नेतृत्व और उसका विरोध / महारुद्र का महातांडव / सहजानन्द सरस्वती

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लेकिन , अगले तीस साल के दरम्यान उसके दो पर्व गुजरे , जैसाकि अभी-अभी कहा है। एकही उच्च मध्ययम-वर्ग के दो स्तरों के बीच कुश्तम-कुश्ता होने के कारण उसे दो पर्व कहना ज्यादा ठीक है। पहले पंद्रह साल तो सकुशल रहे , जैसे सामंत-नेतृत्व के तीस साल। परंतु बाद के शेष पंद्रह दोनों स्तरों के परस्पर महाभारत के चलते बेचैनी से गुजरे और अंत में उच्च-स्तर को मैदान छोड़ना पड़ा। इस तरह यद्यपि उच्च मध्यम वर्ग का नेतृत्व भी तीस साल ही का जा सकता है , तथापि इसमें पहले सामंत वर्ग के नेतृत्व जैसी बात अंत तक न रहकर पूर्व के पंद्रह साल ही रही। उस वर्ग के निम्न स्तर के शेष पंद्रह साल नेतृत्व लेने की कुश्ती में बिताए थे। इसीलिए उसका नेतृत्व स्पष्टत: सिर्फ पाँच साल ही टिक सका। इस तरह साफ देखते हैं जैसे-जैसे जन-जागरण बढ़ता गया और भारत के पूरे समाज के भीतर अनेक स्तरों में क्रमश: आजादी की चाह की आग घुसती गई , तैसे-तैसे नेतृत्व का काल घटता गया। जो भी नायकत्व किसी समय था , उसकी लेने के लिए इसके नीचे के स्तर ने जल्द-से-जल्द युध्द छेड़ा और अंत में कामयाबी हासिल की। यही कारण है कि जहाँ मालवीय और तिलक प्रभु के नेतृत्व को लखनऊ के बाद प्राय: तीन साल की साँस मिली 1919 के जमाने तक , तहाँ महात्माजी के नेतृत्व के विरुध्द ठेठ 1921 में चौरी-चौरा और दूसरी जगह सक्रिय विद्रोह का श्रीगणेश हो गया। महात्मा ने तो तिलक-मालवीय नेतृत्व के विरुध्द 1919 में जंग जारी की थी एक साल के बाद। मगर चौरी-चौरा तो 1921 के शुरू में ही आया था वह उनकी अहिंसा के विरुध्द एक निर्जीव चैलेंज , जो टिक न सका इसीलिए उसे एक क्रियात्मक सूचना का नोटिस भी कह सकते हैं , 1930-32 में एक प्रकार से विराट रूप धारण कर के उनकी सत्य-असत्य को दफना ही दिया , जहाँ तक उसकी आजादी की लड़ाई से ताल्लुक है इसे कौन नहीं जानता , जो इस समय का इतिहास जानता और भीतरी से उसका निरीक्षण करता है।