नोटबंदी / मनोज चौहान
तकरीबन 60 के आसपास की उम्र के किरयाना दुकानदार ने मोटे चश्मे को थोडा आगे खींच नंगी आखों से उपर देखते हुए, बिहारिन मजदूरन को कहा "चावल भी चाहिए क्या?" ख़रीदे हुए सामान और हाथों में पकड़े हुए रुपयों का हिसाब जोड़ते हुए वह बोली "चावल लेने तो हैं, मगर पैसे कम हैं l" दुकानदार ने उसकी बात को जैसे अनसुना-सा कर दिया l
दुकान में मजमा लगाये बैठे हुए गप्पियों में से एक बोल उठा, "नोटबंदी से हालात ख़राब हो गए हैं, गरीब लोग ज़रूरत की चीजें भी नहीं खरीद पा रहे l" यह फैसला ही ग़लत है, इसे तुरंत वापिस लिया जाना चाहिए l दुकान से बाहर निकलती मजदूरन के कानों में ये शब्द पड़ गए थे l वह पीछे मुड़ते हुए बोली, "माफ़ करना भाई साहब!" मैं आपकी बातों से इत्तेफाक नहीं रखती l थोड़ी दिक्कत अवश्य हो रही है हम जैसे लोगों को, लेकिन ये सिर्फ़ कुछ ही दिनों की बात है l हालात हमेशा ऐसे नहीं रहेंगे l देश की भलाई के लिए यह फैसला उचित है l और रही चावल न खरीद पाने की बात तो वह मैं कल खरीद लूंगी l मेरा आदमी बैंक से रूपये बदलवाकर लौटता ही होगा l
सभी गप्पिये यह सुनकर अवाक् थे l दुकानदार को भी मानो सांप सूंघ गया l उसे पछतावा हो रहा था कि उसने उस स्वाभिमानी महिला को चावल उधार ले जाने की पेशकश क्यों नहीं की l अपनी शर्मिंदगी को छुपाने के लिए, वह मोबाइल से किसी को कॉल करने का उपक्रम करने लगा l