नैन घरैना / शैवाल
हवा में लटक रहे घोंघे की तरह बेंगुची के दांत टिंगिर-टिंगिर बज रहे हैं, घुटनों के बीच दबा हुआ माथा डाक बाबा की सवारी बना बेअख्तियार हो कांपता चला जा रहा है। उधर फल्गू मनसोख बच्चे की तरह लोधापुल के कंधों पर धोबिया नाच देखने के लिए सिर पटक रही है, इधर उतरंगिया हवा जुट गोड़ाइत के सिंगहिया बैल की तरह एक सुर भागती चली जा रही है। और बेचारा बेंगुची मल्लाह ! उसकी क्या विसात ऐसे आलम में! वह तो प्रकृति, फल्गू और पुल के 'छुआ-छुपी' खेल के बीच, खुले आसमान की जिल्ह्या तले 'हवा-मिठाई' जैसा विलुप्त होने की स्थिति में पहुंच गया है। पुल से एक सीध वंगखोरिया मोड़ तक निचाट-अंधकार ! भर सड़क उस अंधकार को आरोही स्थिति में झाल की तरह बजाते हुए उन्मत्त कीर्तनिया यानी बरसाती जीव ! अंधकार में 'टप्पा-टोड्या' करने से कोई फायदा नहीं। फिर भी आँखें चियार के पांच-सात बार अंदाजा लगाने की कोशिश कर चुका है बेंगुची... कि नकुआ तो अब दल्लू पासी के ताड़ीखाने तक पहुँच गया होगा... लौट रहा होगा सिद्धू सिंह के हाहापुर के बंगले से! लेकिन अगले ही क्षण अंदाज लगाने वाली रेतघड़ी यानी नकुआ के गीत की आवाज उल्टी दिशा में भागने लगती है...
लंहगा बिक गयो, लुगरा बिक गया बिक गई अंगिया तन की, राजा के वांघन की सैला बिक गई फजीहत हो गई घर-घर की !
...ई नकुआ ससुरा भी पता नहीं कहाँ-कहाँ से मरने चला आया यहाँ ! देमंती नाउन हवा में हाथ पसार के उस दूरस्थ प्रदेश का जिक्र करती है, " हे, ओ बत्तीस कोस बंगला से आया है, मईयां... जंगले जंगले है खाली उहां... आ है, फुद्दी चिरड्यां जिसा लिरी-बिरी अमदी...दुर्र, नकुआ को देख के अंदाज लगाओ न हे, सेखपुरावाली!" ... सो फुद्दी चिरइंया जैसा नकुआ छत्तीसगढ़ से दाना चुगने निकला तो रांची, असाम और 'लालटेन गंज' होते हुए बरहमदेव सिंह के ईंट-भट्टे पर फंस गया आके, बीस ऊपर दस रुपया महीना की नौकरी में। आया था तो एक मेहरारू और बच्चे के साथ, लेकिन नकुआ ठीक गाता है बेचारा - महंगाई की मार पड़ी तो सब बिक गया हो भाईबंद, लंहगा-लुगरी, प्रियतम को बांधने बाली पेयार-मुहब्बत की डोरी... और लो खिसवा वाला हाल कि मेहरारू भी गपतगोल! बुढ़ऊ जीवराखन सिंह टेंट में बीड़ी की तरह उड़सकर छपरा चले गए। उसके दो महीने बाद बच्चा भी कोदवा नाय की चपेट में आके भगवान को प्यारा हो गया। रह गया अकेला नकुआ, सो गर्मी भर ईटा पारता है और बरसात में 'हाय हुल्ला' (कंगाली) बाली स्थिति में पहुँचकर किसी-किसी मल्लाह का असिस्टेंट हो जाता है। अबकी बार वह वेंगुची के साथ आ गया और केसी विचित्र बात कि एक हफ्ता पहले बाला (रेत) सूंघकर कहने लागा, "दहाड़ तो आ रहलो हे" (बाढ़ तो आ रहा है) बही हुआ...हफ्ता पूरा होने के एक दिन पहले ही लोधापुल पर पोरसा भर पानी हहराने लगा। लहबाजपुर और सारथू का बांध टूट गया, सो उधर से भी रेलता हुआ जलप्रवाह! तीन दिनों तक लगातार टुनकी छप्पर की तरह झरझराता रहा आसमान। कोसमा में पचास बीघा खेत वाला (रेत) से भर गया। सड़क जगह-जगह से फफड़लाल (दिखावा पसंद) बाबू साहेब के दर्प की तरह भंजित हो गई! लोधापुल की ऊँचाई और सूअर का बखोर दोनों एक जैसी चीज हैं। पुल जब बनने लगा था तो इंजीनियर साहेब ने 'टेकटिक' (टेकनिक) वाली बात बताते हुए कहा था, "पुलवा का हाइट जादा रहा तो समझिए पूरा जवार सरवनास... परलय मचा देगी ई छिनार नही?" पानी, पुल और परलय यानी बत्तीसखड़ी का खेल ! इंजीनियर साहेब तो आए-गए, मुदा पुल यहीं रह गया और साथ ही साथ हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए यहाँ के बासी भी चित्रकूट पर ही छूट गए। अब
समझिए कि बाढ़ तो इतिहास हो गया है, सो हर साल अपने को दुहराता है। आने-जाने वालों के लिए यह पुल पानी का पहाड़ बन जाता है। नसरीवाद से पलना तक जाने वाली बस अब उस पार ही ठमककर रुक जाती है, जैसे इस पार ससुराल की ड्योढ़ी दिख गई हो। हहाती हुई नदी, झोराए कुत्ते की तरह एक सुर में भागता पानी... और पुल के दोनों तरफ माथा पीटने का रोजगार करते हुए यात्रीगण ! ऐसे समय में झुनुकपुर के मल्लाह काम आते हैं। पुल के इस पार से उस पार तक खंभा गाड़ के लक्ष्मण झूला बनता है... बांस की चचरी से बनाया गया 'रज्जुमार्ग!' झूला का टैक्स फी यात्री एक रुपया और बेचारे यात्री सीताराम का नाम जपते हुए खरामां-खरामां भवसागर पार कर जाते हैं! भवसागर पार करने के दिनों में ही भाद्रपद का अद्भुत पर्व मनाया जाता है! इधर आसमान से गणेश जी का सूंढ़ लटकता है और उधर भूलोक पर यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरे देवी- देवताओं का जागरण काल शुरू हो जाता है...। सिद्धेश्वर- कामेश्वर-महेश्वर- सबके लिए ! आखों पर पट्टी बाँधे टगते-दुगरते बच्चे... और पीछे-पीछे हुल मारते मास्टर। मास्टर कौन... लंगड़ा गुरुजी? बेवकूफी वाली बात! मास्टर कभी लंगड़ा-बताह होता है! मास्टर माने मालिक, मालिक माने सुरपति, जगतपति, भाव-अर्थः भूपति- यानी सारे पति एक ही समान ! निर्वृद्धि, अकिंचन और अखमुंदे जीव-जंतुओं के बीच शुरू होता है गणेश उत्सव का भव्य आयोजन ! " कमूनेटी हाल से सिरकिट हाउस तक लैट ही लेट ! पचास सौ हजार पावर से लेके मरकरी और भेपुर लैट तक सब कुछ!" चकचंदा, मंत्रोच्चार समस्त वातावरण में हवा-बतास की तरह व्याप जाता है। "बउआ रे बउआ!" "लाल लाल ढऊआ !" "बऊआ के अंखिया खोलाहीं न मझ्या" "बऊआ के अंखिया खोलाही न दड्या" बऊआ की आँखें खोलने के लिए व्यग्र मास्टर ! लेकिन मइया-वप्पा-दइया और फुआ में से किसी का मन नहीं पसीजता। बैकवर्ड ! सबके सब गोरखिया के
वंशज हैं। कोई नहीं समझता कि बबुआ के नेत्रों में, उसके आंतरिक प्रकोष्ठ में प्रकाश का अवगाहन अनिवार्य है। बबुआ देश की रीढ़ है। उसके कारण देवी देवता सब चिंतित हैं। मगर आदमी ससुरे के पास ज्ञान-विवेक कहाँ... वह तो मुट्ठीभर सतुआ के लिए हाथ जोड़े फिर रहा है। उसको क्या फिक्र कि अध्यात्म और देश भक्ति को कम्प्यूटर की गति चाहिए, सो मनुष्य मात्र का जरूरी कर्म है कि एक हाथ से दान दे और दूसरे हाथ से बबुआ के लिए दृष्टि ग्रहण करे। हाथ से नहीं हो तो अन्तर्मन से ले, लेकिन ले और सक्रिय रूप से त्याग करे... समष्टि के लिए, समुदाय के लिए, देश के लिए, देवी-देवताओं के लिए... और नहीं समझ में आता हो तो समझिए, कि सिद्धेश्वर जी के लिए... रामेश्वर जी के लिए !
"मालिक बाबू!" "हो सरकार!" कोई जवाब नहीं आता। विभिन्न तरह के संबोधनों का इस्तेमाल करते हुए टिरियाता रहता है नकुआ। लेकिन फाटक के अंदर नहीं आता है। जब तक उधर से जवाब नहीं आए, कौन घुसे बाघ की गुफा में! 'मिटिन' चल रही है- नैन घरैना के सदस्यों की गुप्त सभा। बीच में कोई टुभुक (व्यवधान डालना) नहीं सकता। ज्यादा अचक-भचक किया तो सीधा जवाब आएगा, "कोटाही भाय ! किसकी माँ बिआई है रे!" कोटाही भाय माने सहोदर, चचेरा या और किसी तरह का भाई ? नहीं गाली! और माँ के द्वारा संतानोत्पत्ति की बात भी ! यह सब नैन घरेना के लोगों की मरूसी गाली है। जायदाद की तरह? हाँ, संपत्ति में ताकत भी शामिल है। ....गणेश-उत्सव के दौरान नैन घरैना में अफरा-तफरी का आलम स्वाभाविक प्रक्रिया है। सिद्धू सिंह नैन घरैना के 'नींव के पत्थर' हैं किंग मेकर, इसलिए सबसे पहले सिद्धू सिंह के घर हंडावती जलती है। "बंठा रे!" बंठा खेत-बघार लांघता हुआ हाजिर होता है, लकवा कबूतर की तरह।
"सरकार!" "मिरचिया मिसिर को बुला।" बंठा हुरहुरवा सांप की तरह भागता है और जितनी तेजी के साथ जाता है, उतनी ही तेजी के साथ वापस आता है। "सरकार ! ऊ तो मुखमंत्री के साथ..." अधूरी बात बोलकर बंठा सिद्धू सिंह की भाव-मुद्रा परखने की कोशिश करता है। अभी तक सहज है! तिरछी नजरों से देखकर हुलहुलाते हैं, "कहाँ? किसके साथ?" "कनटेटा पहाड़ पर... मुखमंत्री के साथ..." "साला झुठ्ठा है, उसका बाप-दादा झुट्ठा है। फुलवा पासिन के यहाँ देख।" इस बार बंठा हनुमान-मुद्रा अख्तियार करके जाता है और संजीवनी बूटी वाला पहाड़ कंधे पर लादकर लौटता है। "सरकार ! ई तो नीशा में भुत्त है..." "खबरदार! मुखमंत्री जी... हमको अनारकली का कजरौटा मत समझिए। हम दू मिनट में पानी में आग लगा सकते हैं..." मिरचड्या सपने में औल-वौल (अंट-शंट) बकता है। "बंठा! पानी डाल मुड़ी पर।" दस मिनट में मिरचड्या मिसिर होश में आ जाता है। फिर कृष्ण-अर्जुन संवाद शुरू हो जाता है- "लंकादहन हो गया और आपका अखबार में एक ठो लुत्ती (चिंगारी) तक नहीं दिखा..." "सिंह कका ! हैं हैं हैं! बिना लकड़ी के तो आदमी का ठठरी भी नहीं..." "कौन कलाली का पास चाहिए?" हँसते हैं सिद्धू सिंह। "बस, फुलवा पासिन !"
"ठेक है!" ठेक है... माने कल से अखबार में बाढ़ का कीर्तन-भजन शुरू। बातों के केन्द्र में सिहू सिंह का बाढ़ सहायता केन्द्र ! 'परपस' आसानी से मिल जाए। सरकारी सहायता ! सरकारी माने, जो पैसा आसानी से मिल जाए|
सभा से दो आदमी उठकर खड़े होते हैं। विदाई लेकर फाटक पर आते हैं। खर- पतवार की तरह कंपनी हुई एक आकृति को देखते हैं, फिर कंधे उचकाकर निकल जाते हैं। नकुआ एक बार फिर हिम्मत बांधकर पुकारता है- "हुजूर सरकार!"... गणेश उत्सव के दौरान एकबारगी कई आश्रमों में फकाफक हंडाबत्ती जल जाती है- "एरे, भुलेटना! पटना जाके विधयकवा को बुला ला।" "धोती-साड़ी आ गया? आ लुटकुन सिंह ! ऊ का धनबाद में पिंडा पार रहे हैं!" "खबरदार ! सेठ सुखाड़ीमल को कोई इस इलाके में टपने नहीं दे।" " पूछते हैं काहे? ऊ साला रतनवा का दलाल है।" "एमपिया के डिल्ली खबर किए हो माधो का?" "एकदम आ फारे-फार लिख दिया कि तुमरा सब कन्टीटेटर (कम्पीटिटर) रासरतन, रामेश्वर, रामाधार - सब एलाका में टोटकाबाजी कर रहे हैं।" अगली शाम विधायक जी 'नहर डिपाट' के ओसारे में धरना पर बैठ जाते हैं- एसडियो साला चोर है। फिर फर्तिगों की भुन-भुनाहट हर दुकान और हाट में फैल जाती- विधयकवा नहर एसडियो को नाथ दीहिस ! ठेकेदारों के अमला-फैला शरवत-पानी ढोने में लग जाते। गुणी-ओझा लोग इधर-उधर मंत्र मारते चलते । और इससे पहले कि मंत्री अलाना सिंह, सांसद फलाना सिंह और बगल के पड़ोसी
विधायक चिलाना सिंह पहुँचे, विधायक ठेकाना सिंह नींबू पानी पीकर धरना- बैठकी तोड़ देते। पार्टी के शुभ चिंतक पूछते "फिनिश?" विधायक जी फॉफी की तरह बजते "एसडियो कर्मठ आदमी है।" सत्यनारायण भगवान की पूजा ऐन उसी क्षण शुरू हो जाती- -जजमान हुमाद डालिए। - डाल दिया। बीडियो साला... स्वाहा ! सी.ओ.चोर... -स्वाहा ! -थानेदार... -स्वाहा ! ओऽम शान्ति के जाप के साथ उद्घोषणा होती- "चलो लालनपुर के डाकबंगला!" वहाँ क्या हो रहा है? मानव सेवा के सिवा और क्या ! रात गए... बाढ़ पीड़ितों की सहायता के लिए सांस्कृतिक समारोह शुरू हो जाता- आग लगे, बज्जर पड़े- राजा के महलिया हम ना जइबे हो! चारों तरफ से पचास-सौ-हजार पॉवर के लैट चीत्कार कर उठते- आ जा, ऐ इलैचीदाना... हमरे ओर हमरे ओर ! ऑफिसर, ठीकेदार, पार्टी मेम्बर, जनता
के प्रतिनिधि सब उत्फुल्ल स्वर में गुहार लगाते- "आ-जाओ प्यारी नायिका... हमारे घर बास करो... ए दहाड़-सुन्नरी..." बण्ड आश्रम के राम भज्जू सिंह हाथी का हिसाब लगाते हुए कहते- पांच हाथी से क्या होगा? और ऐसा गिंजटामन (गन्दा)... अकलोल-बकलोल (बेढुंगा)! नेता लोग को का समझ रखा है- चमरूआ डमरूआ ! चिक्कन (चिकना) हाथी लाओ! हाथियों की लिस्ट बनने लगती सोहना, साधो चमार का बेटा, उमिर- बारह बरिस, रंग गोरा, शक्ल हेमा मालिनी...! राम भज्जू सिंह खाँखियाकर दौड़ते-एसपेसल इन्तजाम चाहिए ! रथयात्रा... लांच-नाव-जहाज... देवी-देवताओं का जागरण काल शंख नाद... गणेश उत्सव में सब कुछ स्पेशल चाहिए... तू-ऊ-ऊ-ऊ-ऊ!... राजा के महलिया हम ना जाइबे हो... आ जाओ, प्यारी नायिका ! हमरो घर वास करो... ऐ दहाड़-सुन्नरी...
दहाड़-सुन्नरी... सुन्नरी... नायिका टुरी ! पुटुस के फूलों की महक से नकुआ का मन भर उठता है। चन्द तरह की स्मृतियां... जैसे आंगन में पड़ा हुआ बिस्तरा शीत से भीग रहा हो। तकिए के नीचे दुख-दर्द से छुटकारे के लिए रखी हुई फकीरी ताबीज यानी दुरी। भक् सलौनी पूर्णमासी की रात। वग-वग करती रोशनी की दुनिया और टेस रक्तपलाश के फूल ! मन में दप-दप करता हुआ अंगारा और बाहर 'इन्द्रलोक', उजास, सपने और महक का माहौल। बैलगाड़ी... देह पर तेल मालिश करती फुलुक हथेलियों जैसी सुवुक चाल से चलती। शंखा नदी। बच्चों की हथेलियों वाले भोंपू से उच्चारित होता प्राकृतिक मंत्र-जंगल ! जंगल का उन्मादित हुलास-माघी मेला। वंबई-
उड़ीसा रोड पर धीरे-धीरे एक जगह से दूसरी जगह की ओर सरकता हुआ। तोरपा, तपकरा, जरिया, डोंडवा, कर्रामरचा! बालों के जड़े में शाल-फूल । कपड़- घर में चलता हुआ सलीमा - आन मिलो सजना... उमगती हुई शीत बयार... कल मिलो या परसों... आधी रात को... वर्जनाओं की सीमा तोड़ता आवेग... "की रे, बोला- आधीरात को ?" "छी रे, जुन !" हंडिया, मदिर परस और सीत्कार ! ऐसे ही दिनों में मिली थी टुरी, फोटोग्राफर की दुकान पर। एक झुण्ड कटहरी चम्पा और एक अदद भकुआ लड़का। ओठों पर फिफरी, चेहरा जर्द... पाकिट काट लीहिस कोई ! तब्ब? उसी दुकान में नौकर था नकुआ। फोटोग्राफर था असली बनाठ (लण्ठ) दिकू! कमजोर नब्ज की चाल पकड़ के बोली- ठोली कसने लगा, " मोर संग दोस्ती नी कोरबे !... की रे, आज रात आवे !" नकुआ ने सुना। लड़के को इशारा किया। फिर दुकान से उतर कर आड़ में गया। पाजामा के नेफे से जल्दी-जल्दी दस रुपया निकालकर पकड़ा दिया, "कल आना नी तो दे जाना!" लड़का घोर संकट से उबर गया। दो क्षणों के लिए आश्चर्यचकित हो उसे देखता रहा। फिर सिर उठाकर दुकान की ओर बढ़ गया। और अगले दिन तो न्यौतकर गाँव ले गया। कैसी आवभगत हे भगवान ! टुरी ने ही पैर धोए थे। मुर्गा-भात और ढेर सारे हंडिया पीकर उसकी आत्मा रुई के गाले की तरह उड़ने लगी थी। पुआल पर तो साली काठ की टटरी पड़ी हुई थी। टुक-टुक निहारती आँखों ने रात के जाने किस वक्त देखा था वह अपरूप-मायावी सौन्दर्य-लीला ! शंखा नदी की तरह हर-हर बहती हुई केश राशि... सांवली सलोनी कामाख्या... दीवाल-जड़े आईने में मुस्कुराती सतरूपा जादूगरनी...वक संकेत... मंत्र जाप... और जाने कब कितनी कौड़ियाँ चिपकाए सुध-बुधहीन सर्प काया उसके पीछे-पीछे बाहर निकल गई थी। निचाट खेत, मेड, राह-बाट और जंगल लांघती भागती रही थी। जब थकान आई थी... रात का तीसरा पहर शुरू
हो गया था। हांफती हुई श्वांस राशि पछाड़ खाकर शंखा नदी की सीढ़ियों पर ढेर हो गई थी, "मोर संग लगन कोरवे ?" लगन ! ... तोरपा, तपकरा, जरिया, डॉडवा, कर्रामरचा। मेला भागता चला गया। समय के कपड़-घर में चलता रहा सलीमा... आन मिलो सजना... उमगती हुई शीत-बयार... कल मिलो या परसों...
"की रे, की बोला... आधी रात को?" "छी रे जुन !" हंडिया, मदिर-परस और सीत्कार ! नहीं, कुछ नहीं... सब स्वप्न मात्र ! सलीमा था सब। असली थी एक फटी-फटी आवाज, "की रे, नौकरी कोरवे ? चाय बगान आसाम में?" रात का आखिरी पहर... सियारों का रुदन... फिफरी पड़े ओठ । ओठ पर एक बूंद ओस टपका... कलीम मियां का मेटाडोर... काठ की ठठरियों से भर गया। नकुआ भी उसी में था। तीन साल का काण्ट्रेक्ट... अंतड़ियों में एक सपना सूखे हुए भात की तरह खिदबिदाया- "मोर संग लगन कोरबे ?" शंखा नदी का पानी बहता रहा दिन-मास-रात-पहर-छः महीने-साल ! फिफरी पड़े ओठ पर ओस की बूंदें टपकती रहीं... रक्त, पसीने और भूख का समुद्र खौलता रहा...बाबू, करमा, शनिचरा और असंख्य ठठरियां माघ-मेले की दुनिया छोड़कर आती रहीं... देवरा आया तपकरा से तो सपने की खबर लेकर, "दुरी का वियाह हो गया... सोमरा के पास बहुते जमीन-जजात है... दस बीघा धनखेती, बगान, घर- सब कुछ...दुरी बहुत सुखी है... सोमरा अधर्वस है तो उससे क्या हुआ..." नहीं उससे क्या हुआ... सुख क्या इस भूतखापड़ चाय बगान में मिलता... एक टैम खाना खाने वाले नकुआ के साथ।
टुरी का भाई हुलसकर एक पहेली गाता था- अस्सी कोस का पोखरा, चौरासी कोस का घाट - बज्जर पड़े उस पोखरे पे, पंछी प्यासा जाए। नकुआ की स्मृति में जब-जब शंखा नदी लहराती, उसे यह पहेली तलुवों से चिपकी हुई महसूस होती। समय की यात्रा, तलुवे और दरार भरी पहेली...उस पहेली के कारण ही ठठरियों का आवागमन तेज हो गया। फिफरी पड़े ओठों ने बुदबुदा कर बताया मानुस खाँका अकाल पड़ा है रक्तपल्लव की दुनिया में। भूख की मार से जंगल-देवता के दांत पीले पड़े गए हैं। विरसा आया तो लगे सपने का हाल-चाल बताने, "दुरी का मरद मर गया... दुरी के गोतिया जमीन हड़पने के लिए कुचक रच रहे हैं... पंचायत, दस जनों की गवाही, लांछना...कि दुरी को कोई हक नहीं सोमरा की जायदाद पर... उसने मरा हुआ बच्चा जना है, पिछले भादों में... मरद की मौत के ऐन ग्यारह माह बाद... प्यार करने वाला गैर मर्द भी गवाही में खड़ा हो गया..." नकुआ का दिमाग घनघनाने लगा था... अस्सी कोस का पोखरा, चौरासी कोस का घाट! फिर महसूस हुआ था कि जंगल की पीड़ा एक पहेली के कोटर से झर-झराकर वह रही है। फिर एकबारगी जैसे जमीन फट गई... ज्वालामुखी का लावा कलेजे पर छार दूह लादने लगा। कोई मृत आत्मा ठठा- ठठाकर पहेली का अर्थ बताने लगी थी "ओस-ओस-ओस!"
"मालिक हुजूर!" स्मृतियों में फैसी हुई आत्मा एकबारगी अकबका कर चिल्लाती है। कतई यह नकुआ नहीं है- काठ की खोखली ठठरी ! फाटक खोलकर दो आदमी बाहर आते हैं। उसकी ओर देखते हैं। फिर भेदने वाली ऊँची आवाज के लिए क्रोध प्रदर्शित करते हुए कहते हैं, "चोप्प साला! मुंह है कि बांस..." "सरकार!" नकुआ दोनों हाथ जोड़कर माफी मांगता है। फिर एक ओर घुटनों में सिर रोपकर बैठ रहता है या जंगल की छाती में सकरकन्द की तरह गुम हो जाता है...
... बहुत दिनों तक आसाम में नहीं रह पाया था नकुआ। बीमार रहने लगा था। काम से भी हटा दिया मालिक ने। हाथ में एकत्रित जमा पूंजी से इलाज करवाता रहा। फिर जोधन सिंह नाम के आदमी के साथ खूंटी चला आया। जोधन सिंह मुकदमा लड़ने का ठीका लेते थे। खासकर जमीन-जायदाद का ! कागज-पत्तर देखने के बाद पार्टी से मुकदमा लड़ने का एकमुश्त खर्च ले लेते थे। जैसा मुकदमा, वैसा खर्च ! खूंटी से लेकर रांची और जाने कहाँ- कहाँ के मुकदमे। पटना से लेकर कलकत्ता की अदालत तक! नकुआ को तीस रुपया महीना, खाना-पीना और कपड़ा लत्ता देते थे। काम? घर में सेवा-टहल के साथ, गाँव से पार्टी को बुलाने का जिम्मा! वैसी ही किसी पार्टी को बुलाने जा रहा था नकुआ तो जीवित सपने से साक्षात्कार हो गया था। रतिरूपा जादूगरनी की भटकती प्रेतकाया! कौन कहता उसे दुरी ! शंखा नदी के पास वाले जंगल में विवस्त्र और निश्चेत पड़ी, देह पर लाठी-पैने की मार के असंख्य दाग! माघ मेले के उजड़ने का वक्त। समतल असमतल, डीह-पोखरा, गढ़ा-गढ़ी- सर्वत्र पत्रहीन हो गई पलाश-देह। चारों ओर फूल, टहक और टेस उन्माद ! जमीन पर पांव पड़े तो लगे कि पैरों से अन्तरात्म तक फूल ही फूल समा गया हो। निरन्ध्र आबोहवा में झुरझुरी लेकर जागती और एकबारगी आसमान की ऊँचाई तक उड़ जाने वाली धूल-राशि ! रात की कोख में अभी नींद और अंधकार की शिशुकाया जिन्दा थी... आसपास के मांस-मज्जा पर लात चलाती हुई। ऐसे मायावी माहौल और प्रहर में लात से छुआ गई थी रक्त पलाश की देह ! झुक कर छुआ था- सांस शेष है। चेहरे पर टार्च की रोशनी डालकर देखा था। फिर एकबारगी अंतःप्रान्त में तेज विप्लवी हाहाकार समा गया था- मोर संग लगन कोरवे? ...लगन ! नहीं, कहीं नहीं थी बग-बग चांदनी, हंडिया और मदिर परस ! माघ मेले की दुकानें उजड़ गई थीं। कपड़-घर में चलने वाला सलीमा निर्जीव हो गया था।
एक उन्मादी लय में बजता हुआ सीत्कार रक्त से लथपथ पड़ा था। नकुंआ की देह से चिपकी हुई सांवली कामाख्या अस्फुट स्वर में यातना की गाथा कहने लगी थी" सबने लंगा किया... चार गांव की भीड़ के सामने... डयनी कहा... पत्थर लाठी से मारा..." अस्सी कोस का पोखरा, चौरासी कोस का घाट- सब हड़प लिया भूमिखोरो ने। शेष रहा गया फिफरी पड़े ओठों पर ओस। बज्जर पड़े इस पोखरे पे... लेकिन नहीं, इस बार प्यासे पंछी ने हार नहीं मानी। नकुआ ने उसे आत्मा से निवद्ध कर लिया, और चौरासी कोस की यात्रा पर निकल गया खूंटी, डोंडवा, कर्रामरचा- लालटेनगंज, फिर गया !
दे हे रे, ससुरा?" गढ़ी का फाटक चरचराता है। नकुआ सावधान मुद्रा में एक ओर खड़ा हो जाता है। ढेर सारी स्थूल काया बाहर आती है- देव-देवता, आदि महादेव ! फिर सिद्धेश्वर सिंह का साक्षात रूप सम्मुख आ विराजता है। "सलाम मालिक!" नकुआ दोनों हाथ जोड़कर वंदना करता है। सिद्धेश्वर सिंह कंधे पर हाथ रखते हैं, हँसते हैं, "ओ, नकुआ भूतखापड़ है!" "जी, सरकार!" सिद्धि सिंह उसे एकान्त कोने में ले जाते हैं, फिर विना कुछ जाने-पूछे समझाने लगते हैं- "बहुत अंदर की खबर है... पार्टी घर से चल चुकी है- बस स्टैंड पर गिरने ही बाली होगी-एकदम होना चाहिए ई काम... कैसे चीन्हेगा? बताता हूँ..." सिद्धि सिंह उसके दिमाग में सारी बातें जमाते हैं। फिर तेज चाल से घर के अन्दर चले जाते हैं। अब शेष रह जाता है- आसपास नीरव अंधकार और भूतखापड़ नकुआ। दिमाग को स्थिर करने के लिए बीड़ी जलाता है, कश लेता है, फिर मद्धिम चाल से अंतहीन गुफा में चल पड़ता है- हिलता-डुलता और गाता
हुआ। साथ में चलती है कहानी-कथा बांचने वाली स्मृतियों की प्रेतकाया और नैन घरैना के आदि देवता- दोनों एक साथ ! नैन घरैना ! "दी वीजन ऑफ रूरल इंडिया ! द ग्रेट घरैना विच कैन इनलाइटेन व पुअर बैकवर्ड विलेजेज !" यहीं है वे शब्द, जो अंग्रेज अफसर इंकन ने नैन घरेना के बारे में लिखा है- और कहीं नहीं, सीधा-सीधा गजेटियर में। पिछले चालीस सालों में सूर कीरतदास खंजड़ी बजाकर उसी घराने की महिमा गाता है- और सभे घर ढोल-ढोलइया बंगाली घर, नटुआ-सतुआ एक्के घर असली मिरदंगिया जपो रे भइया, नैन घरैना का परताप ! सतुआ-घर में बड़े-बड़े हाकिम-हुक्का हुए हैं। लेकिन कैसे ? सतुआ खा- खाकर, अंतड़ी सुखाकर। नटुआ-घर में बहुत संपत्ति है... अकेले गजाधर सिंह की ही तीस बसें चलती हैं। दस ठो बस ऐसी, जिसमें पाखाना-पेशाब और गुसल-सब साथे-साथ करते चलिए। लेकिन ससुरे घर का हाल ! मत पूछिए, रोज नट-नटिन का खेला चलता है। घटवार-घर के श्रीकांत सिंह सौ के नोट में पाउच भरके पीते हैं। लेकिन उससे क्या, संस्कार कहाँ से लाएंगे... कहलाएंगे तो मल्लाह, जिसकी देह से सड़ी हुई मछली की वास आती हैं। बंगाली-घर की महीनी ऐसी है कि पेड़ा भी छीलकर खाते हैं। सब खानदान में एक से एक मजिस्ट्रेट, जज, कलट्टर ! मुदा उससे क्या, राजा हो जाएंगे ! छबीला सिंह उन्हीं के खानदान में हुए थे, जो विधवा बहन को डलिया लगाते-लगाते सिपाही से कप्तान हो गए। रांव इतना चढ़ा कि वमताहा (पागल) होकर नैन घरैना से उलझ गए। लेकिन हश्र क्या हुआ... यही समझिए कि इतिहास हो गया। घर पर हल चलाके 'कोदो बुनवा' (एक प्रकार का अनाज बोना) दिया नैन घरैना के रूदल सिंह ने। इसलिए तो सूरदास गाता है, 'भाग भवानी रूदल आए, जामे प्रजापति का वास!' जब भवानी
का हाल ऐसा हुआ, तो भइया मानुष जात की क्या विसात ! सो चाहेत जितनी सम्पत्ति, विवेक-बुद्धि हो किसी घर में, लेकिन सब नैन घरेना के अनुयायी हैं। और ऐसा क्या आज ही हो रहा है? परबाबा धरनीधर सिंह नैन घरैना स्टेट के मालिक थे। बाबा भुवनसिंह को मिला था राय बहादुर का खिताब ! एडमिनिस्ट्रेशन, सरकार, अनुशासन, शासन सब उनके खून में था। नाती सुखदेव सिंह क्रांतिकारी हो गए तो खुद से पकड़ के उसे फांसी पर चढ़ा दिया। आजादी मिली तो बाजिव था कि नैन घरैना में कांग्रेस की आत्मा आ बसती। काहे नहीं वसती ! चढ़ती जवानी में सुखदेव सिंह ने मातृभूमि के लिए अपनी शहादत दी थी। और था वह किस घरैना का? सो जमींदारी जाने के बाद भी उनका वही बोल-बाला रहा। अमर शहीद सुखदेव की स्मृति में भूधर सिंह को मिनिस्टर बना दिया जनता ने।... विखंडन सब घरों की तरह इस घरैना में भी हुआ, यह सर्वमान्य तथ्य है। लेकिन वह सव छोड़ दीजिए और परिणाम देखिए। नक्षत्र सिंह धनबाद से, वीरेश्वर सिंह मोतीहारी से, जगेश्वर सिंह पलामू से तो परमधन सिंह गया से विधायक हुए। दो कैबिनेट मिनिस्टर, एक सेन्टर में मिनिस्टर... और चेयरमैन- डायरेक्टर का पद तो समझिए... नैन घरैना के लिए फूंकी-वतासा है। पानी असली पानी है, तो विखरेगा। बिखरेगा नहीं तो पोखरा वनके भरेगा। और विखर गया तो समझिए कि सिद्धान्त मुताविक अपनी सतह ढूंढ़ ही लेगा। आखिर कहेंगे लोग कैसे कि बप्पा रे, फल्गू कहाँ से कहाँ तक पसरी है! सो जितनी प्राचीन विराट और महिमामयी है फल्गू उतनी ही नैन घरैना भी! जो सम्मुख है, वह सत्य है। जो सत्य है ही, उसे खोदने के लिए सतह तक जाने की क्या आवश्यकता। बुद्ध कहलाना है, पट देवर (तुरन्त) लोग पूछ देते हैं 'नैन घरैना को नहीं जानते?हा- हा-हा! कौन कन्ट्री में रहते हैं....!"
एकदम कुच-कुचाह सन्नाटा, जैसे पूरी देह कुचलकर चला गया हो कोई विप्लब ! देह किसकी... सिवाय प्रकृति की, और किसकी ! यह कौन जा रहा है, ऊँची सड़के से? नकुआ आंख मिचमिचाकर देखता है, फिर पहचानता है- फूलगेनिया ! बाबू सिद्धेश्वर सिंह के चच्चा राज-राजेश्वर सिंह के पास जा रही होगी। और कहाँ
जाएगी। यह ऊँची सड़क सिर्फ गढ़ी की ओर जाती है। बाल-बच्चों को सुलाकर निकल रही होगी। नहीं जाएगी तो राजेश्वर सिंह गाते-गाते कैसे सोएंगे- भोर भेलऊ हे धानी, भिनसरवा होलऊ गे लाहीं ना मुरेठवा, हम कलकतवा जइबऊ गे! उठो, हे प्यारी धानी। भोर हो गई है... भिनसार, प्रातः फजीर ! हमारी पगड़ी देना, हम कलकत्ता जाएंगे ! कलकत्ता जाए फुलगेनिया का' सोहर', राजेश्वर सिंह को कौन कमी है। नहीं गया होता वह, तो बेचारी बुढ़ऊ के ढेंका में फंसती... असली गेंदा फूल होके भी! और भोर-भिनसार ? रामेश्वर सिंह के लिए तो अधरात में भी सूरज उगता है। मगर छोटका जात के लिए कब हुआ फजीर...! हे भगवान, कैसा क्रूर-मायावी अंधकार छितराया हुआ है। सिर्फ वंड आश्रम में फुकफुकवा बत्ती जल रही है... राम भज्जू सिंह का साथी मोहना दुसाध पम्प मारते-मारते दरी पर सो गया है... का पता, कब इमरजेंसी में किसका कॉल' आ जाए... इन्दर सभा से नेता-परधान लोग विना भोग-भात के लौट जाएंगे! ...और यह चली देमंती नाउन ! राम पियारे सिंह का वराहिल टुनुक सिंह कल फिर सबेरे-सवेरे राम भजन के बखत घुघ्घी हिलाकर कीर्तन करेगा- "विना भंटा खाये तो हमारे आँख का पुतरिए नहीं झंपाता!" भंटा माने देमंती नाउन का 'अथी' ... टुनुक सिंह के मुताविक, उस नंबर का तो चेस्टर ही नहीं बनता।... और आँख की पुतरी झंपाना माने नींद आना! वैसे भूखा-नंगा सोकर क्या करेगा... नींद तो राजा रजवाड़ों की वस्तु है... बेचारा वेंगुची और नकुआ सोयेगा तो प्रजातंत्र चलेगा। अधमुंदी पुतरी को जबर्दस्ती उघार कर देखता है नकुआ...हे, ई कौन जा रही है? मुंगेसरी ? नहीं। धनपतिया ? नहीं! स्वर्गीय हवलदार हेठा सिंह की विधवा मानमती? नहीं! पनसोखा मिसिराइन ? चौप्प ! ई कोन बैठ गया आके गान्ही जी के चबूतरा पर? दुरी है...! बेचारा नकुआ! पुतरियों से ढलक गए आंसू पोंछता है। कैसा सपना हो गई दुरी। जागे-बैठे समा जाती है पुतरी में। फिर होश आता है तो ओस बनके ढरक जाती है... फिफरी पड़े ओठ पर।
अस्सी कोस का पोखरा... चौरासी कोस का घाट... कब बुझाया है ऐसे पोखरे ने आदमी-अदमजात की प्यास ! कितना समझाया था दुरी को, वहाँ जमीन-जायदाद का खयाल छोड़ दे। जो आँख से ओझल हुआ, वह सपना हुआ। मुदा कहाँ मानती थी। देह पर इतने दाग लेके भी फिर से लड़ने की इच्छा पालती थी। लेके बैठ जाती थी हरबखत वही किस्सा ! नकुआ रोटी कमाता कि किस्सा सुनता ! सो वह नहीं सुनने लगा तो डेढ़ अंक्खा सिपाही जीवराखन सिंह को सुनाने लगी जाकर। फिर पता नहीं जीवराखन सिंह ने क्या दिलासा दिया और क्या पट्टी पढ़ाया कि खुद किताबों वाले किस्से की तरह गुम हो गई... चली गई उसके साथ छपरा... या रति-रूपा जादूगरनी की तरह अलोप हो गई !
लहंगा बिक गयो... लुगरा बिक गयो... निविड़ अंधकार में गीत की आवाज अब पास आती जा रही है। बेंगुची दोनों हथेलियों के जरिए भोंपू जैसा बनाता है। फिर भरपूर ताकत से गुहार लगाता है, " नकुआ है रे!" दूसरी ओर से भी वैसी ही आवाज हवा की पांखी लगाकर उड़ती हुई आती है, "हो...!" बेंगुची जोर से उसांस लेकर पुनः गुड़मुड़िया जाता है... इस बार लगन में बेटी को ब्याह देगा... तीन साल से सपर रहा है... लेकिन कोई जुगाड़ नहीं बैठता... मुदा इस बार नहीं, सब काम छोड़ के भी कन्यादान कर देगा... "हो!" एकाएक नकुआ पास आके खड़ा हो जाता है। बेंगुची अदबदाकर पूछ बैठता है, "की कहलकऊ मालिक?" "बोला, रास्ता किलियर है।" नकुआ बुड़बुड़ाता है। सांस की थरथरी आवाज में साफ सुनाई देती है... जो न करे ई फल्गू ! "आ वांट-बखरा के हिसाब ?" "अपने से कहे कि आधे-आध..." "काँची ?" "जो कहे सो कह तऽ दिए!"
चुप्पी। दोनों बजते हुए दांत को वश में करने की कोशिश करते हैं। व्यर्थ, परिणामहीन प्रयास ! नकुआ कान पर पड़ी बीड़ी उतारकर जलाता है। "औरतिया को देखा बसइस्टैंडवा पर?" "हाँ, सुन्नर हय!" झूठ... असली बतवनवा है नकुआ। "दुर ससुरा ! पूछते हैं आयं तऽ बताता है टायं!" उसके हाथ से जबर्दस्ती बीड़ी का टुकड़ा लेकर कश लेला है बेंगुची। फिर अपनी बात को स्पष्ट करने की कोशिश में बुदबुदाता है, "हम पूछते हैं, उसका साधे भी कोय हय?" "नय तो कहलियो!" नकुआ पता नहीं किस उधेड़बुन में फंसा है। उसकी बातों में तेज अन्यमनस्कता का भाव काँधता है। "आ गहना-पाती?" "देहे पर होगा आऊ कहाँ!" फिर गुल्ली मार गया नकुआ... रात के बखत कौन औरत देह पर गहना पहनके चलेगी। "केतना!" "ढेर मनी!" फिर टालने वाला अंदाज। अंगुली को जलाती हुई बीड़ी झटके के साथ फेंकता है बेंगुची। फिर थोड़ा सा पास आ जाता है टगरकर, "नइहर से ससुरार जाइत है?" "नय!" "तब कौन बात हय?" "खरीदल कनिया हे भानू सिंह के... गहना-गुरिया लेके भागल जाइत है।" अपनी आवाज का सारा माधुर्य एक बिन्दु पर संचयित कर बेंगुची नकुआ को फुसलाता है, "सिद्धि सिंह आऊ की कहलकऊ?" " कहतो कि... कहलको डर भय के कोनो बात नय है (कहेगा क्या, बोला- डर-भय की कोई बात नहीं)। कौन आयेगा केस-मुकदमा करने।" नकुआ कहते-
कहते मुंह फेर लेता है। फिर जैसे चौरासी कोस वाले पोखरे को सम्बोधित करते हुए कहता है, " हम तनी घरे जा रहे हैं!"
अगले दिन- अलस्सुबह, जब आसमान किसी गढ़ी के फाटक की तरह चर्र-चर्र की आवाज करते हुए खुल रहा होता है, मल्लाह टोली में एकबारगी हाहाकार मच जाता है, " हम नय बप्पा... हम कुच्छो नय किए, हो मीरा !" गोदाल (शोर) की आवाज टोले के एक छोर से शुरू होती है, फिर घटते- बढ़ते बेंगुची के झोपड़े तक आकर जम जाती है। वेंगुची ताड़ का ढढ्ढर (पर्दा) हटाकर लुप-लुप आँखों से जरा सा झांकता ही है कि विप्लवी हाहाकार उसके हाथ और कंठ- सबको एक साथ दबोच लेता है, "आही हो बाप... जान गेलऊ गे मइया।" आरोह का कटिभाग! फिर शिरोभाग। फिर सुषुम्ना को सहलाते हुए जब हाहाकार का स्वर घुटनों तक आता है तो पता लगता है कि ई तो दरोगा साहेब और सिद्धि मालिक हैं। आसपास टोले की भीड़ और 'गिरफ्तार' लोग। दरोगा जी बेत को आराम देते हुए सिद्धि सिंह से कहते हैं, "रण्डी के भतार को बताइए कि ऊ आपकी कीन लगती है... जिसका गहनवां लूटा है ई।" "नजदीकी रिस्तेमन्द है और कौन... डांढ़-पात ऐसी पतुरिया के लिए बिलल्ला होते फिरेंगे!" बेंगुची के माथे पर जैसे हथगोला फटता है। गश्ती खाके धम् से जमीन पर बैठा रहता है वह। "आ ई भकचोंधरा?" नकुआ की ओर इशारा करके दरोगा जी पूछते हैं। "बरगाहीं सायं, दुन्नो हुड़ार-बिलाड़ है!" "कौन ची कहे?"
अब ज्यादा प्रताप सिद्धि सिंह से बर्दाश्त नहीं हो पाता... एकबारगी पनपनाकर बोलते हैं, " अब पकड़बो करिएगा सबको कि खाली बड़का हाकिम अइसा बयाने लीजिएगा!" दरोगा जी को अपनी औकात का भान होता है... कांच की गोली पर अंटे का वार... ठिसिआई हुई हँसी हँसकर रह जाते हैं। सिद्धि सिंह उनके कान के पास मुंह ले जाकर बुदबुदाते हैं, "इसी के लिए बुलाए थे आपको। आयं... पहले तलासी लेके सब मलवा निकालिए।" ... माल? आही हो बाप! बेंगुची को बेहोशी की हालत में भी कठमुरकी मार जाता है, रात भर में पृथ्वी गोल से टेढ़ी कैसे हो गई, हो डाक बाबा... कि सिद्धि सिंह की काया में दूसरी आत्मा का प्रवेश... दरोगा जी की बात दूसरी है। उनके पृथुल शरीर में बाढ़ का पानी समाया हुआ है। हनहनाते हुए झोपड़े के अंदर प्रविष्ट हो जाते हैं। पहले कोठला और खाली हांड़ी पर बूटों का प्रहार होता है। फिर काठ के बक्से पर जैसे बिजली टूटकर गिर पड़ती है। बक्स के ऊपर रखा छौअनिया आईना, टूटी हुई कंघी, सेन्दुर की पुड़िया... सब एक कोने से दूसरे कोने में उड़िया जाते हैं। छप्पर में अटका हुआ पंच रुपयवा मौर डण्डे की मार से नीचे आ रहता है- झर्राप-झप्प... दरोगा जी, आप ही पहिन लीजिए हमको... बाहर वही हाहाकारी आबोहवा । टोले के एक किनारे से दूसरे किनारे तक व्याप्त स्त्री कंठ का रुदन, जैसे भरथरी महाराज का बाजा बज रहा हो-ऐं-ऐं-ऐ-ऐ-! आघ घण्टा लग जाता है तलाशी लेने में! फिर दो-चार गेंदड़-गूदड़ और चो- चार माल कहलाने वाला पदार्थ लेकर बाहर आते हैं दरोगा जी। सिद्धि सिंह के कान के पास' हेयर- एड' की तरह लटक जाते हैं, "ऊ मलवा तो हइये नहीं है!" "हइये नहीं है!" सिद्धि सिंह चिनचिनाती आवाज में पूछते हैं। फिर 'सम' पर आकर आदेश देते हैं, "थनवा में ले चलिए... खुद्दे बाहर निकल आएगा गरभ से!" यानी पुरुष जाति द्वारा प्रसव ! अब जो हो, वहीं देखा जाएगा। दरोगा जी बेंगुची और नकुआ को रस्सी से बांधते हैं, फिर बधना बैल ऐसा हांककर ले चलते
हैं- हे-टीह-हाह- हाह! भाग्यहीन नकुआ- सुख-दुख का अर्थ भूल गया है, सो ऐसी स्थिति में भी मद्धिम आवाज में गाता हुआ चलता है, 'लहंगा बिक गयो... लुगरा बिक गयो' कंठ से आवाज ऐसी निकलती है जैसे टिन के पत्तर पर छेनी चल रही हो- रें-रें-ऐं-ऐं-...। गली। कटोरिया सरपनाह। डाक थाना। भगतिनिया मौजे। लोधा पुल। पुल के एक किनारे पर कांय-कांय करती हुई उड़ती है काक देवता की बारात ? दूसरे किनारे पर अमली नटिन का पगलवा छाँड़ा टिन के कटोरे पर ताल मार-मरकर गाता है, "बाबू दरोगा जी... कौने करनवा पियवा बाँधल जाय-" मरखण्ड बकरे की तरह दरोगा जी का माथा हवा में तन जाता है। सिद्धि सिंह आग की लुत्ती (चिंगारी) पर पानी का पटोटा डालते हुए कहते हैं, " बौराहा है, मरदे... आगे बढ़िए !" प्रकृतिस्थ हो बढ़ लेते हैं दरोगा जी। लेकिन आगे नहीं बढ़ता है कालखण्ड। बेंगुची के दृष्टिपथ पर कल की रात बाँस की चचरी-समान तन जाती है। फिर जाने किस किनारे से शतरूपा नायिका गुहार लगाती है- "पार जाना है, हो!" साही के कांटों की तरह बजता हुआ प्रहर सृष्टि के अंतिम छोर तक जाकर लौटती है प्रतिध्वनि हो...! बेंगुची अपनी ही देह पर चिकौटी काटकर देखता है। फिर दोनों कान उमेठकर गाल पर थप्पड़ मारता है। दर्द से चिलक उठती है त्वचा। नहीं, पूरे होश में है। फिर यह विभ्रम काहे ! मानुस काठी से चन्दन की गंध क्यों कर फूट रही है। सहारा देते हुए कंपते हैं उसके हाथ। अंतःप्रांत में प्रार्थना की अधूरी कड़ी दुहराती है- देवी मइया होइयें सहाय ! तलुवों के नीचे पानी की फुत्कार। महाप्रलय के आदि सर्ग का पाठ करती हुई हवा। जटिल यात्रा में उठते हुए भारी डग। एक कोना भूलोक... तिहाई कोना पाताल... चौथाई कोना देवलोक... और ऐन बीचोबीच आकाश मार्ग में पतंग की तरह सिहर उठती है नारी-काया... मुंह से प्रखर चीत्कार फूट पड़ती है, "आय बा, हम गिरे हो!" बेंगुची जैसे स्वप्न से जागता है। दोनों बाहों के बीच कसकर थाम लेता है रक्त पल्लव का पुंज। रेशे-रेशे में उमंग उठता है धूप का जंगल ! मांदर समान बजती है श्वांस- राशि- "धा-तिन्गो-धा-तिन्गो !" ठीक उसी वक्त जहन में आदि महादेव की तरह
अवतरित हो उठते हैं सिद्धि सिंह। तीसरे नेत्र से छूटते अग्निशर... मांस मज्जा को फाड़ते हुए अंदर तक प्रविष्ट होते हैं! "रे बेंगुचिया!" शोकांतक कराह में तब्दील हो उठती है प्राणवायु ! और एकबारगी आरोह पर चढ़ते मांदर के सुगण बोल छन्न से टूट जाते हैं, "गहनवां निकाल!" एक क्षण के लिए काठ हो जाता है समस्त सृष्टि खण्ड ! औरत के कण्ठ में गोंगिया के रह जाती है- भयार्त्त प्रकृति ! और अगले क्षणों में जो घटित होता है, उसकी अन्तर्व्यथा कौन समझेगा, हे कृष्ण मुरारी ! यह मायावी कुटिल संसार संवेदना के उस अंतःप्रांत को क्या जाने! पहले बेंगुची के कानों तक मद्धिम रुदन की आवाज पहुंचती है। फिर जैसे पुल का अर्द्धभाग धंस-धंसाकर नीचे जाने लगता है- पाताल लोक के उत्तप्त छोर तक। फिर जैसे सीता मइया का रूप धरकर वह शतरूपा नायिका करुण स्वर में प्रार्थना करने लगती है- - "हम दुरी हैं, हो!" इन वाक्य से हहर उठती है बेंगुची की आत्मा... दुरी है कि कोई मायावी शक्ति... कि स्वयं कामाख्या महारानी...? सचमुच की टुरी है, तो अब कहाँ जाती है? अगले ही क्षण करुण स्वरों वाली वह प्रार्थना अदम्य जिजीविषा के सुर में फूट पड़ती है- "हमको अपना जमीन पाना है, हो!" लहंगा बिक गयो... लुगरी बिक गयो... नकुआ ससुरे का इकलौता प्रलाप हवा के साथ सुर मिलाता है। आवेग के साथ हरहरा उठती है बेंगुची की काया। बबूल के पेड़ तले सिद्धि सिंह ठहाकर हँसते हैं- जैसे टुनकाहा ढकनी फूटा हो! दरोगा जी का धूम्रपान-पर्व पूरा हो चुका है, सो एकबारगी पीछे मुड़कर कहते हैं, "चल रे ढोढ़ाई-मगरू!" दरोगा जी और सिद्धि सिंह आगे बढ़ लेते हैं... 'माउग-मरद' की तरह उनकी बातों का अंत नहीं है। नकुआ ससुरा सधी हुई चाल से उस जगह पर पहुंचता है, जहाँ उन दोनों के जूते विराजमान थे। हथेलियों में वहाँ की धूल सकोर लेता है। फिर सूंघते हुए वेंगुची से कहता है, "ले बलैया दहाड़ बाढ़ तो फिर आ रहलो है !"