नैतिक मूल्यों का ह्रास और वर्तमान समाज / शिवजी श्रीवास्तव
चतुर्दिक् नैतिक मूल्यों का ह्रास वर्तमान समाज की एक बड़ी समस्या है। जैसे-जैसे भौतिक सभ्यता का विकास हो रहा है; वैसे-वैसे समाज में सदाचरण का लोप होता जा रहा है। गलाकाट स्पर्धा के इस युग में व्यक्ति के अंदर प्रेम, दया, करुणा, सहिष्णुता, परोपकार, सेवा संयम इत्यादि गुणों का अभाव होता जा रहा है। झूठ और स्वार्थपरता सदाचार को हाशिये में धकेलने का प्रयास कर रहे हैं । किसी भी यह समाज के लिए शुभ लक्षण नहीं है क्योंकि सदाचार से ही समाज में प्रेम और सौहार्द का विकास होता है तथा सर्वत्र शान्ति का साम्राज्य स्थापित होता है। व्यक्ति और समाज दोनों के उत्थान का मूल मंत्र सदाचार के पालन में निहित है। सदाचार के महत्त्व को अध्यापक पूर्णसिंह जी के इन शब्दों में भली-भाँति समझा जा सकता है, "आचरण की सभ्यता का देश ही निराला है। उसमें न शारीरिक झगड़े हैं, न मानसिक, न आध्यात्मिक। न उसमें विद्रोह है, न जंग ही का नामोनिशान है और न वहाँ कोई ऊँचा है, न नीचा। न कोई वहाँ धनवान है और न ही कोई वहाँ निर्धन। वहाँ प्रकृति का नाम नहीं, वहाँ तो प्रेम और एकता का अखंड राज्य रहता है।"
निःसंदेह यह एक आदर्श समाज की संकल्पना है मूर्त रूप में यह तभी साकार हो सकती है जब प्रत्येक व्यक्ति सदाचरण के मार्ग का अनुसरण करे किन्तु सबके आचरण इसके विपरीत प्रतीत हो रहे हैं। गोस्वामी तुलसीदास जी ने कलियुग के लक्षण बताते हुए लिखा है- 'झूठइ लेना झूठइ देना। झूठइ भोजन झूठ चबेना।।' गोस्वामी तुलसीदास की यह भविष्यवाणी आज चरितार्थ होती प्रतीत हो रही है चतुर्दिक् झूठ का बोलबाला हो रहा है। ऐसे कठिन समय में सदाचार के मार्ग पर चलना किसी कठिन साधना से कम नहीं है।
लोगों का प्रश्न हो सकता है कि ऐसे विपरीत समय में हम सदाचार के गुणों को कैसे विकसित करें? इसका सबसे सरल सूत्र है सत्संग करना और सद्ग्रंथों का पाठ करना। यहाँ सत्संग का अर्थ धार्मिक भजन-पूजन न होकर सज्जनों की संगति से है। सत्संग और स्वाध्याय की सीढ़ी, व्यक्ति को सहज रूप में सदाचार की ओर ले जाती है। सदाचार से ही व्यक्ति के अंदर परोपकार की वृत्ति बलवती होती है और परोपकार से समाज में परस्पर एक दूसरे का भला करने का भाव जाग्रत होता है जिससे समाज में समरसता बढ़ती है और सुव्यवस्था स्थापित होती है। यह कार्य कठिन अवश्य है पर दुर्लभ नहीं है। थोड़े प्रयासों से यह कार्य सुगमता से किया जा सकता है। प्रत्येक विवेकवान व्यक्ति का दायित्व है कि अपने आचरण से सदाचार-संवर्धन में अपना योगदान देते रहें।
निरंतर सत्य के पथ पर चलने वाले व्यक्ति के हृदय में परोपकार और करुणा का भाव इस प्रकार रच-बस जाता है की वह अनजाने में भी किसी के अहित का भाव नहीं ला सकता। सदाचार की सुगंध सुवासित पुष्पों की सुगंध की भाँति आत्मा में रची-बसी रहती है जो सम्पूर्ण परिवेश को महकाती रहती है। सदाचार व्यक्ति के व्यक्तित्व से किस प्रकार प्रस्फुटित होता है इस संदर्भ में स्वामी विवेकानंद के जीवन का एक प्रसंग उल्लेखनीय है। स्वामी विवेकानंद को अमेरिका जाना था, उनके गुरु स्वामी रामतीर्थ जी भौतिक देह का परित्याग कर चुके थे अतः वह गुरुमाता शारदा देवी जी से आशीर्वाद लेने गए। गुरुमाता रसोई में थीं। विवेकानंद जी ने कहा-“माँ मैं धर्म की बात लेकर अमेरिका जाना चाहता हूँ, आप आशीर्वाद दीजिए मैं सफल हो सकूँ।” उन्होंने रसोई के अंदर से ही विवेकानंद को ऊपर से नीचे तक देखा और बोलीं- “सोचकर बताऊँगी।” विवेकानंद हतप्रभ हुए पुनः निवेदन किया –“माँ, सिर्फ शुभाशीष चाहता हूँ, आपकी मंगलकामना चाहता हूँ कि मैं जाऊँ और सफल होऊँ।” शारदा देवी ने पुनः उन्हें गौर से देखा और कहा- “ठीक है, सोचकर कहूँगी।” विवेकानन्द अवाक से खड़े रह गए। उन्होंने सोचा भी न था कि गुरुमाता आशीर्वाद देने में भी सोच-विचार करेंगी। उन्होंने कभी ऐसा देखा भी न था कि आशीर्वाद भी किसी ने सोच कर दिए हों। वे चुपचाप वहीं खड़े रहे। गुरुमाता खाना बनाती रहीं, अचानक कुछ सोच कर वे बोलीं- “नरेंद्र, सामने जो छुरी पड़ी है वह उठा लाओ।” सामने पड़ी हुई छुरी विवेकानन्द उठा लाए और गुरुमाता के हाथ में दी, छुरी हाथ में लेते ही वे हँसी और विवेकानन्द के लिए आशीर्वादों की वर्षा करते हुए बोलीं- “जाओ नरेंद्र, अपने लक्ष्य में सफलता प्राप्त करो, तुम्हारे द्वारा सबका मंगल ही मंगल होगा।” छुरी लेकर आशीर्वाद देने के बीच का संबंध विवेकानन्द को समझ नहीं आया, उन्होंने संकोचपूर्वक पूछा- “माँ, इस छुरी उठाने में और आपके आशीर्वाद देने में कोई संबंध है क्या?” शारदा देवी पुनः हँसीं –“हाँ, गहरा संबंध है, मैं देख रही थी कि छुरी तुम मुझे किस प्रकार देते हो, तुम उसकी मूठ पकड़ते हो या फलक पकड़ते हो, मूठ मेरी तरफ करते हो या फलक मेरी ओर करते हो साधारण तौर पर व्यक्ति मूठ पकड़ता है और फलक देने वाले की ओर करता है; पर तुमने छुरी का फलक पकड़कर मूठ मेरी ओर किया है।”
विवेकानंद ने आश्चर्य से देखा उन्होंने सचमुच फलक ही पकड़ा था। शारदा देवी ने आगे कहा- “तुमने ऐसा इसलिए किया नरेंद्र; क्योंकि तुम्हारे अंदर करुणा का भाव है, मैत्री का भाव है। तुमने फलक हाथ से पकड़ा और मूठ मेरी ओर किया, तुम्हारे अंदर सहज रूप से ही ये भाव है कि कहीं फलक से मुझे चोट न लग जाए, तुमने अपनी नहीं मेरी चिंता की। फलक पकड़ने से तुम्हें चोट लग सकती थी पर तुमने अपनी फिक्र नहीं की, तुमने मेरी चिंता में अपने को असुरक्षा में डाला। अब मैं तुम्हें आशीर्वाद देती हूँ कि जाओ तुमसे विश्व कल्याण होगा क्योंकि तुम सहज भाव में भी दूसरे का हित ही सोचोगे, इतनी करुणा इतनी मैत्री के भाव वाला व्यक्ति ही दूसरों का कल्याण कर सकता है।”
प्रत्यक्षतः यह बात छोटी लगती है किन्तु महत्त्वपूर्ण है। इससे स्पष्ट होता है कि सत्संग और सद्ग्रन्थों के प्रभाव से व्यक्ति के व्यक्तित्व में अद्भुत परिवर्तन होता है, वह मनसा-वाचा-कर्मणा सदाचार का अनुगामी हो जाता है। सदाचार से उसका सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही समाज कल्याण के भाव से परिपूर्ण हो जाता है। यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि सदाचार ऊपर से ओढा जाने वाला गुण नहीं है, इसका अभिनय नहीं किया जा सकता, कोई भी व्यक्ति दिखावे का आचरण करके सदाचारी नहीं बन सकता। यह एक सतत चलने वाली साधना है जो शनैः-शनैः व्यक्तित्व का परिमार्जन करते हुए उसे सात्त्विकता के उच्च सोपान तक ले जाती है और सात्त्विक लोग ही समाज को सन्मार्ग कि ओर ले जाने में समर्थ होते हैं।
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