नेह-निमन्त्रण / हरीश पाठक
‘‘‘भेज रहे हैं नेह-निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को, ‘‘‘ ‘‘‘हे मानस के राजहंस, तुम भूल न जाना आने को।। ‘‘‘ ‘‘ऐ कुन्ती, जो वनवारवाली कहाँ चली गई?’’
‘‘पतो नहीं मौसी। थोड़ी देर पहले तो इते ही हल्दी थे थाल के पास खड़ी थी।’’
‘‘जा के साथ जोई मुसीबत है। जब सब जने पूछत हैं तबहीं सर्र से गायब हो जात। नई तो इते-उते घुमत रहत। जो लोंग ले लो, जो लायची ले लो...का कमाल है।’’
‘‘तनिक देख- भतौर में नई है।’’
‘‘ओ छम्मा-छम्मा, बाजे रे मेरी पैजनिया
तेरे पास आऊँ, तेरी साँसों में समाऊँ
तेरी नींदें चुराऊँ
छम्मा-छम्मा
ओ छम्मा-छम्मा’’
’‘जो कौन गा रओ है?’’
‘‘का पतो? उत्ते कोई मोड़ा-मोड़ी नाच-गा रहे होंगे।’’
‘‘पर तुम काहे रुक गई? का भओ तुम्हें अचानक?’’
‘‘वो भतोर की चाबी भूल आई। वही खाट पे धरी रह गई।’’
‘‘मोए भतौर थोड़ी जाने है, बुँदी के लड्डू थोड़ी खाने हैं। मोए तो, तोसे तनिक बतियाने हैं। सबेरे-सबेरे तो सब टेर लगाएँगे बड़ी बहू कां है? वो पीतल को बड़ी थाल आओ के नई। सारा-बागा उते से आएगो का? बड़ी जेठानी की साड़ी आई के नई। वो ससुर को अँगूठी में लाल पत्थर जड़ो है न? बड़ी अम्मा के लाने आई सिलक की साड़ी कां रखी है? बरतियन की रंकमाला के लाने स्टील के ग्लास और रूमाल आ गए न। जो सब सबेरे-सबेरे से शुरू हो जाएगी। रात बीतत जा रई है- तू जा कां रई है वनवारवाली?’’
‘‘भैया को ढूँढन’’
‘‘कौन भैया?’’
‘‘वोई तुम्हारे छोटे भैया वीरेन, देवरजी। अपने छोटू। चश्मेवाले लालाजी।’’
‘‘वो काँ है। वो काहे आएगो? चिट्ठी भेजी?’’
‘‘काहे नही आएँ। जरूर-जरूर आएँ। हमरे देवरजी हैं। मेरे ब्याह में बन्द गले को कोट और काले रंग की पैण्ट पहने आगे-आगे वे ही खड़े थे। सबसे पहले पूछो, ‘‘ऐ भौजी आलू को परौंठा बना लेत हो का? और कण्डा में भून के रखों भटा वा को भूरता। भटा जानत हो — बैगन। फिर दाँत निकाल के बोले, ‘‘ऐ, भौजी भुरता बनावो आत है कि नई, हम वही खात।’’
ओ छम्मा-छम्मा, बाजे रे मेरी पैजनिया
तेरे पास आऊँ, तेरी साँसो में समाऊँ
तेरी नींदें चुराऊँ
छम्मां-छम्मां
”जो गानो का है? इत्ती रात जोर-जोर से कौन गा रओ है?’’
‘‘हम नही जानत। हम तो सिरफ ये जानत कि देवरजी आएँ दूर मुम्बई से, वीरेन भैया आएँ और हमरी खुशी को बड़ो-बड़ो कर दें। आखिर कुटुम्ब में पहलो ब्याह है। सारे नाते-रिश्तेदार आए हैं फिर वीरेन भैया काहे न आएँ। वे जरूर आएँ।’’
‘‘वीरेन आएगो?’’
‘‘काहे नई आए।’’
‘‘चिट्ठी भेजी है?’’
‘‘हओ, वोई ब्याह की पीली चिट्ठी’’
‘‘वो रस्तो भूल गओ तो?’’
‘‘वो रस्तो भूल ही गओ है।’’
‘‘बाए रस्तन ने विसार ही दओ है, मालती।’’
‘तुम जो का बोलत हो। अपने घर को रस्तो भूलत है का?’’
‘‘पतो का लिखो है।’’
‘‘वोई नओ, पिछली ठण्डन में जो मास्साब ले के आए थे। वोई पतो।’’
तेरहवाँ रास्ता, जुहू गली, मुम्बई-48
प्रभुदयाल ने मन-ही-मन पते को दोहराया।
तेरहवाँ रास्ता
‘‘तुम कहाँ खो गए?’’ मालती ने प्रभुदयाल को झकझोरा।
‘‘कहूँ नई।’’
‘‘सुनो, बसन्ती बुआ कि मोड़ी वैजयन्ती, देखो कित्तो अच्छी गा रही है।’’ बन्नी हमारी है चाँद-तारा
रोशन सितारा
वर माँगती है
बन्नी के मामा
वर ढूँढ़न निकले
वो लड़का कुछ पढ़ा-लिखा है
बी०ए० पास है वो तेरा लड़का
एम०ए० पास वर वो माँगती है
बन्नी हमारी है चाँद-तारा
रोशन सितारा वर माँगती है। ‘‘प्रभुदयाल जैसे अचानक जागा। चल तू सो जा वनवारवाली। आज की रात तो तू सबकुछ भूल रही है। तेरे चेहरे पे तो आज अम्मा आ चिपकी है। तेरी करधनी में जो चाबिएन की झालर है वो मोए अम्मा की याद दिलात है। पूरे घर में तू अम्मा की नाई घूम रही है ओर मोए न जाने का-का याद आ रओ है।’’
‘‘का कहो तुमने?’’
‘‘देखो कल्ली चाची कित्तो अच्छो कंगन ले के आई है? और सुनो ढोलक पर वैजयंती फिर का गा रई है?’’ नेट डाल दो कमरे में
बन्नी टेनिस खेलेगी
वो तो हारेगी-हराएगी
वो जीतेगी-जिताएगी
नेट डाल दो कमरे में, बन्नी टेनिस खेलेगी प्रभुदयाल सो चुका था और वनवारवाली देर रात तक मेंहदी की पुड़िया, लाल चूड़ियों के डिब्बे और बिन्दियों के लाल-पीले कागज सँभालती रही। जब व उठी तो पूछा जा रहा था —
— बेसन को कनस्तर कां है?
— रथ को डिब्बा भतौर से कौन ले गओ?
— बून्दी के लाने कित्ती परातें हैं?
— घर की कछु औरतें पूड़ी बेलेंगी का?
— बरफी पे लगनेवाली बरक आओ के नई?
आओ के नई? प्रभुदयाल के कानों में जैसे एकदम कोई चीखा है — आओ के नई? आया कि नहीं?
नही आया — कौन नहीं आया? ‘‘क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ।’’
‘‘इस कमरे में जो सिर्फ आप ही आ सकते हैं।’’
‘‘सिर्फ मैं ही क्यों?’’
‘‘इसलिए कि यह कमरा आपका ही है।’’
‘‘मेरा इतना बड़ा कमरा।’’
‘‘यह इस मुल्क में सम्भव ही नहीं है।’’
‘‘ तो क्या जीवन कुमार सम्भव है?’’
‘‘आप विषयान्तर कर रहे हैं?’’
‘‘ यह मेरी मजबूरी है।’’
‘‘आपकी मजबूती भी शायद यही है।’’
‘‘आप कहना चाहते हैं?’’
‘‘मैं’’
कृपया सुनें —
‘‘सचुमुच’’
‘‘जी,’’
तो सुनाएँ —
पाश्चादित्या त्वसून्रुद्रानश्विनो मरुतस्तथा,
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत।
‘‘आपने क्या कहा?’’
मैंने कहा, ‘‘हे भारत! आज तुम आदित्यों, वसुओं, रुद्रों और अश्विनी कुमारों के विभिन्न रूपों को यहाँ देखो। तुम ऐसे अनेक आश्चर्यमय रूपों को देखों, जिन्हें पहले किसी ने न तो कभी देखा है, न सुना है।’’
‘‘क्या मैं चलूँ?’’
‘‘मुझे आगे भी जाना है। वैसे भी मैं न तो आदित्य, न रुद्र और न ही अश्विन कुमारों को जानता हूँ।’’
‘‘आप इस शहर में किसी को जानते हैं?’’
‘‘जी नहीं।’’
‘‘क्या आपका मुम्बई में कोई ठिकाना है?’’
‘‘जी नहीं।’’
‘‘मुम्बई के बारे में आप कुछ जानते है?’’
‘‘जी, हाँ।’’
‘‘क्या?’’
‘‘समुद्र किनारे महालक्ष्मी और बाबुलनाथ का मन्दिर
पाली हिल पर दिलीप कुमार की कोठी
मेरी अकेली नीली बुशर्ट को बेवजह भिगो देनेवाला समन्दर
और समन्दर से गिरती बेनाम सी लहरों को।’’
‘‘अच्छा-ऐसा।’’
‘‘तुम्हारा नाम’’
"वीरेन बहादुर’’
‘‘पिता का नाम’’
‘‘रामदयाल’’
‘‘और बड़े भाई’’
‘‘प्रभुदयाल’’
‘‘मतलब — आप बहादुर और वे सब दयाल
क्यों?’’
‘‘जा के लाने के हम बोहरे साहब की बाबड़ी के सबसे ऊपर के पत्थर से छलाँग लगात हते। वां से कोई छलाँग न लगा पात थी। हम अमिया के बाग में सबसे ऊँची कैरी तोड़ के लावत थे। सो सब हमसे बहादुर कहन लगे। तब हम बहादुर हो गए, वे सब दयाल।’’
‘‘अच्छा इसके पहले कहाँ थे?’’
‘‘दिल्ली में’’
‘‘सीधे दिल्ली से?’’
‘‘जी?’’
‘‘ठीक है, कल 10.35 पर आओ। ठीक 10.35 पर। यह मुम्बई है और दिल्ली से एकदम पलट। ठीक है। सब ठीक है।’’
‘‘जी’’
उसने सुना —
‘‘हालचाल ठीक-ठाक है
बी०ए० किया है, एम०ए० किया
काम नही है फिर भी यहाँ
आपकी दुआ से सब ठीक-ठाक है।
हालचाल ठीक-ठाक है।
‘‘जब यह सब घट रहा था, ठीक उसी वक्त चर्चगेट के पाँचवे नम्बर प्लेटफ़ार्म से विरार जाने वाली आख़िरी ट्रेन दम तोड़ चुकी थी।
अमरीका के सीनेट में मोनिका लेविंस्की प्रसंग खदबदा रहा था। महाभियोग पर डेमोक्रेट और रिपब्लिक आमने-सामने थे।
— यूरिया की कीमतों में अचानक बढ़ोत्तरी हो चुकी थी।
— राशन का गेहूँ, चावल और चीनी महँगी हो गई थी।
— आन्ध्रप्रदेश का भाजपा उपाध्यक्ष अन्ना तेलगू देशम में शामिल हो गया था।
— मुम्बई में कुख्यात गुण्डा विनोद मटकर पुलिस मुठभेड़ में मारा गया था।
और काली-काली हो इस रात के संग-संग एक अकेली आवाज़, एक होटल को आख़िरी टेबल पर सिमटी-सिमटी तड़प-तड़पकर बज रही थी —
बरखा, सखी-सहेलियाँ कुछ गीत, कुछ चुहल ऐसे में तू मिली है मुझे झीलों के आसपास। तेरा ख़याल आता है झूलों के आसपास तुझको न सोच पाया उसूलों के आसपास। ‘‘ऐ भाई, लास्ट ड्रिंक माँगता क्या? 12.40 हो गया, होटल बन्द होने का, क्या?’’
‘‘आनन्द को बुलाओ’’
‘‘आनन्द गेला’’
गौतम भाई हैं?’’
‘‘बोलो, साब क्या माँगता?’’
‘‘एक गाना चाहिए’’
‘‘वो गाना लगानेवाला सन्देश है न?’’
‘‘सब है साब, आप ड्रिंक बोलो।’’
‘‘लास्ट पैग — ओल्ड मोंक, सादा सोडा, सादा पानी और सादा आदमी।’’
‘‘किस पे? वो छोकरी तो गेला। उसका लास्ट ट्रेन निकलने का था न?’’
‘‘गाना ... सन्देश को बुलाओ।’’
‘‘जी’’
‘‘मेरे गाने का क्या हुआ? सुनिए न, ये आप ही का गाना है साब?’’ ‘‘निग़ाहें खुल के मिला नैन क्यों चुराता है। काहे शरमाता है काहे घबराता है। मेरी निग़ाहों को जो आजमाता है, वो दिल से जाता है वो जिगर से जाता है। देर रात वीरेन बहादुर जब घर से लौटा तो वह बुदबुदा रहा था — ‘प्रबिशि नगर की यहि सब काजा, हृदय राखि कौशलपुर राजा’ और उसकी बन्द मुट्ठी में एक पीले रंग का काग़ज़ था, जिस पर लिखा था —
‘भेज रहे हैं नेह निमंत्रण प्रियवर तुम्हें बुलाने को हे मानस के राजहंस तुम भूल न जाना आने को।’ आने का सवाल क्या अब भी सुलग रहा है? आग कब की ठण्डी पड़ चुकी है। कितना क्या कुछ घट गया है। पूरा-का-पूरा गाँव किस तरह से शहरी बन गया है। किस मोड़ पर खड़े होकर क्या देखें। आँख जहाँ उठती है, वहीं लगता है गहरी कुइया में एक अकेली बालटी सर्र से नीचे जा रही है। कुइया के पत्थरों से रगड़ खाली बालटी और फिर छपाक की आवाज़ आती है। बालटी के आसपास पानी की लहरें बनती-मिट जाती है। बालटी फिर लौट आती है डोर से बँधी पर थरथराती। कुएँ की जगत पर पानी पसर जाता है और नीम की पत्तियाँ हरी-पीली निबोरी कुएँ के आसपास बिखर जाती है।
बिखरा उस दिन भी बहुत कुछ था। प्रभुदयाल के डूबे मन में कुछ अचानक उभर आया। सूख गए होंठों पर उसने जीभ घुमायी और चोर नज़रों से आसपास देखा। ‘‘पन्द्रह रूपये पैंतीस पैसे।’’
‘‘हाँ, केवल पन्द्रह रुपये पैंतीस पैसे।’’
‘‘सिर्फ पन्द्रह रुपए पैंतीस पैसे।’’
‘‘और दिन कितने बीत गए।’’
कई हजार दिन। पीछे क्या छूट गया? पन्द्रह अरब, पैंतीस करोड़ दिनों और घण्टों को पल-प्रतिपल सताने वाली जानलेवा यादें।
घर से सिर्फ इतने ही पैसे गायब थे। गणपति की मूर्ति के नीचे पुड़िया में रखे पैसे। अपशकुन के और कुछ संकेत घर में नही दिख रहे थे। न बिल्ली ने रास्ता काटा, न घर के रास्ते में मिट्टी का कोई घड़ा फूटा, न बैलों की जोड़ी हिनहिनाई, न गुलबो पागल की रात के सन्नाटे को चीरती कोई कँपा देने वाली चीख गूँजी।
यानी अनहोनी का कोई टुकड़ा घर के किसी छज्जे से नहीं झाँका था।
नीम की दातुन लिए, अम्मा आँगन तक आ गई थीं।
चौके में कण्डा डालकर चूल्हा सुलगा दिया था।
पीतल की बड़ी भगोनी में चाय के लिए पानी रखा जा चुका था।
पूजा घर का परदा खोल दिया गया था।
और धीरे-धीरे फट रहे सूरज के ताप में सब जन सुलगने को तैयार थे।
फिर भी कुछ टूट गया था। कुछ घट गया था। भुरभुरी मिट्टी के बीचोबीच लम्बी और गहरी दरार उभर आई थी। न मिट पाने और न सिमट पाने के लिए।
अबकी प्रभुदयाल ने पानी का गिलास उठाया तो लगा जैसे कोई छाया पानी में तैर रही है। एक ऐसी छाया जिसे वह जानता भी है और भूलना भी चाहता है। जो चुपचाप प्रभुदयाल को टक-टक जगा रही है। वह जाग भी रहा है और सोना भी चाहता है। उसे मुक्ति भी चाहिए और वह कुछ क्षण के लिए क़ैद भी होना चाहता है। उसकी चाहत यह भी है कि वह बहुत ज़ोर से डकर-डकराकर रोने लगे और कोई उसके आँसू भी न पोंछे।
रात कब वीरेन बहादुर घर आया। कैसे घर आया। स्टेशन से शेअर में मिलनेवाला रिक्शा उसे मिला कि नहीं, मोड़ पर उतरकर उसने छोटे फोरस्क्वायर की सिगरेट की डिब्बी ली थी या नही, घर के बाहर दूध की प्लास्टिक की थैली लटकाई या नहीं, बाथरूम के ड्रम को भरने के लिए नल खोला या नहीं, वीरेन को कुछ भी याद नहीं रहा। उसने दूसरे दिन और फिर कई-कई दिनों तक याद करने की कोशिश भी की पर न जाने क्यों उस रात की किसी भी याद का कोई भी टुकड़ा उसकी मुट्ठी की पकड़ में आया ही नहीं।
उसने दिमाग पर फिर ज़ोर दिया — होटल के बाद क्या हुआ? होटल में वह कितनी देर तक रहा? वह होटल से स्टेशन कैसे आया? ट्रेन कैसे पकड़ी, फिर स्टेशन पर उतरकर घर आने के लिए रिक्शा मिला या नही, क्या वह पैदल घर आया? न जाने क्यों उसे कुछ याद नहीं आया। यह रहस्य-कथा उसे रह-रहकर उलझाती रही। उसे लगने लगा था कि कहीं कुछ ग़लत ज़रूर हुआ है। सरासर ग़लत, सिरे से ग़लत, पूरी तरह ग़लत।
व्याकरण ग़लत है।
नहीं, आचरण ग़लत है।
रास्ते ही ग़लत हैं।
तुम्हारा जीवन जीने का ढंग ही ग़लत है।
वह उठा और उटकर दरवाज़े तक आया। उसे लगा कि इतनी निचुड़ी, हाँफती और बेरौनक सुबह तो उसने कभी नहीं देखीं। लग रहा है जैसे रात के बनैले दाँतों ने इस चमकीली सुबह की देह को जगह-जगह से काट लिया है। रुआँसी और लाल सुर्ख आँखों के साथ सुबह उसके दरवाज़े पर ठिठक गई है और यह ठिठकी सुबह उसकी कई रातों को परत-दर-परत उघाड़ रही है।
‘‘तू सुबह-सुबह वहाँ का करत है, जो इत्ती देर तक खिड़की के पास खड़ी रहत। कछु काम-धन्धें नहीं है का। उठो और सीधोे खिड़की से जा चिपको — का करत है उत्तें?’’
कछु नई, कछु भी नई।’’
‘‘फिर काहे जात है, हमें तो बता।’’
अम्मा के इस और ऐसे सवालों का जवाब न तो उसके पास था और न जवाब देने की ताकत वह बटोर पाया था। एक आकर्षण में बँधा वह उठता। आँखो को मींचता-खोलता। फिर खिड़की पर चिपक जाता। एक बार अचानक उसकी नज़र पड़ी थी फिर बार-बार उसके कदम किसी अनाम से बन्धन में बँधे खिड़की तक पहुँचते। वह अपलक बहुत देर तक खिड़की पर चिपका रहता। खुद के भीतर एक उत्तेजना को महसूस करते।
उसने महसूस किया आज पूरे बदन में ऐंठन है और लग रहा है एक कोहराम उसकी छाती के आस-पास मच रहा है। खाट पर पीली चिट्ठी मुड़ी-तुड़ी सी पड़ी है और खाट से कुछ क़दमों के फ़ासले पर वीरेन बहादुर धूप से छले जाने और फिर बेपरदा हो जाने के द्वंद्व को भोगता निहत्था-सा खड़ा है।
उसके कानों के आसपास तेज़-तेज़ हवा सी चलने लगी और गाँव में होनेवाले एक प्रवचन का कुछ हिस्सा टुकड़ा-टुकड़ा उसके कानों से गिरा —
‘‘भगवद्गीता हमें इस जगत के किसी लोक में जाने की सलाह नहीं देती, क्योंकि चाहे हम किसी यान्त्रिक मुक्ति से चालीस हज़ार वर्षो तक यात्रा करके सर्वोच्च लोक ब्रह्मलोक क्यों न चले जाएँ, लेकिन तब भी वहाँ हमें जन्म, मृत्यु तथा व्याधि जैसी भौतिक असुविधाओं से मुक्ति नहीं मिल सकेगी।’’
मुक्ति उसे भी कहाँ मिल पाई?
उस दिन वीरेन बहादुर घर में ही क़ैद रहा और उसी दिन —
— मुम्बई के चर्चगेट स्टेशन से कॉलेज जाने के लिए लोकल ट्रेन में सवार हुई जयबाला असर को एक नशेड़ी ने पैसे के लालच में चलती ट्रेन से धक्का दे दिया।
— धनबाद के एक निजी चिकित्सालय से एक नवजात बच्ची का अपहरण हो गया।
— भारत और अमरीका के बीच सचिव स्तर की वार्ता की तैयारियाँ लगभग पूरी कर ली गई।
— दिल्ली के एक चकले से सात नेपाली लड़कियों को कुछ समाजसेवियों ने मुक्त कराया।
— वियतनाम की एक कोयला खान में हुए विस्फोट में 17 व्यक्ति मारे गए।
— तेरह लाख बैंक कर्मचारियों ने वेतन वृद्धि की माँग को लेकर देशव्यापी हड़ताल की धमकी दी।
रात होते-होते वीरेन बहादुर अपने ही रचे मकड़जाल में पूरी तरह जकड़ा जा चुका था। वह लगातार पीछा कर रहे सवालों से भाग रहा था। ‘‘भागता नहीं तो करता क्या’’ प्रभुदयाल ने सोचा। उसे एक न एक दिन तो भागना ही था। खुद के लिए, घर-परिवार के लिए, भौजी वास्ते और तुझे तिल-तिल कर मारने से कुछ क्षण ही राहत देने के लिए।
उसका भागना तय था — प्रभुदयाल अबकी कुछ सीधा बैठ गया जैसे एक छोटा युद्ध उसने जीत लिया हो।
पर जिन्दगी के युद्ध में तो प्रभुदयाल हथियारों से लैस होने के बावजूद भी हार गया था। बुरी तरह पराजित। यह तब था जब उसे सबकुछ मालूम था। अपने ही घर में, अपने ही छोटे भाई के दुष्कर्मो से आहत, अपमानित प्रभुदयाल जीते जी फन्दे पर लटक गया था। अब सामने था तो सिर्फ़ हिलता-डुलता, बोलता और चुप हो जाता माँस का वह लोथड़ा जिसे सब प्रभुदयाल पटवारी के नाम से जानते थे।
क्या इतना बड़ा हादसा कोई सहन कर सकता है? घर में हर क्षण डोलती काली छायाओं से मुक्ति कौन नहीं चाहता? पर प्रभुदयाल नहीं चाहता था कि उसके घर के सर्पदंश का किस्सा गाँव-चौपाल में उजागर हो जाए। उसके अपने घर की इज़्ज़त तार-तार होकर चौराहे पर बिखर जाए। तब ऊँची नाक का क्या होगा? जात-बिरादरी में खिल्ली उड़ेगी और सालों-साल बूढ़ी हवेली, सात बहनों की बावड़ी और बोधाजी के मठ पर घर की बदनामी के क़िस्से गूँजेगे। पर यह गूँज इतनी जानलेवा थी कि प्रभुदयाल न जी पा रहा था, न मर पा रहा था।
— और मालती?
वह तो आग पर चल रही थी। लगता था जैसे लाल-लाल अंगारे उसके आसपास बिछा दिए गए हैं। इन अंगारों की तपिश में प्रभुदयाल का पूरा परिवार झुलस रहा था।
सामने कुछ नहीं था पर प्रभुदयाल को लग रहा था दो अंगारे उसकी ओर चले आ रहे हैं दहकते अंगारे।
उसने अपनी आँखें मलीं पर अंगारे अब भी दहक रहे थे — बुझ-बुझकर।
दरअसल, ये मालती की वे एक जोड़ा आँखे थीं जो सालों तक उसका पीछा करने के लिए इरादतन छोड़ दी गई थीं। सुलगते सवालों से लबालब, गले-गले तक भरी आँखें।
‘‘हमें बताओं, हम का करें। वीरेन भैया, जब हम नहात है तो खिड़की से आ चिपकत है। अम्मा ने उन्हें खूब फटकारी, हमने भी उन्हें भौत समझायो पर वे मानत ही ना हें। बार-बार बोलत — भाभी तुमरो बदन भौत अच्छो है।’’
मालती एक साँस में बोल गई और प्रभुदयाल की जैसे साँसें उखड़ गई।
‘‘का-का बोल रई है तू? का बोल रई है — वनवारवाली। ऐसे कभों नई हो सकत। जो नई हो सकत।’’
‘‘जो कई दिनन से हो रओ है। हमरी झूठ मानों तो अम्मा से पूछ लो। आज तो उनसे वीरेन को चूल्हे की लकड़ियाँ से मारो है — तब से वाको पतो नई है।’’
... और प्रभुदयाल खुद में लापता हो गया था। उसे लगा क्या उसका खास छोटा भाई इतना नीच, कमीना और गिरा हुआ भी हो सकता है। उसने मन-ही-मन ठान लिया कि वह ज़रूर एक न एक दिन वीरेन से बात करेगा। पूजा-पाठ वाले इस घर में इतना नीच कर्म? अपनी माँ जैसी भाभी के साथ इतना गन्दा व्यवहार? वह टूटने लगा। टूट मालती भी रही थी। धीरे-धीरे। बेआवाज़।
साड़ी के पल्लू को मुँह में दबाए, वह इस कमरे से उस कमरे तक घूम रही थी पर उसकी रूलाई चाहे जहाँ फूट पड़ती थी। उसे लग रहा था कि आखिर आँसुओं का यह सोता कहाँ से फूट पड़़ा है। वह देवर का यह कुकर्म किससे कहे? पति से जिस दिन से उसने कहा है वह गुमसुम-सा हो गया है और अम्मा तो चौबीस घण्टे पूजा घर में बैठी रहती है। ‘बाए भगवान सद्बुद्धि देगी’ वे बार-बार दोहराती है।
तब मालती क्या करे? क्या ऊपर से छलाँग लगा दे? या दीवार से सिर को तब तक ठकराती रहे तब तक सबकुछ खत्म न हो जाए।
कोई तो बताए मालती करे क्या?
और प्रभुदयाल क्या करे? जिस भीतरी आग में उसका रेशा-रेशा झुलस रहा है उसका क़िस्सा वह किससे कहे। कह न पाने और सह न पाने का दुःख वह कब तक झेलेगा?
यह दुःख और इससे जुड़े कई-कई दुःख उसे झेलने ही थे।
वह सब कुछ भी धीरे-धीरे प्रभुदयाल की आँखों के सामने उतरा जिसे वह बिटिया के ब्याह के इस मौक़े पर याद ही नहीं करना चाहता था पर मालती ने अतीत की उन यादों को अचानक जगा दिया है। लगा जैसे सालों से बन्द पड़ी लोहे की जंग लगी बड़ी सन्दूक को किसी ने झटके से खोल दिया और सन्दूक में तह करके रखी यादें परत-दर -परत खुल रही है। न वह वीरेन को चिट्ठी भेजता, न वीरेन की याद आती और न ही उन दर्दभरी यादों के जंगल में प्रभुदयाल उतरता।
उतरी मालती भी थी। किस तरह उसने खुद को समझाया था। उस सबकुछ को भुला दिया था जो इस घर में प्रेत बनकर कई सालों तक अपना डेरी डाले था। प्रेत लौट गया था क्या?
पर प्रभुदयाल लौट आया था।
पास के गाँव में सप्ताह में गया था। मन को हलका करने भगवद्गीता का सात दिन का पाठ पण्डित ओंकारनाथ से सुनने। सातों दिन वह कृष्ण, अर्जुन और महाभारत में डूबा रहा। वह क्या जानता था कि एक दिन महाभारत पर उसका इंन्तज़ार कर रहा है। सप्ताह में तो उसने पंण्डित ओंकारनाथ से सुना था — जहाँ तक सन्तान, पत्नी तथा घर से विरक्ति की बात है इसका अर्थ यह नहीं कि इनके लिए कोई भावना ही न हो। ये सब स्नेह की प्राकृतिक वस्तुएँ हैं। लेकिन जब ये आध्यात्मिक उन्नति में अनुकूल न हों, तो इनके प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। घर को सुखमय बनाने की सर्वोत्तम विधि कृष्णभावनामृत है। यदि कोई कृष्णभावनामृत से पूर्ण रहे, तो वह अपने घर को अत्यन्त सुखमय बना सकता है क्योंकि कृष्णभावनामृत की विधि अत्यन्त सरल है। इसमें केवल ‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे’ का कीर्तन करना होता है। ऐसा करने से मनुष्य सुखी होगा। मनुष्य को चाहिए कि अपने परिवार के सदस्यों को भी वह ऐसी शिक्षा दे।
पण्डितजी का प्रवचन सुनकर प्रभुदयाल एकदम हलका हो गया था। उसने तय कर लिया था कि घर जाकर वह मालती को बताएगा ओर उससे ‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण’ का कीर्तन करने के लिए कहेगा। भण्डारा हो गया था और सप्ताह का परसाद लेकर प्रभुदयाल गाँव लौट आया था, ख़ुशी-ख़ुशी।
पर यहांँ तो दुःख-ही-दुःख था। अनहोनी हो चुकी थी।
उसके पास सब जुट आए थे। सबसे पहले अम्मा आई और हाथ पकड़ कर भीतर कमरे में ले गई। खाट पर लाश बनी मालती लेटी थी। उजड़ा चेहरा, जलती आँखें।
‘‘का भओ, का बात है? का हो गओ। सब मरे-मरे से काए लग रयो हो? भओे का?’’
उसकी आवाज़ पूरे घर में देर तक गश्त लगाती रही।
उसके बाद एक गहरा आर्तनाद। मालती की जानलेवा चीख़ें। आँसुओं का रेला। मालती प्रभुदयाल के गले से आ चिपकी थी और अम्मा बता रही थीं उस काली रात का क़िस्सा कि कैसे वीरेन अपनी खाट से चोर-उचक्कों की तरह प्रभुदयाल के कमरे में उतरा। उसने झपट्टा मार कर लालटेन को बुझा दिया और पागलों की तरह मालती पर टूट पड़ा। मालती चीख़ती रही और वीरेन उसके बदन से लिपटा रहा। जब तक अम्मा ऊपर से उतर कर नीचे आई, उन्होंने अन्धेरे में मालती को टटोला, चौके से दियासलाई लाकर फिर से लालटेन जलाई। तब तक सब बुझ गया था। मालती लुटी-पिटी खाट पर पड़ी रही और वीरेन छत फलाँग कर भाग गया। भागने के पहले वह पूजा घर तक आया था। गणपति के नीचे रखे पैसे चुराने।
प्रभुदयाल इस बार पूरा मर गया था। उसके दिमाग से चट-चट-चटाक, चट-चट की आवाज़्रं आ रही थीं। जैसे लाल-पीली लौ के साथ कुछ जल रहा हो। सिर की नसें फटी जा रही थीं। वह तेज़ी से बाहर की ओर आया। उसने इधर-उधर देखा और फिर चौके में घुस गया। चौके में रखे बड़े मटके को उठाकर वह आँगन में ले आया और पूरा मटका उसने सिर पर उड़ेल लिया। आँगन में ठण्डी हवा रुक-रुक कर बह रही थी। प्रभुदयाल इस ठण्ड में भी गरमा रहा था।
फिर उसने मटका आँगन में ही फोड़ दिया।
‘‘जो का करत हो, जो अपशकुन है।’’ अम्मा चीख़ी।
‘अपशकुन तो हो गओ महतारी।’’ प्रभुदयाल की भी चीख़ निकली। फिर वह भीतर के कमरे में आया और मालती के गले से लिपट कर रोने लगा।
जब उसके आँसू थमे तो वह सुन रहा था, अम्मा कह रही थीं —
‘‘मोए पतो होतो कि मेरी कोख इत्तो अधम करेगी तो मैं जा सब होवे के पहले ही मर जाती।’’
‘‘मर तो मै रहो हों अम्मा-घर के साँप ने मोह कहूँ को न छोड़ो।’’ आँसुओं से लटपटाती प्रभुदयाल की आवाज गूँजी।
‘‘का करें बेटा-जो घट गऔ। घर की बात में रहे तो अच्छो, नई तो पूरे गाँव में डंका पिट जाएगी। अबे तो मनो तीन साल की है, जब बड़ी होगी तो कोई शादी-ब्याह के लाने अपनो मोड़ा नहीं देगो। सब जात-बिरादरी से छेक देंगे। वा घर में मत जाओं वां तो राक्षस देवर ने भौजी के संग तू समझ बेटा कित्तो अनर्थ हो जाएगी। तेरे बाप रामदयाल, उनके बाप दीनदयाल उनके बाप भगवानदयान सब कुटुम्ब की नाक कट जाएगी। तनिक धीरज धर बेटा।’’
अम्मा, प्रभुदयाल के एकदम क़रीब आ गई और काँपते स्वर में बोल रही थीं, ‘‘मेरे कुँअर बाबा, एक-दो दिन में मोए मौत दे दे। अब जी के का करोंगी?’’
फिर उनका हाथ प्रभुदयाल के बालों तक आया — ‘‘बेटा मैं जानत हों जा बखत तेरी छाती फट रई हैं, वो पापी अगर उते होतो तो तू चीर डालतो पर अब का हो सकत है?’’
‘‘तो का मैं मुरदा बन जाऊँ, सब सह लऊँ- जो कैसे होगो महतारी?’’
‘‘तो का हमस ब मुरदा बन जाएँ। जात-बिरादरी में लम्बो टीको खिंच जाएगी। पूरी खानदान खाक हो जाएगी बेटा। वा राक्षस तो टुकड़ा-टुकड़ा के लाने भटकेगो और कुत्तन की मौत मरेगो। तू। तू धीरज धर बेटा।’’
उसके बाद कई दिनों तक अम्मा की आवाज़ सुनने के लिए प्रभुदयाल तरस गया। उसे लगा अम्मा की जुबान तालू से चिपकी रह गई है। चेहरा सफ़ेद दीवार की तरह हो गया था साफ़-शफ़्फ़ाक। अलस्सुबह घर को ‘भए प्रकट कृपाला, दीनदयाला कौशल्या हितकारी’ की चौपाई से गुँजा देनेवाली अम्मा, एक कोने में सिमट गई थीं। उसके बाद घर की दहलीज़ के बाहर उन्होंने की कभी भी पाँव ही नही रखा। जात बिरादरी, शादी-ब्याह में बड़े ठसक से जाने वाली अम्मा पूरे दिन घर में थकी-थकी, टूटी-टूटी भटकती रहतीं। फिर उन्होंने खाट पकड़ ली और एक दिन खाट से ही चिपकी रह गई। पत्थर बन गई अम्मा को देख-देख प्रभुदयाल की रुलाई फूट-फूट पड़ती थी। कब तक रोए, कितना रोए और कहाँ-कहाँ रोए प्रभुदयाल?
‘‘थोड़ा रो लो, मन हलका हो जाएगा।’’ आवाज़ उसके भीतर से उभरी थी।
भीतर से बहुत कुछ उभर रहा था। जिस दिन से पीली चिट्ठी आई है, वीरेन बहादुर तिल-तिल जल रहा है। इस आग में वह पूरा क्यों नही जल जाता, उसने कई बार सोचा है। इंच-इंच मरने से तो बेहतर है वह पूरा ही मर जाए।
मर प्रभुदयाल भी रहा था और मालती थी।
मालती ने तो यादों को जान-बूझकर मार डाला था-घर की ख़ातिर, समाज की ख़ातिर, गाँव के ख़ातिर।
तुम क्या कर पाए वीरेन बहादुर?
जैसे जलती हुई नदी उसके सामने खदबदा रही हो। तुमने इतना नीच कर्म किया कि आज तक उसकी छाया तुम्हारे खानदान को डरा रही है।
अबकी वीरेन ख़ुद डर गया। इतने सालों बाद चिट्ठी कैसे आ पहुँची? पता चला किसने दिया? यदि इस पते पर भैया आ जाएँ तो?
नहीं, बिलकुल नहीं।
बिलकुल सच। पूरा-पूरा सच। नंगा सच।
तुम सच से भागते क्यों हो? तुम लगातार भाग ही रहे हो। तुम्हारा भागना अब भी जारी है। ऐसे कब तक भागोगे वीरेन बहादुर। घर की दीवारों पर आज भी वह ज़हर है, जो ज़हर तुम फेंक आए थे। उस रात का अन्धेरा, हर सुबह उस घर में किसी-न-किसी बहाने पहरा देता है।
वीरेन बहादुर बदहवास-सा उठा और उसने पीली चिट्ठी उठा ली। फिर धीरे-धीरे पढ़ा :
‘‘हमारी बेटी आयुष्मति मनोरमा पुत्री रामदयाल पटवारी का शुभ विवाह दहगाँव निवासी प्यारेलालजी गिरदावर के प्रपौत्र और सालिगरामजी शर्मा के सुपुत्र चिरंजीव रामनिवास के साथ होना तय हुआ है। हमारी विनती है कि इस मौके पर उपस्थित होकर आप वर-वधू को आशीर्वाद देकर हमें अनुग्रहीत करें।’’ दर्शनाभिलाषी - प्रभुदयाल पटवारी और वीरेन बहादुर’’
‘‘अरे।’’ उसकी आँखे एकदम से चौड़ गई। वीरेन बहादुर। पीली चिट्ठी में उसका नाम। भैया अब तक उसे नहीं भूले हैं। उसने सोचा।
और तुम भी कहाँ भूल पाए हो?
नहीं-नहीं, सब बेकार है। सब ग़लत। वह तेज़ी से उठा। उसने जोर से दरवाज़ा बन्द किया और सड़क पर उतर आया।
‘‘ तो मनोरमा-मनो, इत्ती बड़ी हो गई।’’ उसे फिर याद आया पर अब की वह सब भूल जाना चाहता था। यह सब जो पिछले कई दिनों से उसे तपती हुई रेत पर लाकर बार-बार खड़ा कर देता है। जलती हुई रेत उसकी चेतना को धीरे-धीरे कुन्द कर देती है। वह चीख़ भी नहीं पाता और रो भी नहीं पाता।
‘‘ऐ भाई — मेरा ड्रिंक।’’ ‘‘आज तो ड्राई डे है साब।’’ ‘‘मतलब’’ ‘‘आज सबकुछ बन्द है।’’ ‘‘मतलब, आज शराब नहीं मिलेगी।’’ ‘‘बिलकुल नहीं।’’ ‘‘अरे मैं तो मर जाऊँगा। आज यदि शराब नहीं मिली तो मैं मर जाऊँगाँ, भाई’’ उसने अपना सिर दोनों हाथों से पकड़ लिया। ‘‘और यदि आपको शराब दे दी, तो हम मर जाएँगे, साब। लाइसेंस-परमिट सब खलास।’’ ‘‘कुछ तो करो,प्लीज।’’ ‘‘कुछ नहीं कर सकता, साब — सॉरी।’’ पस्त कदमों से वीरेन बहादुर लौट रहा था। सारे मेहमान लौट गए थे।
कुन्ती मौसी, बसन्ती बुआ, कल्ली चाची सब जा चुके थे। पूरा घर सुनसान हो गया था। मालती की समझ में नहीं आ रहा था, इत्ते बड़े घर में आज अकेली कैसे झाड़ू लगाए। सब तरफ सन्नाटा था।
सन्नाटा अब तक प्रभुदयाल के भीतर बज रहा था।
वीरेन नहीं आया — उसे नहीं आना था।
मालती उसके करीब आ गई।
‘‘वीरेन भैया नहीं आए।’’
प्रभुदयाल हड़बड़ाकर जाग गया।
‘‘सब नाते रिश्तेदार आ गए, पर वीरेन भैया नहीं आए।’’ मालती ने कहा।
‘‘हो सकत है बाए चिट्ठी न मिली हो।’’
प्रभुदयाल ने जैसे ख़ुद को दिलासा दी।
‘‘हम तो सब कुछ भूल गए थे, मनो के बापू। सब कछु। हमरे संग का भओ, कैसे भओ हम सब भूल गए। जा के लाने के, अब उन सबको खोदन से का होत? कित्तो बुरो लगत तो हमें। हम का से कहें, कैसे कहें? जो हमरे संग बीती कुँबर बाबा, वैसो तो नरक कोइए मत दिओ। मनो के बापू, हमे बताओ, हमने का गलत करो तो। हम सब ब्याह के आए तो वीरेन आँगन में, अटारी में नंगो घूमत थो। वा ने हमरे संग जो करो वो हमने सब विसार दओ। सब जने पूछत हते — हम का बोलत मनो के बापू।’’
प्रभुदयाल चुप था। उसने कातर आँखों से मालती को देखा — उसका पूरा शरीर हिल रहा था ओर उसकी कराहें पूरे घर में फैल रही थीं।
‘‘हमने का गलत करो मनो के बापू — हमें बताओ।’’ मालती की आवाज़ फिर गूँजी। ‘‘मै का बताओ वनवारवाली। तेरी दुःख मै जानत हों पर अब तो सब बीत गओ। ब्याह भी हो गओ। मनो अपने घर चली गई। अब तू काहे रोअत है।’’ पर मालती की आवाज़, अटारी को लाँघ कर गली में उतर आई थी। लग रहा था सालों से रुका आँसुओं का बाँध अचानक ढह गया हो।
प्रभुदयाल ने दोनों हाथों से मालती को थाम लिया।
मालती का रोना जारी था।
अचानक प्रभुदयाल की नज़र आँगन में गई। उसने देखा — ‘‘अँगीठी अब तक जल रही थी। धीमी-धीमी लौ में। उसके आसपास राख-ही-राख थी। ठीक इसी वक्त मुबई के जुहू स्थित हिन्दू श्मशान में, कमज़ोर उम्र के पाँच छह लड़के एक ठेले पर एक लाश लिए दाख़िल हुए। उन्होंने आनन-फानन चिता बनाई और लाश को आग के हवाले कर दिया।
चिता के पूरी जलने का इन्तज़ार किए और बगैर कपाल-क्रिया के लड़के जा चुके थे।
देर तक चिता अकेली जलती रही।