नूरजहाँ / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल
जीवन के विविध पक्षों की मार्मिक अनुभूति प्रबंध काव्यों के भीतर ही प्रकृत रूप में होती है। जब कवि की कल्पना के साथ साथ पाठक या श्रोता की कल्पना भी एक सुसंबद्ध प्रवाह के रूप में दूर तक चली चलती है,तभी उसके बीच पूर्ण तन्मयता की भूमि प्राप्त होती है। खेद है कि हिन्दी की नई पुरानी दोनों परंपराओं के बीच अच्छे प्रबंध काव्यों की कमी है। जायसी और तुलसी को छोड़ और किसी के आख्यान काव्य लोकाश्रय न प्राप्त कर सके। खड़ी बोली की कविता के प्रारंभ काल में प्रबन्ध काव्यों की ओर कवियों का ध्यान होने लगा था,पर थोड़े ही दिनों में एकबारगी एक दूसरी हवा चल पड़ी;लोग पश्चिमी ढंग के प्रगीत मुक्तकों (Lyrics) की ओर झुक पड़े। अब इधर आकर फिर काव्य में रमणीक प्रबंधों की कमी खटकी है। 'साकेत'और 'नूरजहाँ' दोनों काव्यों से इस बात का संकेत मिलता है। इन दोनों काव्यों की रचना ऐसे समय में हुई है,जब कि अभिव्यंजन प्रणाली बहुत कुछ समुन्नत और समृद्ध हो चुकी है।
इस समय नूरजहाँ के ही सम्बन्ध में कुछ कहना चाहता हूँ, क्योंकि इसने हमारे वर्तमान काव्य क्षेत्र के बड़े अभाव की पूर्ति में तो योग दिया ही है, इसके अतिरिक्त हमारी सहानुभूति के क्षेत्र के प्रसार का भी आभास दिया है। अब वह समय आ रहा है, जब हम अपने साहित्य के भीतर अपना ही रूप रंग न देखेंगे, बल्कि संसार के अनेक भागों के नाना रूप रंगों के बीच मनुष्य हृदय को समान भाव से उलझा हुआ पाएँगे। यह दृष्टि प्रसार प्राप्त किए बिना अब कोई साहित्य पूर्ण समृद्ध नहीं कहा जा सकता। अँगरेजी साहित्य को ही लीजिए। अब हमें उसके भीतर इंगलैंड या योरप के ही किसी खंड के बीच प्रतिष्ठित जीवन की ही नहीं, मिस्र, अरब, फारस, तातार, चीन, भारत इत्यादि अनेक देशों के जीवन की मार्मिक झाँकी मिलेगी। बड़े हर्ष की बात है कि नूरजहाँ में हमारी काव्य दृष्टि भारत के बाहर भी कुछ बढ़ती दिखाई पड़ी।
आरंभ में हम नूरजहाँ के माता पिता का मधुर प्रेम जीवन फारस में गुलों और बुलबुलों के बीच देखते हैं। कवि ने फारस भूखंड के दृश्य चित्रण का अच्छा प्रयास किया है। इस चित्रण में देशगत विशेषता का पूरा ध्यान रखा गया है। ऊँटों के साथ काफिलों का चलना, खैबर की घाटी में टूटे फूटे दुर्ग से पठान लुटेरों का निकल पड़ना आदि वर्णन में वास्तविकता का रंग लाते हैं। 'भक्त' जी के प्रकृति वर्णन काव्य प्रेमियों को बहुत कुछ आकर्षित कर चुके हैं। उन सबमें उनका स्वतन्त्र प्रकृति निरीक्षण पर्याप्त मात्रा में मिलता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यही बात नूरजहाँ में आए हुए लम्बे दृश्य वर्णनों में भी जगह जगह पाई जाती है। इसके अतिरिक्त कवि ने पेड़ पौधों में नर प्रकृति के मेल की सजीवता भी बड़े रहस्यपूर्ण ढंग से दिखाई है।
प्रबंध कल्पना भी अत्यंत सुव्यवस्थित है। कथानक की कड़ियाँ बड़े स्वाभाविक रूप में मिलजुल गई हैं, केवल अनारकली वाला प्रसंग असंबद्ध लगता है। कवि ने शेर अफगान को अत्यंत निष्ठुर और अत्याचारी दिखाकर तथा उसके अत्याचार को उसके पतन का कारण ठहरा कर जहाँगीर के चरित्र की बड़े कौशल से रक्षा की है। इसी प्रकार शेर अफगान को नीरस, प्रेम शून्य और मेहरुन्निसा (नूरजहाँ) से सर्वथा उदासीन दिखाकर मेहरुन्निसा के चरित्र को बड़ी सफाई से बचाया है। विवाह हो जाने पर मेहर तो पतिव्रत के भाव की दृढ़ता के लिए, सलीम के साथ अपने बालप्रेम को भुलाने का प्रयास करती है, पर शेर अफगान के हृदय में कहीं प्रेम के अंकुरतक नहीं दिखाई देते। इस घोर विषमता के कारण शेर अफगान की मृत्यु के पीछे नूरजहाँ का जहाँगीर की बेगम बनना 'प्रेम की अस्थिरता' का रूप नहीं खड़ा करने पाता।
प्रेम, वीरता, शोक इत्यादि भावों की व्यंजना भी प्रसंग के अनुरूप और मर्मस्पर्शिनी हुई है। शाही महलों की सुंदरियों में बादशाह या शाहजादे का प्रेम प्राप्त करने के लिए परस्पर कितनी चढ़ा ऊपरी और ईष्या रहती है, इसका चित्र जमीला सामने लाती है। सातवें सर्ग के आरंभ में अपनी रोषभरी ईष्या की व्यंजना के लिए उसने जिन उक्तियों की झड़ी बाँध दी है, वे अत्यन्त स्वाभाविक, क्षोभपूर्ण और ओजस्विनी हैं। अभिव्यंजना की आधुनिक प्रवृत्तियाँ 'नूरजहाँ' में स्थल स्थल पर मिलती हैं, पर संयत रूप में, जैसे नूरजहाँ के जन्म पर उसकी शिशु मूर्ति का प्रभाव साम्य पर अवलंबित यह प्राचुर्य पूर्ण प्रदर्शन
'नवल हृदय की दुर्बलता का पश्चाताप बना साकार,
ज्योति सरीखी कौन अप्सरा छोड़ गई तुमको लाचार।
किस दुनिया के मूर्च्छित मन सी, पड़ी हुई हो पृथ्वी पर,
ऑंसू सी किसकी ऑंखों से, हे बालिके, गई हो झर।'
कहीं कहीं अप्रस्तुत विधान बहुत ही रमणीय और व्यंजक हैं, जैसे
(क) कुछ दरार के घावों को विस्मृति मकड़ी तुरंत आकर,
आशा जाला की मरहम पट्टी से क्षत देती है भर।
(ख) उस कुसुम अंक में विलसी, सुख से मैं हिमकण बनकर,
दिनकर ने जहाँ विलोका, मैं ठहर न पाई छन भर।
(ग) मेरे संग कोई मत रोवे, मुझे भाग्य पर रोने दो,
अपने बंजर भाग्य क्षेत्र में, मोती मुझको बोने दो।
(घ) कितनी ऑंखों के जाल बिछे, कितनों ने ही डेरा डाला,
संसार जाल में पानी सी, छन जाती थी वह सुरबाला।
सबसे अच्छी बात मुझे यह दिखाई पड़ी है कि वस्तु वर्णन, भाव व्यंजना, संवाद और इतिवृत्त, इन चारों में से कोई अवयव आवश्यकता से बहुत अधिक नहीं बढ़ा है। हाँ, वस्तु वर्णन मात्र से कुछ अधिक कहा जा सकता है। सब बातों को देखकर अन्त में यही कहना पड़ता है कि श्री गुरुभक्त सिंहजी 'भक्त' प्रकृति के सच्चे भक्त हैं और उन्होंने अपनी भक्ति का, अपनी परख का और अपनी सहानुभूति के विस्तार का परिचय इस 'नूरजहाँ' में पूरा पूरा दिया है। हिन्दी में अपने ढंग का यह निराला प्रबंध काव्य है।
(माधुरी, सितम्बर, 1936 ई.)
[चिन्तामणि, भाग-4]