नेग / अशोक शाह
"क्या कहते हो, चुनाव नज़दीक है।"
"आने दो, अभी दस दिन हैं, वैसे भी हमारी ज़िन्दगी में क्या फ़र्क पड़ने वाला है। अंग्रेज आये और गए। जब उनसे हमारी क़िस्मत नहीं सुधरी तो ये मौकापरस्त लोग क्या करेंगे। लालच और स्वार्थ तो देखो इनका। पूरी नदी का पानी पी गए, डग-डग पर धरती खोद डाली, जंगल काट डाले और फिर भी किस मुँह से समझाने चले आते हैं। मानो गंगा नहा लिए हो और पिछले 5 साल के सारे पाप धुल गए हों। हमारा विकास करने का कैसा दिलासा देते हैं। यह देख गिरगिट भी शरमा जाए।"
"लेकिन दारू की बोतल और कम से कम हज़ार रुपये नगद तो देंगे ही। दारू की दो बोतल तो पक्की है। कोई जीते या हारे हमारा क्या बनता-बिगड़ता है। अब वह माई के लाल कहा जो जन-सेवा के लिए सड़को पर निकलते हों और आत्मसम्मान के लिए जीते हों। लकिन हमारी दो रातें तो आराम से गुज़र जाएंगीं।"
"हाँ, मंगरू, यह किसे नहीं मालूम। वोट डालने के दो दिन पहले ही मिल जाएंगी। इसके बाद वे हाथ जोड़ेंगे, दाँत भी निपोऱेंगे और खाज लगे कुत्ते की तरह रिरियायेंगें भी। देखना इस बार टक्कर जबरदस्त है। किसी एक के लिए आसान नहीं। अभी से एक ने ठेहुने से हमारा गला दबा दिया है और दूसरा पूरी सांत्वना दे रहा है। उसे एक मौका दो, ज़िन्दगी खुशहाल कर देगा।"
"सुना है इस बार साड़ी, चप्पलें और धोती भी मिलने वाली हैं। इतना सारा ख़र्च करने वाले हैं। मैं कहता हूँ बच्चों की किताबें भी मुफ़्त देने वाले हैं। कितने भले आदमी हैं।"
"अरे कौन अपने बाप के पैसे बाँटने वाले हैं। पैसे तो हमारी-तुम्हारी कमाई और धरती माँ की ख़ुदाई के हैं। इतने सालों से ये ही तो बटोर रहे हैं। हम लोग तो कुत्ते से भी गए गुज़रे हैं। चुनाव आता है तो बची-खुची हड्डियाँ फेंकने चले आते हैं, ऊपर से यह एहसान कि वे ही तो हैं हमारे कर्ता-धर्ता। दिन-रात हमारी भलाई के सपने देखते हैं, 4 घण्टे से अधिक सोते नहीं। पूरा देश डूब रहा है, वही तो बचाने वाले हैं। एक ओर देश के तारनहार ये हैं और दूसरी ओर हमारी ज़िन्दगी का भवसागर पार लगाने वे पंडित हैं।"
"लेकिन तुम देखो ना, खाने के लिए राशन रुपये किलो कर दिया। गाँव-गाँव स्कूल, बैंक में खाता, दुपहरिया का भोजन, बीमारी का बीमा, मरने का बीमा, पैदा होने का इनाम यहाँ तक कि शादी करने के लिए इंतज़ाम भी सरकार ने कर दिया है। कुछ बचा है?"
" देखो, मंगरू, तुम कब समझोगे। जब से रुपये किलो राशन कर दिया हम तो बेगैरत और
आलसी हो गए। देह भी कमज़ोर हो गयी और कामचोरी अलग से। स्वाभिमान नाम की कोई चीज़ तो बची नहीं। पहले तो इतना विश्वास अपने हाथों पर था कि मेहनत-मज़दूरी करके परिवार पाल लेंगे और दरख़्त के नीचे सुकून की नींद सो जाएंगे। रुपये के राशन ने तो हमारे हाथ ही काट डाले, भरोसा ख़त्म कर डाला और हम निकम्मे और आलसी हो। क्या हम धरती पर पैदा हुए हैं सिर्फ़ रुपये का राशन खाकर चुपचाप बैठने के लिए और उधर हमारी तक़दीर कोई और लिखता रहेगा। रही बात स्कूल की तो बिना मास्टर के स्कूल में हमारे-तुम्हारे बच्चे क्या सीख रहे हैं? बस दोपहर का खाना खाकर लौट आते हैं। पढ़ाई-लिखाई चैपट होने से आगे की पीढ़ी तो मानसिक रूप से भी अपंग हो रही है। सीखना-वीखना कुछ नहीं बस कक्षा दर कक्षा पास हो रहे हैं। तुम देखते नहीं कितनी चतुराई से हमारे पैदा होने से लेकर मरने तक का ठेका सरकार ने ले रखा है और हम कहाँ हैं? कहाँ है हमारा आत्म-सम्मान है? कहाँ है रोजगार जो हम ख़ुद अपने मेहनत और हुनर के बल पर करना चाहते हैं? मुझे तो लगता है इन सरकारी योजनाओं में उलझकर हमारी आने वाली पीढ़ियाँ गिरवी होती जा रही हैं। क्या तुमने कभी सोचा कि हमारा जीवन सरकार के भरोसे चलने लगा है। हमारा उद्यम, हमारी मेहनत और हमारी स्वतंत्रता कहाँ हैं? धीरे-धीरे हमारा अँगूठा भी उन्होंने गिरवी रख लिया है। सिर्फ़ क़ाग़ज़़ पर लगाने लायक। तय वे ही करते हैं कि अँगूठा कहाँ लगाना है। "
"लेकिन सरकार ऐसा क्यों कर रही है?" मंगरू ने थोड़ा निराश होते हुए कहा।
"कौन-सी सरकार? किसकी सरकार? कौन चलाता है सरकार? ये वे ही लोग जो आज़ादी के पहले जबरदस्ती हम पर राज करते थे और आज़ादी के बाद हमीं उन्हें चुनते हैं राज करने के लिए। जानते हो क्यों? क्योंकि हमलोग गैर ज़िम्मेदार हैं। दूसरों पर निर्भर रहते-रहते पीढ़ी दर पीढ़ी हमने सिर्फ़ किसी के पीछे-पीछे चलना सीखा है। अकेला अपना क़दम कभी उठाते नहीं। कभी किसी उच्च जाति के पीछे तो कभी किसी नेता के पीछे। हमारा आत्मविश्वास उन्हीं के पास गिरवी है। कोई और नहीं हमने ही अपने साथ सबसे बड़ा विष्वासघात किया है कि हम किसी के लायक नहीं जबकि मनुष्य जाति के इतिहास में अपने हाथों से काम करने वाले हमीं लोग हैं। लेकिन हमें कभी इस बात की स्वतन्त्रता ही नहीं मिली कि हम अपने आर्थिक उत्थान के लिए काम करे, इसलिए हमने अपने श्रम का मूल्य जाना ही नहीं। अब तो हमारे पुराने हुनर भी जाते रहे और नयी पीढ़ी किसी काम के लायक बची नहीं। तन और मन दोनों से कमज़ोर होती जा रही है।"
"लेकिन अब तो हमारी जाति के लोग भी चुनकर जा रहे हैं, मंत्री-संत्री भी बन रहे हैं। वे लोग ऐसा क्यों नहीं सोचते?"
"देखो, मंगरू। उनकी मज़बूरी कुछ अलग है। उनकी हालत तो साँप-छछुन्दर जैसी है। न उगलते बनता है न निगलते। पता है चुनाव लड़ने के लिए उनको टिकट कौन देता है-एक पार्टी। पार्टी चलाने वाले काफ़ी होशियार एवं शातिर लोग हैं। हमारी जाति से पढ़े-लिखे समझदार, बात-चीत में तेज़ व्यक्ति को कभी टिकट नहीं देंगे क्योंकि उन्हें पता है कि ऐसा व्यक्ति राजनीति का मज़ा आसानी से समझ सकता है, गाहे-बगाहे आवाज़ ऊँची कर सकता है, वक़्त आने पर अपने अधिकार के लिए ल़ड़ सकता है, प्रश्न पूछ सकता है अर्थात् कुल मिलाकर मनोवैज्ञाानिक रूप से आज़ाद हो सकता है और उनकी बरोक-टोक की चली आ रही बिरासत में खलल पैदा कर सकता है। भला उसे टिकट क्यों देंगे?। टिकट ऐसे व्यक्ति को देते हैं जो डरपोक, विनम्र, पिछलग्गू और एहसानमन्द हो और उसको हमेशा यही अहसास बना रहता कि उनके और उनकी पार्टी के कारण वह विधायक, सांसद या ज़्यादा से ज़्यादा मंत्री बन सका है अन्यथा वह किस खेत की मूली था। ऐसे लोगों का अपना कोई स्वतंत्र विचार नहीं होता। वे जाति और बिरादरी के बारे में नहीं सोचते। उनकी सोच का दायरा उनके पद एवं परिवार की भलाई तक ही सीमित हो जाता है। बल्कि ये सबसे खतरनाक हैं। ऊपर से लगता है कि सरकार में रहकर हमारे लिए काम करते हैं लेकिन हकीक़त यह है कि ये सिर्फ़ मोहरे होते हैं नये राजा-रानी के लिए। वह अधिकार, जिसका उपयोग करने की शक्ति और समझ न हो ख़ुद के लिए अभिशाप बन जाता है। अनादि काल से यही होता आया है।"
"तो हम क्या करें? क्या उपाय है इसका? बाक़ी लोगों को देखो कितने मजे में हैं वे तो कुछ सोचते ही नहीं। दीन-दुनिया की जैसे कोई चिन्ता ही नहीं।"
" उन्हें क्या दोष दें। ग़रीबी, कमज़ोरी और हीन भावना तो हमारी नियति बना दी गयी है। ताकतवार व्यक्ति की नीयत तो हमेषा कमज़ोरों के शोषण करने की ही होती है और बड़े-बड़े धर्मपोथियों में कितनी चालाकी और सफ़ाई से लिखा गया है ताकि एक गरीब व्यक्ति अपनी आर्थिक एवं सामाजिक स्थिति को नियति मानकर स्वीकार कर ले और प्रश्न खड़ा न करे जैसे कि-
होइहे सोई जो राम रचि रखा
का करि तर्क बढ़ावहि साखा।
पीढी़-दर-पीढ़ी लिखकर, कहकर सुनाकर इस बात को जायज़ ठहराने की कोशिश की गयी है कि तुम अपने पिछले जन्मों के संस्कारों के कारण गरीब और पिछड़े हो। तुम्हारा भाग्य विधाता पहले ही लिख चुके हैं, उस पर बहस करने की ज़रूरत नहीं और ऐसी सोच मनौवैज्ञानिक रूप से हमारे दिमाग़ में ढलकर हमारी ज़ीन का हिस्सा बन चुकी है। सारी परम्पराओं को तोड़कर उस पर उँगली उठाने का साहस किसमे हैं, बताओ। "
"तो क्या कुछ भी नहीं हो सकता?"
"क्यों नहीं हो सकता। मुझे ख़ुशी है कि यह प्रश्न तुम्हारे दिमाग़ में आया तो और तुमने पूछने की हिम्मत की। यदि तुम चाहो तो कुछ भी हो सकता है। सबसे पहले, दूसरो के पीछे चलना छोड़ना होगा। यह विश्वास पैदा करना होगा कि जहाँ तुम क़दम रखोगे वहाँ भी धरती होगी। यह समझना होगा कि बिना मुर्गे के बाग़ दिये भी सबेरा होता है। फिलवक्त अपनी स्थिाति को भी समझना ज़रूरी है। अभी तो हमारी जाति, हमारा नाम, हमारी पहचान (आधार कार्ड) और हमारा बीपीएल नम्बर दूसरों के लिये पूंजी बन गए है। दूसरे हमारा इस्तेमाल करते है धन कमाने के लिए और शक्तिशाली होने के लिए। हम तो प्रजातंत्र के कच्चे माल हैं जिसका उपयोग कर सरकारें बनती-बिगड़ती हैं। एक ऐसा कच्चामाल जो बड़ी आसानी से उपलब्घ है। एकदम रेडीमेड।"
उनकी बातचीत अभी ख़त्म ही नहीं हई थी कि गाँव का सरपंच अजय साहू आ धमकता है और काफ़ी प्रसन्नता से सूचित करता है कि नरेगा का ठेकेदार आया है।
"ओ मंगरू, रामदीन तुम्हारी मज़दूरी के पैसे एकाउन्ट में आ गए हैं, कल चलकर बैंक से निकाल लो या अभी चलो बी-सी मशीन ले के आया है। जल्दी करो। ठेकेदार के पास टेम नहीं है उसका और मेरा हिस्सा दे के हिसाब-किताब बराबर करो, ताकि अगले काम में तुम्हारा नाम फिर से लिखा जाए।"
तभी बीसी और ठेकेदार वहीं आ धमकते हैं।
"तुम्हीं दोनों बचे हो। पैसे जल्दी निकाल लो नहीं तो फिर एक महीने बाद ही मैं आ पाऊँगा"।
मंगरू झटपट मशीन पर अपना अँगूठा लगा देता है। नरेगा की मजदूरी के 2000 रुपये निकलते हैं। उसमें से 500 रुपये मंगरू पाकर खुश हो जाता है। सरपंच 500 रख लेता और 1000 रुपये ठेकेदार लेकर चला जाता है।
लेकिन रामदीन अँगूठा लगाने से इंकार कर देता है।
मंगरू पूछता है-"रामदीन तुमने रुपये क्यों नहीं निकाले।"
"वे रुपये मेरे नहीं हैं। मैंने कोई काम नहीं किया था। सरपंच को कह दिया है मेरा नाम किसी भी काम में न जोड़े।"
" काम तो मैंने भी नहीं किया। पर जेठ की तपती दोपहरी में झमाझम बारिश की तरह आए इन पैसो को क्या छोड़ दे?
"मैं तुमको हरिशचंद्र बनने की सलाह तो नहीं दे रहा लेकिन फ़ैसला तो तुम्हे ही करना होगा"।
कुछ क्षण के लिए मंगरू चुप हो जाता है। उसे सूझता नहीं क्या बोले। महीने से खाट पर पड़ी बीमार माँ उसे याद आती है। याद आता उसकी पत्नी का चेहरा जिसे शादी से लेकर अब तक कोई नयी चीज़ अपनी कमाई के पैसों से खरीद कर नहीं दे सका और सबसे बड़ा बोझ तो साहूकार का है। पच्चास हज़ार से अधिक का कर्ज़ा जो साल-दर-साल बढ़ता ही चला जाता है। जितना चुकाओ उतना ही बढ़ता चला जाता है। उसकी इकलौती ज़मीन साहूकार के कब्जे में ही है। उसने यह भी कोशिश की थी कि बैंक से कर्ज़ लेकर कुछ धन्धा शुरू करें, ताकि साहूकार के रुपये वापस कर दिये जाए लेकिन बेकार। बड़ी मुश्किलों के बाद लोन की राशि तो मिली, लेकिन सिर्फ़ उतनी ही जितनी सरकारी अनुदान की राशि थी। लोन की राशि तो बैंक और दलाल ही मिलकर खा गए। ऐसे में वह बैंक का लोन भी नहीं चुका पाया था। रही धन्धे की बात। उसकी तो उसकी भ्रूण हत्या ही हो गयी।
सहसा मंगरू को ख़्याल आया। उसे साहूकार के घर जाना था। वह उठ खड़ा हुआ और रामदीन से कहा-"भइया, मुझे शाम को साहूकार के घर जाना है। उसकी लड़की की शादी है।"
मंगरू दौड़ता-भागता फटाफट तैयार होकर पहुँचता है। पाँच सौ रुपये की ख़ुशी उसके चेहरे पर स्पष्ट दीख रही थी। शादी की सजावट देखकर उसकी आँखे चैंधियाँ जाती हैं। वहाँ बहुत सारी चीजे ऐसी थीं, जिन्हें ज़िन्दगी में पहली बार देख रहा था। कहा खोजे साहूकार को। एक से बड़े एक हाक़िम बैठे थे। बीडीओ, -सी ओ, बैंक मैनेजर, एस डी एम, कलेक्टर सभी तो थे वहाँ। उसकी जाति के पुराने विधायक जी भी पधारे थे और झुक-झुक सारे आगन्तुको का स्वागत-सत्कार कर रहे थे। तभी साहूकार उसी की ओर आता दिखाई देता है।
"अरे कहाँ रह गए थे मंगरू। बड़ी देर कर दी। लड़की की शादी है कुछ नेग-वेग भी लाये हो या खाली हाथ चले आए।"
'जी हुजूर! लड़की शादी है, मैं खाली हाथ कैसे आ सकता हूँ। इतना आभागा तो हूँ नहीं।'
मन मसोसकर मंगरू अपनी जेब में हाथ डालता है। कुछ देर पहले मिली पांच सौ रुपये की नयी नोट साहूकार के हाथ में रख देता है और जूठे बर्तन धोने के काम में जुट जाता है। तभी रामदीन की कही कुछ बातें याद आती हैं। बर्तन साफ़ करते उसके हाथ रूक जाते हैं। उसे निराशा और बेचैनी होती है। लेकिन समझ में नहीं आता कि वह यह सब क्यों कर रहा है। इसके पहले कि वह घबरा जाए उसे याद आता है कि नेग तो वह दे चुका है। आज कुछ अच्छा खाने को उसे ज़रूर मिलेगा। वह जल्दी-जल्दी हाथ चलाने लगता है। उसकी पत्नी हमेशा की तरह आधा काम कर चुकी थी।
तबतक रात के दो बज चुके थे। सबके खा चुकने के पश्चात पति-पत्नी एक कोने में दुबके बैठते हैं। साहूकार का ही एक आदमी बचा-खुचा उनके सामने रख देता है। लालसा की अतृप्त निगाहों से वे भोजन की ओर देखते हैं। खाने के बाद कुछ बच सकता है जिसे वे घर ले जा सकते हैं, यह सोच मन ही मन खुश भी होते हैं। आज का दिन चाहे जैसा भी बीता हो। मिले रुपये चले गए, सुबह के पाँच बजे से लेकर रात के दो बजे तक बैठने को भी नहीं मिला तो भी कोई बात नहीं। लेकिन उसने चुनाव पर चर्चा अच्छी की और अन्त में इतना बढ़िया खाना मिल रहा है। यह किसी सपने के सच होने जैसा था। वही खाना जो कलक्टर साहब और दूसरे हाकिम-हुक्मरान खाके गए हैं। मंगरु फिर भी भाग्यषाली है।
परस्पर परोसकर वे खाने के लिए बैठते हैं। पहला कौर उठाकर मुँह में डाल ही रहे थे कि रात के उस भारी सन्नाटे चीरती तेज आवाज़ सुनाई पड़ती है।
'मंगरु तुम्हारी माँ चल बसी।' मानो वज्रपात हो गया। जैसे एक सूरज उगते-उगते ठिठक गया हो। एक सुबह हताश दहलीज़ पर पाँव धरते-धरते जैसे लौट गयी हो। मुँह में भर आई लार को मंगरु भीतर ही भीतर सुपड़ गया। अकुलाती अतड़ियाँ फटे हुए दूध की तरह शान्त हो गयीं। कौर लिये उठे दोनों हाथ मुँह तक पहुँच नहीं पाए। प्लेट में गिर पड़ते हैं। आँसुओं से हाथ धोकर वे उठ खड़े होतें हैं। दिन की तरह उनकी वह रात भी बीती नहीं। अगली सुबह की विदाई के लिए वह कफ़न कहाँ से लाए।
डूबते को तिनके के सहारे की तरह मंगरु को ख़्याल आता है, ' नेग में लिए 500 रुपये क्या साहूकार कर्ज़ में वापस दे सकता है।
(परिकथा जनवरी 2020 में प्रकाशित)