नेफ्रटीटी के देश में मिस्र / संतोष श्रीवास्तव
30 नवंबर 2018
पुश्किन की नज्म है...
जिसने जन्म का चोला भी पहना
और मौत का कफन भी
पर फिर भी जिसे अपने
वजूद के सबूत के लिए
कागज का एक टुकड़ा
नसीब न हुआ
लेकिन मुझे जन्म के सबूत के लिए उन पिरामिडों को देखना था जो 5000 साल का इतिहास समेटे मिस्र में विश्व धरोहर का दर्जा पाए मुझे जाने कब से अपनी ओर खींच रहे थे और इसे दृढ़ स्वप्न की तरह अपने दिल में तब से संजोए रखा है जब मेरी मुलाकात स्विट्जरलैंड के एंगलबर्ग शहर में पहाड़ पर स्थित होटल टेरेस में काहिरा की रहने वाली प्रसिद्ध पुरातत्वविद और मिस्र के पिरामिडों पर अनुसंधान कर रही डॉ जोआन फ्लेचर से हुई। वे छुट्टियाँ बिताने टेरेस में ही आकर रुकी थीं। वे खासतौर से मिस्र की साम्राज्ञी नेफ़रटीटी के रहस्य को खोज रही थीं। इतिहास के गर्त में कई बार बहुत महत्त्वपूर्ण घटनाएँ, दस्तावेज और शासक बड़े मानीखेज और सुनियोजित तरीके से दफना दिए जाते हैं।
बहरहाल वह मौका आ ही गया जब मैं अपनी संस्था विश्व मैत्री मंच के 24 सदस्यों के दल सहित अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित करने मिस्र की यात्रा पर निकल पड़ी।
मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस से 30 नवंबर 2018 की सुबह 4: 20 पर हमने कुवैत एयरवेज से कुवैत के लिए उड़ान ली। भारतीय समयानुसार 6: 10 पर सुबह कुवैत पहुँचे। मिस्र 3 घंटे 20 मिनट भारतीय समय से आगे है।
3 घंटे कुवैत एयरपोर्ट पर काहिरा की फ्लाइट का इंतजार करना पड़ा। काहिरा 11: 20 पर पहुँचे। ऑन अराइवल वीजा की प्रक्रिया के बाद हम अपने गाइड अहमद के साथ अपनी 40 सीटर बस में थे और मिस्र की अजनबी मगर अपनी-सी धरती पर खूबसूरत एहसास के साथ बेहद खुश थे। दिन में मिस्र का तापमान 22, 23 तक रहता है। रेगिस्तानी इलाका होने की वजह से धूप तेज लग रही थी। तेज़ और चमकीली। काहिरा में हम खूबसूरत रिसोर्ट पिरामिड पार्क में रुके।
भूख तेजी से लगी थी। इंतजार लंच का ...आज ही सम्मेलन भी था। खूब उत्साह था सभी में। यह विश्व मैत्री मंच का रूस, दुबई, भूटान के बाद चौथा अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन था। अंजना श्रीवास्तव ने अकेले ही सम्मेलन के लिए हॉल बैनर आदि लगाकर तैयार कर दिया। सरस्वती जी की फोटो, बैटरी से चलने वाले दीपक, फूलों की माला, आभा दवे मुंबई से लेकर आई थी। सभी प्रतिभागियों के लिए मोमेंटो मैं लेकर आई थी। तय हुआ कि चूँकि हॉल 9: 00 बजे तक ही हमारे पास है अतः कवि सम्मेलन क्रूज में करेंगे। लंच के बाद 5: 00 बजे सम्मेलन शुरू हुआ। उद्घाटन सत्र में स्वागत भाषण, संस्था का परिचय, किताबों के लोकार्पण, एकल नाट्य प्रस्तुति हुई। द्वितीय सत्र में परिचर्चा। विषय "हिंदी साहित्य में अनुवाद की भूमिका"। बहुत शानदार रहा यह सत्र। टी ब्रेक के बाद प्रतिभागियों को स्मृति चिह्न से सम्मानित किया गया। विदेशी धरती पर हिन्दी साहित्य का परचम लहरा कर हम पिछली रात के जागरण लंबी हवाई यात्रा के बावजूद प्रफुल्लित थे। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी साहित्य की प्रतिष्ठा के लिए अंश मात्र ही सही योगदान तो था ही हमारा।
डिनर के लिए हम शहर के रेस्तरां होटल पिरामिड गये। जो शहर से दूर था। खुला इलाका ...रात यहाँ वैसे भी ठंडी हो जाती है। इस वक्त तापमान 9 डिग्री सेल्सियस था। तिस पर ठंडी हवाएँ।
मिस्र में सब्जियाँ, हरे पत्ते वाली सलाद, सूप आदि भोजन में बहुत अधिक शामिल किया जाता है। अरहर, मसूर की दाल, मोटे गोल चावल, खमीरी रोटी जो मिक्स आटे की होती है और जो वहाँ के तंदूर में पकाकर होटलों में भिजवाते हैं। बाद में सफर के दौरान मैंने इन रोटियों को साइकिल ठेले में खुला बिकते देखा। लौकी का कोफ्ता और बैंगन भी यहाँ खूब खाया जाता है। सूजी का हलवा, सिवईयाँ मीठे व्यंजन के रूप में मौजूद रहती है।
आधे घंटे के सफर के बाद हम रेस्तरां पहुँचे। ढेर सारी हरी सलाद, दाल, चावल, बैंगन, नानबाई की ठंडी रोटी, सूखी और रसेदार सब्जी, मैदे के लड्डू, सिवईयाँ की बर्फी। फल में मुसम्मी, तरबूज, अंगूर, खरबूजा। मेरी तो खाने के बाद डिनर टेबल पर ही आँखें मुंदने लगीं। चाय मंगवाई बिल्कुल बेज़ायका। पानी की बोतल 25 इजिप्शियन पाउंड यानी 112 भारतीय रुपए में खरीदी।
रिसोर्ट लौटकर इतनी थकान के बावजूद लोग रिसेप्शन में सोफे पर बैठ कर फ्री वाई-फाई का फायदा उठाने लगे। रिसेप्शन भी महल के दरबार जैसा। ढेर सारे बड़े-बड़े सोफे, मूर्तियाँ, नकली फूलों की सजावट।
अहमद ने कहा—"सुबह 6: 00 बजे वेकअप कॉल, 7: 00 बजे ब्रेकफास्ट और 8: 00 बजे गीजा पिरामिड के लिए हम प्रस्थान करेंगे।"
मेरी रूम पार्टनर अंजना ने भोपाल से लाए चाय के सैशे का बिल्कुल सही वक्त पर इस्तेमाल किया। चाय पीकर आनंद आ गया। शाँत सुखद नींद के बाद वेकअप कॉल के पहले ही हम दोनों जाग गए। आराम से तैयार हुए और कॉन्टिनेंटल ब्रेकफास्ट के बाद बस में आ बैठे।
मिस्र की धरती पर राधा कृष्ण और गणपति की आरती गाते हुए हम गीजा पहुँचे। बीच-बीच में अहमद जानकारियाँ देता रहा।
मिस्र की सभ्यता अति प्राचीन है। प्राचीन सभ्यता के अवशेष यहाँ की गौरव गाथा कहते हैं। वैसे तो मिस्र में 138 पिरामिड हैं। लेकिन काहिरा के उपनगर गीजा स्थित तीन पिरामिड ग्रेट पिरामिड कहलाते हैं। जो विश्व के सात अजूबों की सूची में शामिल हैं। यहाँ के तत्कालीन सम्राट फेरो (वैसे मिस्र के सभी सम्राट फेरो या फराओ कहलाते थे जो देवताओं की तरह पूजे जाते थे) के लिए बनाए गये ये पिरामिड सचमुच अजूबे ही हैं। न जाने किस तरह के मसालों के लेप तैयार कर राजाओं के शवों की ममी बनाकर इन ग्रामीणों में सुरक्षित रखा गया। जो पांच सदियाँ गुजर जाने के बाद आज भी ज्यों के त्यों हैं। ममियों के साथ खाद्य पदार्थ, वस्त्र, गहने, बर्तन, वाद्य यंत्र, हथियार, जानवर तथा जीवित दास दासियों को भी राजा की तीमारदारी के लिए दफना दिया जाता था। वैसे पूरे विश्व का इतिहास ऐसी निर्ममताओं से भरा है।
गीज़ा उपनगर में प्रवेश करते ही दूर-दूर तक फैले रेगिस्तान में तीन पिरामिड तेज धूप में अपने भूरे, धूसर रंग में अलौकिक आभा बिखेर रहे थे। मानो जीवन के सभी रंगों को विदा कर मृत्यु का एकाकी उदास रंग ही इन पिरामिडों की पहचान है। बड़े, मध्यम और छोटे आकार के ये पिरामिड जैसे किसी ने रेगिस्तान में अतिथि स्वागत का थाल सजाया हो। इस पूरे परिसर में घूमने की टिकट हम विदेशियों के लिए 160 इजिप्शियन पाउंड थी जो मूल टिकट रेट से दुगनी थी। खैर इसी तरह विदेशियों के लिए अलग प्रवेश टिकट तो भारत में भी है।
ग्रेट पिरामिड 481 फुट ऊँचा है। 3800 साल पहले यह दुनिया का सबसे ऊँचा स्मारक था। यह 13 एकड़ भूमि तक फैला है। इसे बनाने में 25 लाख चूना पत्थर लगे जिनमें से हर एक पत्थर का वजन 2 से 30 टन था। इसका निर्माण 2560 ईसा पूर्व मिस्र के शासक खुफु के चौथे वंशज द्वारा बनवाया गया था। जिसे पूरा होने में 23 वर्ष लगे। ये पिरामिड ऐसी जगह बने हैं जिन्हें इजराइल के पर्वतों से भी देखा जा सकता है और यह भी धारणा है कि ये चाँद की धरती से भी दिखते हैं। वर्षों से वैज्ञानिक इन पिरामिडों का रहस्य जानने की कोशिश में लगे हैं पर अभी तक कोई सफलता नहीं मिली।
परिसर घूमने के लिए अब हम स्वतंत्र थे। हमें मीटिंग प्वाइंट में 1 घंटे बाद मिलना था। वैसे तो पिरामिड पर चढ़ना अपराध है फिर भी कुछ लोग चढ़े जिन्हें वहाँ तैनात पुलिस ने उतरने को कहा। फोटो खिंचवा कर वे नीचे उतर आए। वहाँ ऊँट, घोड़े और तांगे की सवारी भी थी। मैंने प्रमिला और विजयकांत जी के साथ तांगे में बैठकर तीनों पिरामिड की परिक्रमा लगाते हुए पैनोरमा तक की सैर की। पैनोरमा से गीजा का व्यू बहुत खूबसूरत दिखता है। दूसरे तांगे
पर हमारे अन्य साथी माँग के साथ तुम्हारा गाते हुए जा रहे थे। कुछ लोग मध्यम आकार के पिरामिड के अंदर भी गए जिसकी अलग से टिकट लेनी पड़ती है। लेकिन मेरे लिए उसमें जाना मुश्किल था। क्योंकि कमर झुकाकर उसमें जाना पड़ता है और 20 मिनट तक कमर झुकाकर ही सब देखना पड़ता है। अंदर सीढियाँ हैं जिन पर चढ़कर ममी रखने का खाली ताबूत देखा जा सकता है। दूसरी तरफ से सीढियाँ उतर कर बाहर निकलते हैं। इसकी दीवारों पर अरबी, हिब्रू भाषा में यहाँ की जानकारी दी गई है। अब ताबूत से ममियाँ इजिप्शियन संग्रहालय में पर्यटकों के दर्शनार्थ रखी गई हैं।
कुछ साथी तांगे की सवारी में इतना खो चुके थे कि समय पर नहीं लौट पाए। लिहाजा अहमद अपना आपा खो बैठा और नाराजगी में तय किए दर्शनीय स्थलों में से कॉटन शॉप जो कि खान-ए खलीली बाज़ार में है और जहाँ का इजिप्शियन कॉटन मशहूर है नहीं ले जाया जा सकता ऐसा कहने लगा। बहरहाल हम लॉर्ड ऑफ स्फिंक्स आए।
सड़क थोड़ी ढलान वाली थी और यहाँ बहुत अधिक भीड़ थी। बुर्का पहने इजिप्शियन महिलाएँ बिल्कुल भारतीय मुस्लिम औरतें लग रही थीं। विशाल रेगिस्तानी भूभाग में खंडित नाक वाली प्रतिमा के रूप में गीजा का महान स्फिंक्स स्थापित था। जो चूना पत्थर से निर्मित था। उसका शरीर शेर जैसा और सिर मनुष्य जैसा था। आसपास कई सीढ़ीनुमा लंबी-लंबी चट्टानें थीं। यह स्थान दुनिया की सबसे लंबी नदियों में शुमार नील नदी के पश्चिमी तट पर काहिरा से 12 किलोमीटर दूर मिस्र के मरुस्थल में स्थित है। स्फिंक्स एक मिथकीय दैत्य है जो पिरामिड के आसपास स्थित शमशान से सभी शैतानी ताकतों को दूर भगा देता है। इसका चेहरा आमतौर पर सम्राट फिरौन खाफ्रे का प्रतिनिधित्व करता है। 73 मीटर लंबी और 20 । 21 मीटर ऊँची यह प्रतिमा प्राचीन मिस्र का अद्भुत मूर्ति शिल्प है जो फारस खाफ्रे (2558—2532 ईसा पूर्व) के शासन काल में निर्मित की गई थी।
कितने आक्रमणों से गुजरा मिस्र। सिकंदर महान ने यहाँ आक्रमण कर ग्रीक शासन लागू किया। यहाँ यूनानी संस्कृति का असर भी दिखाई देता है। फारसी, मुस्लिम, मंगोल तुर्की शासन भी रहा। अंत में ब्रिटिश आए जिनके शासन का अंत 28 फरवरी 1922 में हुआ। 18 जून 1953 में यह गणराज्य घोषित कर दिया गया। अब यहाँ सैन्य शासन है। इतने सारे विदेशी आक्रमणों की वजह से यहाँ मिली जुली संस्कृति है। हालांकि आध्यात्म और धर्म में इन्होंने किसी भी संस्कृति को शामिल नहीं किया। ये सूर्य, चंद्र, नील नदी, पृथ्वी, पर्वत, आकाश, वायु की पूजा करते हैं। जैसे हमारे यहाँ पवित्र नदी गंगा है वैसे ही नील नदी है।
सूर्य को रे ऐमन और होरस नामों से जाना जाता है। बाद में सूर्य पूजा एमर रे के नाम से की जाती रही। फिर पृथ्वी, प्रकृति और नील नदी को मिलाकर एक शक्ति ओसाइरस नामक देवता के रूप में पूजी जाने लगी।
इसे जल देवता भी मानते हैं। ओसिइस रे देवता का पुत्र है जो जीवन मृत्यु का मूल्यांकन करता है यानी यम। इन की पत्नी का नाम आईरिस था जो देवियों में प्रमुख देवी हैं और रे की सगी बहन हैं। मिस्र में सगे भाई बहनों में विवाह होना बहुत शुभ माना जाता है। यहाँ राक्षसों और दैत्य की भी कल्पना की गई है। मुझे लगता है पूरे विश्व में धार्मिक कल्पनाएँ एक जैसी हैं। अब यहाँ इस्लाम धर्म भी प्रमुखता से अपनाया गया है। इस्लाम के प्रचलन के साथ 7 वीं शताब्दी में जब बादशाहियत आई तो उन लोगों के शवों को दफनाने के लिए शहरों से दूर रेगिस्तानी इलाके को चुना गया। अलग-अलग राजवंशों के दफनाने के अलग-अलग इलाके थे जिन्हें बाद में चहारदीवारी से एक कर दिया गया। इसे el-arafa necropolis भी कहा जाता है। इन्हीं शमशानों से सभी शैतानी ताकतों को स्फिंक्स दूर भगा देता है। पहाड़ी की ढलान से लगे समतल मैदान में कुर्सियाँ लाइट एंड साउंड शो के लिए लगी थीं। हजार बारह सौ से कम क्या होंगी। यहाँ से स्फिंक्स की मूर्ति एकदम नजदीक नजर आती थी।
बस चढ़ाई पारकर चौड़ी सड़क पर आ गई थोड़ी ही देर बाद धूसर इमारतों का सिलसिला शुरू हो गया। सड़कों पर लोगों की आवाजाही, भीड़ के चेहरे अजनबी नहीं लग रहे थे। हिंदुस्तानी छवि के थे।
सामने पपाइरस इंस्टिट्यूट जो कागज बनाने का स्थल है हमें डिमांस्ट्रेशन के द्वारा कागज बनाना दिखाया गया। पपाइरस एक प्रकार का पौधा है। लंबी डंडी में ऊपर की ओर बहुत सारी पतली डंडियाँ होती हैं जैसे सौंफ का गुच्छा। लंबी हरी डंडी को बेलन से बेलकर पतला कर मशीनों में सुखाया जाता है जिससे बहुत मजबूत कागज बनाया जाता है। जो आसानी से नहीं फटता। इस पर बहुत सुंदर चित्रकारी होती है। भूरे रंग का यह कागज भोजपत्र जैसा ही है।
वेलकम ड्रिंक के रूप में काली पुदीने वाली चाय हमें दी गई। बहुत विशाल हॉल जो पार्टीशन से तीन गैलरियों में बंट गया था, पपाइरस कागज से बने बेमिसाल चित्रों, कलाकृतियों से सजा था। कुछ तो सजीव लग रही थीं। सोविनियर के रूप में कलाकृतियाँ, चित्र और कागज खरीद कर हमारा काफिला सीधे नील नदी पर स्थिर खड़े फिश बोट रेस्तरां में लंच के लिए आ गया। इस नाम से कुछ ने नाक भौं सिकोड़ी पर वह पूरी तरह निराशमिश था बावजूद फिश बोट नाम से।
नील की लहरों पर कुछ परिंदे विहार कर रहे थे। भूख की तेजी ने गर्म खाने को खूब स्वादिष्ट बना दिया था। खाने के बाद मैं देर तक रेस्त्रां की खिड़की में से नील की लहरों को देखती रही। निश्चय ही इसमें बाढ़ भी आती होगी। कोई बता रहा था कि यहाँ बाढ़ को शुभ माना जाता है। रेगिस्तान की वजह से बाढ़ का पहला दिन "खुशी के आँसू वाली रात" के नाम से मनाया जाता है।
मिस्रवासी बेहद विद्वान होते हैं। वे आर्किटेक्ट में कमाल रखते हैं। यह तो पिरामिड देख कर
ही समझ गई थी मैं। गणित, रसायन शास्त्र, एस्ट्रोलॉजी और मौसम की जानकारी के विशेषज्ञ भी होते हैं। 365 दिन और 12 महीनों वाले कैलेंडर ने मिस्र में ही जन्म लिया। दुनिया की
सबसे पहली घड़ी भी यहीं बनी और यहीं वजन की सबसे पुरानी यूनिट एक्वा भी बनी। बस इजिप्शियन संग्रहालय के रास्ते पर थी। राजधानी होने के बावजूद काहिरा का स्थापत्य अधूरा अधूरा-सा था। भूरे रंग के अलावा दूसरा रंग दिखाई नहीं दे रहा था। सड़क के दोनों तरफ की इमारतें बिना प्लास्टर की थीं कि जैसे रिनुएशन का काम चल रहा हो। इमारतों में कोई आकर्षण नहीं था। ओल्ड काहिरा में तो कुछ इमारतें 641 ईसा पूर्व की थीं। विशाल किले, मस्जिद, मीनार, कॉप्टिक चर्च, सभा स्थल ...जैसे अतीत की गलियों में भ्रमण कर रहे हों। संग्रहालय में फोटो खींचना अलाउ नहीं है। अगर कैमरे की टिकट ली है तो फोटो खींच सकते हैं। इस भव्य संग्रहालय में 3 से 4 हज़ार वर्ष पुराने फराओ, सम्राटों और शासकों की विशाल मूर्तियाँ थीं। सिक्के, पपीरोज और ग्रीक रोमन राज्य काल के समय की दुर्लभ वस्तुएँ थीं। प्रवेश द्वार से सटे हॉल में एक विशाल नौका रखी थी। मिस्रवासियों का मानना था कि पाताल से नौका में बैठकर ओसाईरिस आएंगे और मृत व्यक्ति के जीवन का मूल्यांकन करेंगे। इसीलिए शवों के ताबूतों को जमीन में बहुत गहरे उतारा जाता था।
वहीं से कुछ सीढियाँ उतर कर जैसे कि पाताल मार्ग हो कुछ मूर्तियाँ रखी थी। वहाँ बहुत रोशनी थी। पहली मंजिल पर मिस्र के महान फराओ सम्राटों के पिरामिडों और मकबरे से निकला खजाना और ममियाँ मौजूद थीं। उस जमाने के फर्नीचर, दैनिक उपयोग की चीजें भी प्रदर्शित की गई थीं। तूतनखामन जो मिस्र का बहुचर्चित सम्राट था उसकी ममी 3 स्वर्ण मुकुटों के पीछे थीं जो स्वर्ण के ताबूत में रखी थीं। 11 किलो वजन का स्वर्ण मुखौटा, सोने से बना कमरा, सोने का पलंग, कुर्सी, टेबल सब सोने के और उस पर लाजवाब पच्चीकारी। सोने के जूते, चप्पल, हाथी दाँत के अनेक आभूषण यहाँ तक कि शव पर चढ़ाए गए गुलाब के फूलों की सूख कर काली पड़ गई पंखुड़ियाँ और यह सब खजाना 4 हज़ार वर्ष पहले बने पिरामिडों से यहाँ स्थानांतरित किया गया था। लग रहा था जैसे समय यहाँ आकर ठहर गया है।
इसके बाद ममी कक्ष था जिसकी टिकट अलग से लेनी पड़ी। वहाँ मिस्र के राजा रानी दास दासी और जानवरों तक की ममी थी। राजपरिवार की 14 ममियाँ थीं जो वहाँ प्रदर्शित थीं। पारदर्शी ताबूतों में ...बेहद लोमहर्षक ... 4 हज़ार साल पहले इन चलते-फिरते जीवित सेवकों को सम्राट सम्राज्ञी के शवों के साथ इसलिए दफनाया गया था कि एक वक्त आएगा जब यह सब पुनः जीवित हो जाएंगे। उनके शवों को हर प्रकार की जड़ी बूटियों का लेप लगाकर पूरे शरीर को सफेद पट्टियों से लपेट कर ममी बना कर सुरक्षित रखा गया था। कई ममी के तो नाक, बाल, नाखून तक ज्यों के त्यों थे। इन मृत शरीरों के बीच में सिहरन और अजीब-सी विरक्ति से भर गई। ऐसा लग रहा था जैसे दम घुट रहा हो।
म्यूजियम के बाहर खुली हवा में साँस लेते हुए मुझे लगा जैसे मैं किसी टाइम कैप्सूल में बैठकर सदियों की चौखट लांघ आई हूँ।
खान-ए-खलीली बाज़ार स्थित कॉटन शॉप में मुझे तो किसी चीज ने आकर्षित नहीं किया। बस पार्किंग प्लेस में पार्क कर अहमद ने हमें 40 मिनट का समय दिया बाज़ार घूमने का। बाज़ार आम बाजारों जैसा था। फुटपाथ पर भी सामान बिक रहा था। बारगेनिंग भी कर सकते थे। 400 पाउंड के तीन पिरामिड का सेट हमने 150 इजिप्शियन पाउंड में खरीदा। पिरामिड पत्थर के थे और बहुत भारी।
होटल पिरामिड में डिनर लेकर हम रिसॉर्ट लौट आए। कल मिस्र के दूसरे शहर अलेक्जेंड्रिया जाना था। बेतहाशा ठंड में कँबल में दुबकते ही नींद के आगोश में।
मिस्र अरब गणराज्य है। एक अंतर महाद्वीपीय देश। उत्तर में भूमध्य सागर, पूर्व में लाल सागर है। पूर्व में इजरायल, दक्षिण सूडान और पश्चिम में लीबिया है।
काहिरा के बाद हम मिस्र के दूसरे सबसे बड़े शहर अलेक्जेंड्रिया जा रहे हैं। यहाँ की जनसंख्या 41लाख है। वैसे मिस्र अफ्रीका और मध्य पूर्व के सबसे अधिक जनसंख्या वाले देशों में से एक है। पूरे मिस्र की अनुमानित जनसंख्या 7 .90 करोड़ है। 2011 में मिस्र उस क्रांति का गवाह बना जिसके द्वारा मिस्र से हुस्न मुबारक नामक तानाशाह का 30 साल के शासन का खात्मा हुआ। इस तानाशाही का असर पर्यटन पर भी पड़ा। लेकिन अब पर्यटन की स्थितियाँ सुधर गई हैं।
अलेक्जेंड्रिया मिस्र का सबसे बड़ा समुद्री बंदरगाह है। इसे सिकंदरिया भी कहते हैं। एलेक्ज़ेंडर ने 331 ईसा पूर्व इस शहर की स्थापना की थी। यहाँ का प्रकाश स्तंभ फेरोस दुनिया के सात अजूबों में से एक है। लगभग एक हज़ार साल तक यह मिस्र की राजधानी रहा। यहाँ प्राचीन दुनिया का सबसे बड़ा पुस्तकालय और कैटाकॉम्ब्स-ऑफ-कॉम-अल-शोकाफ़ा कब्रिस्तान है जो जमीन के अंदर है। मिस्र के बहुत सारे रहस्यों पर से धीरे-धीरे पर्दा उठ रहा है और भी न जाने क्या-क्या छुपा है यहाँ की धरती के गर्भ में।
मुझे पुस्तकालय अपनी ओर खींच रहा था। जन्मी ही पुस्तकों के लिए हूँ। पुस्तकों की हो कर जिंदा हूँ। पुस्तकालय मिस्र की नौ देवियों में से एक जो कला और सौंदर्य की देवी है मुसेस
को समर्पित है। अहमद का शुक्रिया, हमें 15 मिनट का समय दिया पुस्तकालय के लिए जो टूर आईटीनरी में नहीं था।
मैं तेजी से पुस्तकालय की सीढियाँ चढ़ गई। सुबह का समय था। मगर विद्यार्थियों का आना जाना जारी था। मैं देख रही थी बिल्कुल अलग हटकर पुस्तकालय का स्थापत्य। तीन शताब्दी पूर्व अभिलेखागार और प्राचीन पांडुलिपियों के लिए इसका निर्माण किया गया था। जापानी पंखे (हाथ वाले) की आकृति का विशाल प्रवेशद्वार। कई लेक्चर रूम, बैठक के कमरे, विभिन्न कलाकृतियों का संग्रह भी यहाँ है। एक बगीचा भी है। जिसमें तरह-तरह के फूल
खिले थे। क्रोटन भी लगे थे। पुस्तकालय की खूबसूरती और भी अधिक थी लेकिन आग लग जाने की वजह से यह काफी नष्ट भी हो गया था। मौसम की ठंडक में सूरज की गर्मी अच्छी लग रही थी। हमने पुस्तकालय घूमने में 5 मिनट अधिक ले लिए जो हम लेखकों के लिए स्वाभाविक था।
खुली सड़क से अचानक बस सकरे रास्ते से गुजरने लगी। शायद कोई बाज़ार था। मुसम्बी और केले ठेले पर बिक रहे थे। संतरे भी मन मोह रहे थे। इच्छा हुई संतरे खरीदने की पर बस रोकने पर जुर्माना हो जाता। वह पूरा बाजारी इलाका जबलपुर का गुरंदी बाज़ार नजर आ रहा था। हल्की-हल्की बारिश भी हो रही थी। तंग कच्चा रास्ता पानी के चहबच्चों से भर गया था। बस एक खंडहर इमारत के परिसर में रुकी। स्थान का नाम कालाघूटा ऐसा ही कुछ बताया था अहमद ने जो एलेक्ज़ेंडर के घोड़े का समाधि स्थल था। घोड़ा गहरे कुएँ में गिर गया था जिसकी खोज के दौरान यह स्थान लोगों की नजर में आया। कुएँ में बहुत ही सँकरी सीढ़ियों से उतरकर हम यहाँ पहुँचे। उसके आसपास कई कोठरियाँ थीं
जिनमें रोमन और इजिप्शियन की ममीज़ थीं। जो रोमन कैथोलिक थे वे ताबूत में शव रखकर दरवाजे के अंदर बंद कर देते थे और इजिप्शियन शव की ममी बनाकर रखते थे। दीवारों पर ममीज़ बनाने की प्रक्रिया चित्रों में अंकित थी। मूर्तियाँ, कार्विंग, फूलों की कार्विंग... मगर एक उदासी साथ ही रोमन्स की क्रूरता भी। वे खाने के लिए जिस क्रॉकरी का इस्तेमाल करते थे उसे तोड़ देते थे ताकि कोई दूसरा न तो उनका इस्तेमाल कर पाए और न ही बना पाए। कैसी स्वार्थी मानसिकता!
लौटे तो सब खामोश थे। जब मोंटाज महल आया तो सभी के चेहरे की रौनक लौट आई। महल बहुत विशाल बगीचे के बीच में स्थित है। लोहे का काले रंग का बड़ा-सा गेट है। सड़क के उस पार भी बगीचा है लेकिन समतल नहीं। कहीं ऊँचा, कहीं नीचा। भूमध्य सागर की लहरें मानो हमारा इस्तकबाल कर रही थीं। देख रही हूँ 1892 में बने महल को जिसका निर्माण खेदिवे राजा अब्बास द्वितीय के शासनकाल में हुआ था। महल की खूबसूरती उसकी ऑफ व्हाइट और गहरे सलेटी रंग में पीली मेहराबों को समेटे निखर रही थी। शुरू में इसे शिकार लॉज के रूप में इस्तेमाल किया गया था। 1932 में राजा फौदआई द्वारा इसे ग्रीष्मकालीन महल के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा। शाही उद्यान...खूबसूरती का सैलाब... शायद ही कोई रंग छूटा हो। जिस रंग के फूल न हो वहाँ। महल का डिजाइन
फ्लोरेंटाइन और तुर्की वास्तुकला का था। इसमें दो टॉवर हैं। महल मेहराबदार गलियारों से
युक्त है। जहाँ से समुद्र की लहरों का आनंद लिया जा सकता है। महल के अंदर फ्रेंच फर्नीचर, विभिन्न पौधों और कीमती प्राचीन वस्तुओं की सजावट थी। यहाँ अलहर मलिक गार्डंस भी हैं जहाँ संग्रहीत हैं मिस्र की ऐतिहासिक महत्त्व की वस्तुएँ।
सड़क पार कर हम लंबे चौड़े बगीचे में गए। ऊँचाई पर खड़े होकर समुद्र मंथर नजर आया। लहरें मानो हमें ऊंचाई पर देख वहीं की वहीं ठहर गईं थीं। बगीचे के आसपास की सड़क पर घूमते हुए कई अनदेखे दरख्त हमें भी अजनबी बन निहार रहे थे। घने-घने सतर दरख़्तों की पत्तियाँ कुछ कहती-सी लगीं। फूलों भरी डालियों में हवा की सिहरन थी
तुम हमारे देश आई हो
नील नदी नशे में है
समुद्र गीत गा रहा है
लो हमने फूलों का शगुन
तुम्हारी हथेली पर धर दिया
दरख्तों के पत्तों से उभरी यह मेहमान नवाजी मेरे लिए सफर के मकसद का गहरा तजुर्बा बन गई। दरख़्त के नीचे ढेरों बिल्लियाँ उछल कूद कर रही थीं। मैंने गिना। 65 के करीब ...अभी तक बिल्लियाँ ही दिखीं। कुत्ते, गाय, भैंस नदारद। दूध के नाम पर ऊँटनी का दूध।
पूर्वी बंदरगाह के मुहाने की ओर जाते हुए सड़क के दोनों ओर घने जंगल, सब्जियों और अनाज के खेतों के आसपास ऊँट बड़े आकर्षक लग रहे थे। यहीं है कैटबे किला जो 1477 में सुल्तान अल अशरफ सायफ़ अलदिन किट खाड़ी के आदेश पर निर्मित हुआ। बंदरगाह के मुहाने पर होने के कारण यह मिस्र का रक्षक नजर आता है। किलेबंदी करता। यह किला किसी समय शाही परिवार के लिए एक रेस्ट हाउस के रूप में था। 1952 की मिस्र क्रांति के बाद यह एक समुद्री संग्रहालय में बदल गया।
महाराजा रेस्तरां में लंच के बाद पाम्पिज़ पिलर देखने का कार्यक्रम था। यह एक रोमन विजय स्तंभ है जो शाही राजधानी के बाहर स्थित है। 30 मीटर ऊँचा यह स्तम्भ अलेक्जेंड्रिया विद्रोह पर रोमन सम्राट की जीत की याद में 297 ईस्वी में बनाया गया था। कल अस्वान फ्लाइट से जाना है और यह रिसोर्ट 7: 30 बजे छोड़ देना है। रात को ही पैकिंग कर ली थी।
फ्लाइट सुबह 7: 00 बजे की थी जो 8: 15 बजे अस्वान लैंड करेगी हम 5: 00 बजे सुबह एयरपोर्ट पहुँच गए। रात की रोशनी में रिसोर्ट से एयरपोर्ट तक का रास्ता सम्मोहित कर रहा था। अस्वान में एयर कंडीशंड कोच हमारे इंतजार में खड़ी थी। कैसा स्वप्न-सा लग रहा था सब कुछ। हवा की गति और लम्हों के गुजर जाने में जैसे होड़-सी लगी थी।
अस्वान नील नदी के किनारे बसा मिस्र का खूबसूरत शहर है। हालाँकि रेगिस्तानी खूबसूरती में यहाँ की इमारतें भूरा रंग लिए उदास उदास-सी लग रही थी जैसे धरती की कोख से अभी
नमूदार हुई हों। नील हजारों वर्षों से मिस्र की जीवनदायिनी पवित्र नदी है। उसके किनारों पर चट्टानें, पत्थर और खदान हैं जो फारस को स्मारक बनाने के लिए सामग्री प्रदान करते हैं। यहाँ का बॉटनिकल गार्डन पहले किचनर गार्डन कहलाता था। सूडान अभियान के बाद 1898 में इसे लॉर्ड किचनर को उपहार में दिया था। बाद में यह बॉटनिकल गार्डन कहलाया।
पवित्र आईसिस का मंदिर फिले मंदिर के रूप में जाना जाता है। अपनी उत्कृष्ट कलाकृतियों और वास्तुकला के कारण यह विक्टोरियन चित्रकारों का पसंदीदा स्थल है। फिले मंदिर क्योंकि हमें बोट से जाना था उसके पहले रास्ते में हाई डैम पड़ता है। उसे पहले देखने का प्रस्ताव अहमद ने रखा। यह मिस्र का सबसे ऊँचा बाँध है। इसे बनाने के लिए कई आदिवासी गाँव पानी में डुबो दिए गए थे। इसका निर्माण 1960 में शुरू हुआ और इसे पूरा होने में 11 साल लग गए। यह राष्ट्रपति नासर की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता है। जो सोवियत संघ की तकनीक पर आधारित है। इसकी इमारत में 42 । 7 मिलियन घन मीटर पत्थर लगे। लंबाई 3 । 6 किलोमीटर है। नासर झील पर यह बाँध है। यहाँ से पूरे देश को बिजली सप्लाई होती है। नासर झील दुनिया की सबसे बड़ी कृत्रिम झील है। बेहद विस्तृत भूभाग में फैली झील का बहता नीला पानी बेहद आकर्षक लग रहा था। किनारों पर गाढ़ी भूरी मिट्टी की ऊँचाई इसे तट में बाँध रही थी। बस ने हमें नील के किनारे ला छोड़ा जहाँ से एक शिकारेनुमा छोटी बोट हमें नील दर्शन कराएगी। बोट खूबसूरत तरीके से सजाई गई थी। गोलाई में बैठने की सीटें और पूरी बोट पर गलीचा बिछा था। म्यूजिक भी बज रहा था। जिसे सुनकर हमारे साथी थिरक उठे। नील की लहरों पर चलती नौका में खूब नृत्य किया हम सबने। हम मिस्र के पश्चिमी तट से गुजर रहे थे। दाहिनी तरफ टूम थे जो नोबल व्यक्तियों के थे जिन्हें दीवार में बने झरोखों से देखा जा सकता है। टूम काफी लंबे चौड़े टीले की शक्ल में थे। जिनमें दरवाजे भी थे। बटिडम गार्डन हरा-भरा खिले फूलों की छटा बिखेरता सुंदर उद्यान था। दाहिनी तरफ तट पर होटल कैटरेक्ट था जो मिस्र का सबसे महँगा होटल था। उसके रखरखाव और बनावट से ही उसकी कीमत आँकी जा सकती है।
इस होटल में एक कमरा अंग्रेज लेखिका अगाथा क्रिस्टी के नाम से है। उसने उस कमरे में कुछ समय गुजारा था और अपना मशहूर उपन्यास द मॉडल ऑफ रोजर एक्वायर्ड के कुछ अध्याय यहाँ लिखे थे।
नौका मंदिर के किनारे रोक दी गई। लकड़ी का रास्ता पार कर हम ऊँचाई पर स्थित मंदिर के प्रवेश द्वार पर पहुँचे। बेहद भव्य मंदिर, ऊँचे-ऊँचे स्तंभ, भूरे रँग की दीवारों पर चित्रित मंदिर की जानकारी उकेरी गई थी। कहीं कोई रंग न था। हर तरफ भूरापन। फर्श भी भूरा या ऑफ व्हाइट था। ठंडी हवाओं में नील की बूँदें घिरी थीं। सुनहरी धूप प्यारी लग रही थी।
लौटते हुए अहमद ने समझा दिया था कि नौका गेट के आसपास सामान बेचने वाले आपको घेर लेंगे लेकिन आप उनसे सामान नहीं खरीदना। एक तो वक्त की कमी है। दूसरे लक्जर का बाज़ार काफी रीजनेबल है और वैरायटी वाला है लेकिन हमारे साथ आए कुछ सदस्यों ने
वहाँ शॉपिंग के इरादे से चीजों के भाव-ताव करना शुरू कर दिए। अहमद ने उन्हें रोका तो अहमद और दुकानदारों के बीच कहासुनी हो गई। लिहाजा जिसका डर था वही हुआ। अहमद को पुलिस वैन में बैठकर पुलिस थाने जाना पड़ा। हम सब सहमे से बस में बैठे थे और बस धीरे-धीरे चल रही थी। बस के ड्राइवर को हमारी भाषा नहीं आती थी इसलिए कुछ भी समझ
में नहीं आ रहा था कि हुआ क्या है। थोड़ी देर में हम परफ्यूम फैक्ट्री आ गए। तब तक अहमद भी आ चुका था। वह फैक्ट्री की सीढ़ियों पर उदास बैठा था। उसकी आँखें हमारे सामने हुए अपमान से लाल थीं।
इच्छा तो हुई कि पूछूँ पुलिस थाने में क्या हुआ पर मैं खामोशी से अंदर चली गई। अंदर पहली मंजिल पर एक बड़े हॉल में विशेषज्ञों ने कई तरह के फूलों पत्तियों से परफ्यूम बनाने की विधियाँ बताईं। वेलकम ड्रिंक में पुदीने की काली चाय पेश की गई। एक जड़ी बूटियों का जूस भी था, काला झाग दार जैसे हरड़ को कूटकर बनाया हो कुछ इस तरह का।
बस में बैठते ही अहमद ने माफी माँगी और बहुत अफसोस के साथ कहा कि अब हमें अनफिनिश्ड ओबिलिस्क देखने जाना कैंसिल करना पड़ेगा क्योंकि क्रूज़ पर जाने का वक्त हो गया है। क्रूज़ निर्धारित समय पर तट पर रुकता है और मुसाफिरों को लेकर दूसरे क्रूज़ के लिए तट छोड़ देता है यानी कि नील के बीचो-बीच चला जाता है।
अनफिनिश्ड ओबेलिस्क रोमन सम्राट द्वारा 357 ईसा पूर्व बनवाया गया था जो बन नहीं पाया और आज भी अधूरा है। यह सूर्य देवता का प्रतीक है। ग्रेनाइट से बनी विशाल बेलनाकार अद्वितीय इमारत है। जिसके चारों ओर मीनारें हैं और विशाल मूर्तियाँ हैं। सब कुछ भूरे रंग का। इसे न देखने का अफसोस तो हुआ पर क्या कर सकते थे।
चिर प्रतीक्षित नाइल क्रूज़ में प्रवेश करते ही भव्यता का एहसास हुआ। क्रूज़ पांच सितारा तो था ही। विशाल लाउंज, खूबसूरत रिसेप्शन, कांच लगी रेलिंगदार बालकनियाँ। कमरे भी खूब बड़े-बड़े। दो मंजिल तक कमरे। तीसरी मंजिल पर डेक। यहाँ हमें 3 दिन रहना है और सेल करते हुए अस्वान, इडफू और लक्सर शहरों तक जाना है।
सुकून ने आ घेरा। डाइनिंग रूम में ढेर सारी वैरायटी वाला लंच हमारा इंतजार कर रहा था। लाउंज में अहमद ने कल का कार्यक्रम बताया। कल सुबह गाँव घूमने जाएंगे लेकिन वह ऑप्शनल है। गाँव हमें छोटी बोट से जाना होगा जिसकी टिकट 640 पाउंड है और हॉट बैलून जो लक्सर में मिलेगा उसकी टिकट $120 है बहरहाल हम गाँव घूमने को तैयार थे लेकिन हॉट बलून के लिए इक्का-दुक्का ही तैयार हुए। इसलिए वह कैंसिल हो गया।
मुझे और अंजना को हनीमून रूम मिला था यानी एक ही बेड वाला। बेड पर तौलिए, नैपकिन दिल और गुलाब की शक्ल में रखे थे। कमरे की खिड़की के पास दो कुर्सियाँ, बीच में टेबल। खिड़की का पर्दा हटाते ही जगमगाता अस्वान शहर और नील के तट से लगी सड़क पर चहल-पहल दिखाई दी। क्रूज़ सुबह 10: 00 बजे रवाना होगा। कमरे में व्यवस्थित होते ही हम दोनों डेक पर आ गए। आसमान की बेमिसाल खूबसूरती सितारों और हंसिया जैसे चाँद सहित
नील में उतर आई थी। डेक पर स्विमिंग पूल था और लंबी-लंबी आराम कुर्सियाँ। ठंडी हवाओं के बावजूद इस माहौल में हम खुद को भूल गए। आराम कुर्सी पर लेट कर गाना गाने लगे। किसी ने आकर कहा डिनर का समय हो गया। तब हमें अहसास हुआ कि पांच लोग ही
रह गए थे और रात घिर आई थी नील का पानी काला नजर आ रहा था। इस पर सितारों का डेरा मायाजाल सा।
सुबह ब्रेकफास्ट के बाद हम लोग नूबरन गाँव जाने के लिए लगातार तीन क्रूज़ को पार कर नौका में आ बैठे। नौका देख मुझे कश्मीर के शिकारे याद आ गए। वैसी ही साज-सज्जा। रंग-बिरंगे गलीचे, नकली फूलों की सजावट बीचों बीच लंबी मेज पर। नौका नील की लहरों पर मंथर गति से चल रही थी। अहमद ने बताया "हम जिस नूबरन गाँव जा रहे हैं वह विस्थापित आदिवासियों का है। इनके गाँव असवान हाई डैम के निर्माण के समय डुबा दिए गए थे।" मीलों फैले हरे भरे खेतों के बीच से गुजरते हुए नौका एक रेतीले तट से आ लगी। हमें लगा गाँव आ गया पर वहाँ हमें फोटो खींचने के लिए उतारा गया था। सभी लोग रेतीले तट पर इधर-उधर मस्ती में डूब गए। रेत बहुत मुलायम थी। सहारा रेगिस्तान का सिलसिला यहीं से शुरू होता है। पाँव में चिपकी रेत को धोकर ही नौका में आना था। नौका फिर चल पड़ी। धूप तेज थी नूबरन गाँव में आते ही मैंने अपना छाता खोल लिया जिसे मैं धूप और बारिश से बचाव के लिए अपने साथ रखती हूँ। सड़क गिट्टीयों वाली थी लेकिन पगडंडियों पर गिट्टी नहीं थी। छोटे-छोटे सफेद, हरे, पीले रंगों से पुते घर जिन पर सब्जियों की बेलें छाई थीं। छोटा-सा बाज़ार भी था। मसालों और जड़ी बूटियों का। दाल चीनी, केसर की खुशबू बाज़ार की हवाओं में थी। बाज़ार को पार कर सामने स्कूल।
स्कूल में प्रवेश करते ही दीवारों पर चित्रित रंग बिरंगी मानव आकृतियाँ मन मोह रही थीं। हम सब एक क्लास रूम में जाकर विद्यार्थियों के समान बैठ गए। पारंपरिक वेशभूषा में एक अध्यापक हमें पढ़ाने आए। ब्लैक बोर्ड पर अरबी लिपि में गिनती और वर्णमाला का चार्ट टंगा था। वह एक लंबे रूलर की सहायता से हमें उच्चारण सहित सिखाने लगे। वह जो कहते हम सब समवेत स्वर में उसी को दोहराते। अपने स्कूल के दिन याद आ गए। हम सब ने इस कक्षा को खूब एंजॉय किया।
स्कूल के गेट से जैसे ही बाहर निकले ढलवाँ रास्ता शुरू हो गया जो गाँव के मुखिया के घर तक जाता था। दोनों ओर मकान और ऊँचे-ऊँचे दरख़्त थे। पर कोई मवेशी नजर नहीं आया। बस बिल्लियाँ उछल कूद कर रही थीं। मुखिया के घर हमारी आवभगत केकनुमा ब्रेड, शहद, तीखी खट्टी चटनी और संदेश के स्वाद की मिठाई से हुई। काली चाय भी परोसी गई। मुखिया की पत्नी बुरके में थी। उसके ढेर सारे बच्चे शायद संयुक्त परिवार था। घर की दीवारों पर रंग बिरंगी सुंदर चित्रकारी की गई थी। घर से बाहर की ओर जाली लगी दीवारों
वाले कमरे में दो बड़े-बड़े मगरमच्छ थे। पता नहीं घर में मगरमच्छ क्यों पालते हैं। मन में उठे सवाल को मन में ही रखे क्रूज में लौट आए।
लंच का समय हो चुका था। डाइनिंग रूम बहुत बड़ा था और अलग-अलग मेजों पर टूर वालों की कंपनी की तख्ती भी रखी थी। इजिप्ट में हमारा टूर अनलिमिटेड नाम से था। हम 24 सदस्यों के लिए 8 कुर्सियों वालीतीन मेजें थीं। पानी देने का यहाँ रिवाज ही नहीं है और क्रूज़ में बाहर से खरीदा पानी जो 10 इजिप्शियन पाउंड में मिलता था लाने की मनाही थी। लिहाजा क्रूज में ही दोगुने दाम में पानी खरीदना पड़ा। चाहे चाय लो, कॉफी लो या गर्म पानी रेट वही 30 इजिप्शियन पाउंड। खाना बहुत स्वादिष्ट और वैरायटी वाला था। शाम को डेक पर ही हम सब के लिए चाय की व्यवस्था थी। काली चाय और कुकीज़।
देखते देखते शाम ढल गई और सेल करते क्रूज़ से हम खूबसूरत दिलकश नजारों को देखते हुए अद्भुत संसार में खोते चले गए। ठंडी तेज हवाओं में कपड़े और बाल खूब लहरा रहे थे। आसमान में बादल का टुकड़ा तक न था और नील की लहरें चांद सितारों को आतुरता से बाहों में समेटे थीं। धरती पर आसमान मेहमान था। रात ने करवट ली और हम डेक से लाउंज में आ गए। जहाँ बैले शुरू होने ही वाला था। लेकिन पहले डिनर ...
इजिप्शियन नर्तकी कम कपड़ों में अपना गोरा बदन दिखाती तेज अफ्रीकन ड्रम की धुन पर बैले नृत्य के लिए तैयार थी। कोरिया, जापान और चीन से आए पर्यटक भी थे। कॉफी पीते हुए केन में भरी बियर आदि के संग वे नृत्य का मजा लेने लगे। नृत्य 9 से 11 बजे तक चला। नर्तकी के विदा लेते ही अंजना, आभा फ्लोर पर आईं। घंटे भर तक इन सबने नाचा, गर्भा किया। पैरों में दर्द की वजह से मैं सिर्फ 5 मिनट ही नाची। वरना घंटा भर नाचना मेरे लिए मामूली बात थी। खूबसूरत और जानकारियों भरा दिन बिताकर नींद थी और मैं।
सुबह 4 बजे ही नींद खुली हमें फ्रेश होकर चाय, बिस्किट लेकर 6 बजे लाउंज में इकट्ठा होना था। कॉमओम्बो मंदिर जो इडफू शहर में है जाने के लिए। तब तक हमारा क्रूज़ इडफू पहुँच जाएगा।
अभी अभी पौ फटी थी। सुरमई अंधेरे में मैं ठंड को भूलकर एक के बाद एक चार क्रूज़ पार करके हम सड़क पर आ गए। जहाँ गाइड को मिलाकर 9 तांगे हमारी प्रतीक्षा में थे। प्रत्येक तांगे में तीन सवारी। तांगा ऊँचा था। मुझसे चढ़ते नहीं बना तो तांगे वाले ने अपनी हथेलियाँ फैला दीं कि मैं उन पर पाँव रखकर तांगे पर चढूँ। गुलाम वंश की रजिया सुल्तान ऐसे ही याकूब की हथेलियों पर पाँव रख घोड़े पर चढ़ती थी। बहरहाल मैं अपनी कोशिश से ही तांगे पर चढ़ी।
वीरान रास्तों पर घोड़े के पैरों में ठुकी नाल टप-टप की संगीतमय आवाज सहित सिने संगीत की ओर खींच रही थी। ताँगों पर नंबर अंकित थे और उन्हीं नंबर के ताँगों से हमें वापस लौटना था।
मंदिर का नाम अहमद ने कॉम ओम्बो बताया था। ताँगा स्टैंड बाकायदा लकड़ियों को बाँध कर फूस के छप्पर वाला था। प्रवेश टिकट लेकर अंदर प्रवेश करते ही भव्य मंदिर सामने था। भूरे रंग का विशाल गेट। दोनों तरफ दीवारों पर अंकित मंदिर की जानकारी जो मानव आकृति में थी। जैसे हमारे यहाँ गाँव में मांडने बनाए जाते हैं। देवबेक और हारोसिस टोलमेमिक देवताओं को समर्पित इस मंदिर का बारीक नक्काशी दार स्थापत्य टोलमेमिक युग की प्रतिकृति है। इस परिसर के आस पास गन्ने के खेत हैं जिसकी सिंचाई नाइल बैक वाटर से होती है। मंदिर के सामने वाली दीवार देवबेक हेथोर और खोंस देवताओं की मूर्तियों से युक्त है। 52 खंभों की लाइनों का एक हाइरोगलीफिक है और ऊपरी भाग में सम्राट डेमिनियन की मूर्ति है जिसे मिस्र का मुकुट कहते हैं। वापसी उसी 45 नं के तांगे से...धूप खिल आई थी और सड़क भी अब वीरान नहीं थी।
काफी वक्त था हमारे पास क्योंकि क्रूज़ नील के बीचो-बीच सेल कर रहा था और 6 बजे शाम को किनारे लगेगा। तब हम इडफू मंदिर देखने जाएंगे। काहिरा में कवि सम्मेलन नहीं हो पाया था इसलिए 11 बजे से 2 बजे तक के समय को कवि सम्मेलन के लिए निर्धारित कर लाउंज में बैनर लगा हम सब कुर्सियों सोफों पर बैठ गए। अन्य देशों से आए पर्यटक भी श्रोताओं के रूप में आ बैठे। अंजना श्रीवास्तव के कुशल संचालन में बहुत शानदार आयोजन चल रहा था। खुशी इस बात की थी कि अन्य देशों से आए पर्यटक बहुत अधिक दिलचस्पी ले रहे थे जबकि उन्हें हिन्दी नहीं आती थी। सच है कविताओं को भाषा के बंधन में बाँधना नामुमकिन है। वह सीधे कवि की कलम से निकल बेआवाज पाठकों तक पहुँचती है।
जब पांच कवि कविता सुनाने को बचे तो क्रूज़ कर्मचारी ने कहा कि अभी तक क्रूज़ नील की ऊपरी सतह पर सेल कर रहा था। अब वह 6 मीटर निचली सतह पर सेल करेगा। इस सतह बदल नजारे को डेक पर जाकर अवश्य देखें। जल सफर इतना खूबसूरत होगा सोचा न था। डेक रेलिंग से टिके पर्यटकों की भीड़ मानो सब कुछ सामो लेना चाहती थी। आँखों में। अद्भुत नजारा था सामने। एक पुलनुमा गेट था जिसमें से होकर उसको जाना था। क्रूज़ ऊँचा था और गेट नीचा। धीरे-धीरे क्रूज़ नील में समाने लगा। नील की निचली सतह इस गेट से आरंभ होती है। नदी के ऊँचे नीचे भाव को मैं पहली बार महसूस कर रही थी, देख रही थी प्रकृति कितने अजूबों से भरी है। शायद ही हम कभी उसकी थाह पा सकें। जिस वक्त क्रूज़
स्थिर खड़ा निचली सतह में आ रहा था...क्रूज़ के आसपास नौकाओं में अच्छा खासा बाज़ार लग गया था। इडफू के कपड़ा, कालीन, बेडशीट, तौलिए आदि के दुकानदार छोटी-छोटी नौकाओं में अपना सामान भरे बेच रहे थे। वह सैंपल पीस डेक पर उछालते और खरीदारों द्वारा पसंद आने पर वे फिर निशाना लगाते। यहाँ तक कि मूल्य चुकाने के लिए उन्होंने
तौलिया डेक पर उछाला जिसमें रुपए रख कर उनकी ओर फेंकना था। गजब का निशाना। इस तरह का अनोखा बाज़ार हमें असवान से लक्सर तक मिला। जब क्रूज नील की निचली सतह पर व्यवस्थित हो चलने लगा तब लाउंज में बाकी के कवियों की कविताएँ भी आयोजित की गई।
क्रूज़ में कुछ इस तरह की आवभगत जैसे हम उनके शाही मेहमान हों। कवि गोष्ठी खत्म होने के कगार पर थी कि लंच का बुलावा। दस-दस मिनट के अंतराल के बाद "चलिए मैडम लंच के लिए"। बुलावा देने वाला यह भी बता रहा था कि 4 से 5 बजे तक आपकी चाय डेक पर सर्व की जाएगी।
कैसी-कैसी धारणाएँ बना लेते हैं लोग। जब भारत से चले थे तो कईयों ने डराया था, रुपया पासपोर्ट संभाल कर रखना, चोर उचक्के बहुत हैं वहाँ। किसी से उलझना नहीं, गरीब देश है, आक्रामक भी है।
लेकिन अभी तक की यात्रा बेहद सद्भावना पूर्ण सुकून भरी रही। मिस्र वासी भी भोले भाले प्रेमिल स्वभाव के लगे। हो सकता है यह मेरी अपनी सोच हो। सोच के साथ अनुभव भी तो मायने रखते हैं।
यहाँ की स्त्रियों के बारे में भी जान कर मेरी स्त्री विषयक सोच दृढ़ हुई है। इजिप्शियन स्त्री को पुरुष जैसे ही अधिकार प्राप्त हैं। वे अपने नाम से जमीन खरीद सकती हैं। कमाती हैं। टैक्स भी भरती हैं। उनमें से कई डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, पुजारिन, पायलट जैसे उच्च पदों पर हैं। स्त्री-पुरुष दोनों मेकअप करते हैं। उनके अलग-अलग ब्यूटी पार्लर हैं। प्राचीन मिस्र में स्त्रियाँ सिर पर बाल नहीं रखती थीं और विग पहनती थीं। किंतु यह प्रथा धीरे-धीरे समाप्त हो चुकी है। नील की वादियाँ जैसे खुली हथेलियाँ। जिन पर कुदरत की खूबसूरती जगमग करती लगती है। एक हथेली कुदरती सौंदर्य से मालामाल है तो दूसरी बंद मुट्ठी की तरह। धीरे-धीरे मुट्ठी खोल कर जाना जा सकता सदियों पुराना इतिहास...ममी के रूप में जीता जागता युग। मिस्रवासी मृत्यु को नहीं भूलते इसीलिए उनका धर्म राजधर्म है। प्राचीन धर्म मूर्तिपूजक और बहु देवतावाद धर्म था। अल्प समय के लिए एकेश्वरवाद की अवधारणा भी रही। ईसाई धर्म और बाद में इस्लाम राजधर्म बनने के बाद ईसाइयों ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया। पशु बलि भी धर्म में शामिल थी। सूअर और बैल की बलि देवताओं को अर्पित की जाती थी।
शाम 6 बजे क्रूज़ इडफू के किनारे रुका। मंदिर नजदीक ही था इसलिए हम पैदल ही गए। शाम के धुंधलके में मंदिर बिजली की पीली रोशनी में रहस्यमय लग रहा था। यह मंदिर ओसीरसी यानी यम देव के पुत्र का मंदिर है। यम की पत्नी ईसिस है जो उसकी बहन भी थी और वह नेफ्थीस, बास्त, नुत, मात नामक देवियों में शामिल थी। हिंदू धर्म से कितने मिलते-जुलते देवी देवता... अनुबिस यानी पृथ्वी के सृष्टा जैसे ब्रह्मा, मिन, थोथ चंद्र देव के नाम हैं।
मिस्र की पौराणिक कथाओं एडफो को जनजातियों के देवता के रूप में माना जाता है। यह शिकारियों को भी संरक्षित करता है और इसे फाल्कन यानी शरीर पक्षी का और शेर इंसान का रूप में स्थापित किया गया है। यह प्रकाश का प्रतीक है और अंधेरे से लड़ता है। मंदिर रेगिस्तान के विस्तृत भूभाग को गहरे भूरे रंग और ठोस स्थापत्य का है। मंदिर की दीवारों पर एडफू एक पंख वाली सौर डिस्क के रूप में मौजूद है। पंखों वाला घोड़ा भी दीवार पर अंकित है। ऊँचे-ऊँचे गलियारे और आसमान की ओर देखने वाली स्थिति हो ऐसी मूर्तियाँ इस मंदिर को भव्यता प्रदान कर रही थीं। दूर तक गलियारे में चलते हुए अंतिम छोर पर क्रोकोडाइल टेंपल है जहाँ बड़े-बड़े मगरमच्छों की मूर्तियाँ हैं।
लौटे तो रास्ते में इजिप्शियन बाज़ार भर चुका था। पर्यटकों को देखते ही दुकानदार जो सिर पर अरबी साफा बाँधे थे और कश्मीरियों जैसा फिरन पहने थे मानो अटैक-सा करते हैं। हर चीज $1. जाने क्या-क्या कंधे बाँहों और हाथों में थामे हमें देख मुस्कुराए—"इंडिया, शाहरुख खान?" पता नहीं शाहरुख खान ने क्या जादू कर दिया है मिस्रवासियों पर ...हर जगह उसी के नाम की गुहार। इंडिया माने शाहरुख खान।
नील नदी की क्रूज़ व्यवस्था बहुत सूझ बूझ से की गई थी। कई क्रूज चलते थे। सभी फाइव स्टार। साथ ही नौका बाज़ार भी। हमारा क्रूज़ नील के बीचोंबीच था और सड़क तक पहुँचने के लिए साथ खड़े तीन या चार क्रूज़ पार करने पड़ते थे। सबसे आखिरी वाले क्रूज़ से स्टील की रेलिंग वाला हरे पाँव पॉश जैसा लंबा पटिया खोला जाता था जो सड़क की ओर खुलती सीढ़ियों को छूता था। लक्सर और करनाक मंदिर जाने के लिए हम सीढ़ियों तक इस व्यवस्था से गुजरे। सड़क पर हमारी बस खड़ी थी जो हमें लक्सर मंदिर ले गई।
लक्सर मंदिर भी अन्य मंदिरों जैसा गाढ़े, हल्के भूरे रंग का। ऊँची दीवारों के बीच बड़ी-बड़ी दो मूर्तियाँ। सामने बहुत ऊँचा स्तंभ यानी कॉलम। ऐसे 74 कॉलम हैं। फिरौन की विशाल मूर्तियाँ हैं। यह मंदिर मिस्र के सबसे खूबसूरत और महान मंदिरों में शुमार है। इसकी लंबाई 260 मीटर है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर 20 मीटर ऊँची और 70 मीटर लंबी भारी तोरणनुमा मीनार है। यह उत्तरी प्रवेश द्वार है। आमोन रा उसकी पत्नी नून और बेटे को खोंसू ऐसे तीन थेबान देवताओं को समर्पित यह मंदिर 11 से 13 वीं सदी ईसा पूर्व में बना। उस वक्त अमहेनोटेप और रै मस का शासन था। मंदिर की सड़क स्फिंक्स की गली के साथ जाती है।
बत्तीस कॉलम से होते हुए अलेक्जेंडर द्वारा निर्मित आमो रा का मंदिर है। शाम को परिसर स्पॉट लाइट से जगमगाता है।
लेकिन करनाक मंदिर ने चौका दिया। दिया। अहमद ने बताया—" करनाक मिस्र का प्राचीन मंदिर है और दुनिया के वास्तुशिल्प में टक्कर का है। इसमें विभिन्न फ़राओ द्वारा बनाई गई इमारतें हैं। प्रत्येक फारो ने इस मंदिर में अपनी निशानी रखी है। बड़े हॉल में 134 स्तंभ हैं। अनगिनत प्रांगण, हॉल यह कोलोसी महान पवित्र झील के किनारे है। चौंकाने वाली बात
यह थी कि जैसे जगन्नाथपुरी की रथयात्रा होती है वैसे आमोन रा की मूर्ति को बड़े रथ में बैठा कर पूरे क्षेत्र का भ्रमण कराते हुए करनाक हाउस ले जाते हैं। रास्ते भर भक्तगण उनपर फूल बरसाते चलते हैं। कितने एक जैसे हैं विश्व के रीति रिवाज। पर कितने अलग थलग। करनाक मंदिर रात को पीली रोशनी के उजास में देखना पड़ा। 134 स्तंभों के बीच बहुत लंबा गलियारा पार करना पड़ता है। भीतर ही भीतर हॉल और प्रांगण में विशाल मूर्तियाँ जैसे कुछ कहती-सी लगती हैं।
अब और नहीं चला गया। मैं किनारे पत्थर पर बैठ गई। ठंड की वजह से कानों को शॉल से ढकना पड़ा। हर तरफ कॉलम, मूर्तियाँ पथरीले गलियारे और सदियों पुराना इतिहास ...रेगिस्तानी हवा की साँय-साँय न जाने कितनी कहानियाँ कानों में फुसफुसा रही थी। एक तिलिस्म... जैसे दूसरी दुनिया की सैर पर हों।
क्रूज़ में आज आखिरी रात थी। डेक, लाउंज में हम देर रात तक बैठे खुली वादियों का मजा लेते रहे। सुबह 9 बजे क्रूज़ को अलविदा कहना था।
डिनर के बाद पैकिंग रात को ही कर ली थी। अंजना ने बिस्तर पर ही चाय पिलाकर गर्माहट दे दी थी। काफी देर हम बतियाते रहे। नींद इंतज़ार में थी।
ब्रेकफास्ट के बाद हम सब सामान सहित बाहर। लक्सर शहर आ चुका था और क्रूज़ भी किनारे लग चुका था और उसका लंबा हरा पटिया भी सीढ़ियों की ओर खुल चुका था। सामान सड़क के किनारे खड़ी हमारी बस में चढ़ाया जा रहा था और क्रूज़ का पूरा मैनेजमेंट दल हमें विदाई दे रहा था। तीन दिन तक उन सबने हमारी जो सेवा की थी उसका मूल्य पैसों से नहीं आँका जा सकता। कभी-कभी भारी रकम चुका कर भी आराम कहाँ मिलता है।
फिर आना मुसाफिर ... फिर आना मुसाफिर ...की अनकही गूँज नील जैसी मुझे हिलोर रही थी। भावुक हूँ न।
बस में बैठते ही क्रूज़ नजरों से दूर हो चला लेकिन नील सँग-सँग बह रही थी। नील की लहरों पर कुछ इजिप्शियन गीज़ पँख फड़फड़ा रहे थे। हंस प्रजाति के पक्षी सहारा और नील की घाटी के दक्षिण में अफ्रीका के मूल निवासी हैं। प्राचीन मिस्र के लोग इसे पवित्र मानते थे इसीलिए अधिकतर प्राचीन कलाकृतियों में यह पक्षी दिखाई देते हैं। भूरे काले समवेत रंगों कर ये पक्षी लुभावने लग रहे थे।
देख रही हूँ मिस्र के अब तक देखे शहरों से अधिक सुंदर लक्सर शहर को। इमारतें तो वैसी ही भूरे रेतीले रंग की थी लेकिन सड़क के किनारे हरे-भरे दरख़्तों वाले थे। जिन पर फूल बहुतायत से खिले थे। लक्सर वेस्ट बैंक में है। नक्शा देखो तो फिलिस्तीनी क्षेत्र के अंतर्गत गाजा पट्टी में जेरूसलम, अम्मान, जॉर्डन भी है। बहुत प्राचीन शहर है लक्सर। इस का प्राचीन नाम थेब्स था। उन दिनों यह मिस्र की राजधानी था। पूरी दुनिया में यह ओपन एयर
संग्रहालय के रूप में प्रसिद्ध था। वजह लुभावने प्राकृतिक दृश्य और राजसी स्थापत्य। सुंदर सड़कें, बाजार, सुरम्य कॉर्निच के शीर्ष पर बनी अबू हग्गाग मस्जिद।
यह आगा खान का मकबरा है। अहमद ने बताया। इतने चिर परिचित नाम के व्यक्ति का मकबरा यहाँ देखकर रोमांच हो आया। भारत विभाजन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले आगा खान परिवार सहित यहाँ अक्सर रहने आया करते थे। उन्हें यहाँ धार्मिक मसलों के लिए भी याद किया जाता है।
वैली ऑफ़ किंग्स... कानों में एक साथ गडमड आवाज़ें... आओ लेकिन अब मैं यहाँ नहीं हूँ। फिर भी यह जगह गवाह है मेरे संग हुई क्रूरता की।
मिस्र की बेमिसाल सौंदर्यशाली, वीरांगना साम्राज्ञी नेफरटीटी और उस पर शोध करती डॉ जुआन फ्लेचर। जोआन से मेरी मुलाकात 2003 में स्विट्जरलैंड के शहर एंगलबर्ग में हुई थी। जहाँ के होटल टेरेस में वह भी रुकी थीं, मैं भी। वह अपने देश इजिप्ट से यहाँ छुट्टियाँ बिताने आई थीं। हम अक्सर रिसेप्शन में मिल जाते। उन्होंने बताया कि वे इजिप्ट के पिरामिडों पर अपना अनुसंधान कार्य कर रही हैं और नेफेरटीटी को ही फोकस कर रही हैं। आज जैसे नेफरटीटी की ममी, वैली ऑफ़ किंग्स को देखने की साध पूरी हो रही है।
प्रवेश टिकट लेकर हम सब पीले रंग की 4 डिब्बों वाली खिलौना ट्रेन में आ बैठे। वैली तक इस ट्रेन ने पहुँचाया। भव्य दृश्य सामने था ऊँचे-ऊँचे रेत के विशाल टीले। उनमें से गुजरती हवा किसी डरावनी फिल्म के दृश्य-सी हू-हू करती बदन को कँपकँपा रही थी। इसी घाटी में तीन हज़ार वर्षों से रेत के थपेड़ों को झेलती, गहरे दबी, अपने शानदार रोमाँचकारी जीवन को समेटे मानो किसी चुंबकीय शक्ति से अपनी ओर खींच रही है। मिस्र की साम्राज्ञी की ममी जो अब काहिरा में इजिप्शियन संग्रहालय में है लेकिन जिसका खाली ताबूत गवाह है उस क्रूरता का जो जिंदा और मृत अवस्था में उसके साथ की गई। बहुत भव्य खंभों और स्थापत्य वाली इमारत के गेट से प्रवेश करते ही ढलान शुरू होती है। कहीं-कहीं सीढ़ियाँ भी थीं। रेलिंगदार। दीवारों पर तीन हज़ार साल पुराना इतिहास अंकित था। जिनमें से मैं साम्राज्ञी नेफरटीटी सम्राट एखेनाटन और उनके पुत्र तूतनखामन के चेहरे पहचानती थी। डॉ जोआन से मिलने के बाद मैंने भी नेफरटीटी के विषय के तथ्य इधर उधर से जुटाने शुरू किए थे। धारणा कर ली थी कि मुझे मिस्र के पिरामिडों को देखना है। इससे सम्बंधित मेरा लेख नवंबर 2004 में कथादेश में "साम्राज्ञी नेफरटीटी के कफन का रहस्य" नाम से छपा था और मुझे
तलाश थी के वी 35 नामक पिरामिड की जिसके अंदर प्रवेश करते ही डॉ जुआन फ्लेचर को तीन ममियाँ मिली थीं। नेफरटीटी, एखेनाटन और तूतनखामन की। नेफरटीटी की ममी नग्नावस्था में थी। उस पर कफन तक न था।
लेकिन इतने वर्षों में सब कुछ बदल गया था। अगर शोधकर्ताओं द्वारा यह खोज नहीं होती तो इसका इतिहास कभी दुनिया की नजरों के सामने ही नहीं आता। वैज्ञानिकों का दावा है
कि तूतनखामन की कब्र के नीचे और भी कई कमरे हैं। न जाने कब वे दुनिया के सामने आएंगे।
राजसी परिवारों के इस विशाल कब्रगाह में नेफरटीटी की ममी का खाली ताबूत जैसे कुछ कहता-सा लगा। नेफरटीटी के अथाह सौंदर्य, बेमिसाल राजनीति और मिस्र पर छा जाने वाली शख्सियत का कोई रंगीन, कोई स्याह, कोई कुचला मसला और कोई मिटा देने को आतुर... मिलजुल कर इकट्ठे वाकये उस सदी की बातें कहते से मिले। नेफरटीटी जैसे कान में फुसफुसाई.।" तुम तो नारीवादी लेखिका हो। लिखो, मुझे लिखो, दुनिया को बताओ कि नेफरटीटी एक शक्तिशाली महिला के रूप में उभरी तो पर अपनी क्रांतिकारी हुकूमत, सत्ता, प्रेम, विश्वासघात और यहाँ तक कि हत्या की त्रासद कथा बन गई। मन भारी हो गया। एक साथ पुरुष सत्ता में चरमराती स्त्री के संपूर्ण विश्व के एक जैसे हालात ने बेचैनी बढ़ा दी। वैराग्य का एहसास भी कराया जैसे किसी मानव रहित दुनिया में हूँ। रेतीले ढूहों में छिपे इतिहास से रूबरू।
वैली ऑफ़ किंग्स के माया जाल से निकल कर सीधे हतशेप्सत मंदिर की राह पर... यह देइर अल-बहरी मंदिर नाम से भी जाना जाता है। अद्भुत देश है ये। ढेरों मंदिर लेकिन पूजा-अर्चना का नामोनिशान नहीं। हर मंदिर अपनी कहानी कहता अलग दुनिया की सैर करा था कि जैसे सफर के पड़ाव हों। पिरामिड, ममी, अफ्रीका के सहारा से जुड़ा रेगिस्तान और नील नदी और भूमध्य सागर के पानियों का अजीब संगम है यह देश।
रानी हतशेप्सत मंदिर बलुआ पत्थर से बना भूरे रंग का था जो चट्टानों पर स्थित था। परिसर तीन छत वाला जो विभिन्न स्तंभों से जोड़ा गया था। प्रत्येक छत के पश्चिम में कॉलोनडेड है। यहाँ मूर्तियों और स्तंभों के साथ शिलालेख भी थे। रानी हत्शेपसट को एक पुरुष फारो (दाढ़ी और छोटे एप्रिन) जैसा दर्शाया गया था ताकि वह प्रजा को यह बता सके कि उसके पास राजा के सभी अधिकार हैं। रोमन शाही काल के दौरान इसे इतिहासकार डायडोरस (एक शताब्दी ईसा पूर्व) द्वारा वर्णित ओज़िमन्दियास के मकबरे के रूप में जाना जाता था और बाद में अंग्रेज कवि शैली ने इस पर अपनी कविता लिख इसे अमर कर दिया। काहिरा के लिए हमें दोपहर 1.40 पर फ्लाइट मिली लेनी थी यानी कि 12 बजे एयरपोर्ट पहुँच जाना था। लंच का हमारे पास वक्त नहीं था। अभी मेमनन के कोलोसी भी देखना था। लिहाजा बस एडफू की पहाड़ियों की ओर चल पड़ी। भूरे रंग के बलुआ पत्थर से बने सिंहासन पर अमेनोफिस की मूर्ति खुले में मानो रेगिस्तानी इलाके पर नजर रखे थी। मंदिर के प्रवेश द्वार
पर दो द्वारपाल की मूर्तियाँ थीं। रोमन शाही काल में उन्हें ईस और टिथौनस की मूर्तियों के लिए बनवाया गया था। ट्रोजन युद्ध में जिन्हें एचील्स ने मार गिराया था। उत्तरी कोलोसस में प्रसिद्ध संगीत की देवी की मूर्ति है। यह भी रोमन शाही काल की है। सूर्योदय पर मधुर संगीत इसी देवी की देन है। एक मिथक और है। मेमन अपनी माँ इओएस को इस सुरीले संगीत से
ही अभिवादन करता था। फिर सम्राट सेप्टिमस सेवरस के समय यह संगीत बंद कर दिया गया।
लक्सर घूमकर हम एयरपोर्ट पहुँचे। लेकिन मेरा सामान चेक इन में रोक लिया गया। कार्गो में एक ही पीस जा सकता था और मेरे दो लगेज, लिहाज़ा कुछ सामान इधर उधर किया गया
तब बोर्डिंग पास मिला। नाइल एयरवेज़ की 1 घंटे 25 मिनट की उड़ान से हम काहिरा पहुँचे। भूख जोरों की लगी थी।
एयरपोर्ट से बाहर निकलकर जैसे ही बस में बैठे बारिश शुरु हो गई। बस से उतरकर रिमझिम फुहारों में "कारवां मसाला" रेस्टोरेंट के गेट तक आना पड़ा। डाइनिंग रूम गर्म था और खाना भी गर्मागर्म। बेहद स्वादिष्ट। बिल्कुल भारतीय ज़ायका। लम्बे खुशबूदार बासमती जीरा चावल, तड़के वाली दाल तो थी ही। सब्जियों, सलाद के साथ आम का अचार, पापड़ और सूजी का हलवा। वहाँ के मेन रसोइए ने बताया कि वह लखनऊ का है और पिछले 10 सालों से इस होटल में कार्यरत है। जानती हूँ वक्त रुक नहीं सकता, सोच रुक नहीं सकती और सवाल भी अधिक देर ठहर नहीं सकते। रसोइए की आंखों में वतन के लिए पानी तैर आया। कोई तो मजबूरी होगी यहाँ तक आने की।
काहिरा में आखिरी रात थी। कल हम अपने देश लौट जाएंगे। रसोईया यहीं छूट जाएगा। यही है जिंदगी का सच।
सुबह नाश्ते के बाद वक्त ही वक्त था। अब रिसॉर्ट को अच्छे से बिना हड़बड़ी के घूमा जा सकता था। गुनगुनी धूप अच्छी लग रही थी। फिर भी गर्म कपड़ों से लैस होना ही था। रिसॉर्ट बेहद खूबसूरत था। नीचे गलियारे में जहाँ हम सबको कमरे एलॉट हुए थे, बहुत खूबसूरत हरे भरे पौधे गमलों में करीने से लगे थे। तीन तरफ बगीचे से घिरा। बीच में एक मंजिला रिसॉर्ट, बहुत बड़ा स्विमिंग पूल, पारदर्शी पानी को आसमान अपने रंग में रंगे ले रहा था। विशाल लाउंज, डाइनिंग रूम की ओर जाती सीढ़ियों की रेलिंग और दीवार नकली मगर असली दिखते गुलाबी, सफेद फूलों से सजी। हरे पत्ते बीच-बीच में से झाँकते से। रिसॉर्ट से गीजा पिरामिड 5 किलोमीटर की दूरी पर था।
रात 9 बजे एयरपोर्ट पहुँचना था। बीच में 2 बजे लंच के लिए जाना था। कुछ साथी शॉपिंग के लिए निकल गए। 1 बजे चेकआउट के बाद रूम भी नहीं था हमारे पास। लगेज रिसेप्शन में रखवा दिया गया था। समय गुजरते क्या देर लगती है। हमारी वापसी की उड़ान भी वैसी ही काहिरा से कुवैत, कुवैत से मुंबई 12: 40 पर पहुँच जाएंगे।
काहिरा से कुवैत जाते हुए क्योंकि रात का समय था फिर भी रंग बिरंगी रोशनी जहाज की खिड़की से दिख रही थी। दीपावली का भ्रम पैदा करते दुबई, आबूधाबी, रियाध, कर्मन, कांधार, निजवा देश थे जिनकी मद्धम रोशनी ने मन लुभा लिया था। खंभात की खाड़ी का पानी काली चादर-सा बिछा था।
धीरे-धीरे छूट रहा है इजिप्ट जिसने इतने दिनों प्यार मोहब्बत से हमें अपने देश का मेहमान बनाया। छूट रहे हैं भारत की कई जगहों से आए हमारे प्रिय साथी। ढेरों यादों का बेशकीमती खजाना ले मैं उतरी हूँ छत्रपति शिवाजी टर्मिनस। अपने देश की खुशबू के साथ इजिप्ट की खुशबू भी जो मैं साथ लाई हूँ लिपट रही है सँग सँग।