले जाना गुनाह है। एयरपोर्ट पर चेकिंग के दौरान 5000 तक का जुर्माना देना पड़ता है और कैद होती है। केवल वही कोरल ले जा सकते हैं जिनके पास दुकान से खरीदे हुए कोरल्स का बिल होता है। यह एक नई जानकारी थी। लेकिन कोरल्स का मोह छूटता नहीं था। कोरल्स तट पर सजा कर हमने फोटो ली। समुद्र की लहरें बढ़ती जा रही थी जैसे शुक्ल पक्ष के ज्वार में बढ़ती हैं। कृष्ण पक्ष में इतनी उत्ताल तरंगे पहली बार देखी। एक शरारती लहर ने आकर मेरे जूते भीतर तक भिगो दिए। अँधेरा होने तक हम टूटे हुए पेड़ की डाल पर बैठे रहे। बाजू में ही केवड़े और मैंग्रोव के झुरमुट थे। गौतम ने एक सूखा हुआ केवड़ा तोड़कर मुझे सुंघाया। खुशबूदार था। अमकुंज से आगे पंचवटी है। जहाँ पंचवटी पहाड़ी से उतरता मीठे पानी का मनोरम झरना यह एहसास ही नहीं होने देता कि उसके चारों ओर खारे पानी का सागर है। पत्थरों से पिघलते चांदी जैसे झरने की मधुर झर-झर में मन खो-सा गया।

वापसी में काली मंदिर देखने गए। वहाँ दो अजूबे हुए... एक तो काली मंदिर अंधेरे में डूबा हुआ था। हमारे प्रवेश करते ही बत्तियाँ जगमगा उठीं। दूसरे उसकी तीस पैंतीस खड़ी सीढ़ियाँ मैं एक ही सांस में चढ़ गई और इससे भी बड़ा अजूबा था कि काली माँ की आदम कद मूर्ति फूल मालाओं से ढँकी-सी थी पर न कहीं फूल वाला था, न पंडित, न भोग का प्रसाद और न ही भिखारी।

डिनर के दौरान गौतम ने बताया ' मैडम सुबह 6: 00 बजे बाराटांग द्वीप के लिए रवाना हो जाना है। आपके विशेष अनुरोध पर आदिवासियों के इलाके में जाने के लिए आदिवासियों के विशेषज्ञ वर्मा जी, मानवविज्ञानी अय्यर जी और पुरातत्वविद् डाक्टर डेनियल रात में किसी वक्त यहाँ पहुँच जाएंगे। यह मेरे लिए रोमांचक सफर था क्योंकि मैं उन आदिम जनजातियों को देखना चाहती थी जो आज भी इन द्वीपों के जंगलों में पाषाण कालीन सभ्यता को जीवित रखे हैं। उनके आने तक हम जागते रहें। महेंद्र तरह-तरह के किस्से सुना कर हमें जगाता रहा। रात लगभग 1: 30 बजे वे आए। थकान से चूर ...परिचय की अदायगी के बाद हमने साथ बैठकर कॉफी पी फिर बची-खुची रात में अपने-अपने कमरों में दुबक गए।

भोर का अंतिम तारा भी अस्त हो चुका था। अचानक ठंडी हवाएँ चलने लगी। दिसम्बर में तो खूब जाडा पड़ता है पर यहाँ मानो बसन्त का साम्राज्य था। सबसे पहले पुलिस आउट पोस्ट पोर्लोब्जिक नंबर 15 कदमतल, मिडिल अंडमान में हमारी वैन रूकी जहाँ पुलिस चैकिंग होती है। यहीं से जारवा आदिवासियों का क्षेत्र शुरू होता है। अंडमान निकोबार में अब छै जनजातियाँ ही निवास करती हैं जारवा, सेंटिनल, ग्रेट अंडमानी, ओगी, कार निकोबारी और शोंपेन। यह सभी आदिवासी आधुनिक सभ्यता से दूर एकांत निर्जन सागर तटों के नजदीक घने जंगलों में निवास करते हैं। चट्टान जैसे काले, पीली सफेद आंखों वाले ये आदिवासी लगभग नग्न... जंगल और समुद्र से अपनी खाद्य आवश्यकताएँ पूरी करते हैं। जारवा आदिवासी तो आज भी जहर बुझे नुकीले तीर रखते हैं और देखते ही हमला कर देते हैं। सरकार ने उनके लिए अलग से अस्पताल भी बनवाया है। इनकी घटती आबादी सरकार की चिंता का कारण है।

रास्ते में बालूडेरा बीच देखकर मैंने जब तमाम सागर तटों को याद किया तो पाया कि अब तक जितने भी बीच मैंने देखे हैं किसी में भी समानता नहीं है। सब अलग-अलग तरह के दृश्यों से भरे। बालू डेरा का इलाका दलदली था। अतः पेड़ की डालियों का पुल बीच तक पहुँचने के लिए बनाया गया था। निर्जन शांत सागर तट अपने एकाकी रूप में भी सौंदर्य बिखेरने में जुटा था। फेनिल लहरों की झालर जब तट से टकराती तो लगता चांदनी के सफेद फूल बिखर गए हैं।

हम वैन सहित गांधी जेट्टी से जहाज में बैठकर उत्तरा जेट्टी आ गये। इसका नाम अब बाराटांग जेट्टी है। बाराटांग जेट्टी से एक छोटी-सी खुली नाव् लेकर हम प्रकृति के अद्भुत करिश्मे लाइम स्टोन केव्ज़ के लिए चल पड़े। धूप ऐन सिर पर थी। सागर में उमस... फिर भी हवाएँ ठंडी। हमने अपने-अपने छाते खोल लिए पर हवा में छाते को संभालना मुश्किल हो रहा था। नाव् जब सागर के बीचो-बीच आई तो मैंग्रोव के झुरमुट शुरू हो गए। उनकी जड़ों के जाल ने सागर को दो भागों में बांट दिया था। नाव् बीच में जड़ों से बार-बार टकराती चल रही थी। रोमांचक रास्ता... केवट घुटने-घुटने पानी में उतरकर नाव का संतुलन संभाल रहा था। किनारा दलदली था। किनारे से थोड़ी ऊंचाई पर डालियाँ बिछा कर रास्ता बनाया गया था। इस हिलते और लचीले रास्ते पर चलना जोखिम भरा था। जरा-सा पैर फिसला की डालियों के बीच से सीधे दलदल में। दलदली इलाका खत्म होते ही पुल भी खत्म हो गया। वहीं से एक वन कर्मी गुफा तक ले जाने के लिए हमारे साथ हो लिया। लगभग 20 मिनट का पैदल ऊंचा-नीचा रास्ता, सघन दरख़्तों ने आपस में मिलकर सूरज की रोशनी को छेक रखा था। नीचे सूखे पत्ते पैरों तले चरमरा रहे थे। घने पत्तों से कभी मेगापोड चिड़िया प्रगट होती तो कभी हार्नबिल, नील, मैना, गलगल और गौरैया। कितना रोमांचकारी रास्ता था। मुझे लगा जैसे मैं हॉलीवुड की फिल्म की शूटिंग पर आई हूँ कि तभी वनकर्मी रुक गया। सामने गुफा के अंदर प्रवेश करते ही जैसे खजाना खुल गया हो। सामने तेज सर्च लाइट की रोशनी में नुकीली कैल्शियम कार्बोनेट का ठोस शिल्प। कलकत्ते से आए विद्यार्थी विद्युत सेन जो कि पिछले 3 महीने से इन गुफाओं का अध्ययन कर रहा है और अंडमान प्रशासन द्वारा बतौर गाइड नियुक्त किया गया है ने बताया कि इन गुफाओं की संख्या 70 है लेकिन टूरिस्ट के लिए बस यही एक गुफा खुली है। 2 साल से पर्यटक यहाँ आ रहे हैं पहले आप देखें कि सर्च लाइट ऑफ करने पर यहाँ कितना अँधेरा है। सर्च लाइट ऑफ होते ही जैसे मैं अंधेरे के भयावह गर्त में डूब गई। हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था। सर्च लाइट जलते ही विद्युत आगे-आगे

" धीरे-धीरे चलिए मैडम, रास्ता फिसलन भरा है और दीवार को जरा भी टच न करें। रिक्वेस्ट है मेरी। कैल्शियम के पैरेंट्स रॉक्स है इसके अंदर। इसके ऊपर मिट्टी पेड़ पौधे हर्ब शर्ब हैं ...यानी जंगल। कैल्शियम को लेकर पानी नीचे की ओर बहता है। कैल्शियम इकठ्ठा होता जाता है। पानी बहता रहता है। बूंद-बूंद और उन बूंदों के ठोस होने की प्रक्रिया चलती रहती है। जो ऊपर झाड़ फानूस जैसी चट्टाने लटकी हैं उन्हें रूफ पेडेट्स कहते हैं। मुझे लगा नुकीले शिखरो वाला पर्वत किसी ने औधा लटका दिया है।

बाराटांग जेट्टी से जहाज लेकर मिडिल स्ट्रेट आये। यहाँ से डिगलीपुर तक की 290 किलोमीटर की दूरी जारवा आरक्षित क्षेत्र घोषित की गई है। लगभग डेढ़ घंटे का आदिवासी इलाका हम तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था में पार कर रहे थे। सड़क के दोनों ओर हजारों साल पहले का वन्य जीवन... आदिम सभ्यता को जीवंत किए ...जंगलों से अचानक प्रकट हुए जारवा ...कोलतार जैसे काले जिस्म पर लाल पीली मिट्टी से धारियाँ चित्रित किए। कमर से नीचे जंगली फूलों की माला, पत्ते... राजा ने स्पीड थोड़ी कम कर दी थी॥ वह वैन की खिड़की तक आकर झांक-झांक कर देखने लगे। वैसे अंडमान प्रशासन ने खाने की चीजे देने पर पाबंदी लगाई है फिर भी पर्यटक अपने मनोरंजन के लिए नमकीन मिठाई आदि से भरे पैकेट्स इन की ओर फेकते हैं और उन्हें उन पर झपट्टा देख कर हंसते हैं। अब इन्हें भी पता हो गया है। जैसे ही कतार में वाहन गुजरते हैं यह झुंड-के-झुंड सड़क पर निकल आते हैं।

आदिवासी इलाका खत्म होते ही वैन ने तेजी पकड़ ली। जब हम पोर्टब्लेयर पहुँचे शाम हो चुकी थी। सुस्ताने के लिए मरीना पार्क में थोड़ी देर बैठे। वहाँ टैगोर और बोस की प्रतिमाएँ हैं। बच्चों का ट्रैफिक जहाँ उन्हें सड़क पर वाहन चलाने की जानकारी दी जाती है। मिलेनियम क्लॉक जो पौधों से बनी है पर कांटा चलता है। बाजू में एक झरना भी है। यहाँ हमने डेनियल, वर्मा जी और अय्यर से विदा ली। गौतम भी जरुरी काम से कहीं चला गया था। 9 दिसम्बर की सुबह बादलों से भरा था आकाश। हल्के छींटों ने रास्ते भिगो दिए थे। चौथम सॉ मिल की ओर हमारी वैन भागी चली जा रही थी। यही एक ऐसा द्वीप है जिसे पोर्ट ब्लेयर से जोड़ने के लिए समुद्र पर पुल बनाया गया है। अंदर लकड़ी के सामान का छोटा-सा शोरूम था। सीढ़ियों से चढ़कर हम ऊपर गए जहाँ लकड़ियों को छीलने काटने की मशीने लगी थी। बहुत विशाल मिल में ढेरों लकड़ियाँ। इस द्वीप पर बाढ़ तेरह प्रकार के इमारती लकड़ी के पेड़ हैं। शोरूम में इन लकड़ियों के खूबसूरत फर्नीचर रखे हैं। ऑर्डर करने पर भारत की किसी भी शहर में 15 दिन में फर्नीचर पहुँच जाता है। इसी द्वीप पर जापानियों ने बम गिराया था और अंग्रेजो को हराकर यहाँ राज किया था।

अब वह बहु प्रतीक्षित समय आ गया था जब हम कोरल द्वीप नॉर्थ बे जा रहे थे। वैसे जॉली बाय और रेड स्किन द्वीप भी कोरल के लिए प्रसिद्ध है। फोनेक्स बे जेट्टी से 20 मिनट में जहाज द्वारा नार्थ बे पहुँच गए। वहाँ से जहाज द्वारा एक ग्लास बोट में उतरकर तट पर आए। अदभुत सौंदर्य से भरा था यह द्वीप। गाइड हमें स्नोर्कलिंग के द्वारा कोरल दर्शन कराने को उतावला था। मैं डर रही थी क्योंकि मुझे तैरना नहीं आता था और कोरल पानी के अंदर जाकर देखने थे पर स्नोर्कलिंग में तैरने की जरूरत नहीं। गाइड के साथ मैंने दूर तक समुद्र के अंदर जाकर कोरल देखे। अद्भुत मूंगे की चट्टानें सागर तल में सुंदर फूल जैसी दिखती हैं। मूंगा समुद्री जीव है जो मिलकर एक कॉलोनी-सी बना लेते हैं। ये कोलनियाँ ही कोरल में बदल जाती हैं।

कोरल्स के बीच से गुजरती रंग बिरंगी मछलियाँ, शंख, गुफाएँ, पहाड़ियाँ ...छोटी-छोटी मछलियों के गुच्छे... एक पूरा का पूरा समुद्री संसार। विचित्र अनुभव से भरी मैं तट पर लौटी। कपड़े बदन पर सूखते रहे और मैं धूप स्नान करती रही। श्वेत रेत वाला साफ सुथरा तट... कहीं कोई कचरा नहीं। इधर उधर बिखरे थे शंख, सीपियाँ। मुझे धर्मयुग में अपनी पहली प्रकाशित कहानी शंख और सीपियाँ का शीर्षक याद आया। एक रेंगता हुआ केकड़ा मेरे पैरों के बिल्कुल नजदीक से गुजरा।

जब हम पोर्टब्लेयर लौटे तो गौतम और महेंद्र तरोताजा मुस्कुराते खड़े थे।

"मैडम सिंक आयलैंड नहीं गई? वहाँ समुद्र दो भागों में बंटा है। उसके तल में अनूठे कोरल उद्यान है जिसकी वजह से वह कोरल अभयारण्य कहलाता है।"

"वहाँ जाते तो यूनिवर्सिटी रह जाती न" मैंने जल्दी-जल्दी वेन की ओर कदम बढ़ाया। जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी और इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी एक ही कॉन्प्लेक्स में है। वही डॉ व्यास मणि त्रिपाठी हिन्दी के प्रोफेसर हैं। वह हिन्दी कला परिषद द्वारा प्रकाशित की जाने वाली हिन्दी साहित्य की त्रैमासिक पत्रिका द्वीप लहरी के संपादक भी हैं पर उनसे मुलाकात न हो सकी। वे छुट्टी पर थे। यूनिवर्सिटी घूमकर और पुस्तकालय में आधा घंटा बिताकर हम कॉर्बिसकीव आ गए। नारियल के वृक्षों से घिरा श्वेत रेत वाला समुद्र तट पोर्ट ब्लेयर का लोकल बीच कहलाता है। वहाँ से आधा किलो मीटर दूर लंबी-लंबी लेटी हुई चट्टाने हैं जिनसे ठाठे मारता समुद्र जब टकराता है तो उसकी दूधिया और फिरोजी आभा देखते ही बनती है। वहाँ से वीर सावरकर पार्क होते हुए होटल लौट आए।

रात थक कर चूर बिस्तर में दुबकते हुए मैं सोच रही थी यह रात पोर्ट ब्लेयर की अंतिम रात है। 9: 00 बजे चेन्नई के लिए फ्लाइट लेनी है और मन है कि इन द्वीपों में ही रमा है। जहाँ के सागर तटों को छूती हर बूंद में एक समंदर है। न जाने कितने समंदरों का गवाह बस एक सागर।