नॉस्टैल्जिया / शिवदयाल

Gadya Kosh से
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अलबत्ता मैं उससे एकाध बार मिला जरूर हूँ, लेकिन उसे खास जानता नहीं। और तब उसकी कहानी कहना थोड़ा विचित्र लगता है।

अगर परितोष के साथ वह भी कैलिफोर्निया न गया होता तो शायद उसकी याद भी नहीं होती मुझे। जब वह परितोष के साथ इंजीनियरिंग कर रहा था, उस भोले-भोले लड़के से परिचय हुआ था। अपने भइया के रूप में जब परितोष ने मुझे प्रस्तुत किया तो उसने कापफी इज्जत बख्शी थी मुझे। भोला-भाला, मासूम, औसत कद-काठी और गहरी आँखों वाला वह आभास बसु। उसने हाथ जोड़कर विनयावनत हो मुझे प्रणाम किया था और मैंने हँस कर उससे हाथ मिलाया था, उसकी पीठ थपथपाई थी - बड़े भाई की तरह।

“यह आभास है शरत भइया, रियल जीनियस! लेकिन इसके भोलेपन पर मत जाइएगा। इसी मासूमियत की बदौलत इसने कितने वारे-न्यारे किए हैं। ही इज अ ब्ल्डी किलर!” हम हँसने लगे थे।

“यूँ ही मुझे बदनाम करता फिरता है भइया! आप इसकी बातों में नहीं आइए।” मुझे आभास की बात सच मालूम हुई थी। खैर, वह रेलवे स्टेशन की बात थी, आई-गई हो गई।

इसके बाद आभास से दूसरी और अंतिम मुलाकात दिल्ली के इंदिरा गाँधी अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे की लाबी में हुई। परितोष की जिद कि मैं उसे अमेरिका के लिए प्लेन में बिठाने जरूर आउफँ, के आगे मेरी एक न चली थी। लाख व्यवस्तताओं के बावजूद मुझे उसे सी-ऑफ करने जाना पड़ा। आभास ने मुझे देखा तो लपक कर आगे आया प्रणाम करने - “भइया, प्रणाम!” मैंने कुशल-क्षेम पूछी।

“मेरी टाँग खींचने के लिए चल रहा है साथ, और क्या?” परितोष ने उलाहना दी तो आभास लगा हँसने।

“ओह, तो तुम भी स्टेट्स जा रहे हो, यह तो बहुत अच्छी बात है! दिस इज ग्रेट! तुम्हें बहुत-बहुत बधाई!”

“भइया, न सिर्फ यह कि यह अमेरिका जा रहा है, बल्कि कैलिफोर्निया की उसी कंपनी को इसने ज्वाइन किया है जिसका मुलाजिम मैं खुद हूँ। मेरी छाती पर मूँग दलने की इससे बेहतर जगह बताइए, और क्या हो सकती थी!” परितोष की बात पर इस बार आभास ठठा कर हँस पड़ा।

“देखिए भइया, कैसा मरा जा रहा है। मुझे कंपनी में अभी से अपना प्रतियोगी समझने लगा है। देखते हैं आप! बाप रे, वहाँ जाने कैसे पेश आएगा। मैं तो इसी के भरोसे सात समंदर पार करने निकला हूँ, लेकिन यह तो लगता है दगा देगा भइया! जरा इसे समझाइए न!”

तभी एक प्रौढ़ दंपति हमारे निकट आए। आभास ने उनसे मेरा परिचय कराया। उसके माता-पिता थे - थोड़े उत्साहित, थोड़े गौरवान्वित, थोड़े चिंतित, थोड़े व्यग्र - बेटा स्टेट्स जा रहा है, एन.आर.आई. बनकर लौटेगा! मुझसे वे औपचारिक तरीके से मिले, बस हाल-चाल पूछा।

“यू मस्ट मीट मिस्टर चटर्जी आभास, इफ यू फाइंड ऐनी प्रॉब्लम ओवर देयर।” आभास के पिता ने उसे सलाह दी।

“आभास, तुमी रोज एकटा कोरे फोन कॉल कोरबे, कोरबे तो? आमार मोन भीषोण विकोल थाकबे!”

“आभास, माई सन, यू नो, आइ हैड वन्स थॉट ऑफ गोइंग ओवरसीज फॉर ब्रेड ऐण्ड बटर, बट आइ कुडंट। नाउफ यू हैव मेड इट, आइ एम रियली अ प्राउड फादर माइ सन! यू हैव गिवेन अस इमेंस प्लेजर।”

माता-पिता और पुत्रा को थोड़ा एकांत देते हुए हम दोनों थोड़ा पीछे खिसक आए थे। परितोष अब गंभीर था। लाबी में चहल-पहल बढ़ रही थी।

“ओए, तुमने वो सरसों दी साग वाली टिफन कित्थे रखी है?” बगल में एक सरदारजी अपनी सरदारनी से पूछ रहे थे।

“मैं जी सूटकेस की चाबी ढूँढ़ रही हूँ और आप हैं कि सरसों दी साग के पीछे पड़े हैं! हुँह!” सरदारनी ने तुनक कर कहा।

“ओए, मैं केया, वो घी दा डब्बा तो ठीक से बंद किया है?”

“आप खुद क्यों नहीं देख लेते! जब पंजाब आएँगे, बस खाने दी पिफक्र में ही तुसी रहते हो। जरा मेरी हैल्प तो करते नहीं।”

सरदारनी बड़बड़ाती हुई बैग-दर-बैग अपनी खोई हुई चाभी टटोलने लगी। हम दोनों ने एक-दूसरे को देखा तो मुस्करा पड़े। तभी एक दक्षिण भारतीय, संभवतः कन्नड़ परिवार ने हमारा ध्यान खींचा। लगता था, वे किसी बात को लेकर एक-दूसरे को कुछ समझाने की फल कोशिश कर रहे थे, लेकिन ताज्जुब की बात थी कि उनमें से कोई खीझ नहीं रहा था।

हमारे ठीक बायीं ओर दो व्यक्ति आकर खड़े हुए। बड़े संजीदा लग रहे थे दोनों। एक बार-बार एअरपोर्ट की घड़ी देख रहा था, दूसरा रह-हकर अपने से उम्र में कहीं छोटे उस पहले को निहार लेता था जैसे।

“वक्त खराब चल रहा है, संभल कर रहना। अपने काम से काम रखना। फालतू लोगों से मेल-जोल नहीं करना। समझ रहे हो सुल्तान? ... और देखो, मशरूपिफयत में कहीं हमें भुला नहीं देना।”

“आप खामख्वाह जज्बाती हो रहे हैं भाईजान? ... बस, दो सालों की तो बात है, यूँ गुजर जाएँगे। आप पर सब कुछ छोड़े जा रहा हूँ, सब कुछ आप ही को देखना है। इंशाल्लाह, कुछ बन के ही लौटूँगा भाईजान!”

“और देखो, अम्मी लड़की पहले ही पसंद कर चुकी हैं। उनका दिल न तोड़ना ...”

वहाँ पूरा हिन्दुस्तान इकट्ठा था। ये अलग-अलग क्षेत्रीय व भाषाई पहचानें महासागरों के उस पार एक हो जाने वाली थीं , सिर्फ इंडियन रह जाने वाली थीं! इंडियन! इस अंतिम पहचान से वे बस चंद घंटों के फासले पर थे। सिक्योरिटी चेकप की घोषणा के साथ ही हलचल बढ़ी।

“मैंने इसीलिए जिद की थी, अगर आप नहीं आते तो इस पहली विदेश यात्रा में मुझे विदा करने कोई नहीं आता शरत भइया! ... आपने मुझ पर बहुत उपकार किया। आइ एम रिअली ग्रेटपफुल!” अपनी मुस्कान में भी परितोष अपनी भावुकता को न छिपा सका।

‘मुझे तो आना ही था परितोष! ऐसी क्या बात कर दी मैंने! दिस इज अ प्रिविलेज टू मी सीइंग यू आफ फार यू.एस.! मैं खुश हूँ बहुत! खूब आगे बढ़ो, तरक्की करो, आवर आल बेस्ट विशेज...”

“भाभी को प्रणाम बोलिएगा। श्रुति के लिए जल्दी ही कुछ भेजूँगा! चाचा-चाची को भी प्रणाम कहिएगा। चलता हूँ?” वह मेरे चरण छूने को झुका तो मैंने उसे छाती से लगा लिया.. “इतनी दूर जा रहा है यह लड़का, भगवान इसकी रक्षा करना!”

मैं परितोष से अलग ही हुआ कि आभास सामने आ गया।

“आपसे ज्यादा बातें न कर सका भइया। फिर कभी ...” उसने प्रणाम किया और मैंने उसे भरपुर शुभकामनाएँ दीं। अपनी गहरी आँखों से उसने कृतज्ञता प्रकट की और परितोष के साथ आगे बढ़ गया। मैं अपने आप में लौटा।

आभास के माता-पिता मेरे साथ एअरपोर्ट के बाहर आए। दोनों उदास थे, दोनों के बीच जैसे कुछ ठहर गया था। वैसे मैं अनायास ही उनके साथ हो गया था, बाहर आकर मेरा ध्यान इस पर गया। मैंने उनसे विदा लेनी चाही कि आभास की माँ आँखें पोंछते तल्ख लहजे में बोलीं - “कि गो? मोने शांति होएचे तो? हमारा एकला बच्चा को एतना दूर भेज दिया!” सहसा वे मेरी ओर मुखातिब हो फफक पड़ीं।

“की सीन क्रिएट कोरे जाच्चो! ए नहीं सोचता हाय कि लरका का जिंदगी बन जाएगा। एतना अच्छा कंपनी ज्वायन किया। हम पूरा जिंदगी में जेतना नहीं कमाया, ओतना ओ साल भर में कमाएगा। यहाँ रहकर ओ क्या कोरेगा? जोग्य आदमी को यहाँ कौन पूछता है? क्या ओपोर्चुनीटी है इधर? बताइए, आदमी बाइरे जाता है तो आँख से आँसू गिराना केतना खराब बात है!” अब पति-पत्नी के बीच मैं खड़ा था - दुविधग्रस्त। मैंने बीच का रास्ता निकाल कर खिसक लेने में ही भलाई समझी।

“देखिए, माँ का दिल है, थोड़ा तो तड़पेगा ही। अब जब आभास वहाँ से अपना हाल देगा - अमेरिका से, तो इन्हें भी महसूस होगा कि बेटा अपना भविष्य सँवारने ही लगा है। फिर, कोई वहाँ बसने तो गया नहीं। कुछ सालों में आ जाएगा। तो मैं चलूँ!” उन्हें नमस्ते कर मैंने अपना राह पकड़ी।

यह सितंबर 11 ;2001 के पहले की बात है। अमेरिका जाने के कुछ ही दिनों बाद परितोष ने मुझे संदेश भेजा था कि वह ठीक से है। मैं उसको जवाब भी नहीं भेज सका था। चार-छह महीने यों ही गुजर गए। बैंक की नौकरी में इन दिनों ज्यादा कुछ सोचने- समझने और करने को समय नहीं रहता। उदारीकरण और निजीकरण के दौर ने हवा खराब कर रखी है। बैंक की नौकरी तो अब जैसे मारवाड़ी की नौकरी बन कर रह गई है।

एक दिन ई-मेल पर परितोष का जरा एक लंबा संदेश मिला। लिखा था कि काम की व्यस्तता में मौसम और माहौल की प्रतिकूलता और अजनबीयत पर ध्यान ही नहीं जाता। काम ऐसा कि जाने का समय निश्चित है - एकदम आठ बजे, लेकिन आने का कोई समय नहीं। शाम आठ बजे कि दस बजे कुछ कहा नहीं जा सकता। कंपनी ने रहने की व्यवस्था कर दी है, खाने-पीने का प्रबंध् स्वयं करना पड़ता है। गनीमत है कि आभास को किचेन में कुछ-कुछ ‘ट्राई’ करने में आनंद आता है। मेल में सबसे अंत में लिखा था - “शुभांगी ने अपनी शादी में तो जरूर बुलाया होगा, कैसे रहा? मुझे निमंत्राण तो नहीं लेकिन सूचना मिली थी। निमंत्रण मिलता भी तो मैं भला कैसे आ सकता था! ...”

परितोष और शुभांगी बड़े अच्छे दोस्त थे, जैसा कि परितोष ने खुद मुझे बताया था। बल्कि अक्सर उसकी बातों में शुभांगी का जिक्र आता रहता। पढ़ाई तो दोनों ने साथ-साथ की ही, नौकरी भी दोनों को लगभग साथ ही साथ मिली, गोकि अलग-अलग कंपनियों में।

किसी पार्टी में परितोष ने उससे परिचय कराया था। वहाँ से लौटते हुए मैंने उसे कुरेदा था - “लड़की तो अच्छी मालूम पड़ती है यार!

खाली दोस्ती-वोस्ती तक रहोगे या आगे भी बढ़ोगे?” परितोष हँसने लगा, लेकिन उसकी हँसी मुझे खाली नहीं लगी। मुझे लगा कि कुछ है जरूर।

“मिलो इनसे, ये मेरे मेन्टर हैं” ... शुभांगी से कुछ इस तरह परितोष ने मिलवाया तो उसने कुछ जुगुप्सा से मुझे देखा था। मैं

अपने लिए इस्तेमाल किए गए इस विशेषण से थोड़ा चकित था। वास्तव में मैंने परितोष और अपने बीच के संबंध् को कभी इस नजरिए से देखा नहीं था। हम दोनों दो जरूरतमंद थे, बहुत पफासले पर भी नहीं रहते थे। परिचय तो लड़कपन का था। हमारे बीच उम्र का थोड़ा फासला था, वह मुझसे पाँच-छह वर्ष छोटा होगा लेकिन फुटबाल मैच में हम दोनों ही अपनी-अपनी टीमों के साथ एक-दूसरे से भिड़ते। वह तब भी हमें भइया ही कहता, मैंने भी उसे फुटबाल के कई गुर सिखाए। बाद में पढ़ाई खत्म करने और नौकरी में आने के दरम्यान मैं एक कोचिंग संस्थान में अँग्रेजी पढ़ाता था। इंटर करके परितोष भी वहाँ पढ़ने आने लगा। शुरू से ही वह हँसमुख और मिलनसार लड़का रहा। रोज-रोज की मुलाकात से वह जल्द ही घुल-मिल गया। वह मेरे घर भी आने लगा। घर पर ही एक दिन उसने मुझे इंजीनियरिंग की तैयारी में सहयोग करने का अनुरोध किया। मैं अंग्रेजी का आदमी ठहरा, पूछा - मुझे तो साइंस तो आती ही नहीं। कहने लगा - नहीं, जुगाड़ कर दीजिए, बहुत पैसा माँग रहे हैं, पापा देने को तैयार नहीं हैं। संयोग से एक कोचिंग वाले मेरी रिश्तेदारी में ही निकल आए। उनसे मिन्नतें करके मैंने परितोष का दाखिला वहीं करा दिया। उसकी किस्मत अच्छी थी और मेहनत भी उसने खूब की। वह इंजीनियरिंग में दाखिले का इम्तहान पास कर गया। इसके पहले किस्मत मुझ पर इस कदर मेहरबान हुई कि मुझे बैंक की नौकरी मिल गई, ऊपर से पोस्टिंग भी अपने ही शहर में। अनुभव किया, दुनिया मुट्ठी में होने का क्या मतलब होता है।

ट्रेनिंग खत्म हुए अभी साल भर नहीं बीता था कि परितोष वह खबर ले आया था - इंजीनियरिंग में हो गया है! बड़ी खुशी हुई लेकिन उस दिन कुछ विचित्रा-सी बात उसने कही। वैसे तो वह अच्छे खाते-पीते परिवार से था लेकिन उसके ऐडमिशन में जो लाख रुपया लगने वाला था उसके जुगाड़ में दिक्कत पेश आ रही थी। उसका बड़ा भाई जो बेकार था, बाप से परचून की दुकान खोलने के लिए पैसे की जिद किए बैठा था। पिता असमंजस में थे, क्या करें!

बैंक में पर्सनल लोन का स्कीम आया हुआ था। मुझे ध्यान आया तो मैंने परितोष से कहा कि वह अपने पिता को बैंक से कर्ज लेने

लिए तैयार करे। इससे दोनों लड़कों का कल्याण हो जाने वाला था, और हो भी गया। जूझना मुझे ही पड़ा, सारे कागज-पत्तर बनवा कर लोन पास करवाया, वह भी दस दिन के अंदर, और परितोष इंजीनियरिंग पढ़ने चला गया।

क्या इतने से आदमी किसी का ‘मेन्टर’ कहलाने का हकदार हो जाता है? क्या पता! मेरे लिए तो परितोष का स्नेह और सम्मान से ‘शरत भइया’ पुकारना ही कापफी लगता है, बल्कि जमाने के हिसाब से यह भी कुछ ज्यादा ही लगता है।

हाँ, शुभांगी! अब लक्ष्य करता हूँ कि परितोष की बातों में शुभांगी के प्रसंग एकदम से घटने लगे थे। यह उसके कैम्पस सेलेक्शन के बाद की ही बात है। परितोष ने एक दिन यूँ ही उसका जिक्र आने पर बताया कि वह नहीं चाहती कि वह, यानी परितोष स्टेट्स जाए।

मुझे अचंभा हुआ। पूछने पर जो बातें सामने आईं उनसे मन बहुत खिन्न हुआ।

शुभांगी परितोष को पसंद करती थी। लेकिन वह नहीं जानती थी कि वह उसे प्यार भी करती है या नहीं। उध्र परितोष शुभांगी से प्यार करता था लेकिन वह तय नहीं कर पा रहा था कि उसे उससे विवाह भी कर लेना चाहिए या नहीं। एक बार दोनों ने साथ बैठकर सोचा-विचारा और आखिरकार तय किया कि वे दोनों शादी कर सकते हैं। यह न्यूनतम सहमति बनी - शादी! शुभांगी जिस कम्पनी में थी उसी में अभी पैर जमाना चाहती थी और उस कम्पनी का कारोबार भारतवर्ष सहित दक्षिणपूर्ण एशिया के देशों में था। उसे पति ऐसा चाहिए था जो सपोर्टिव, यानी सहायक तो हो ही, ज्यादा से ज्यादा समय उसके साथ भी रह सके। परितोष की पहली प्राथमिकता थी बाहर जाकर कैरियर बनाना और पैसा कमाना, विवाह बाद की बात थी। उसे लड़की ऐसी चाहिए थी जो उसके लिए भारत में दो-चार वर्ष इंतजार कर सके, लेकिन वह शुभांगी के लिए इतना कन्सेशन करने के लिए तैयार था कि वह स्टेट्स जाने के पहले ही उससे विवाह कर लेता। यानी शुभांगी से विवाह करके उसने स्टेट्स जाने के लिए किसी तरह अपने को तैयार कर लिया था। अब गेंद शुभांगी के पाले में थी। शुभांगी परितोष से शादी करने को तो तैयार थी लेकिन स्टेट्स जाने को कतई तैयार नहीं थी। वह कैरियर को लेकर अभी कोई जोखिम उठाना नहीं चाहती थी। विकट स्थिति थी। आखिरकार कोई रास्ता न निकलता देख दोनों ने रिश्ते (!) को एक खूबसूरत मोड़ देकर छोड़ देना बेहतर समझा!

उसकी अपनी ही कोई पीर होगी, परदेस में कुछ याद आ गया होगा तो मुझे पूछ भेजा कि शुभांगी का विवाह कैसा रहा! वरना मुझे शुभांगी भला क्यों आमंत्रित करने लगी?

जमाना किस तेजी आगे निकल रहा है। आजकल शायद सात-आठ वर्ष के अंतर से ही पीढि़याँ बदल जाती हैं। एक शादी में हमने एक-दूसरे को देखा था, दिल में चाहत पैदा हो गई थी। पता-ठिकाना मालूम किया। आग उधर भी थी। हम मिलने लगे, पहले लोगों-परिचितों के साथ, फिर अकेले में भी। मैंने श्रद्धा से पूछा - “क्या कहती हो, मुझसे शादी करोगी? मेरी तो नौकरी नहीं है, इंतजार कर सकोगी? बस साल भर? फिर चाहो तो किसी और की हो जाना। मैं तुमसे कोई शिकायत नहीं करूँगा।”

उसके जवाब में बड़ा वजन था। मुझे इसकी उम्मीद नहीं थी - “अगर मुझे तुमसे शादी करनी है तो करनी है। इसमें तुम नौकरी और टाइम फ्रेम की शर्तें क्यों ले आए? ऐसी बातें तो ग्राहक और दूकान वाले के बीच हुआ करती हैं। हम दोनों के बीच भी ऐसी बातें होंगी?” मैंने उसे देखा और झेंप कर फिर नजरें नहीं उठाई। हमारा विवाह हुआ। मुझे मालूम है, बाबूजी ने पिछले दरवाजे से श्रद्धा के घरवालों से कुछ दहेज वगैरह भी वसूल ही लिया। फिर भी हमने बुरा नहीं माना। अबतक प्यार और तकरार का सिलसिला बरकरार है। और अब आभास बसु, जिसे मैं परितोष के माध्यम से ही थोड़ा-बहुत जानता हूँ, और जिससे मैं अंतिम बार दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर कोई चार-एक साल पहले मिला था।

सितंबर 11 घटित हो चुका था। अबतक की सबसे बड़ी आतंकी कार्रवाई में कोई तीन हजार लोग मारे गए थे। दुनिया सिहर रही थी। आतंक के खिलापफ विश्वव्यापी युद्ध का ऐलान किया जा चुका था। फिलहाल निशाने पर अफगानिस्तान था। सहसा मुझे परितोष का ध्यान आया। तीन-चार दिनों तक कोशिश करने के बाद उससे इंटरनेट पर सम्पर्क हुआ। वह खुद तो ठीक था लेकिन आभास को लेकर परेशान था। आभास कम्पनी के काम से बाहर गया हुआ था और अब तक वापस नहीं लौटा था। उन दिनों अमेरिका में एशियाई लोगों को शक की निगाह से देखा जा रहा था, कुछेक जगहों पर उन पर हमले भी हुए थे, खास तौर पर दाढ़ी और पगड़ीधरियों पर।

इसके कोई दो-तीन महीने के बाद परितोष विदेश जाने के बाद पहली बार भारत आया, बीमार पिता को देखने। मुझसे मुलकात हुई तो वह तो पहले अमेरिका से लेकर भारत तक में सुरक्षा जाँच के अपने अनुभवों का ही बखान करता रहा, कुछ लतीफे सुनाने के अंदाज में। हम भी उसका रस लेते रहे, फिर बातचीत अफगानिस्तान और तालिबान पर आ गई। वहाँ अमरीकी और ब्रिटिश फौजो ने अपनी कार्रवाई शुरू कर दी थी।

मुझे तभी आभास का ध्यान आया। मैंने उससे पूछा - “तुम्हारा वह बंगाली दोस्त कैसा है?”

“ओह मैंने तो आपको बताया ही नहीं। ट्विन टावर कहाँ तो गिरा न्युयॉर्क में, आभास बेचार फँस गया बोस्टन में!”

परितोष ने जो कुछ बताया उसके अनुसार हवाई जहाज में बम होने के शक में अन्य यात्रियों समेत आभास को भी उतार लिया गया।

जहाज की सघन जाँच हुई लेकिन कुछ नहीं मिला। मुश्किल तब हुई जब आभास समेत तीन यात्रियों को रोककर अन्य को जाने दिया गया। आभास के अलावा रोके जाने वालों में एक नौजवान सिख था जो कनाडा का नागरिक था, और दूसरा एक पाकिस्तानी प्रोफेसर था,अधेड़ वयस का। इन तीनों से आठ-दस घंटे तक सुरक्षा एजेंसी वालों ने पूछताछ की। इनके अंडरवेयर और जूतों तक की तलाशी ली गई। घड़ी और कलम को ठोक-बजाकर देखा गया, मोबाइल जब्त करके जाँच करने के लिए भेजा गया। घर का अकेला, दुलारा लड़का आभास हठात् आई इस विपत्ति से एकदम घबरा गया। वह 12 सितंबर 2001 की सुबह थी, पिछले दिन के धमाकों की गूँज अबतक फिजा में तारी थी, जैसे हर चीज हिल रही थी। आभास बसु का अस्तित्व ही जैसे हवा में झूल रहा था। अपने को निर्दोष साबित करने के लिए उसके पास जब शब्दों का कोष खत्म होने लगा तब कातर होकर वह कहने लगा - “.... मैं इंडियन हूँ, मैं हिन्दू हूँ। हिंदू! मैं अब्बास नहीं, आभास हूँ। मैं एक कंप्यूटर इंजीनियर हूँ और रोजी-रोटी के लिए आपके देश आया हूँ ..., मैं यहाँ किसी को नहीं जानता, मैं इंडियन हूँ, हिंदू हूँ!”

सुरक्षा अध्किारियों पर उसके अनुनय-विनय का असर भले न हुआ हो, उसके मोबाइल फोन के सिम कार्ड की जाँच से तसल्ली हो गई। दस घंटे तक रोके रखने के पश्चात उससे कहा गया - अब तुम जा सकते हो!

आभास बसु ने एक होटल में जागकर वह रात बिताई - पत्ते की तरह काँपते हुए। उसने अपने बास को फोन पर इस घटना की

जानकारी दी। उसकी वापसी की व्यवस्था की गई। परितोष को देखते ही उससे लिपट कर वह रोने लगा।

“मुझे अब यहाँ नहीं रहना परितोष। मेरे लौटने का इंतजाम करो।”

“क्या बच्चों-सी बात करते हो। देखते हो, अभी एक खास तरह की परिस्थिति पैदा हो गई है, हर आदमी शक के दायरे में आ गया लगता है।”

“हर आदमी? हर आदमी मतलब? सिपर्फ एशियंस को पकड़ते हैं। मुसलमानों को, सरदारों को पकड़ रहे हैं, उनसे मारपीट कर रहे हैं।”

“तुमसे मारपीट तो नहीं की न?”

“जाने दो परितोष, तुम नहीं समझ सकते!” नाराज होकर आभास वहाँ से चला गया और पूरे दिन परितोष से उसने बात नहीं की।

दूसरे दिन उसने एक महीने की छुट्टी की दरखास्त दी, माँ की बीमारी को कारण बता कर। किसी तरह पंद्रह दिन की छुट्टी मंजूर हुई , तब उड़ानें अस्त-व्यस्त थीं, सामान्य होने में एक-डेढ़ महीना लग गया। भारत-प्रस्थान की पूर्व संध्या पर उसने परितोष के साथ ड्रिंक्स लिया, और खूब लिया। दो-एक सहकर्मी और आ जमे। उसने किशोर कुमार और हेमंत कुमार के गाने गाए, रवीन्द्र नाथ ठाकुर के कुछ गीत याद करने की भी कोशिश की। अमरीकी लड़कियों के बारे में अपनी राय जाहिर की और वहाँ बसे भारतीयों को अचानक गलियाना शुरू कर दिया।

“... यहाँ सुविधाएँ चाटने के लिए सी-ग्रेड सिटीजेन बनकर भी खुशी-खुशी रहते हैं और ऐसा दिखावा करते हैं मानो जन्म-जन्मांतर से इनके पुरखे यहीं रहते चले आए हों।” अब यह एक दुखती रग थी, कुछ लोगों को नागवार गुजर सकती थी। शाम की शराब का मजा खराब न हो जाए, इसलिए परितोष ने उसे रोकने की कोशिश की -

“छोड़ो भी यार, तुमने ज्यादा पी ली है। अपनी उस गर्लफ्रेंड के बारे में तो कुछ बताते नहीं और बेकार की बातें किए जा रहे हो।

क्या नाम है उसका आभास? सपना! सपना न? “

“कौन सपना, कैसा सपना परितोष? उसे तो एक अमेरिकन लौंडा चाहिए जो नाम से, और शक्ल से इंडियन हो। तुमने पूँछकटे कुत्ते को कभी देखा है? कभी-कभी देसी कुत्तों के मालिक अपने कुत्तों की पूँछ काटकर उसे जमीन में गाड़ देते हैं, उनका विश्वास है कि इससे उनका कुत्ता कहीं नहीं भागेगा, जीवन भर उनकी चैखट पर भौंकता रहेगा। सपना को हमेशा डर लगा रहता है कि मैं इंडिया लौट जाऊँगा। अगर मेरी भी पूँछ होती तो उसे काटकर अपने अहाते में बोगनवेलिया के झुरमुट में दबा देती। हा...हा...हा...” उसकी बात सुनकर सब हँसने लगे।

“मुझे तो इन दिनों कोई और याद आता रहता है। वह, जिसे मैंने कभी गंभीरता से नहीं लिया, जिसकी हमेशा अवहेलना की ...”

स्काच की एक और घूँट भर कर वह चुप हो गया।

“लौट कब रहे हो?” परितोष ने पूछा।

“लौटूँ कि टेररिस्ट होने के शक में कहीं भी किसी भी क्षण पकड़ लिया जाउफँ?” अचानक वह तैश में आ गया।

“तुमने तो उसको इश्यु ही बना लिया यार। देखो, यह सब कोई पर्मानेंट चीजें नहीं है। कुछ ही दिनों में सब ठीक हो जाएगा। इसके चलते तुम अपनी जिंदगी के पफैसले नहीं बदल सकते।”

“कुछ ठीक नहीं होगा। इनके पैदा किए भस्मासुर जब तक हैं तब तक ऐसे ही चलता रहेगा।”

“फिर भी ... तुम लौट जरूर आना।”

“देखूँगा।” कहकर आभास निढाल हो गया।

पटना में आभास उन्मुक्त हो घूमता-फिरता रहा। इस बार उसने एक सैलानी के नजरिए से जैसे अपने शहर को देखा। जैसे बरसों बाद उसने अपना होना महसूस किया। अपना होना - यह तो अमेरिका में कभी नहीं होता, चाहे जितना पैसा खर्च कर लो लेकिन लगता नहीं कि तुम कुछ हो, तुम्हारी भी कुछ वकत है। उपलब्ध्यिों के सोपान संतुष्ट नहीं करते, उल्टे भूख बढ़ती चली जाती है। पूँजी और तकनीक का ऐसा संयोग हुआ है कि उपभोग की तृष्णा का शमन नहीं होता बल्कि वह और बलवती होती जाती है। जितना बड़ा भोग, उतनी बड़ी उपलब्धि।

हफता-दसदिन यों ही गुजर गया। दोस्तों-रिश्तेदारों ने आभास की खूब आवभगत की। अमेरिका और बुश, क्लिंटन और मोनिका

लेविन्स्की पर खूब चर्चाएँ हुई, इतनी कि वह उकता गया। कई लोगों ने उसकी तनख्वाह के बारे में भी जिज्ञासा प्रकट की, उसने उतना ही बताया जिसमें वे चैंक न पड़े और उस पर अविश्वास न करने लगें। आभास अब विशिष्ट व्यक्ति बन गया था।

“आभास तुम्हारा प्रोग्राम क्या है, वहाँ कोई दिक्कत तो नहीं होगी? तुम्हें यहाँ आए पंद्रह दिन हो रहे हैं।” उसके पिता ने पूछा तो

थोड़ी देर के लिए वह चुप रहा।

“अभी रहना है? रिटर्न टिकट वगैरह सब कैसे होगा, कुछ इंतजाम किया?”

“अभी मैं हूँ। मैं सब कर लूँगा!” उसने धीरे-से जवाब दिया।

“ओह, दैट इज फाइन देन!” पिता को इत्मीनान हुआ। माँ बगल में आकर बैठ गईं, उसका सिर छूती हुई। आभास ने अब तक

बोस्टन वाली घटना का जिक्र नहीं किया था, यह सोचकर कि इससे माँ-बाप बेकार ही घबरा जाएँगे और बात बाहर भी चली जाएगी, लेकिन माँ की ममता पाकर वह सहसा कुछ भर आया। तभी माँ ने उसे सूचना दी -”तुम्हारे बाबा वाल्यून्टरी रिटायरमेंट के लिए अप्लाई कर रहें हैं। कहते हैं अब नौकरी करके क्या होगा। हमारे तो एकमात्रा सहारा तुम हो, जहाँ तुम रहोगे वहीं हमें रहना है।”

“हाँ, आभास, वैसे भी नौकरी में बहुत प्रेशर है। नया जमाना है, नए तौर-तरीके हैं। वैसे भी क्या पता कब हमारी कंपनी किसी

धनसेठ के हाथों बिक जाए! सोचा, अब मुक्त ही हो लूँ। अगले महीने से वीजा-पासपोर्ट के लिए कोशिश शुरू कर दूँगा।”

आभास को सदमा-ला लगा। वह बिस्तर पर लेटा था, अचानक उठ बैठा और अविश्वास से माँ-बाप को देखा। वे मुस्करा रहे थे, अपने सुयोग्य, सुदर्शन पुत्र को प्यार से निहार रहे थे।

“लेकिन यह सब अभी करने की क्या जरूरत है। आप अभी वी.आर. नहीं लीजिए, वीजा-पासपोर्ट भी बाद में बनता रहेगा।” माँ-

बाप थोड़े विचलित हुए, चेहरे की उत्फुलता गायब हो गई।

“तो तुम हमें क्या अपने साथ नहीं रखना चाहते?” माँ की आँखें भर आईं।

“क्या कहती हो माँ! रहने की जगह बस एक अमेरिका ही बची है? अपने देश में, इसी धरती पर हमारा गुजारा नहीं हो सकता?”

“यह क्या कह रहे हो तुम? क्या बात है? तुम्हें नौकरी से निकाल दिया या तुमने नौकरी छोड़ दी?” पिता ने सशंकित स्वरों में पूछा।

“न ही मैंने नौकरी छोड़ी है, न ही मुझे निकाला गया है, दरअसल मेरा मन नहीं लगता वहाँ। मैं लौटना नहीं चाहता!”

“क्या बेवकूपफी की बातें करते हो। लोग इसके सपने देखते हैं, अमेरिका लोगों के ख्वाब में आता है और तुम बिना बात यह अवसर गँवाना चाहते हो! दिस इज बीइंग अ नास्टैल्जिक इडियट। ... पिता नाराज हो गए। आभास का गला रूँध गया। वह अपने को अचानक अकेला महसूस करने लगा। माँ बात ताड़ गई, उसे अंक में भर लिया। आभास फफक पड़ा - “माँ, मैं वहाँ नहीं जाना चाहता, वहाँ मेरा दम घुटता है। ... मुझे वहाँ बोस्टन में दस घंटे टार्चर ...” आभास ने वह पूरा प्रकरण सुना डाला, इसके अलावा भी दर-दुकानों में, सार्वजनिक स्थानों पर कभी-कभी जो उसे हीनता-बोध् हुआ था, या कराया गया था, वह भी बखान कर गया। माता-पिता को क्लेष हुआ। उन्होंने बेटे को सांत्वना दी, हौसला बढ़ाया और अमेरिका या नौकरी-चाकरी की और कोई बात नहीं की।

आभास अब तक देवयानी से नहीं मिला था। वह उसके दूर के रिश्ते में आती थी और बरसों उसके पड़ोस में रही थी। उसकी माँ अक्सर बीमार रहतीं और देवयानी प्रायः घर के कामों में ही व्यस्त रहती - छुटपन से ही। उसने पहली बार जब खीर पकाना सीखा था तो कटोरे में सबसे छुपा कर आभास के लिए ले आई थी। आभास तब नवीं-दसवीं में पढ़ता होगा।

“यह लो, पहली बार मैंने खीर पकाई है, और सबसे पहले तुम्हें चखा रही हूँ।” देवयानी ने खीर की कटोरी बढ़ाई तो आभास उसकी

कीमत का अंदाजा नहीं लगा सका। खीर चखकर बोला - “अच्छी बनी है, लेकिन कुछ फीकी रह गई। क्यूँ, चीनी माँ ने कम दिया

था क्या?” देवयानी ने इसका बुरा माना होता तो आभास को हाथ की पकाई चीज खिलाने का सिलसिला नहीं बन पाता। देवयानी

आभास के लिए घर से छुपाकर अपने हाथ की बनाई चीजें लाती और उसे खाते देख जैसे खुद तृप्त होती रहती। आभास उसे अपनी ओर एकटक देखता पाकर कभी-कभी संकोच महसूस करता और उससे भरसक बचने की कोशिश करता। देवयानी को जैसे इसका कोई मलाल नहीं होता। हाँ, एक बार उसके खीझने पर जरूर देवयानी रो पड़ी थी। आभास की नई और कोरी कापियों पर देवयानी ने खूबसूरत अक्षरों में उसका नाम लिख दिया था - आभास बसु! बस इतनी-सी बात पर आभास चिढ़ गया था।

देवयानी का परिवार जब किराए का मकान छोड़कर अपने मकान में चला गया तब से मुलाकातें कम हो गईं। अमेरिका जाने से पहले आभास कितने लोगों से मिल आया था, उनमें एक देवयानी भी थी। अचरज की बात थी कि यहाँ रहते जिसका ध्यान शायद ही आया हो, वह अमेरिका में रहते उसकी स्मृतियों में बसी हुई थी। सपना के साथ रोमांटिक क्षणों में भी उसे सहसा देवयानी का ध्यान हो आता। अचानक उसका अमेरिका जाना सुनकर कैसे उसकी आँखों में मोटे-मोटे आँसू छलक आए थे!

पहली बार देवयानी के घर का दरवाजा खटखटाते हुए उसका दिल धड़क रहा था। मासी ने दरवाजा खोला तो उसे देखकर बहुत खुश हुईं - “क्यों रे, तू यहाँ कैसे? तू तो अमेरिका गया था न? देवयानी, देख तो कौन आया है!” मासी उसका हाथ पकड़कर अंदर ले आईं और साथ ही सोफे पर बैठ गई।

“क्यों रे, तू बोलता क्यों नहीं? बांग्ला भूल गया क्या रे?”

“आप भी मासी!”

“बोल तू कैसा है?”

“अच्छा-भला हूँ, खूब सालन खाया है वहाँ। देखती नहीं इतना मोटा हो गया हूँ?”

“छिः, मोटा कहाँ, तू तो पहले से भी सूख गया है आभास!”

“अच्छा, बताइए मासी, अभिजीत कहाँ है?”

“अभिजीत सिलीगुड़ी में है आजकल। देख न, उसके यहाँ नहीं होने से कितनी दिक्कत होती है। हम दोनों माँ-बेटी अकेली रह गईं। जमाना इतना खराब है, इधर तो रोज बम-गोली चलता रहता है।”

आभास की निगाहें देवयानी को खोज रही थीं। वह अपने को सहज नहीं महसूस कर रहा था, फिर भी उसने मासी को इसका भान नहीं होने दिया।

देवयानी चाय लेकर ही आई।

“तुम कब आए?” वह उसकी ओर देखकर मुस्कराई।

“एक हफ्ता हुआ!”

“वापस कब जाना है?”

“अभी तय नहीं है ...”

“ओह, मैंने समझा, तुम फिर विदाई-भेंट में ही आए हो।”

“मतलब?”

“मतलब कुछ नहीं, कैसे हो?”

“ठीक हूँ, तुम कैसी हो?”

“अमेरिका में जाकर बहुत फार्मल हो गए हो?”

“क्यों, मैंने ऐसा क्या किया?”

“नहीं, देख रही हूँ ..., तुम बातचीत में बहुत सॉफ्ट हो गए हो! और बताओ, कैसा लग रहा है अमेरिका में? ट्विन टावर दुर्घटना की खबर मिलते ही मैंने तुम्हारे घर फोन किया था। बाद में पता चला कि तुम टूर पर थे। ..”

“जानती हो देवयानी, हादसे के दूसरे ही दिन मैं बोस्टन में एक तरह से लॉक-अप में था - पूरे दस घंटे।” आभास ने फीकी हँसी के साथ कहा।

“ओ माँ, सच? तुम्हें किसलिए पकड़ा था?”

“शक, शक में पकड़ा था। मैंने तो समझा कि मैं गया, अब कभी अपनी धरती नहीं देख सकूँगा। ... तुम किसी से कहना नहीं,

बेकार बात का बतंगड़ हो जाएगा। मैंने सिर्फ माँ-बाबा को ही बताया है।”

“तुमने यह कहकर तो मुझे चिंता में डाल दिया आभास! क्या पड़ी थी तुम्हें अमेरिका जाने की?”

“अमेरिका जाना, वहाँ पैसे कमाना एक बड़ी उपलब्धि देवयानी!”

“और इज्जत और जान गँवाना भी तो उपलब्धि ही है, है न?”

“दुनिया बदल रही है देवयानी, सब कुछ लोकल से ग्लोबल हो रहा है। अपने वतन, अपनी मिट्टी की महक का आग्रह ढीला पड़ रहा

है। जहाँ पैसा है वहाँ सभी जाना चाहते हैं, आखिर बताओ पैसे का कोई विकल्प है क्या?”

“तुम कितने सयाने हो गए आभास, कितनी दूर चले गए। सोच, कल्पना और चाहत की परिधि के भी बाहर!” रूआँसी हो आई देवयानी।

कभी-कभी मुँह से उल्टी ही बात निकलती जाती है। आभास को क्या कहना था, क्या कहता जा रहा था -

“किस दूरी की बात कर रही हो देवयानी? दुनिया में अब कुछ भी पहुँच के बाहर नहीं, पास में बस पैसा होना चाहिए!”

“है, बहुत कुछ है अब भी जो तुम्हारी पहुँच के बाहर है, भले ही तुमने जितने डालर भी कमा लिए हों...”

“जैसे?”

“जैसे? मैं जानती हूँ तुम मुझे नहीं चाहते, लेकिन तब भी बोलो मैं क्या मोल देकर तुम्हें पा लूँ आभास? ... अमेरिका क्या गए

दुनिया भर की दुकानदारी सीख आए!” देवयानी कुपित हुई तब आभास को लगा कि बातचीत गलत दिशा में चली गई है।

उसने मन ही मन सोचा - देवयानी कितनी भोली है, कितनी अनजान। वैश्विक स्तर पर चल रहे षड्यंत्रों, घातों-प्रतिघातों से बेखबर! न उसे इस तेल-सभ्यता की जरूरतों का पता है, न नए बाजारों की तलाश की मजबूरी का। वह सिर्फ परिणामों को देखती है, कारणों में नहीं जाना चाहती। सोचती है, प्रेम के आगे सारे तर्क निरस्त हो जाने वाले हैं, सारी दुनियावी बुद्धि परास्त हो जाने वाली है। अपनी धरती, अपने लोग, अपना प्यार! इसे नहीं मालूम इस वृत्ति को अब घर-परिवार का मोह करने वाले घरउफ मूर्खों का मानस करार दिया जा चुका है। इसे नहीं मालूम कि सपना की तरह भी प्रेम किया जा सकता है µ जिसमें सबकुछ नपा-तुला है, क्योंकि उसमें बुद्धि है, देह है, तब कहीं मन है या आत्मा!

“तुम रो क्यों रही हो देवयानी? ... मुझे नहीं आना चाहिए था न? तुम्हें व्यर्थ में दुःखी कर दिया। लेकिन यह तो बताओ कि खीर

बनाना तुमने बिल्कुल छोड़ दिया क्या?” आभास देवयानी को देख स्वयं विचलित था लेकिन संदर्भ बदलने के लिए जब उसने यह कहा तो दुपट्टे से आँख पोंछती हुई वह किचेन में गई और खीर का कटोरा लिए चली आई।

“अरे, रेडीमेड? वाह!” आभास ने कटोरा हाथ में लिया।

“देवयानी, एक राय दोगी मुझे?” अकस्मात आभास ने पूछा।

“क्या राय? मैं कहाँ इस लायक?”

“माँ-बाबा मेरे साथ वहाँ अमेरिका में रहना चाहते हैं। पूरी तैयारी कर रखी है उन्होंने।”

“फिर? यह तो ठीक ही है। तुम उनकी इकलौती संतान हो।”

“लेकिन मैं वापस वहाँ नहीं जाना चाहता। अमेरिका में रहना मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। बताओ मैं क्या करूँ!”

“क्यों, तुम्हें पैसा नहीं चाहिए क्या?” देवयानी को बहुत अचंभा हुआ।

“पैसा तो चाहिए देवयानी! सोचा था दो-चार साल उधर काट कर आ जाउफँगा। बसने का ख्याल तो पहले भी नहीं आया था। सच

पूछो तो बाबा का ही ज्यादा जोर था। और अब तो वे वहाँ जाने को तैयार बैठे हैं।”

“सब जब अपना फायदा देख रहे हैं तो तुम बेकार की सोच में पड़े हुए हो। यह इमोशनल होने का समय नहीं है, काम करने का

समय है। मौसा ठीक ही तो सोच रहे हैं। वे दोनों वहाँ रहेंगे तो तुम्हें घर की याद नहीं सताएगी और तुम मन लगाकर काम करोगे।”

“तुम भी नहीं चाहती कि मैं यहाँ रहूँ। ठीक है देवयानी, अब चलता हूँ।... मासी तो एकदम से गायब ही हो गईं। उन्हें प्रणाम कहना।”

आभास का मन बुझ गया था। वह महसूस कर रहा था जैसे सब कुछ उसके प्रतिकूल होता चला जा रहा है।

“नाराज हो गए? बाबा, जो मन में आए करो। मैंने तो तुम्हारे माता-पिता का ख्याल करके ऐसा कहा, वरना मैं क्या तुम्हें जाने को ..., अगली बार जब आओगे तब शायद मैं बहुत दूर जा चुकी होऊँगी, फिर तुम कितना भी डालर खर्च करके मुझे नहीं पा सकोगे

आभास, अगर चाहो भी तो ...!”

आभास वहाँ और न बैठ सका। घर लौटकर उसने माँ को कहा - “मैं देवयानी के घर गया था।” माँ ने सहज भाव से पूछा - “अच्छा किया, मिताली कैसी है? इधर उससे भेंट नहीं हुई।” आभास ने बात आगे बढ़ाई - “मासी अच्छी हैं, देवयानी भी ठीक है। मैं वहाँ खीर खा आया हूँ, अरसे बाद।” माँ मुस्कराती रहीं। आभास ने बात जारी रखी - “देवयानी खीर बहुत अच्छा पकाती है माँ! माँ, तुम देवयानी के बारे में क्या सोचती हो?” माँ ने बेटे को गौर से देखा, फिर कहा ... “अच्छी तो है, बिना बाप की बेटी हो गई। मिताली तो बिचारी उसकी शादी भी नहीं ठीक कर पा रही है। अभिजीत अपने ही कामों में व्यस्त रहता है। क्यों, तू इतना क्यों सोचता है?” आभास ने जवाब न देकर सवाल ही पूछा - “तुम मासी की सहायता क्यों नहीं कर देती?” माँ ने जुगुप्सा में बेटे को देखा –

“वह कैसे?” आभास कुछ चबा रहा था, मुस्करा कर रहा - “मैं, तुम्हारा बेटा देवयानी के लिए कुछ बुरा तो नहीं माँ?”
माँ के विस्मय में कुछ रोष भी जरूर था - “क्या बकवास करता है? वह रिश्ते में तेरी बहन लगती है।”

“ऐसे रिश्तों में शादियों तो होती ही रहती हैं माँ, कोई सीध रिश्ता तो है नहीं उनसे?”

“नहीं आभास, मैं इस बारे में कोई बात करना नहीं चाहती।”

“तुम्हें दहेज चाहिए माँ?”

“मैंने कहा न, मुझे कुछ नहीं सुनना!”

“मान लो अगर मैंने देवयानी से विवाह कर ही लिया तो?”

“तो कभी तुम्हारा मुँह नहीं देखूँगी।”

माँ आभास को ‘हार्डनट’ मालूम हुईं, तोड़ना मुश्किल मालूम हुआ।

इस बीच पिता ने अपने मित्रों-रिश्तेदारों में अपने अमेरिका प्रस्थान की खूब ही चर्चा कर दी थी। फर्नीचर से लेकर मकान तक के खरीदार दरवाजा खटखटाने लगे थे। किसी को फ्रिज चाहिए था, किसी को वाशिंग मशीन, तो किसी को गीजर। एक शाम कुछ अजीब बात हुई। पिता फोन पर बात कर रहे थे कि आभास वहाँ पहुँचा। पिता नर्वस मालूम पड़ रहे थे। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। माथे पर बार-बार पसीना पोंछ लेते थे। फोन रखकर उन्होंने आभास को देखा और वहीं सोफे पर बैठ गए। आभास पास गया।

“क्या बात है?”

“ .....“

“क्या हुआ?”

“वह तो मकान लिखने को कह रहा है - जबरन!”

“कौन? कौन कह रहा है?”

“कौड़ी के भाव लिखने को कहता है आभास। धमकी दे रहा है, तुम अभी घर के बाहर नहीं निकलना।”

“साफ बात तो बताइए बाबा। बोलिए, क्या बात है?”

“नाम नहीं बताया, कहा फिर फोन करेगा। ... इस शहर में तो बंगालियों का जीना मुश्किल हो गया है। अभी पिछले महीने ही

राखाल बनर्जी आखिर शहर छोड़कर चले गए। लाखों की जमीन, उतना बड़ा मकान! अब हमारे ऊपर आफत। क्या करें अब?”

“सब आपके कारण हो रहा है! बेटा अमेरिका क्या गया, लगे शहर भर में ऐलान करने कि वहीं जाकर रहेंगे। लाख मना किया कि

जमाना खराब है, दस पैसे की औकात है तो पाँच पैसे की बताओ ...” आभास की माँ पति को पफटकार लगा रही थीं।

बसु परिवार के समक्ष एक तरह से अस्तित्व का संकट आ खड़ा हुआ। बचाव का एक ही रास्ता सापफ-सापफ दिखाई दे रहा था -

अमेरिका। बाकी विकल्प धुँधले थे, वे जोखिम लेना नहीं चाहते थे।

और अब जरा साँस ले लें। यह शायद फरवरी या मार्च 2002 की बात होगी जब 9/11 के बाद पहली बार परितोष अमेरिका से स्वदेश आया था। उसने आभास के बारे में जो कुछ बताया, मैंने उसे ऊपर अपने हिसाब से प्रस्तुत कर दिया। उन दिनों सीमा पर भारी तनाव था। कभी भी लड़ाई छिड़ सकती थी। देश के अंदर भी माहौल बहुत खराब था। गोधरा और उसके बाद की इकतरफा कार्रवाईयों ने नृशंसता और बेरहमी की सारी हदें तोड़ दी थीं। रोंगटे खड़े कर देने वाले प्रसंग मीडिया में देखने-सुनने को मिलते। सोचकर मूर्छा आती थी कि अगर एक साथ संसार के सभी धर्म संकटग्रस्त हो जाएँ तो क्या हो! कुछ दिन रहकर परितोष अमेरिका वापस चला गया। वैसे शादी उसकी तबतक खटाई में थी। उसके पुराने मकान का जीर्णोद्धार पहले ही शुरू हो चुका था, हम ये समझते रहे थे कि इस बार परितोष दुल्हन लेकर ही जाएगा। लेकिन ऐसी कोई बात नहीं हुई। परितोष अकेला गया और खुशी-खुशी गया। वह वहाँ के सुथरेपन और व्यावसायिकता का कायल हो गया था, साथ ही वहाँ के सार्वजनिक जीवन में सत्यनिष्ठा और उच्च नैतिक मानदंड का भी उस पर गहरा प्रभाव था। एक बार हमलोग जब चटखारे लेकर मोनिका लेविंस्की और बिल क्लिंटन के गहन संबंधें पर बात कर रहे थे,परितोष की प्रतिक्रिया कुछ इस प्रकार थी -” अपने को हम चाहे जितना महान और ऊँचा समझते हों, बताइए जरा, बिल जैसा साहस हमारे यहाँ कितने राजनीतिकों में है, और ऐसी कितनी एजेन्सियाँ हैं जो राष्ट्र के सर्वेसर्वा को सच बोलने को मजबूर कर दें? और इतना होने के बाद देश उसको माफ भी कर दे - ऐसा यहाँ, हमारे यहाँ संभव है? दूसरों के लिए वे बेशक बुरे हो सकते हैं लेकिन स्वयं अपने लिए उनकी कसौटियाँ अलग हैं, लोकतांत्रिक मर्यादाओं की उन्हें समझ है और उसके प्रति वास्तव में उनमें कटिबद्धता है। दरअसल उनकी ताकत का एक आधर यह भी है जिसकी ओर हमारा ध्यान नहीं जाता!”

“लगता है तुमने वहाँ बसने का इरादा कर लिया है, क्यों?” मैंने हँसकर पूछा तो उसने कहा - “नहीं भइया, वह बात नहीं है। सच

पूछिए तो वह बसने के लिए ऐसी बुरी जगह भी नहीं है, लेकिन मै दूसरी बात कर रहा हूँ। आपको जिनके साथ रहना है उनके अवगुण गिनते नहीं रह सकते। तो मैं कुछ उनकी खूबियाँ भी परखता रहता हूँ। आखिर उनमें कुछ बात है जो वे आज पूरी दुनिया पर छाए हुए हैं। चाहे वह रूस हो, भारत हो या चीन, कोई अमेरिका को नजरअंदाज नहीं कर सकता। नीतियों, विचारधराओं के ऊपर जाकर उससे तालमेल बैठाना ही पड़ता है। इसीलिए आज यह एकध्रुवीय दुनिया की बात होती है। और हाँ, आपने जो बसने की बात कही तो वह इतना आसान भी नहीं है। रह-रहकर वे अपने दरवाजे हमारे लिए बंद कर देते हैं। इसलिए फिलहाल मैं बहुत ऊँचा नहीं सोच रहा शरत भइया।”

मेरी पोस्टिंग शहर से बीस मील दूर एक ग्रामीण शाखा में कर दी गई। सड़क की बदतर हालत के कारण ट्रेन पर अप-डाउन करना पड़ता था, और ट्रेन की वह हालत कि पूछो मत। हर आधे मील पर सवारियाँ चढ़ती-उतरती थीं। उफपर से वह इलाका थोड़ा उग्रवाद प्रभावित भी था। मेरा तो सारा पानी उतर गया। शहर में बड़े मजे किए थे, अब उसका खूूब हिसाब चुका रहा था। घर के कामों का पूरा बोझ श्रद्धा के ऊपर आ गया। देखते-देखते साल निकल गया। छोटे विवरणों में नहीं जाउफँगा। छुट्टी का दिन था, मैं शायद टीवी पर कोई मैच देख रहा था तभी परितोष का बड़ा भाई जिसके परचून की दुकान थी, शादी का कार्ड लिए आया।

कार्ड अंग्रेजी में था। पूछने पर पता चला कि परितोष ने खाँटी देशी लड़की को प्राथमिकता दी थी। इसके कई कारण थे लेकिन मोटे तौर पर इसके दो लाभ थे - पहला कि देसी लड़की से विवाह करने पर वैवाहिक जीवन में आमतौर पर अनिश्चय का सामना नहीं करना पड़ता, और दूसर कि इससे अनायास दहेज की मोटी रकम उपलब्ध् हो जाती थी। परितोष व्यावहारिक लड़का था। कम-से-कम उसने अबतक साबित यही किया था। खैर! परितोष शादी के एक दिन पहले पटना आया। ऐन शादी के दिन ही सुबह-सुबह घर चला आया कि सपरिवार बारात चलना है। बारात क्या, वह तो गाड़ी में बैठकर बस एक पंच सितारा होटल में पहुँचना था जहाँ शादी की रस्में होनी थीं। खूब अच्छा इंतजाम था।

शादी के चार-छह दिन बाद हमने वर-वधु को रात के खाने पर आमंत्रित किया तो परितोष अकेला ही आया। पत्नी को कहीं और जाना था, ऐसा हमें बताया गया। हमारा मन थाड़ा छोटा तो हुआ क्योंकि श्रुति नई दुल्हन को लेकर खासी उत्साहित थी। परितोष ने उसे मनाया। फिर उसने हमारे साथ ही भोजन की तैयारी भी की। मेरे पास कभी किसी दोस्त की दी हुई रम की एक बोतल पड़ी थी। मैंने ऑफर किया तो थोड़ी झिझक के बाद वह तैयार हो गया। हम दोनों बाहर बरामदे में आ गए। हमने ज्यादातर अमेरिका के बारे में ही बातें की। भूगोल के प्रति मैं कभी बहुत गंभीर नहीं रहा था। मैं न्यूयार्क को यू० एस० के पश्चिमी तट का शहर समझता आया था जबकि वह पूर्वी तट पर उत्तरी अटलांटिक महासागर के किनारे पर स्थित है। वाशिंगटन को मैं तटीय शहर मानता था, जो कि गलत साबित हुआ। राजधनी वांशिगटन डी.सी. है जबकि वाशिंगटन नाम का एक प्रांत भी है। कैलिफोर्निया को मैं अब तक एक शहर मानता आया था, गलत। वह तो पश्चिमी तट पर एक प्रायद्वीपीय भू-भाग है, प्रांत है जिसका दक्षिणी सिरा मेक्सिको में है। बोस्टन जहाँ आभास को डिटेन किया गया था, न्युयार्क से थोड़ी ही दूर पर उत्तर में स्थित है जबकि मै उसे दूसरे दक्षिणी छोर पर देखता आया था।

मैंने यह भी जाना कि अमेरिका के पूर्वी तट पर पहुँचने के लिए भारत से वाया यूरोप जाना ठीक रहता है जबकि पश्चिमी तट पर वाया दक्षिण-पूर्व एशिया भी जा सकते हैं। अमेरिका में भी पब्लिक सेक्टर है, मुझे पहली बार परितोष ने ही बताया, और यह भी कि वहाँ राजनीति में महिलाओं की भागीदारी भारत की तुलना में बहुत कम है। भारतीय महिलाएँ अमरीकी महिलाओं की तुलना में कहीं ज्यादा सुरक्षित और हाँ, महत्वाकांक्षी भी हैं - यह परितोष का आकलन था जो मुझे कुछ सही नहीं लगा। अमेरिका इराक को सबक सिखाने पर आमादा है इसलिए कि इराक अमेरिकी डॉलर की बजाए यूरो में ट्रांजैक्शन करना चाहता है। अमेरिका की शक्ति डालर है, उस पर आघात करने वाला उसका प्रबल शुत्र है और उसका सफाया करना पहली प्राथमिकता। अमेरिका लोकतंत्र के नाम पर सैनिक तानाशाही को समर्थन दे सकता है, शांति के लिए युद्ध थोप सकता है क्योंकि अमेरिकी नीतियों के पीछे कोई सैद्धांतिक मूल्य नहीं, बल्कि उसका अपना राष्ट्रीय हित है, उसकी अपनी आंतरिक और विश्वव्यापी जरूरतें हैं। अमेरिका एक साथ महाजन भी है और जमींदार भी। वह वादी, वकील और न्यायाधीश की भूमिका में भी एक ही साथ दिखाई पड़ सकता है। अमेरिका दुनिया भर में करोड़ों लोगों के लिए सबसे सम्मोहक स्थान है तो उतने ही लोगों के लिए घृणास्पद प्रतीक भी।

परितोष के साथ चर्चा में अमेरिका के बारे में मेरी जानकारी में खासा इजाफा हुआ। परितोष के बारे में मेरा आकलन भी कुछ बदल गया। वह एक गंभीर और जानकार आदमी की तरह बात कर रहा था, उस पर रम का कोई असर नहीं दिखाई दे रहा था। मैंने उसकी प्रशंसा में कहा - “ वहाँ तो कहते हो कि बहुत व्यस्त रहते हो, फिर यह सब जानने-समझने का मौका कब मिला भाई? “

यह कोई बड़ी बात नहीं है भइया। आखिर हम भी आँख-कान खुले रखते हैं, हाँ जुबान भले ही बंद रखते हों! उस पर से यदि आभास बसु आपके साथ कमरा शेयर करते हों तो अनायास आपको बहुत सारी जानकारियाँ उपलब्ध् हो जाती हैं। ... ओह, मैंने तो आपको बताया ही नहीं ...?”

“क्या? क्या नहीं बताया?” मै जिज्ञासा में उसके कुछ पास सरक आया।

“उसकी हालत ठीक नहीं!”

मेरे कुरेदने पर परितोष ने आभास के बारे में जो जानकारी दी, उसे उस बिंदु से जोड़ रहा हूँ जहाँ मैंने उसके बारे में बात करते-करते

सहसा विराम लिया था, यानी जरा-सी साँस ली थी।

उस धमकी के बाद आभास को घर के बाहर नहीं निकलने दिया गया। एक एजेंट के माध्यम उसके पिता ने उसके लिए टिकट का

इंतजाम किया। वे चाहते थे कि सबसे पहले बेटा सुरक्षित निकल जाए। ऐसी ही हुआ, नहीं चाहते हुए भी आभास नौ-दस दिन के अंदर वापस सनफ्रांसिस्को पहुँच गया। बहुत बुझे मन से उसने ज्वायनिग दी। उसकी लंबी अनुपस्थिति को पसंद नहीं किया गया। उसे कड़ी चेतावनी मिली। वह जिस साफ्टवेयर प्रोजेक्ट पर काम कर रहा था, वहाँ से उसे हटा कर गैर-तकनीकी किस्म की जिम्मेवारी दी गई।

वह आहत हुआ लेकिन कोई चारा नहीं था। उसने तय किया कि जल्द ही वह किसी और कंपनी के लिए कोशिश शुरू कर देगा।

एक तो काम में कोई चुनौती नहीं, उस पर से घंटा भर अतिरिक्त ड्युटी बजाना। उसे दफ्तर सबसे पहले पहुँचना और सबसे बाद में निकलना था। उसने परितोष से एक दिन कहा -

“यार , ऐसे तो मैं इंजीनियरिंग भूल जाऊँगा। ये लोग क्या कर रहे हैं मेरे साथ?

“तुम भी तो वहाँ जाकर बैठ ही गए। भूल ही गए कि यह अमेरिका है, यहाँ यह सब नहीं चलता। अब जो कर रहे हें करने दो, तुम

शिकायत का कोई मौका मत दो, बस जो कहते हैं करते चलो।” परितोष की संवेदना में झुँझलाहट थी लेकिन वह आभास से लगाव के कारण ही थी।

“यह तो इंसल्टिंग है परितोष!”

“चिंता मत करो, थोडे़ दिनों में सब ठीक हो जाएगा।’ परितोष ने उसे दिलासा दी!

आभास मित्रों-सहकर्मियों से कटा-कटा-सा रहने लगा। लेकिन जाने कैसे सपना को उसके लौटने की खबर मिल गई। वह उससे मिलने चली आई।

“मुझे लगता था तुम नहीं आओगे आभास। तुम्हें यहाँ फिर से देखना ... ओह, व्हाट अ प्लेजर!” सपना चहक रही थी लेकिन

आभास औपचारिक बना हुआ था।

“क्या बात है आभास? परेशान दिखाई देते हो? सब ठीक तो है?”

“हाँ -हाँ सब ठीक है। ऐसी कोई बात नहीं।” वह उससे कह न सका कि उसका बस चलता तो फिर कभी लौट कर नहीं आता।

“तो फिर इतने गिरे-गिरे-से क्यों हो हैण्डसम? यह अमेरिका है, लाइपफ एनजाय करने के लिए इससे बेहतर दुनिया में दूसरी कोई जगह है? “ सपना ने उसे बाहों में भर लिया - “ ओ माई गॉड, आए एम फॉण्ड ऑफ योर टेन्डरनेस आभास, आइ जस्ट डाय

फॉर इट। तुम्हें दोबारा यहाँ देखकर कैसा लग रहा है, मैं कैसे बताऊँ। मुझे लगता था मैं तुम्हें खो चुकी।”

आलिंगन उष्ण था, और प्रगाढ़ भी। आभास दुःखी था लेकिन उसे जैसे सहारा मिल गया। उसे जैसे इसी की अभीप्सा थी। सपना के उच्छ्वासों में कुछ पल को वह सब कुछ भूल गया।

सप्ताहांतों में इसकी आवृत्ति बनने लगी। सपना स्वयं उससे मिलने चली आती। वह वाकई आभास को पसंद करती थी। आभास के सौष्टव व व्यक्तित्व में उसे एक किस्म की कोमलता महसूस होती थी, वैसी ही जैसा कि लारेंस ने लेडी चैटरली के गेटकीपर प्रेमी के बारे में वर्णन किया है। सपना अभास के इसी गुण पर मरती थी। वह उसे अपने साथ लिए जाने कहाँ-कहाँ घूमती पिफरती। उधर आभास के मानमर्दन की भरपाई होती रहती। काम पर जितना उपेक्षित और गैर-जरूरी महसूस करता, उतना ही सपना के लिए महत्वपूर्ण बनता जाता था। फिर, उसे भूलना था, देवयानी को भूलना था। देवयानी को भूलने का सपना से अच्छा बहाना क्या हो सकता था - जागी आँखों से देखा गया सपना - क्रेजी सैपी!

कोई तीन महीने बाद पिता से फोन पर बात हुई। उनका वीजा-पासपोर्ट तैयार था। अपना मकान साजो-सामान सहित किसी और दबंग को किंचित बेहतर दाम पर बेच अब अपने एक करीबी रिश्तेदार के यहाँ उन्होंने आश्रय ले रखा था। वे देश छोड़ने को तैयार बैठे थे, बस आभास के संकेत की प्रतीक्षा थी। सपना की मदद से आभास ने कुछ बड़ा मकान किराए पर ले लिया। एक उपनगरीय क्षेत्रा के सीमांत पर एक मलयाली परिवार का मकान।

आखिरकार बसु परिवार अमेरिका में आ जमा। माँ-बाप दोनों अपार उत्साह में। पिता को यहाँ की हर चीज नायाब लगती। वे मुग्ध् और विभोर! बाता-बात में भारत से तुलना करते। भारत जितना देखा था, वह था घटिया, पिछड़ा, वाहयात और इनकारिजिबल - कभी नहीं सुधरने वाला।

मकान पूरी तरह फर्निश्ड था। माँ भले ही बडे़ परिवार से आती थीं लेकिन उनके लिए यह नया आवास कल्पनातीत था। क्या सोफा, क्या बिस्तर, क्या रसोई। सब कुछ हैरतअंगेज। सचमुच अगर औलाद लायक हो तो धरती पर स्वर्ग उतर आता है।

लेकिन सपना को लेकर माँ सशंकित रहतीं - न जाने किस कुलगोत्र की लड़की है। उसकी आभास के साथ उठ-बैठ कभी-कभी शिष्टता की सीमा लाँघती प्रतीत होती, लेकिन मन मारकर खुद को समझाने का प्रयास करतीं - यह अमेरिका है। कभी-कभी उनको लगता कि देवयानी को लेकर उनकी नाराजगी के विरुद्ध आभास का यह प्रतिक्रियात्मक व्यवहार था, कि लो देवयानी को नहीं सह सकती तो सैपी को झेलो।

लेकिन सपना को लेकर पिता निर्द्वन्द्व ही नहीं, बल्कि उत्साहित थे। सपना का साथ हासिल करना उनके लिए बेटे की एक और उपलब्धि की तरह था। आखिर बेटे में कुछ खास बात जरूर है जो तीस सालों से अमेरिका में जमे करोड़पति ;शायद अरबपतिद्ध एन आर आई की बेटी उस पर मरती है। बेटा अपने संपर्कों का विस्तार कर रहा है - यह उसके भविष्य के लिए अच्छा है। और भविष्य अब और कहाँ है! अब तो वर्त्तमान भी यहीं, भविष्य भी यहीं। यहाँ पहुँचकर अब पीछे देखना मूर्खता है।

मगर माता-पिता दोनों एक अनुभव में साझेदार थे - आभास के पास उनके लिए समय कम है। आभास सामान्य नहीं दिखाई देता, उसका हँसना-बोलना कम हो गया है। आभास अतिशय व्यस्त है। आभास कभी-कभी अपरिचित-सा हो आता है।

उन दिनों एशियाई, खासकर भारतीय तकनीशियनों के प्रति अमेरिकी प्रशासन सख्त हो गया था। उन्हें अमेरिकी कंपनियों में प्रवेश नहीं मिल रहा था, यहाँ तक कि उनके वीजा कैंसिल किए जा रहे थे। स्थानीय युवाओं में बेरोजगारी बढ़ने को इसका कारण बताया जा रहा था। कई लोग इसे अमेरिकी विदेश नीति की जरूरतों से जोड़कर देखते थे। यह कोई नई बात नहीं थी लेकिन आभास और परितोष जैसों पर इसका दबाव जरूर था। उन्हें लगता कि किसी भी समय उनसे वापस लौटने को कहा जा सकता है। इसी बीच कंपनी के अधिकारी के साथ आभास की गरमागरम बहस हो गई। दरअसल आभास के सब्र का बाँध् तब टूट गया जब संप्रेषण की एक छोटी-सी गलती को लेकर उसे डाँट पिलाई गई। नहीं चाहते हुए भी आभास बोल गया -” मुझसे गलती हुई है लेकिन यह अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि मुझसे वह करने को कहा जाता है जो मेरा काम है ही नहीं।” यह सुनते ही प्रोजेक्ट डायरेक्टर साहब भड़क गए। कहने लगे -”कम्पनी जिसको जिस योग्य समझती है, वैसी जिम्मेवारी देती है। तुम्हें इसी काम में अपनी उपयोगिता सिद्ध करनी है, यह तुम्हें करना होगा।”

आभास भी बिगड़ गया - “तब कहना होगा कि योग्यता मापने का आपका पैमाना सही नहीं है ...”

“तुम्हें बहुत जल्दी पता लग जाएगा कि योग्यता मापने का हमारा पैमाना वास्तव में क्या है, अब जा सकते हो।” साहब ने कहा तो

आभास तमतमाया हुआ उनके केबिन से बाहर निकल आया।

आभास के मित्र व सहकर्मी परितोष के यहाँ इकट्ठे हुए। आभास को निकाला जाना तय मान रहे थे। उन्हें यों अपने लिए भी आशंका थी। परितोष का मानना था कि आभास को इतना एक्सप्रेसिव नहीं होना चाहिए था, अपनी स्थिति कमजोर हो तो दो बात सह लेने में ही बुद्धिमानी है। वे सब आभास का इंतजार करते रहे, वह नहीं आया। परितोष ने उसे फोन किया तो उसका मोबाइल ऑफ पाया।

उसने अनुमान लगाया कि आभास आने को कहकर भी शायद इसलिए नहीं आया कि दफ्तर में हुए तनाव के बाद फिर उससे सवाल-जवाब किया जाएगा। रात को उसने पिफर आभास से संपर्क साधने की कोशिश की, लेकिन व्यर्थ।

आभास देर रात को घर लौटा। बोस्टन वाली घटना के बाद पहली बार वह इतनी देर बाहर रहा। सनफ्रांसिस्को की रात का नजारा करते हुए वह सोचता रहा ...” मैं यहाँ क्यों हूँ, किसलिए? मुझे यहाँ क्यों होना चाहिए? मुझे जीवन से क्या चाहिए? मैं किसके लिए क्या कर रहा हूँ? मैं यहाँ क्या आजीविका के लिए हूँ? मैं यहाँ सिर्फ पैसे के लिए हूँ - किसी भी कीमत पर कमाया गया पैसा? पैसे की मुझे क्या दरकार, खाते-पीते परिवार के अकेले वारिस को कितना कुछ चाहिए अपने सभ्य-सुसंस्कृत अस्तित्व के लिए? मैं देवयानी के लिए यह देश न छोड़ सका, क्या मैं सपना के लिए अपना देश छोड़ दूँ?”

माता-पिता खासे चिंतित थे क्योंकि परितोष और सपना के फोन भी कई बार आ चुके थे अब तक। आभास ने हाथ-मुँह धेया और सीधे खाने की मेज पर आ गया। पिता उससे अंग्रेजी में कुछ-कुछ पूछते रहे। वह अचानक चिढ़कर बोला -”आप यहाँ आकर बांग्ला भूल गए क्या? जब देखो तब अंग्रजी ही बोलते रहते हैं?” पिता उसकी बात सुन सकते में आ गए, लेकिन उस वक्त उसे छेड़ना उचित नहीं समझा। पत्नी ने भी उन्हें चुप रहने का इशारा किया। लेकिन आभास ने जैसे सुर पकड़ ली -” अपनी भाषा, अपने देश, अपनी पहचान के प्रति आपमें इतना तिरस्कार का भाव क्यों है? लोग बेदखल कर दिए जाते हैं, अगवा कर लिए जाते हैं, मार भी दिए जाते हैं - क्या उन सबको इसीलिए अपनी जमीन छोड़ देनी चाहिए? आपकी योजना मैं खूब समझता हूँ, आप मुझे अमेरिकन बनाने पर अमादा हैं, लेकिन आपको क्या मिल जाएगा इससे? अपनी हीनताग्रंथि आप मुझ पर क्यों लादना चाहते हैं। सोचिए, सौ साल पहले बंगाल से चलकर विवेकानंद यहाँ क्या करने आए थे। आज हम क्या करने आए हैं यहाँ? हम अपनी मेधा देते हैं उनको, अपना श्रम देते हैं। हमसे ताकत पाकर वे पूरी दुनिया पर राज करते हैं, हम क्यों हों नत-मस्तक उनके सामने? वे हमपर अहसान नहीं करते, हम पर कुछ डालर फेंककर? ...”

बसु परिवार ने वह रात आँखों में काटी। तीसरे दिन ही आभास को काम से हटा दिया गया। यह अप्रत्याशित नहीं था, अप्रत्याशित था सेवाच्युति संबंधी वह पत्र जिसमें कारोबर में मंदी और कंपनी की माली हालत सही नहीं होने को आभास की विमुक्ति का कारण बताया गया था। अमेरिकी फूँक-फूँक कर कदम रखते हैं और अपने देश के कानून की परवाह करते हैं! एक जूनियर स्टाफ को भी टर्मिनेट किया गया। ताकि कार्रवाई व्यक्ति-केन्द्रित न दिखे।

वीजा की अवधि समाप्त होने में अभी दो माह शेष थे। आभास को निर्णय लेना था और तेजी से काम करना था। अगर वहाँ रहना था तो इसके लिए वीजा के नवीकरण का प्रयास शुरू कर देना था, यदि नहीं तो उसके पहले भारत लौटने की तैयारी करनी थी। लेकिन भारत लौटकर वह जाएगा कहाँ? घर-बार तो सब पिता बेच आए। एकदम नए सिरे से शुरूआत करनी होगी, वह भी अपनी ही जमीन पर।

क्या विडंबना है! आभास लगातार सोच में था - क्या करना चाहिए? न्यूजर्सी में अपने एक दोस्त को उसने फोन किया -” मेरे लिए कोई जगह देखो, आय एम आउट आफ जाब राइट नाउ!” “देखता हूँ, लेकिन मुश्किल लग रहा है ...”उधर से जवाब मिला।

फिर उसने सपना को फोन मिलाया - “हैलो सैपी, आइ एम नाउ फ्री टू बी विद यू। आर यू टू? “

“व्हाट डु यू मीन? आर यू कालिंग फ्रॉम योर ऑफिस?”

“नो, सॉरी सैपी, आय एम ऐन आउस्टेड फेलो फाम येस्टर्डे।”

“ओह नो ...! सी मी ऐट सिक्सोक्लाक, यू मस्ट!”

“ओके ...!” लेकिन उस शाम वह सपना से मिल न सका।

आभास ने मात-पिता को अब तक नौकरी से निकाले जाने की खबर नहीं दी थी। उन्हें सदमा पहुँच सकता

था। आखिर वे उसके भरोसे सब कुछ पीछे छोड़ आए थे। उसने माँ से बात करनी चाही।

“कैसा लग रहा है यहाँ माँ?”

“अच्छा ही लगता है, बस मुँह बंद रखना पड़ता है। तुम व्यस्त रहते हो, तुम्हारे बाबा दिन-रात टीवी से ही चिपके रहते हैं। और तो यहाँ कोई है नहीं जिससे बात करूँ। तुम्हारी वह सैपी तो कोई रोज-रोज आती नहीं। वैसे भी उसकी बातें मुझे समझ में कम ही आती हैं।”

“सॉरी माँ, मैं तुम लोगों का बहुत ख्याल नहीं रख पाता!” आभास को कुछ ग्लानि-बोध् हुआ।

“अच्छा जाने दो, ऐसी कोई बात नहीं! आखिर तो यहाँ काम ही करने आए हो! लेकिन सुनो, जरा अपने बाबा का यहाँ चेकप करा दो। उन्हें छह महीने पहले हल्का स्ट्रोक लगा था। तुम घबरा कर चले आओगे, इसलिए तुम्हें बताया नहीं।”

“क्या? यह तो ठीक नहीं है, तुम्हें यह बात छुपानी नहीं चाहिए थी ...”आभास चिंता में पड़ा।

“इतना हंगामा करके यहाँ आए, मैंने इसीलिए इन्हें रोका नहीं कि वे टेंशन में रहेंगे। वहाँ भी तो कितनी घुटन है, अपनी ही जगह पराई लगती है। मुझे भी इस तरह यहाँ आना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा। और ... उनको तुमसे बहुत हौसला है आभास, इसका ख्याल रखना!” माँ की आँखें भर आईं। वह माँ की ओर और देख न सका। पकड़े जाने पर अपराधी का कलेजा ऐसे ही धड़कता होगा शायद।

अब क्या करोगे आभास बसु? यू इमोशनल नास्टैल्जिक फूल! अब अगर लायक हिन्दुस्तानी बेटे का कर्त्तव्य निभाना है तो देखना होगा कि बाप को कोई चोट न पहुँचे। कैसे कह सकोगे माँ-बाप से कि नाकाम होकर तुम स्वदेश लौटने की तैयारी कर रहे हो? पिता को कुछ हो गया तो माँ को अपना मुँह कैसे दिख पाओगे? तुम फँस गए। हाँ, फँस गए! तुम्हें फिलहाल यहीं रहना है, किसी भी तरह यहीं रहना है। तुम नौकरी से निकाले जा सकते हो, लेकिन तुम माँ-बाप को अपनी जिंदगी से नहीं निकाल सकते।

आभास ने अपनी आँखों की कोरों को साफ किया। पहली बार, जीवन में सर्वथा पहली बार, उसे महसूस हुआ जैसे वह एक विस्थापित व्यक्ति हो, जैसे वह ऐसा पौधा हो जिसे एक जगह से उखाड़कर दूसरी जगह लगाने का जतन हो रहा हो। और इसमें जाने कौन-सी शिराएँ चटखती जा रही हैं, कौन से रेशे अंतर के टूटते जा रहे हैं!

उधर जब आभास सपना से मिलने नहीं गया तो दूसरे दिन वह सीधे उसके दफ्तर पहुँच गई। वहाँ उसे आभास के बारे में जानकारी मिली। उसने आभास को फोन पर खुब खरी-खोटी सुनाई। आभास चुपचाप सब सुनता रहा जैसे उसने अपनी गलती मान ली हो। वह जानता था कि उसे इस संकटपूर्ण स्थिति से कोई बाहर निकाल सकता था तो वह सपना ही थी। वह फौरन उससे मिलने निकल पड़ा।

“बोलो सपना, मैं अब क्या करूँ! आभास को अपने बारे में विस्तार से बात करनी पड़ी। उसे सपना को वह सब कुछ बताना पड़ा

जो वह उसे कतई बताना नहीं चाहता था। वैसे भी अपना दुखड़ा रोने को कोई शिष्ट व्यवहार नहीं मानता। सपना ने ध्यान से उसकी बातें सुनीं। ढाढ़स बँधाया और अपने पिता के संपर्कों का हवाला दिया।

रात को आभास अन्यमनस्क-सा टीवी के सामने बैठा चैनल्स बदल रहा था। इराक में अमेरिका फौज ‘शैतान’ के शासन का अंत कर रही थी। वहाँ मनुष्यत्व और अच्छाई की पताका फहरानी थी। आतंक के विरुद्ध आतंक का माहौल तारी हो रहा था और दुनिया ‘सभ्यताओं के संघर्ष’ में उलझ रही थी। टीवी पर अमेरिका-इंग्लैण्ड की सरकारों के खिलाफ विश्वव्यापी विरोध प्रदर्शनों की भी खबरें आ रही थीं। आभास सोच रहा था -

“आम अमेरिकी राजनीति पर बात करने से कतराता क्यों है? शायद विकास का एक स्तर प्राप्त कर लेने के बाद राजनीतिक जागरूकता या संवेदनशीलता की उतनी जरूरत नहीं रह जाती। तब तो बिल्कुल ही नहीं जबकि राजनीतिक फैसलों का सीधा असर अपने देश, अपने लोगो पर नहीं होता हो। लेकिन अमरीकी अपने रक्त के प्रति अतिशय संवेदनशील हैं। उनका रक्त अगर कोरिया या वियतनाम में बहे,अफगानिस्तान में बहे या फिर न्युयार्क में ही, तो जनमानस उद्वेलित होता है, आंदोलित होता है और राजनीति पर इसका असर भी होता है। ट्विन टावर हमले में अपने परिजनों को खो चुके कई अमेरिकी नागरिकों के हाथों में तख्तियाँ थीं - “वी वांट पीस!”

“सुनो आभास...” बाबा सामने आकर बैठे।

“खुलना जिले के अपने गाँव से जब मार-मार कर हमें भगाया गया था तो मेरी उम्र पाँच साल थी। हमारा बहुत खुशहाल संयुक्त परिवार था। सब गँवाकर हम तितर-बितर हो गए। बदहवासी में जब हम बार्डर पार करके इंडिया में आए तो परिवार आधा रह गया। बाकी आधे परिवार की तलाश सालों चलती रही। माँ किसी तरह अपने कुछ गहने बचाकर ला सकी थी। वही हमारे काम आया। दो साल तक हम कोलकाता में अपने रिश्तेदारों के यहाँ मारे-मारे फिरते रहे कि संयोग से बाबा को रेलवे में नौकरी मिल गई। हम खुलना से चलकर कोलकाता आए थे, अब कोलकाता से मुगलसराय आ गए। फिर स्थान-स्थान पर बाबा की बदली होती रही। अंत में हम पटना में आकर जमे। बाबा ने एक छोटा-सा मकान खरीदा और उसी में रेलवे की अपनी सारी कमाई लगा दी। हमारे दिन बहुरे, हमें अपनी जमीन मिल गई, उसी को अपना माना। न हमें कोलकाता की याद आई, न खुलना की। सब कुछ ठीक ही चला लेकिन अंत में फिर वही। हम बेदखल होने पर मजबूर हुए। हो सकता है मैं ज्यादा ही डर गया होउफँ, लेकिन यह हुआ। आभास, मुझे बहुत चोट पहुँची। मैं समझ नहीं पा रहा कि मैं किस मिट्टी से संबंध रखता हूँ - खुलना की मिट्टी, कोलकाता की मिट्टी या पटना की। मैं समझ नहीं पा रहा आभास कि मेरी कौन सी राष्ट्रीयता है! तुम समझदार हो, इस ट्रेजेडी को समझ सकते हो! तुम जब यहाँ अमेरिका आ गए तो मुझे लगा कि हमें अब राष्ट्रीयताओं के पार निकल आना चाहिए, कहीं जब कुछ अपना नहीं तो सब जग अपना हो जाता है आभास। यह ‘ब्रोकेन आइडेंटिटी’ है न आभास? हमारी पहचान खंडित हो चुकी है, मूल्य-बोध् खंडित हो चुका है लेकिन इसका जिम्मेदार कौन है? आभास, जरा सोचो! लाख छुपाया लेकिन कोलकाता में रिफ्यूजी ही कहलाए, अपनी बंगालियत को बचाए रखा हमने और बिहारी नहीं बन पाए। यह बिहारी होना, बंगाली होना, इंडियन होना - यह कैसे संभव हो पाता है, समझ में नहीं आता आभास। मैं जानता हूँ, हम शायद अमेरिकन भी नहीं बन पाएँगे!”

कुछ देर के लिए बाबा चुप हो गए। आवाज उनकी भारी थी। आँखों में उनकी आँसू थे? पता नहीं। आभास ने उनकी ओर देखा नहीं, इंतजार करता रहा। वे फिर बोले -”मैंने गलत किया न आभास? सोचा, जब दुनिया एक बाजार ही है तो क्यों न खुद को वहाँ बेचा जाए जहाँ मोल ज्यादा लगता हो, ज्यादा दाम मिलता हो! उसके हाथों क्यों न बिका जाए जो सबसे बड़ा खरीदार हो। यही तो च्वाइस है अपने पास कि अपना खरीदार ढूँढ लें, बाकी तो कहीं कुछ हमारे वश में नहीं! किसको दरकार है हमारी? ... लेकिन तुम्हें मैंने अपना जरिया बना डाला आभास, यह मैंने अच्छा नहीं किया। मैं सचमुच शर्मिदा हूँ ...!”

सहसा आभास को ख्याल आया कि पिता को तनाव से बचना चाहिए! वह क्या करे कि वे नार्मल हो जाएँ? इस हाल मे अगर उन्हें यह मालूम हो कि उसकी नौकरी चली गई है तो जाने क्या हो।

“ठीक तो है बाबा, हम अब पैन-सिटीजेनशिप - विश्व नागरिकता की ओर बढ़ चले हैं। ग्लोबलाइजेशन के पैरोकार इसी की तो वकालत कर रहे हैं। अच्छा है, इस मुहिम में हम आगे हैं। क्यों चिंता करते हैं?”आभास ने मुस्कराकर कहा तो पिता ने उसे साश्चर्य देखा।

अब आभास उनकी आँखों की नमी साफ-साफ लक्षित कर सकता था।

“हमारी चाहे जो मजबूरी हो लेकिन देखिए, इंडियंस हर कहीं छाए हुए हैं कि नहीं? विवेकानंद ने कहा था - भारत विश्वगुरु बनेगा। अब देखिए! दुनिया भर में इंडियन कम्युनिटी का जिस तरह प्रसार हो रहा है, अब तो कई देशों में वे सत्ता में भी भागीदारी कर रहे हैं। यही हाल जारी रहा तो, और वह जारी रहेगा, तो भारत तो यों ही विश्वगुरु बन जाएगा! बोलिए मैं गलत बोल रहा हूँ बाबा? फिर ... आखिरकार हम इंडियन तो हैं ही ... बाबा! हमारी यह पहचान तो अक्षुण्ण है, तब और भी जब हम अपने देश के बाहर हैं -

सात समुंदर पार! उस रात की बातचीत के बाद पिता को तो चैन आया लेकिन आभास की बेचैनी तो बढ़ ही गई। उसे फौरन काम चाहिए था। दिन-दिन भर उसने कितने ही व्यक्तियों से संपर्क किया, घंटों इंटरनेट पर बैठा वैकेनसीज देखता रहा, इंटरनेट पर ही कुछ इंटरव्यू भी दिए लेकिन नतीजा कुछ नहीं। सपना के बार-बार के आग्रह पर आखिरकार वह उसके पिता से मिलने को राजी हुआ। उनसे घर पर मिलना ही सुविधजनक माना गया।

इस इलाके में एशियाई लोगों का अच्छा संकेन्द्रण था। सपना का मकान वाकई एक खूबसूरत विला था - लता-गुल्मों के हरे आवरण से सज्जित। अंदर बैठा तो सपना ने अपने पिता से उसका परिचय कराया। वे सीधे असली बात पर आ गए -” सैपी ने मुझे तुम्हारे बारे में बताया है। तुमने बचकानी हरकत क्यों की? अच्छे-खासे जॉब में थे तुम! यहाँ तो भई तुम्हें सेंट परसेंट प्रोफेशनल बनना हो, तभी टिक पाओगे, नहीं तो फिर क्या फायदा! मैंने तो जहाँ कहीं भी पता किया, बाहर के लोगों को निकाल ही रहे हैं। थोड़ी रिसेशन चल रही है। गलत समय पर तुमने वहाँ पंगा लिया।”

आभास चुपचाप उन्हें सुनता रहा। अच्छी हिंदी बोल रहे थे, सुनकर अच्छा लगा। सैपी मुस्कराती हुई आभास के चेहरे पर अपने पिता की बातों का असर पढ़ रही थी जैसे।

“तुम बंगाली हो? ... बंगाली लोग जरा जल्दी रिऐक्ट करते हैं, क्यों?” वे मुस्कराए।

“सर मैं बिहारी हूँ, कह सकते हैं बिहारी बंगाली!” आभास भी मुस्कराया। सपना थोड़ी टेन्स हुई।

“ओह, आई सी। तब तो तुम सचमुच स्पेशल हो भई। तभी तो सैंपी तुम्हें इतना पसंद करती है। क्यों सैपी? “ वे हँसे, और

सपना को देखा। सपना ने उनकी बाँह पकड़ ली।

“आभास इज रिएली स्पेशल डैड, प्लीज डू सम्थिंग और हिम, दिस इज अर्जेंट डैड!'

“सर, मेरा वीजा ... अगले महीने ...”

“यह तो तुम्हें पहले सोचना चाहिए था न?”

“पहले यहाँ रुकने की कोई मजबूरी नहीं थी, अब है, प्लीज हेल्प मी सर।”

“देखो , फिर कोशिश करता हूँ। ऐसा करो, तुम दो दिन बाद मुझसे मिलो! या फिर सैपी तो है ही, मैं खबर कर दूँगा।”

“नहीं सर, मैं खुद हाजिर हो जाउफँगा।” आभास कहते हुए उठ खड़ा हुआ और उनसे विदा ली।

“डैडी अपीयर्स टु बी इम्प्रेस्ड, थैंक्स गाड, नाउ वी मे हैव सम होप!”

इस मुलाकात से काफी संतुष्ट थी सपना। सपना ने हाथ बढ़ाया तो आभास ने दोनों हाथों में वह हाथ लेकर उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट की।

परितोष एक हफ्ते के प्लेजर ट्रिप पर निकलने वाला था। उसके पहले वह आभास से मिलना चाहता था। परितोष तो चाहता था कि किसी तरह आभास भी उसके साथ हो ले लेकिन वह जानता था कि वह शायद ही संभव हो पाए। वास्तव में परितोष आभास के कैरियर को लेकर खासा चिंतित था और अपने स्तर पर उसके लिए जगह भी तलाश रहा था। दोनों की भेंट जब हुई तो दोनों बहुत खुश हुए।

“फिर, तुमने उस लड़की के पीछे हमें तो एकदम भुला ही दिया।” परितोष ने उलाहना दी।

“कौन जानता है, मैं खुद को भुला रहा होऊँ परितोष!” यह सुनकर परितोष के चेहरे की मुस्कान गायब हो गई। उसने आभास के

कंधे पर हाथ रखकर कहा -” सब ठीक हो जाएगा यार!”

“कभी-कभी सोचकर गिल्टी कांशस हो जाता हूँ कि मैं उसे कहीं यूज तो नहीं कर रहा हूँ।”

“यहाँ यह सब चलता है प्यारे, इतना सोच-विचार में पड़ने की जरूरत नहीं।” परितोष उसे सांत्वना दी।

“कैनेडा चलते हो? चलो घूम आएँ, पैसे की चिंता नहीं करो।”

“तुम हो आओ। मैं कैसे जा सकूँगा अभी। अभी तो ...”

“अच्छा ठीक है। सुनो, एक बात कहुँ, बुरा तो नहीं मानोगे?”

“क्या?”

“एक बार यार माफी माँग लेते, शायद तुम्हें वापस बुला लें। आभास सोच में पड़ गया। उसे गुस्सा नहीं आया, जबकि परितोष उसकी चुप्पी से परेशान होने लगा था।

“देखो, मैं तुम्हें हर्ट करना नहीं चाहता, लेकिन देख रहे हो कितनी क्राइसिस है! कहो तो मैं एक बार उस उल्लू के पट्ठे से बात करूँ।

उसका मन जानने की कोशिश करता हूँ।”

“ठीक है, देखता हूँ।”

“देखना नहीं है, यह काम कर डालना है। तुम्हारे जैसे जीनियस का यह हाल देखा नहीं जाता आभास। बहुत हो चुका, अब जल्दी कुछ करो।”

परितोष के प्रस्ताव को अंतिम विकल्प के तौर पर आजमाया जा सकता था। लेकिन उसे लगता था कि शायद इसकी जरूरत न पड़े, वैसे भी माफी मिल जाने की कोई गारंटी तो थी नहीं। तब भी उसने इस बात का जिक्र सपना से करना जरूरी समझा। लेकिन उसने शंका जाहिर की। कंपनी ने जिन परिस्थितियों का हवाला देकर आभास को बाहर किया था उसमें उसे फिर से वापस ले लेना संभव नहीं लग रहा था।

दोबारा जब आभास सपना के पिता से मिला तो उन्होंने कहा -” देखो भई, यहाँ काम तो मिल रहा है - इलेक्ट्रिशियन का काम,

प्लम्बर का काम, सुपरवाइजर का काम, वगैरह-वगैरह लेकिन इंजीनियर, वह भी कम्प्यूटर इंजीनियर के लिए कोई जगह नहीं, किसी आइ.टी. प्रोपफेशनल के लिए कोई जगह नहीं। फिलहाल तो नहीं ही है। बाद में पता नहीं क्या हो। यू नो, अभी ऐसी ही पॉलिसी चल रही है, इसमें कोई एम्प्लायर क्या कर पाएगा? आये एम सौरी, आय कैनोट हेल्प इट!”

सपना ने आभास को देखा, फिर पिता से कहा -

“डैड , आभास की रीइम्प्लायमेंट नहीं हो सकती उसी कंपनी में? कम से कम फिलहाल तो यह क्राइसिस खत्म हो जाती, वीजा का रीन्युअल भी हो जाता। फिर बाद में देखते जो होता? क्यों आभास? “ आभास ने सहमति में सिर हिलाया तो सपना के पिता ने हैरत से उसे देखा।

“ठीक है, मैं पता करता हूँ। आय थिंक, नाउफ यू आर कमिंग टू दि टर्म्स! दैटीज बेटर! गाड ब्लेस यू!” आभास को देखकर वे

व्यंग्य में मुस्कराए। लेकिन वे रुके नहीं।

“देखो, बुरा मत मानना, इट इज जस्ट बीइंग फूलिश टु बी ईगोइस्टिक। जिन कई सारी चीजों को लेकर इंडिया में हम पूरी जिंदगी

परेशान रहते हैं, उनकी यहाँ कोई वकत ही नहीं है। उनको अगर हम यहाँ फालो करें तो उससे नुकसान ही है, और उसे पिछड़ा बर्ताव भी माना जाता है। खैर, धीर-धीरे सब ठीक हो जाएगा। थोड़ा प्रैग्मेटिक अप्रोच रखो, और क्या!”

आभास ने उनकी बातें ध्यान से सुनीं और कहा –“मैं कोशिश करुँगा सर!”

उस शाम आभास बहुत उदास था, बहुत अकेला। सैनप्रफांसिसको की सड़कों पर उसे वह बारह फीट चैड़ी गली याद आ रही थी जिसमें उसका मकान था। मालती के लत्तरों से लदा जिसका बारामदा था, जिसके फाटक पर एक ओर कनेर और दूसरी ओर कचनार लगा था।

अभी वहाँ सुबह हुई होगी! उजले रंग का वह दोमंजिला मकान सुनहली आभा से नहा उठा होगा। फाटक के पास नीचे जमीन पर

कचनार और कनेर के फूल बिछे होंगे, भींगे-भींगे से। अंजुरी में उनकी कोमल, ठंडी छुअन कैसा तो जादू करती है, देह सिहर जाती है! अंतर में खुशबुओं का मेला-सा लग आता है। ओह, कैसी गंध्! इतनी दिव्य, इतनी अपनी! अभी माँ की आवाज आएगी -

“आभास, कहाँ है बेटे? तेरा दूध् का गिलास तैयार है। आज बाबा के साथ घूमने नहीं जाएगा?” अभी बाबा पुकारेंगे - “आभास,

किधर चलें आज, गवर्नमेंट हाउस की तरपफ, या एअरपोर्ट चलोगे? “ अभी-अभी बारह-तेरह साल की, बड़ी-बड़ी आँखों और लंबे बालों वाली एक लड़की बगल के ओसारे से उतर पूजा के फूल तोड़ने लगेगी और आभास को चिढ़ाती हुई कनेर की डालियों को भी नीचे झुकाएगी। खीझ आने पर भी आभास उसे कुछ न कह पाएगा। अभी-अभी गोपाल दा शंख बजाएँगे और सारा मुहल्ला जाग जाएगा!

... पॉपी के टेस लाल फूल खिले हैं, मौसम के पहले फूल। काले गुलाब में कलियाँ लगी हैं, कितनी प्रतीक्षा के बाद! काँटा चुभ गया है। जरा गेंदे के पत्ते का रस तो लगा दो, ए देवयानी? देखना, माँ को मत बताना। ...

आह! वह सब कहाँ छोड़ आए तुम आभास! ओ माँ ...! मैं अपना जीवनाधार कहाँ खो आया! कैसे जी सकूँगा मैं!

आभास बसु, यू नास्टैल्जिक इडियट! तुममें यही कमी है। अभी वहाँ सुबह हुई होगी लेकिन यहाँ तो रात घिरती चली आ रही है। रात!

“क्या तुम दोनों शादी करना चाहते हो?”

“कौन दोनों?”

“तुम और सपना, और कौन!”

“मुझे नहीं मालूम।”

“माँ से क्यों छिपाते हो आभास, खुलकर बोलो?”

“मैं क्या बोलूँ! मैंने इसके बारे में तो कभी सोचा नहीं। वह क्यों करने लगी मुझसे शादी?”

“ तो फिर? किस तरह का संबंध् है यह?”

“मतलब? संबंध् है बस! वैसे दोस्ती का रिश्ता ही कहा जाएगा। इसमें परेशान होने की तो कोई बात नहीं।”

“क्यों नहीं है परेशान होने की बात?”

“तो होती रहा करो परेशान। यहाँ इन बातों का मतलब नहीं कुछ भी।”

“मैं जानती हूँ तुम यह सब क्यों कर रहे हो!”

“........”

“तुम्हारे बाबा ने ही पूछने को कहा था। मुझे क्या, जहाँ करनी हो करो शादी!”

“सचमुच तुम्हें अब कुछ नहीं?”

“नहीं, कुछ नहीं!” माँ गुस्से में उठकर चली गई हैं। अब उन्हें आभास की शादी से कोई मतलब नहीं! वे अब अमेरिका में जो हैं।

यहाँ कोई सवाल-जवाब नहीं, कोई स्टेटस सिम्बल नहीं क्योंकि उस लायक फिलहाल तो औकात भी नहीं है। तो फिर क्या है! क्यों रहे मतलब! हुँह, सपना से शादी! ऐसी बिछी जा रही है सपना जैसे। करोड़पति एन.आर.आई. की बेटी के लिए एक महाशय आभास बसु ही सुयोग्य वर बच गए हैं!

तब से तीन दिन बीत गए हैं। माँ कुछ बोलती नहीं, कोई बातचीत नहीं करती। आभास अपनी उलझनों में घिरा है। उसे जैसे इसकी परवाह नहीं। कैलिफोर्निया इन दिनों शीतलहर की चपेट में है। सारे स्पेस जैसे ठंडे हो गए हैं, जम गए हैं। बाबा कुछ निस्पृह से दिखते हैं, इन दिनों विक्रम सेठ की किताब पढ़ रहे हैं - अ सुटेबल बॉय!

“हाय हैण्डसम! क्या कर रहे हो? इधर फ़ोन नहीं किया?” सपना ने फोन पर आभास का हाल पूछा।

“हैलो सैपी, बस ठीक हूँ। तुम कैसी हो?”

“आय एम फाइन, बट तुम्हें देखने की फुर्सत कहाँ है!”

“नहीं -नहीं, ऐसी बात नहीं। बस ... तुम तो जानती ही हो कैसे चक्कर में फँसा हूँ।”

“तूम्हें चक्कर से बाहर निकालने की ही तो कोशिश हो रही है। तुम्हें एक खबर दूँ तो मुझे क्या दोगे?”

“क्या खबर है सैपी?” आभास का दिल धड़का।

“बस, मुफ्त में खबर लोगे?”

“बोलो, क्या लोगी?”

“अच्छा रहने दो, बाद में माँग लूँगी। तुम तो नर्वस हो गए।” सैपी हँसकर बोली।

“डैड हैज टाक्ड टु योर सी.ई.ओ.। तुम जाकर उनसे मिल लो। संभल बात करना। अभी किसी तरह यह फेज निकल जाने दो,

फिर देखा जाएगा। है न?”

“आय एम थैंकफुल टु यू सैपी। आय एम आब्लाइज्ड। आय विल डु द नीडफुल सैपी!”

“आब्लाइज्ड तो हम हैं यार, तुमने हमें मौका जो दिया!” सैपी हँसी और फोन डिस्कनेक्ट कर दिया।

बहुत दिनों बाद आभास थोड़ी राहत महसूस कर रहा था। उसने परितोष को फोन लगाया, यह खबर सुनाने को।

“तुम्हारा आइडिया तो क्लिक कर गया परितोष!”

“क्या हुआ आभास?”

“सैपी के फादर ने सी.ई.ओ को अप्रोच किया है। कल मुझे मिलने जाना है।”

“ओ आभास, दिस इज इनडीड ग्रेट। यू हैव मेड मी सो हैप्पी। यार, मेरे दिल पर एक बोझ था। तुम्हारे खालीपन को मैं हजम नहीं

कर पा रहा था। चलो, अब शुरू करो फिर से।”

“हाँ , देखो मौका मिला तो कल भेंट हो सकती है।”

“मैं इंतजार करूँगा ...”

“लेकिन देखो, अभी किसी को बताना नहीं, ओके?”

“ओके आभास!”

आभास अच्छी तरह तैयार होकर गया, अपना सबसे अच्छा सूट पहनकर। अंदर कार्ड भेजने के आध घंटा बाद उसे बुलाया गया।

“इन फैक्ट वी डोन्ट हैव ऐनीथिंग मैचिंग योर क्वालिफिकेशंस। व्हाट वी कैन डू इज टु आफर यू अ जाब रिलेटेड टु मेन्टेनेन्स आफ मैशीन्स ऐण्ड मैटेरियल। यू विल हैव टु वर्क ऐज अ मेन्टेनेन्स असिस्टेन्ट।”

“बट सर ...” आभास का माथा एकबारगी चक्कर खा गया।

“नो सॉरी, वी कैनोट एनटरटेन ऐनी डिस्कशन ... यू हैव टु रिपोर्ट टु अस विदिन टू डेज, अदरवाइज दिस आफर शैल स्टैण्ड कैंसिल्ड।”


बाहर निकला तो आभास की आँखों में आँसू थे। उसका बदन थरथरा रहा था। इतना अपमान? उसे मशीनों की मरम्मत यानी मिस्त्री का काम करना पडे़गा? हे भगवान, कोई सुनेगा तो क्या कहेगा। इंजीनियरिंग के बड़े-बडे़ उस्ताद जिसके जीनियस का लोहा मानते हैं उसे एक साधरण मेन्टेनेन्स स्टाफ का काम करना पड़ेगा! छिः, यह कैसे हो पाएगा! इससे तो अच्छा है कि कैलिफोर्निया की खाड़ी में डूब मरूँ!

कहीं कोई उसे देख न ले और सवाल न पूछ बैठे, आभास झट उस बहत्तर मंजिली इमारत के बाहर आ गया। वह बदहवास था लेकिन नाजुक मौका था और उसे इस बार अकल से, युक्ति से काम लेना था। सपना उससे पूछेगी कि क्या हुआ? उसे क्या जवाब देना चाहिए? परितोष रात को फोन जरूर करेगा, उसे क्या बताना चाहिए? इस जाब से वीजा का रीन्युअल हो जाएगा, साल भर के लिए तो हो ही जाएगा! अभी की अनिश्चितता खत्म हो जाएगी। पास का पैसा तेजी से खत्म हो रहा है, कुछ तो आमद हो जाएगी। घर में बूढे़-बुजुर्ग हों तो पैसे की जरूरत कभी भी आन पड़ सकती है, वह भी परदेस में।

क्या करे आभास! कोई और विकल्प नहीं दीखता। क्या उसे यह समझौता करना ही पड़ेगा - अपने को इतना गिराकर? शायद!

बेचना खुद को - यही अपने बस में है, दाम लगाना तो अपने बस में रहा नहीं। अब यही होकर रहेगा।

जैसी कि प्रत्याशा थी, पहले सपना का ही फोन आया। उसने उसे बताया कि उसे आफर मिल चुका है और वह वापस ज्वायन करने वाला है। फिर परितोष का फोन आया शाम के वक्त। वह आभास की प्रतीक्षा करता रहा था दफ्तर में। आभास ने अगले दिन उससे मिलने का वायदा किया।

जरा इत्मीनान हुआ तो आभास को सहसा देवयानी की याद हो आई। उसने डायरी में से उसका फोन नम्बर निकाल कर उसे फोन

लगाया। मासी ने फोन उठाया। अमेरिका से फोन आया जानकर वे खासी उत्तेजित हुईं, फिर उसका हाल पूछकर उन्होंने देवयानी को फोन पकड़ा दिया।

“कैसे याद किया आभास इतनी सुबह?”

“देवयानी ...”

“हाँ , बोलो आभास ...”

“यहाँ तो रात ...”

“हाँ बाबा, जानती हूँ! तुम कैसे हो? मासी-मौसा कैसे हैं?”

“सब ठीक है। ... देवयानी ... तुम कैसी हो?”

“........… “ देवयानी ने क्या सुना नहीं? आभास ने अपना गला साफ किया, अपने को स्थिर करने की कोशिश की।

“देवयानी ...?”

“हाँ आभास? बोलो, तुम्हारा बिल उठ रहा होगा?”

“कैसी हो?”

“..........” क्या देवयानी रो रही है? जवाब क्यों नहीं देती?

“तुमने कहा था न देवयानी, मुझे पाने के लिए कितना मोल ... तुम्हें देना पड़ेगा?”

“.........”

“मैं ... मै तो ... बिना मोल तुम्हारा था देवयानी, अब समझ पाया हूँ। बिका तो यहाँ आकर हूँ मैं ... सुनती हो देवयानी?

... कौडि़यों के मोल! मैं ...” आगे आभास से कुछ कहा न गया।

“क्या हुआ? कोई क्लेष है आभास, कोई टेंशन? ... मैं तो तुम्हारे योग्य थी ही नहीं। ... इसीलिए न हमेशा के लिए मैं ...

बहुत दूर चली जा रही हूँ। ...” तभी मासी ने फोन हाथ में ले लिया µ

“क्यों रे, तु देवयानी के विवाह में आ तो सकेगा आभास। हमें बहुत अच्छा लगता ...”

आभास ने फोन कान से हटाकर हाथ में ले लिया। उधर से अब भी मासी लगातार बोल रही थीं। आभास ने फोन डिस्कनेक्ट कर दिया। उस एक पूरी दुनिया से उसका एकबारगी जैसे विच्छेद हो गया। बिस्तर में दुबककर वह देर तक रोता रहा - निःशब्द, चुपचाप!

इराक में प्रतिरोध् समाप्त हो चुका था - सुबह तैयार होते-होते आभास ने टीवी पर यह खबर सुनी। वह हड़बड़ी में था। उसे ड्युटी पर रिपोर्ट करना था।

“तुम्हारी छुट्टी खत्म हो गई आभास? बहुत जल्दी तैयार हो गए?य् बाबा ने पूछा।

“हाँ , खत्म हो गई।य् उसने धीरे-से जबाव दिया।

“बेटा, तुम आजकल बहुत गंभीर रहते हो, क्या बात है?”

“नहीं तो!”

“मुझे लगा ऐसा ... कोई समस्या तो नहीं है?”

“समस्या क्या होगी!”

“तब तो ठीक है। सुनो, मैं अमेरिकी नागरिकता कानूनों के बारे में जानना चाहता हूँ, कोई मैटेरियल मिले तो लेते आना।”

आभास ने नजर उठाकर बाबा को देखा, कहा कुछ नहीं।

“ इसलिए कह रहा हूँ कि हमें अब इस दिशा में कोशिश शुरू कर देनी चाहिए, जीवन में स्थायित्व आना चाहिए न?” आभास ने कोई जवाब नहीं दिया और बाहर निकल गया।


रिपोर्ट करने के लिए भारी मन से उसने केबिन में प्रवेश किया तो सामने स्वयं परितोष बैठा था। उसके कदम जैसे जम गए। परितोष ने स्वयं उसे कुर्सी पर बैठाया।

“मुझे अभी-अभी पता चला आभास। विश्वास करो मैं कुछ भी नहीं जानता, इन्होंने यह सब कैसे किया। ... मैं लज्जित हूँ आभास, मुझे माफ कर दो। मैं इस लायक नहीं कि तुम्हें अपने सबार्डिनेशन में रखूँ - वह भी इस काम के लिए। तुम्हें मुझ पर तो विश्वास है आभास?”

“मैं जानता हूँ, तुम इसमें कहीं नहीं हो। ... लेकिन देखो परितोष, इस बारे में प्लीज किसी को बताना नहीं यार! बस इतना ख्याल रखना, प्लीज।” आभास कातर हो उठा तो परितोष ने उसे छाती से लगा लिया।

परितोष ने बताया था उसकी हालत ठीक नहीं है। जबकि उसके माता-पिता को इस बारे में कुछ भी मालूम नहीं। शायद उसकी उस गर्लफ्रेन्ड सैपी को भी नहीं। यह भी संभव है कि उसे सब कुछ मालूम हो और वह अनुकूल परिस्थितियों का इंतजार कर रही हो।

आखिर आभास का तारणहार वही है, वही है जो उसे ग्रीन कार्ड दिला सकती है। आभास ने परितोष को एक दिन बताया था कि सपना मन ही मन उसके नास्टेल्जिया की कद्र करती है!