नेहरू का निधन और 'आदिवासी' की श्रद्धांजलि / संजय कृष्ण

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

देश के पहले प्रधानमंत्री पं जवाहर लाल नहेरू का निधन जब 27 मई, 1964 को दिल्ली में हुआ तब उसके अगले दिन ‘आदिवासी’ का नया अंक 28 मई को आया। आदिवासी का यह सत्राहवां अंक था और साल 18। पहले पेज पर नेहरू की एक तस्वीर दी गई और नई दिल्ली डेड लाइन से खबर प्रकाशित की गई। खबर का शीर्षक था, शान्ति का मसीहा-भारत का राष्ट्रनायक उठ गया। तीसरी पंक्ति में थी प्रधानमंत्री नेहरू का देहावसान और अंतिम पंक्ति में थी, सारा देश शोकाकुल। खबर इस प्रकार थी। ‘नई दिल्ली। 27 मई के अपराह्न दिन के दो बजे यहां प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का देहांत हो गया। वे 27 मई के प्रातःकाल अचानक बीमार हो गये थे। नेहरूजी की उम्र 74 वर्ष की थी। उनके निधन का समाचार पाते ही राष्ट्रपति राधाकृष्णन और केंद्रीय मंत्री परिषद के सदस्य तुरत उनके निवास स्थान पहुँचे। लोकसभा में केंद्रीय इस्पात और खान मंत्री श्री सी सुब्रह्मण्यम ने उनके निधन की घोषणा की। सदन के कई सदस्य यह समाचार सुनते ही रोने लगे। लोकसभा अध्यक्ष सरदार हुकुम सिंह ने यह खबर पाते ही लोकसभा की बैठक स्थगित कर दी। ज्योंही उनके निधन का समाचार फैला, बहुत बड़ी संख्या में लोग नेहरूजी के निवासस्थान के बाहर एकत्र हो गये।’ अगले पेज पर खबरें विस्तार से थीं। अगले दिन शवयात्रा की खबर भी थी। बताया गया कि नेहरूजी की शवयात्रा 28 मई को एक बजे दिन में उनके निवास स्थान से शुरू हुई और राजघाट पर अंत्येष्टि क्रिया संपन्न हुई। उनके दौहित्र श्री संजय गांधी ने दाह-संस्कार किया। कई मील लंबा शोक जुलूस था। देश-विदेश के नेता पहुंचे और अंतिम श्रद्धांजलि अर्पित की।

नेहरू के निधन का समाचार रांची भी पहुंचा। वे रांची कई बार आ चुके थे। रांचीवासियों के मन में नेहरू की एक अमिट छाप थी। यहां भी उनके देहावसान का समाचार बिजली की तरह फैल गया। सभी के चेहरे पर उदासी छा गई और सारा नगर मातम में डूब गया। उस दिन रांची में मंत्रिमंडल की बैठक होने वाली थी, परंतु शोक समाचार मिलते ही बैठक स्थगित कर दी गई। कार्यालय, संस्थान तथा दुकानें बंद कर दी गईं। उस दिन स्थानीय कांग्रेस कमेटी से दिन के दो बजे शोक जुलूस निकला। यह जुलूस मुख्य सड़क होते हुए बीएमपी मैदान में सभा में परिणत हो गया। वहां दिवंगत आत्मा के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की गई। स्वास्थ्य मंत्री अब्दुल क्यूम अंसारी ने सभा की अध्यक्षता की थी। पंचायत मंत्री सुशील कुमार बागे ने भी अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की।

राष्ट्रपति ने राष्ट्र के नाम संदेश दिया। नेहरू को मानव जाति का एक बड़ा मुक्तिदाता बताया। राष्ट्रपति ने 27 को ही प्रसारित अपनी विज्ञप्ति में गुलजारी लाल नंदा को प्रधानमंत्री नियुक्त किया और उन्हें मंत्रियों को नियुक्त करने के लिए उन्हें सिफारिश करने को भी कहा। ‘आदिवासी’ का अगला अंक 4 जून, 1964 को प्रकाशित हुआ। अंक के मुख पृष्ठ के दाहिने ‘श्री लालबहादुर शास्त्री कांग्रेस संसदीय दल के नेता निर्वाचित’ होने का समाचार प्रमुखता से छापा गया था। शास्त्री ने नेहरू के पदचिह्नों पर चलने का संकल्प दुहराया और समाजवाद को अपना लक्ष्य निर्धारित किया।

हालांकि दाह संस्कार की खबर विस्तार से इसी अंक में प्रकाशित हुई। दस लाख लोगों ने अपने प्रिय नेता को अंतिम श्रद्धांजलियां देने के लिए अंतिम संस्कार के समय उपस्थित थे। जबकि नेहरू के निवास स्थान से लेकर यमुना के तट तक करीब बीस लाख लोगों ने अपने प्रिय नेता का अंतिम दर्शन करने के लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे। ऐतिहासिक पुरुष की शवयात्रा भी ऐतिहासिक थी। कई देशों के प्रधानमंत्री, राजकुमार, नेता, कूटनीतिज्ञ से लेकर आम लोग तक शामिल थे। ब्र्रिटेन के प्रधानमंत्री सर डगलस होम, अर्ल माउंटबेटेन, लंका की प्रधानमंत्री भंडार नायक, रूस के प्रथम उपप्रधानमंत्री कोसीजिन, नेपाल मंत्रिपरिषद के अध्यक्ष डाक्टर तुलसी गिरि, अमेरिका के परराष्ट्र पति श्री डीन रस्क, संयुक्त अरब गणराज्य के उपाध्यक्ष श्री हुसैन सफी, युगोस्लाविया के प्रधानमंत्री श्री पी स्टाम बोलिच, पाकिस्तान के परराष्ट्र मंत्री श्री भुट्टो, इरान के गृहमंत्री, फ्रांस के परराष्ट्र मंत्री भी उपस्थित थे। हर आंखें डबडबाई थीं। कुछ लोग रो भी रहे थे।

मई की महीना था। चिलचिलाती धूप थी। लाखों लोग यमुना तट पर जमा थे और अर्थी की प्रतीक्षा रहे थे। पानी का फुहारा देकर गर्मी को शांत किया जा रहा था। फिर भी गर्मी में बहुत से लोग बेहोश भी हो जा रहे थे। एक विदेशी कूटनीतिज्ञ की पत्नी भी बेहोश हो गई थीं। यहीं नहीं, भीड़ इतनी थी कि कई लोग घायल हो गए। प्रधानमंत्री के निवास स्थान से जब नेहरू की शवयात्रा निकाली गई तो उस समय करीब अस्सी हजार लोग थे। यहां दो व्यक्ति दबकर मर गए और एक दर्जन से अधिक लोग घायल हो गए, जिन्हें एंबुलेंस से अस्पातल भेजा गया। भीड़ यहां इतनी बेकाबू थी कि लोग पुलिस पर पत्थर व जूते फेंकने लगे। खैर, किसी तरह यहां से शवयात्रा निकाली गई।

नेहरू के निधन पर देश-दुनिया से शोक संदेश आने लगे। पूरा विश्व नेहरू के निधन से शोकाकुल था। वे वैश्विक व्यक्तित्व थे। अमेरिका, आस्ट्रेलिया, युगोस्लाविया, सोवियत संघ, संयुक्त अरब गणराज्य, चीन, श्रीलंका, नेपाल, अरग, सूडान, पाकिस्तान आदि के मुखिया शोकाकुल थे। रामकृष्ण प्रसाद ‘उन्मन’ और दीनेश्वर प्रसाद ‘स्वतंत्रा’ ने अपने छंदों के माध्यम से श्रद्धांजलि दी। जमशेदपुर, धनबाद, चक्रधरपुर के अलावा रांची के कई स्थानों पर सभाएं कर चाचा नेहरू को श्रद्धांजलि अर्पित की गई।

‘आदिवासी’ का 19 वां अंक भी नेहरू को ही समर्पित था। यह 11 जून 1964 को निकला था। इस अंक में उनके भस्मावशेष प्रवाहित होने की सूचना थी। साथ ही दाह संस्कार की कुछ तस्वीरें भी छापी गई थीं। नेहरू की अस्थियां इलाहाबाद के संगम में प्रवाहित की गईं। 8 जून को प्रातः 8 बजकर 45 मिनट पर वैदिक मंत्रोच्चारण के बीच संगम में प्रवाहित की गईं। यहां भी दिवंगत नेता को श्रद्धांजलि देने के लिए करीब दस लाख लोग जमा थे। अकबर के ऐतिहासिक किले के नीचे जुलूस में आए लाखों व्यक्ति नेहरूजी अमर रहे, चाचा नेहरू जिंदाबाद के गगनभेदी नारे लगा रहे थे। राजीव व संजय ने ट्रक से अस्थिकलश को नीचे उतारकर एक विशेष जेट्टी में रखा। सैनिक अपने हथियारों को झुकाकर नतमस्तक हो गए। हजारों लोग गंगा में खड़ा होकर अपने प्रिय नेता को श्रद्धांजलि दे रहे थे। नेहरू जी का परिवार को मनोनीत प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री एक नाव पर सवार थे। नेहरू के साथ उनकी पत्नी कमला नेहरू की अस्थियां भी प्रवाहित कर दी गईं। नेहरू ने कमला नेहरू का भी भस्मावशेष अब तक अपने पास ही रखा था। अस्थि कलश एक विशेष ट्रेन से नई दिल्ली से इलाहाबाद ले आया गया था। ट्रेन इलाहाबाद 4 बजकर 55 मिनट पर पहुँची थी। यहां भस्मावशेष का स्वागत करने के लिए पहले से ही आए लाल बहादुर शास्त्री, रेल मंत्री सरदार स्वर्ण सिंह वायुयान से आ गए थे। ट्रेन से राजीव व संजय अस्थियां लेकर उतरे। दोनों भाई नंगे पैर थे। उनके पीछे इंदिरा गांधी, विजयलक्ष्मी पंडित, कृष्णाहठी सिंह व नेहरू परिवार के अन्य सदस्य थे। स्टेशन से आनंद भवन अस्थिकलश पहंुचा। स्टेशन से लेकर आनंद भवन तक चार मील तक लोग खड़े रो रहे थे। नेहरू का यह पैतृक घर था। यहां लोगों के लिए दर्शनार्थ अस्थिकलश रखा गया था। यहां से फिर संगम की ओर यात्रा प्रारंभ हुई। रामधुन के बीच जुलूस आठ बजे संगम तट पहुंचा। और, फिर पुरोहितों ने अस्थिकलश को संगम में प्रवाहित कराने का अनुष्ठान पूरा कराया। इस तरह भारत का खोजी, स्वप्नदर्शी, शांति का संदेश वाहक संगम में सदा-सदा के लिए विलीन हो गया।