नूरी / जयशंकर प्रसाद
भाग 1 “ऐ; तुम कौन?
“......” “बोलते नहीं?”
“......”
“तो मैं बुलाऊँ किसी को—”
कहते हुए उसने छोटा-सा मुँह खोला ही था कि युवक ने एक हाथ उसके मुँह पर रखकर उसे दूसरे हाथ से दबा लिया। वह विवश होकर चुप हो गयी। और भी, आज पहला ही अवसर था, जब उसने केसर, कस्तूरी और अम्बर से बसा हुआ यौवनपूर्ण उद्वेलित आलिंगन पाया था। उधर किरणें भी पवन के एक झोंके के साथ किसलयों को हटाकर घुस पड़ीं। दूसरे ही क्षण उस कुञ्ज के भीतर छनकर आती हुई चाँदनी में जौहर से भरी कटार चमचमा उठी। भयभीत मृग-शावक-सी काली आँखें अपनी निरीहता में दया की—प्राणों की भीख माँग रही थीं। युवक का हाथ रुक गया। उसने मुँह पर उँगली रखकर चुप रहने का संकेत किया। नूरी काश्मीर की कली थी। सिकरी के महलों में उसके कोमल चरणों की नृत्य-कला प्रसिद्ध थी। उस कलिका का आमोद-मकरन्द अपनी सीमा में मचल रहा था। उसने समझा, कोई मेरा साहसी प्रेमी है, जो महाबली अकबर की आँख-मिचौनी-क्रीड़ा के समय पतंग-सा प्राण देने आ गया है। नूरी ने इस कल्पना के सुख में अपने को धन्य समझा और चुप रहने का संकेत पाकर युवक के मधुर अधरों पर अपने अधर रख दिये। युवक भी आत्म-विस्मृत-सा उस सुख में पल-भर के लिए तल्लीन हो गया।
नूरी ने धीरे से कहा—”यहाँ से जल्द चले जाओ। कल बाँध पर पहले पहर की नौबत बजने के समय मौलसिरी के नीचे मिलूँगी।” युवक धीरे-धीरे वहाँ से खिसक गया। नूरी शिथिल चरण से लडख़ड़ाती हुई दूसरे कुञ्ज की ओर चली; जैसे कई प्याले अंगूरी चढ़ा ली हो! उसकी जैसी कितनी ही सुन्दरियाँ अकबर को खोज रही थीं। आकाश का सम्पूर्ण चन्द्र इस खेल को देखकर हँस रहा था। नूरी अब किसी कुञ्ज में घुसने का साहस नहीं रखती थी। नरगिस दूसरे कुञ्ज से निकलकर आ रही थी।
उसने नूरी से पूछा— “क्यों, उधर देख आयी?”
“नहीं, मुझे तो नहीं मिले।”
“तो फिर चल, इधर कामिनी के झाड़ों में देखूँ।”
“तू ही जा, मैं थक गयी हूँ।” नरगिस चली गयी। मालती की झुकी हुई डाल की अँधेरी छाया में धड़कते हुए हृदय को हाथों से दबाये नूरी खड़ी थी! पीछे से किसी ने उसकी आँखों को बन्द कर लिया।
नूरी की धड़कन और बढ़ गयी। उसने साहस से कहा— “मैं पहचान गयी।”
“.....”
‘जहाँपनाह’ उसके मुँह से निकला ही था कि अकबर ने उसका मुँह बन्द कर लिया और धीरे से उसके कानों मे कहा— “मरियम को बता देना, सुलताना को नहीं; समझी न! मैं उस कुञ्ज में जाता हूँ।” अकबर के जाने के बाद ही सुलताना वहाँ आयी। नूरी उसी की छत्र-छाया में रहती थी; पर अकबर की आज्ञा! उसने दूसरी ओर सुलताना को बहका दिया। मरियम धीरे-धीरे वहाँ आयी। वह ईसाई बेगम इस आमोद-प्रमोद से परिचित न थी। तो भी यह मनोरंजन उसे अच्छा लगा। नूरी ने अकबरवाला कुञ्ज उसे बता दिया। घण्टों के बाद जब सब सुन्दरियाँ थक गयी थीं, तब मरियम का हाथ पकड़े अकबर बाहर आये। उस समय नौबतखाने से मीठी-मीठी सोहनी बज रही थी। अकबर ने एक बार नूरी को अच्छी तरह देखा। उसके कपोलों को थपथपाकर उसको पुरस्कार दिया। आँख-मिचौनी हो गयी!
भाग 2
सिकरी की झील जैसे लहरा रही है, वैसा ही आन्दोलन नूरी के हृदय में हो रहा है। वसन्त की चाँदनी में भ्रम हुआ कि उसका प्रेमी युवक आया है। उसने चौककर देखा; किन्तु कोई नहीं था। मौलसिरी के नीचे बैठे हुए उसे एक घड़ी से अधिक हो गया। जीवन में आज पहले ही वह अभिसार का साहस कर सकी है। भय से उसका मन काँप रहा है; पर लौट जाने का मन नहीं चाहता। उत्कण्ठा और प्रतीक्षा कितनी पागल सहेलियाँ हैं! दोनों उसे उछालने लगीं। किसी ने पीछे से आकर कहा—”मैं आ गया।”
नूरी ने घूमकर देखा, लम्बा-सा, गौर वर्ण का युवक उसकी बगल में खड़ा है। वह चाँदनी रात में उसे पहचान गयी। उसने कहा—”शाहजादा याकूब खाँ?”
“हाँ, मैं ही हूँ! कहो, तुमने क्यों बुलाया है?”
नूरी सन्नाटे में आ गयी। इस प्रश्न में प्रेम की गंध भी नहीं थी। वह भी महलों में रह चुकी थी। उसने भी पैंतरा बदल दिया।
“आप वहाँ क्यों गये थे?”
“मैं इसका जवाब न दूँ, तो?” नूरी चुप रही।
याकूब खाँ ने कहा—”तुम जानना चाहती हो?”
“न बताइए।”
“बताऊँ तो मुझे....”
“आप डरते हैं, तो न बताइए।”
“अच्छा, तो तुम सच बताओ कि कहाँ की रहने वाली हो?”
“मैं काश्मीर में पैदा हुई हूँ।” याकूब खाँ अब उसके समीप ही बैठ गया।
उसने पूछा—”कहाँ?”
“श्रीनगर के पास ही मेरा घर है।”
“यहाँ क्या करती हो?”
“नाचती हूँ। मेरा नाम नूरी है।”
“काश्मीर जाने को मन नहीं करता?”
“नहीं।”
“क्यों?”
“वहाँ जाकर क्या करूँगी? सुलतान यूसुफ खाँ ने मेरा घर-बार छीन लिया है। मेरी माँ बेड़ियों में जकड़ी हुई दम तोड़ती होगी या मर गयी होगी।”
“मैं कहकर छुड़वा दूँगा, तुम यहाँ से चलो।”
“नहीं, मैं यहाँ से नहीं जा सकती; पर शाहजादा साहब, आप वहाँ क्यों गये थे, मैं जान गयी।”
“नूरी, तुम जान गयी हो, तो अच्छी बात है। मैं भी बेड़ियों में पड़ा हूँ। यहाँ अकबर के चंगुल में छटपटा रहा हूँ। मैं कल रात को उसी के कलेजे में कटार भोंक देने के लिए गया था।”
“शाहंशाह को मारने के लिए?”—भय से चौंककर नूरी ने कहा।
“हाँ नूरी, वहाँ तुम न आती, तो मेरा काम न बिगड़ता। काश्मीर को हड़पने की उसकी....”
याकूब रुककर पीछे देखने लगा। दूर कोई चला जा रहा था। नूरी भी उठ खड़ी हुई। दोनों और नीचे झील की ओर उतर गये। जल के किनारे बैठकर नूरी ने कहा—”अब ऐसा न करना।”
“क्यों न करूँ?” मुझे काश्मीर से बढक़र और कौन प्यारा है?” मैं उसके लिए क्या नहीं कर सकता?” यह कहकर याकूब ने लम्बी साँस ली। उसका सुन्दर मुख वेदना से विवर्ण हो गया। नूरी ने देखा, वह प्यार की प्रतिमा है। उसके हृदय में प्रेम-लीला करने की वासना बलवती हो चली थी। फिर यह एकान्त और वसन्त की नशीली रात!
उसने कहा—”आप चाहे काश्मीर को प्यार करते हों! पर कुछ लोग ऐसे भी हो सकते हैं, जो आपको प्यार करते हों!”
“पागल! मेरे सामने एक ही तसवीर है। फूलों से भरी, फलों से लदी हुई, सिन्ध और झेलम की घाटियों की हरियाली! मैं इस प्यार को छोड़कर दूसरी ओर....?”
“चुप रहिए, शाहजादा साहब! आप धीरे से नहीं बोल सकते, तो चुप रहिए।” यह कहकर नूरी ने एक बार फिर पीछे की ओर देखा। वह चञ्चल हो रही थी, मानो आज ही उसके वसन्त-पूर्ण यौवन की सार्थकता है। और वह विद्रोही युवक सम्राट अकबर के प्राण लेने और अपने प्राण देने पर तुला है। कहते हैं कि तपस्वी को डिगाने के लिए स्वर्ग की अप्सराएँ आती हैं। आज नूरी अप्सरा बन रही थी।
उसने कहा—”तो मुझे काश्मीर ले चलिएगा?”
याकूब के समीप और सटकर भयभीत-सी होकर वह बोली—”बोलिए, मुझे ले चलिएगा। मैं भी इन सुनहरी बेड़ियों को तोडऩा चाहती हूँ।” “तुम मुझको प्यार करती हो, नूरी?” “दोनों लोकों से बढक़र?” नूरी उन्मादिनी हो रही थी। “पर मुझे तो अभी एक बार फिर वही करना है, जिसके लिए तुम मना करती हो। बच जाऊँगा, तो देखा जायगा।”—यह कहकर याकूब ने उसका हाथ पकड़ लिया। नूरी नीचे से ऊपर तक थरथराने लगी। उसने अपना सुन्दर मुख याकूब के कन्धे पर रखकर कहा—”नहीं, अब ऐसा न करो, तुमको मेरी कसम!” सहसा चौंककर युवक फुर्ती से उठ खड़ा हुआ। और नूरी जब तक सँभली, तब तक याकूब वहाँ न था। अभी नूरी दो पग भी बढऩे न पायी थी कि मादम तातारी का कठोर हाथ उसके कन्धों पर आ पहुँचा। तातारी ने कहा—”सुलताना तुमको कब से खोज रही है?”
भाग 3
सुलताना बेगम और बादशाह चौसरी खेल रहे थे। उधर पचीसी के मैदान में सुन्दरियाँ गोटें बनकर चाल चल रही थीं। नौबतखाने से पहले पहर की सुरीली शहनाई बज रही थी। नगाड़े पर अकबर की बाँधी हुई गति में लडक़ी थिरक रही थी, जिसकी धुन में अकबर चाल भूल गये। उनकी गोट पिट गयी। पिटी हुई गोट दूसरी न थी, वह थी नूरी। उस दिन की थपकियों ने उसको साहसी बना दिया था। वह मचलती हुई बिसात के बाहर तिबारी में चली आयी। पाँसे हाथ में लिए हुए अकबर उसकी ओर देखने लगे। नूरी ने अल्हड़पन से कहा—”तो मैं मर गयी?” “तू जीती रह, मरेगी क्यों?” फिर दक्षिण नायक की तरह उसका मनोरंजन करने में चतुर अकबर ने सुलताना की ओर देखकर कहा—”इसका नाम क्या है?” मन में सोच रहे थे, उस रात की आँख-मिचौनी वाली घटना! “यह काश्मीर की रहनेवाली है। इसका नाम नूरी है। बहुत अच्छा नाचती है।”—सुलताना ने कहा। “मैंने तो कभी नहीं देखा।” “तो देखिए न।” “नूरी? तू इसी शहनाई की गत पर नाच सकेगी?” “क्यों नहीं, जहाँपनाह!” गोटें अपने-अपने घर में जहाँ-की-तहाँ बैठी रहीं। नूरी का वासना और उन्माद से भरा हुआ नृत्य आरम्भ हुआ। उसके नूपुर खुले हुए बोल रहे थे। वह नाचने लगी, जैसे जलतरंग। वागीश्वरी के विलम्बित स्वरों में अंगों के अनेक मरोड़ों के बाद जब कभी वह चुन-चुनकर एक-दो घुँघुरू बजा देती, तब अकबर “वाह! वाह!” कह उठता। घड़ी-भर नाचने के बाद जब शहनाई बन्द हुई, तब अकबर ने उसे बुलाकर कहा—”नूरी! तू कुछ चाहती है?” “नहीं, जहाँपनाह!” “कुछ भी?” “मैं अपनी माँ को देखना चाहती हूँ। छुट्टी मिले, तो!”—सिर नीचे किये हुए नूरी ने कहा। “दुत् — और कुछ नहीं।” “और कुछ नहीं।” “अच्छा, तो जब मैं काबुल चलने लगूँगा, तब तू भी वहाँ चल सकेगी।” फिर गोटें चलने लगीं। खेल होने लगा। सुलताना और शंाहशाह दोनों ही इस चिन्ता में थे कि दूसरा हारे। यही तो बात है, संसार चाहता है कि तुम मेरे साथ खेलो; पर सदा तुम्हीं हारते रहो। नूरी फिर गोट बन गयी थी। अब की वही फिर पिटी। उसने कहा—”मैं मर गयी।” अकबर ने कहा—”तू अलग जा बैठ।” छुट्टी पाते ही थकी हुई नूरी पचीसी के समीप अमराई में जा घुसी। अभी वह नाचने की थकावट से अँगड़ाई ले रही थी। सहसा याकूब ने आकर उसे पकड़ लिया। उसके शिथिल सुकुमार अंगों को दबाकर उसने कहा—”नूरी, मैं तुम्हारे प्यार को लौटा देने के लिए आया हूँ।” व्याकुल होकर नूरी ने कहा—”नहीं, नहीं, ऐसा न करो।” “मैं आज मरने-मारने पर तुला हूँ।” “तो क्या फिर तुम आज उसी काम के लिए....” “हाँ नूरी!” “नहीं, शाहजादा याकूब! ऐसा न करो। मुझे आज शांहशाह ने काश्मीर जाने की छुट्टी दे दी है। मैं तुम्हारे साथ भी चल सकती हूँ।” “पर मैं वहाँ न जाऊँगा। नूरी! मुझे भूल जाओ।” नूरी उसे अपने हाथों में जकड़े थी; किन्तु याकूब का देश-प्रेम उसकी प्रतिज्ञा की पूर्ति माँग रहा था। याकूब ने कहा—”नूरी! अकबर सिर झुकाने से मान जाय सो नहीं। वह तो झुके हुए सिर पर भी चढ़ बैठना चाहता है। मुझे छुट्टी दो। मैं यही सोचकर सुख से मर सकूँगा कि कोई मुझे प्यार करता है।” नूरी सिसककर रोने लगी। याकूब का कन्धा उसके आँसुओं की धारा से भीगने लगा। अपनी कठोर भावनाओं से उन्मत्त और विद्रोही युवक शाहजादा ने बलपूर्वक अभी अपने को रमणी के बाहुपाश से छुड़ाया ही था कि चार तातारी दासियों ने अमराई के अन्धकार से निकलकर दोनों को पकड़ लिया। अकबर की बिसात अभी बिछी थी। पासे अकबर के हाथ में थे। दोनों अपराधी सामने लाये गये। अकबर ने आश्चर्य से पूछा—”याकूब खाँ?” याकूब के नतमस्तक की रेखाएँ ऐंठी जा रही थीं। वह चुप था। फिर नूरी की ओर देखकर शाहंशाह ने कहा—”तो इसीलिए तू काश्मीर जाने की छुट्टी माँग रही थी?” वह भी चुप। “याकूब! तुम्हारा यह लड़कपन यूसुफ खाँ भी न सहते; लेकिन मैं तुम्हें छोड़ देता हूँ। जाने की तैयारी करो। मैं काबुल से लौटकर काश्मीर आऊँगा।” संकेत पाते ही तातारियाँ याकूब को ले चलीं। नूरी खड़ी रही। अकबर ने उसकी ओर देखकर कहा—”इसे बुर्ज में ले जाओ।” नूरी बुर्ज के तहखाने में बन्दिनी हुई।
अठ्ठारह बरस बाद!
जब अकबर की नवरत्न-सभा उजड़ चुकी थी, उसके प्रताप की ज्योति आने-वाले अन्तिम दिन की उदास और धुँधली छाया में विलीन हो रही थी, हिन्दू और मुस्लिम-एकता का उत्साह शीतल हो रहा था, तब अकबर को अपने पुत्र सलीम से भी भय उत्पन्न हुआ। सलीम ने अपनी स्वतन्त्रता की घोषणा की थी, इसीलिए पिता-पुत्र में मेल होने पर भी आगरा में रहने के लिए सलीम को जगह नहीं थी। उसने दुखी होकर अपनी जन्म-भूमि में रहने की आज्ञा माँगी। सलीम फतेहपुर-सीकरी आया। मुग़ल साम्राज्य का वह अलौकिक इन्द्रजाल! अकबर की यौवन-निशा का सुनहरा स्वप्न—सीकरी का महल—पथरीली चट्टानों पर बिखरा पड़ा था। इतना आकस्मिक उत्थान और पतन! जहाँ एक विश्वजनीन धर्म की उत्पत्ति की सूचना हुई, जहाँ उस धर्मान्धता के युग में एक छत के नीचे ईसाई, पारसी, जैन, इस्लाम और हिन्दू आदि धर्मों पर वाद-विवाद हो रहा था, जहाँ सन्त सलीम की समाधि थी, जहाँ शाह सलीम का जन्म हुआ था, वहीं अपनी अपूर्णता और खँडहरों में अस्त-व्यस्त सीकरी का महल अकबर के जीवन-काल में ही, निर्वासिता सुन्दरी की तरह दया का पात्र, शृंगारविहीन और उजड़ा पड़ा था। अभी तक अकबर के शून्य शयन-मन्दिर में विक्रमादित्य के नवरत्नों का छाया-पूर्ण अभिनय चल रहा था! अभी तक सराय में कोई यात्री सन्त की समाधि का दर्शन करने को आता ही रहता! अभी तक बुर्जों के तहखानों में कैदियों का अभाव न था! सीकरी की दशा देखकर सलीम का हृदय व्यथित हो उठा। अपूर्ण शिल्प बिलख रहे थे। गिरे हुए कँगूरे चरणों में लोट रहे थे। अपनी माता के महल में जाकर सलीम भरपेट रोया। वहाँ जो इने-गिने दास और दासियाँ और उनके दारोगे बच रहे थे, भिखमंगों की-सी दशा में फटे-चीथड़ों में उसके सामने आये। सब समाधि के लंगरखाने से भोजन पाते थे। सलीम ने समाधि का दर्शन करके पहली आज्ञा दी कि तहखानों में जितने बन्दी हैं, सब छोड़ दिये जायँ। सलीम को मालूम था कि यहाँ कोई राजनीतिक बन्दी नहीं है। दुर्गन्ध से सने हुए कितने ही नर-कंकाल सन्त सलीम की समाधि पर आकर प्रसन्नता से हिचकी लेने लगे और युवराज सलीम के चरणों को चूमने लगे। उन्हीं में एक नूरी भी थी। उसका यौवन कारागार की कठिनाइयों से कुचल गया था। सौन्दर्य अपने दो-चार रेखा-चिह्न छोड़कर समय के पंखों पर बैठकर उड़ गया था। सब लोगों को जीविका बँटने लगी। लंगरखाने का नया प्रबन्ध हुआ। उसमें से नूरी को सराय में आये हुये यात्रियों को भोजन देने का कार्य मिला। वैशाख की चाँदनी थी। झील के किनारे मौलसिरी के नीचे कौआलों का जमघट था। लोग मस्ती में झूम-झूमकर गा रहे थे। “मैंने अपने प्रियतम को देखा था।” “वह सौन्दर्य, मदिरा की तरह नशीला, चाँदनी-सा उज्ज्वल, तरंगों-सा यौवनपूर्ण और अपनी हँसी-सा निर्मल था।” “किन्तु हलाहल भरी उसकी अपांगधारा! आह निर्दय!” “मरण और जीवन का रहस्य उन संकेतों में छिपा था।” “आज भी न जाने क्यों भूलने में असमर्थ हूँ।” “कुञ्जों में फूलों के झुरमुट में तुम छिप सकोगे। तुम्हारा वह चिर विकासमय सौन्दर्य! वह दिगन्तव्यापी सौरभ! तुमको छिपने देगा?” “मेरी विकलता को देखकर प्रसन्न होनेवाले! मैं बलिहारी!” नूरी वहीं खड़ी होकर सुन रही थी। वह कौआलों के लिए भोजन लिवाकर आयी थी। गाढ़े का पायजामा और कुर्ता, उस पर गाढ़े की ओढ़नी। उदास और दयनीय मुख पर निरीहता की शान्ति! नूरी में विचित्र परिवर्तन था। उसका हृदय अपनी विवश पराधीनता भोगते-भोगते शीतल और भगवान् की करुणा का अवलम्बी बन गया था। जब सन्त सलीम की समाधि पर वह बैठकर भगवान् की प्रार्थना करती थी, तब उसके हृदय में किसी प्रकार की सांसारिक वासना या अभाव-अभियोग का योग न रहता। आज न जाने क्यों, इस संगीत ने उसकी सोयी हुई मनोवृत्ति को जगा दिया। वही मौलसिरी का वृक्ष था। संगीत का वह अर्थ चाहे किसी अज्ञात लोक की परम सीमा तक पहुँचता हो; किन्तु आज तो नूरी अपने संकेतस्थल की वही घटना स्मरण कर रही थी, जिसमें एक सुन्दर युवक से अपने हृदय की बातों के खोल देने का रहस्य था। वह काश्मीर का शाहजादा आज कहाँ होगा? नूरी ने चञ्चल होकर वहीं थालों को रखवा दिया और स्वयं धीरे-धीरे अपने उत्तेजित हृदय को दबाये हुए सन्त की समाधि की ओर चल पड़ी। संगमरमर की जालियों से टिककर वह बैठ गयी। सामने चन्द्रमा की किरणों का समारोह था। वह ध्यान में निमग्न थी। उसकी निश्चल तन्मयता के सुख को नष्ट करते हुए किसी ने कहा—”नूरी! क्या अभी सराय में खाना न जायगा?” वह सावधान होकर उठ खड़ी हुई। लंगरखाने से रोटियों का थाल लेकर सराय की ओर चल पड़ी। सराय के फाटक पर पहुँचकर वह निराश्रित भूखों को खोज-खोज कर रोटियाँ देने लगी। एक कोठरी के समीप पहुँचकर उसने देखा कि एक युवक टूटी हुई खाट पर पड़ा कराह रहा है। उसने पूछा—”क्या है? भाई, तुम बीमार हो क्या? मैं तुम्हारे लिए कुछ कर सकती हूँ तो बताओ।” “बहुत कुछ”—टूटे स्वर से युवक ने कहा। नूरी भीतर चली गयी। उसने पूछा—”क्या है, कहिए?” “पास में पैसा न होने से ये लोग मेरी खोज नहीं लेते। आज सवेरे से मैंने जल नहीं पिया। पैर इतने दुख रहे हैं कि उठ नहीं सकता।” “कुछ खाया भी न होगा।” “कल रात को यहाँ पहुँचने पर थोड़ा-सा खा लिया था। पैदल चलने से पैर सूज आये हैं। तब से यों ही पड़ा हूँ।” नूरी थाल रखकर बाहर चली गयी। पानी लेकर आयी। उसने कहा—”लो, अब उठकर कुछ रोटियाँ खाकर पानी पी लो।” युवक उठ बैठा। कुछ अन्न-जल पेट में जाने के बाद जैसे उसे चेतना आ गयी। उसने पूछा—”तुम कौन हो?” “मैं लंगरखाने से रोटियाँ बाँटती हूँ। मेरा नाम नूरी है। जब तक तुम्हारी पीड़ा अच्छी न होगी, मैं तुम्हारी सेवा करूँगी। रोटियाँ पहुँचाऊँगी। जल रख जाऊँगी। घबराओ नहीं। यह मालिक सबको देखता है।” युवक की विवर्ण आँखे प्रार्थना में ऊपर की ओर उठ गयीं। फिर दीर्घ नि:श्वास लेकर उसने पूछा—”क्या नाम बतलाया? नूरी न? “हाँ, यही तो!” “अच्छा, तुम यहाँ महलों में जाती होगी।” “महल! हाँ, महलों की दीवारें तो खड़ी हैं।” “तब तुम नहीं जानती होगी। उसका भी नाम नूरी था! वह काश्मीर की रहने वाली थी।” “उससे आपको क्या काम है?”—मन-ही-मन काँप कर नूरी ने पूछा। “मिले तो कह देना कि एक अभागे ने तुम्हारे प्यार को ठुकरा दिया था। वह काश्मीर का शाहजादा था। पर अब तो भिखमंगे से भी....” कहते-कहते उसकी आँखों से आँसू बहने लगे। नूरी ने उसके आँसू पोंछकर पूछा—”क्या अब भी उससे मिलने का मन करता है?” वह सिसककर कहने लगा—”मेरा नाम याकूब खाँ है। मैंने अकबर के सामने तलवार उठायी और लड़ा भी। जो कुछ मुझसे हो सकता था, वह काश्मीर के लिए मैंने किया। इसके बाद विहार के भयानक तहखाने में बेड़ियों से जकड़ा हुआ कितने दिनों तक पड़ा रहा। सुना है कि सुल्तान सलीम ने वहाँ के अभागों को फिर से धूप देखने के लिए छोड़ दिया है। मैं वहीं से ठोकरें खाता हुआ चला आ रहा हूँ। हथकड़ियों से छूटने पर किसी अपने प्यार करनेवाले को देखना चाहता था। इसी से सीकरी चला आया। देखता हूँ कि मुझे वह भी न मिलेगा।” याकूब अपनी उखड़ी हुई साँसों को सँभालने लगा था और नूरी के मन में विगत काल की घटना, अपने प्रेम-समर्पण का उत्साह, फिर उस मनस्वी युवक की अवहेलना सजीव हो उठी। आज जीवन का क्या रूप होता? आशा से भरी संसार-यात्रा किस सुन्दर विश्राम-भवन में पहुँचती? अब तक संसार के कितने सुन्दर रहस्य फूलों की तरह अपनी पँखुडिय़ाँ खोल चुके होते? अब प्रेम करने का दिन तो नहीं रहा। हृदय में इतना प्यार कहाँ रहा, जो दूँगी, जिससे यह ठूँठ हरा हो जायगा। नहीं, नूरी ने मोह का जाल छिन्न कर दिया है। वह अब उसमें न पड़ेगी। तो भी इस दयनीय मनुष्य की सेवा; किन्तु यह क्या! याकूब हिचकियाँ ले रहा था। उसकी पुकार का सन्तोष-जनक उत्तर नहीं मिला। निर्मम-हृदय नूरी ने विलम्ब कर दिया। वह विचार करने लगी थी और याकूब को इतना अवसर नहीं था! नूरी उसका सिर हाथों पर लेकर उसे लिटाने लगी। साथ ही अभागे याकूब के खुले हुए प्यासे मुँह में, नूरी की आँखों के आँसू टपाटप गिरने लगे!