नौटंकी जा रही है / संजीव ठाकुर

Gadya Kosh से
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कई बार मैंने रिंग किया, 'हलो' होकर 'कट' हो जाता था। दो-तीन बार आई भी, तुम्हारे दरवाजे पर ताला लगा हुआ मिला। आज तुम मिले हो। मैं जानती हूँ मुझसे मिलकर तुम्हें ख़ुशी नहीं हुई होगी, पर आज मैं जमकर मिलूँगी। तुम धक्के दोगे फिर भी मैं नहीं जाऊँगी। अजीब बेशर्म हूँ... है न? आज मैं बोलूँगी, तुम कान बंद नहीं कर सकते! ...पहले यह बताओ–तुम प्ले देखने क्यों नहीं आए? इसलिए कि मैं उसमें एक्ट्रेस थी? अरे मुझे नहीं, कम से कम अपने नाटक को तो देखने आ जाते? यह देखना भी तुम्हें ज़रूरी नहीं लगा कि तुम्हारे नाटक में क्या तोड़-मरोड़ किया गया है? अरे! भाई, तुम्हें मुझसे नफ़रत थी या अपने ड्रामे से? या तुम्हें जलन थी मुझे एक सफल एक्ट्रेस के रूप में देखने से? ...वैसे मैं जानती हूँ, तुम अपने नाटक के मंचन की अनुमति कदापि नहीं देते यदि तुम जानते कि मैं उसमें काम कर रही हूँ। लेकिन तुम तो ऐसे न थे? तुम तो मुझसे जलते न थे? मैं भले ही तुमसे थोड़ा-बहुत जलती थी। तुम्हें सेमिनार में पर्चा पढ़ते, बड़े-बड़े साहित्यकारों के घर जाते, अनेक तरह के पुरस्कार पाते देख मुझे ईर्ष्या होती थी, मानती हूँ। तुम थे कि तब भी मुझसे दिल खोलकर मिलते थे। ...नहीं, नहीं, तुम उठो नहीं, मुझे चाय-वाय कुछ नहीं चाहिए, जब चाहिए होगी माँग लूँगी। मुझे याद है, कॉलेज में एक बार तुमसे चाय की 'ट्रीट' माँगी थी–मात्र साठ पैसे की चाय! सड़ियल सी, ऊपर से ठंडी, तुमने... नहीं बैरे ने पिलाई थी और मैंने सारा दोष तुम पर मढ़ दिया था–'कैसी सड़ी चाय पिलाई!' तुम गुस्साकर भूत हो गए थे। मुझे यह भी याद है कि कॉलेज की पार्टियों में या सेमिनार में बची सारी चाय तुम पी जाते थे। तुम कहा करते थे, चाय से तुम्हें इश्क़ है। तो क्या बना लाऊँ गरमागरम चाय? नहीं...समय बर्बाद नहीं करूँगी, मुझे आज अपने दिल की सारी भड़ास निकलनी है। पूरे आठ साल बाद तुम मिले हो। इतने दिनों में तो क्या कुछ नहीं बदल जाता है? मगर तुम हो–वही के वही–अपने-आप में सिकुड़े रहने वाले कछुए! ... और उधर खूँटी से लटका तुम्हारा वही पुराना कोट है जिस पर व्यंग्य कसने के लिए अक्सर मैं घास के पौधे टाँक दिया करती थी। अजी ऐसा भी क्या है? किताबों से इतनी रॉयल्टी तो मिलती ही होगी कि तुम नया कोट ले सको! लेकिन तुम हो कि सब दिन अपना मज़ाक उड़वाने को तटस्थ रहते हो!

तुम मेरी शादी पर नहीं आ सके न? मुझे सुषमा से पता चला था कि तुम वापस अपने शहर चले गए हो। नहीं तो तुम आते ज़रूर। तुम तो उससे मिल भी चुके हो? ... वही अमरs...! मैंने तुम्हें उससे एक बार मिलवाया था। उस समय मैंने तुम्हें नहीं बताया था कि यही मेरा होने वाला है। दूसरी बार तुमसे वह कॉलेज में मिला था जब तुम खिड़की के पास किसी से बातें करने में मशगूल थे। अमर ने तुम्हें बुलाया तो तुम डरे-डरे से आए थे ... तुम उसे पहचान ही नहीं पाए थे। हाँ, जब उसने मेरे बारे में तुमसे पूछा, तब तुम उसे पहचान गए थे। तीसरी, चौथी बार भी तुम दोनों मेरी अनुपस्थिति में ही मिले थे। शायद उसके बाद तुम उससे नहीं मिले क्योंकि तब तुम जान चुके थे–मैं अमर से प्यार करती हूँ। मैं तुम्हें बताना नहीं चाहती थी लेकिन तुम थे कि कुरेद-कुरेद कर पूछ रहे थे–'सर्विस क्यों करना चाहती हो?' तुम्हीं ने कहा था कि अपने पैरों पर खड़ा होने की मेरी नीयत एक बग़ावत का बीज समाए है। सच ही था। मैं चाहती थी, सर्विस करके अमर से शादी कर लूँ। इसलिए मैं बेचैन रहा करती थी–'क्या करूँ? कैसे करूँ?' तुम मुझे ढाढ़स भी बँधाया करते थे। तुम्हीं कहा करते थे कि कोई एक रास्ता चुनो–'जर्नलिज़्म या लेक्चरशिप! लेक्चरर हो जाने के बाद साइड से जर्नलिज़्म भी कर सकती हो।' मैंने किया भी वही। ग्रेजुएशन के बाद एम. ए. में एडमीशन लिया, पी-एच. डी. की, लेक्चरर बन गई। जानते ही हो, मेरा झुकाव रंगमंच की तरफ़ कितना अधिक था। मैं साथ-साथ नाटक भी किया करती थी। अमर का ही ग्रुप था, वही प्रेसिडेंट था ग्रुप का और डाइरेक्टर भी, यह भी तुम जानते थे। सौभाग्य देखो, मैं रंगमंच पर चमकी। हाँ, साहित्य में गहरे नहीं पैठ सकी–तुम्हारी तरह। तुम तो सचमुच 'ग्रेट' निकले! तुमसे मैं उसी समय 'ऑटोग्राफ' माँगा करती थी। मुझे पता था, तुम एक सफल साहित्यकार बनोगे। मैं कहा भी करती थी–'तुमसे मिलने के लिए अप्वाइंटमेंट लेनी होगी।' तुम 'राजहंस' के संपादक बन गए। वैसे तुम भी तो लेक्चरशिप ज्वाइन करना चाहते थे? बीच में ही दिल्ली छोड़कर क्यों चले गए? तुम्हें एम. ए. यहीं से करने में क्या परेशानी थी? और तुमने पी-एच. डी. क्यों नहीं की? यही लिखने-लिखाने में सर ख़फ़ा रहे होगे, क्यों? खैर! ... अब अच्छा है–अब तुम यहीं रहोगे, मैं कभी-कभी तुमसे मिलने आया करूँगी। थोड़ा समय देना, 'प्लीज!' ...

सुन रहे हो–घड़ी की सुई टिक-टिक कर रही है और याद दिला रही है उस समय की–उस बीते हुए समय की–क्लासरूम में तुम्हारा गुनगुनाना और मेरे रिक्वेस्ट पर अपने फेवरेट सिंगर जगजीत सिंह की वह ग़ज़ल गुनगुनाना–'झुकी-झुकी-सी नज़र, बेकरार है कि नहीं ... दबा-दबा-सा सही, तुमको प्यार है कि नहीं ...!' कैसे बताऊँ? प्यार न रहते हुए भी कुछ था ... कुछ था मेरे अंदर जिसके कारण मैं रोज़ तुमसे मिलना चाहती थी, तुम्हारा फूहड़ मज़ाक सुनना चाहती थी। सबके सामने चुप रहने वाले तुम–मेरे सामने कैसे रूद्रवीणा कि तरह 'टंssगss...' बजने लगते थे! कभी तुम बिल्कुल ख़ामोश हो जाते थे और मैं बकती रहती थी। बकते-बकते जब मैं चुप हो जाती थी तब तुम हँस दिया करते थे। मुझे वह दिन भी याद है जब तुम्हारे बहुत अधिक कुरेदने पर मैंने तुम्हें वह बात बता दी थी जो किसी को नहीं बताई थी ... वही अमर वाली बात! तुम पूछ रहे थे, 'वह कौन है जिसको ध्यान में रखकर चल रही हो और फटाफट शादी रचा लेना चाहती हो?' मैंने अमर का नाम बता दिया था। तुम्हारे चेहरे की बदलती रेखाओं को मैं पहचान गई थी, साथ ही मैंने यह भी देखा था कि तुमने बड़ी सावधानी से अपने-आप को सम्हाल लिया था और मेरे पसंद की दाद देने लगे थे। इसके बाद तुम भले ही मुझसे उस तरह की बातें नहीं करने लगे, नहीं तो तुम क्या-क्या न कहा करते थे? ...एक बार मेरी कॉपी में तुमने लिख दिया था–'मैं तुम्हारे दुपट्टे में दुबकना चाहता हूँ।' और एक बार मेरे सूट में टंके चमकते गोल शीशे में तुमने अपना मुँह झाँका था। ... एक बार जब मैंने अपनी फोटो कॉलेज मैगजीन में छापने तुम्हें दी थी तो तुमने उसे अपने गले में लटका लेने की बात कही थी। मैं सब कुछ सहती-सुनती रहती थी-इसके बावजूद कि मैं तुम्हें नहीं अमर को प्यार करती थी। अमर अगर अपने कॉलेज में पढ़ता होता तो तुम जान ही जाते। हाँ, एक बार तुमने मुझे ग़लत समझ लिया था। ग़लत समझने वाली बात ही थी! कॉलेज की सीढ़ियों पर मैं बैठी थी। मेरा हाथ प्रकाश के हाथ में था। तुमने सिर झुकाकर रास्ता बदल लिया था, मैं शरमा गई थी। मैं कैसे बताऊँ कि दोस्ती का नाजायज फायदा उठा रहा था वह! मैं उसे चाहती बिल्कुल नहीं थी। कई बार उसके साथ घूमने ज़रूर गई थी लेकिन प्रेम मैं सिर्फ़ अमर से ही करती थी। तुमसे मेरा क्या नाता था यह मुझे पता नहीं। कभी तो तुम मुझे अपना गुरु बनाकर बड़ाई करने लगते थे और कभी बच्ची बनाकर डाँटने लगते थे! ...

मुझे याद है कि मैंने तुम्हारी डायरी में अपना पता लिखा था और तुमने उसका उपयोग दो बार किया था–एक बार एक सेमिनार का इनविटेशन भेजकर और एक बार बी. ए. का रिजल्ट आने पर। तुम मुझपर कितना गुस्सा गए थे? तुमने लिखा था–'मुझे तुमसे मिलने का मन कर रहा है लेकिन चूँकि तुम फर्स्ट डिवीजन नहीं ला पाई हो, तुम्हें मुझसे मिलने का अधिकार नहीं है।' वह पत्र ज़रूर कहीं न कहीं रखा होगा। कितने आत्मीय थे तुम्हारे वे शब्द! यह जानते हुए भी कि मैं तुम्हारी नहीं हूँ, कितना अधिकार रखते थे मुझपर! अब तुम मुझपर अधिकार नहीं जमा सकते? मैं आई हूँ, मुझे डांटो, फटकारो कि क्यों नहीं मैं फर्स्ट डिवीजन ला पाई? वैसे माफ़ कर दो, एम.ए. में मुझे तुम्हारी ही चाहत की डिवीजन आई है। पी-एच. डी. करते ही मुझे नौकरी मिल गई। फिर मैंने अपनी मर्जी से शादी की। डैडी बिल्कुल तैयार नहीं थे। अलग-अलग कम्यूनिटी के होने के कारण हमें विरोध सहना ही था। हमने कोर्ट मैरिज कर डाली। गिने-चुने लोग ही साथ थे। काश! कि तुम होते। तुम निर्भय होकर हमारी शादी में तालियाँ बजाते। लेकिन... मुझे लगता है, अच्छा ही था तुम नहीं थे। नहीं तो उन तालियों के बीच तुम्हारे आँसू मुझे पिसते नज़र आते! तुम स्वीकारोगे नहीं, लेकिन मैं जानती हूँ तुम मुझे कितना चाहते थे?

देखो, इससे पहले कि मैं और बोलूँ, चाय पीना चाहूँगी। फ्रिज तो तुम्हारे यहाँ है नहीं! होता भी तो मैं कुछ ठंडा नहीं पीती। बहुत गर्मी है, सच है, लेकिन मैं पियूँगी चाय ही। तुम भी तो पियोगे? उठो, चलो तुम भी मेरे साथ किचन। वैसे तो तुम नहीं भी जाना चाहोगे लेकिन तुम्हें जाना पड़ेगा ही क्योंकि मुझे नहीं मालूम–तुम्हारे किस डिब्बे में दूध है, किस डिब्बे में पत्ती और किस डिब्बे में चीनी?

चाय अच्छी तो बनी? या तुम्हारी उसी 'ट्रीट' की तरह सड़ियल? नहीं जी, अच्छी बनी है और अगर नहीं भी, तो भी तुम्हें अच्छी लग रही होगी–मेरे हाथ की जो बनी है!

अरे! एडीटर साहब! आपको याद है–फाइनल ईयर में आप किसी छोटी-मोटी मैगजीन की को-एडिटिंग कर रहे थे और आपने मेरी दो कविताएँ उसमें छपवाने को ली थीं? अभी तक छपी हैं या 'अंडर कंसिडरेशन' हैं? वैसे अब तुम उस छोटी-मोटी मैगजीन को क्यों पहचानोगे? अब तो तुम 'राजहंस' के संपादक हो गए हो! घबराओ नहीं, मैं अपनी कोई रचना छापने का अनुरोध तुमसे नहीं करूँगी। तुम मेरे अनुरोध को टाल नहीं पाओगे और अपना अनुरोध मनवाकर मैं तुम्हारी पत्रिका का स्तर नहीं गिरना चाहती!

...लेकिन तुम मुझसे नफ़रत क्यों करते हो? अरे! स्वार्थी, मैंने तुमसे शादी नहीं की, इससे क्या तुम अपना प्यार मिटा डालोगे? खुदा के वास्ते तुम अपनी नफ़रत मिटाओ और मुझे देखो ...! ...क्या तुम अपना अलबम निकाल सकते हो? मैं देखना चाहती हूँ उस तस्वीर को जो किसी सेमिनार की है। उस ग्रुप फोटोग्राफी में तुम दूसरी ओर खड़े हो रहे थे, मैंने आँखों से इशारा कर तुम्हें बुला लिया था-अपने पास। ओ! गूँगे, बोलो... याद है? ...मत बोलो, लेकिन दिखाओ मुझे वह तस्वीर जिसमें तुम मुझसे बात करने के अंदाज़ में खड़े हो। मुझे याद नहीं उस समय हम क्या बात कर रहे थे? प्रदीप ने फोटो खींच ली थी। अरे! हम विदाई पार्टी से निकले थे! हाँ, अब देखने पर लगता है कि तुम मुझसे पूछ रहे हो, 'उस दिन आई क्यों नहीं?' और मैं हथेली चमकाकर कह रही हूँ–'क्या करती? काम में फँस गई ...!'

ऐसा तो कई बार हुआ था कि मैं नाटक के रिहर्सल या शो के दिन नहीं आ पाती थी। जिस दिन आती थी, तुम गुस्सा कर कहते थे–'नौटंकी!' मैं भी तो तुम्हें कह ही देती थी–'गवैया! आs–आs आ...!'

अच्छा ये बताओ अब कपड़े-वपड़े साफ़ करते हो या नहीं? कॉलेज तो चले आते थे मजनूँ की तरह–कॉलर पर मैल जमाए और मेरे कहने पर कि कपड़े साफ़ किया करो, तुम कहते थे–'तुम्हीं कर दो न?' इस पर मैं कहती थी तुम्हें ज़रूरत है, तुम आओ कपड़ों की गठरी लेकर! ... वैसे अभी भी तुम्हारा कुर्ता मैल ओढ़े है। मैं पूछती हूँ धोबी नहीं मिलता है क्या? यदि नहीं तो अपनी भीष्म प्रतिज्ञा तोड़ो और ले आओ किसी कपड़ा धोने वाली को...! देखो, इस तरह मुझे मत घूरो। चलो कान पकड़ती हूँ–ब्रह्मचारी जी! ...

अब मैं जाऊँ? ओह! तुमसे क्या पूछती हूँ? तुम तो चाहोगे जल्दी से चली जाए–काँव–काँव कर रही है दो घंटे से! ठीक है चलती हूँ। अरे! हाँ, तुम्हें बताना भूल गई–अमर अच्छा है, हमारी शादी के दो साल हो गए, हम दोनों के बीच काफ़ी अच्छी अंडरस्टैंडिंग है और प्यार है। कभी मिलाने लाऊँ? नहीं, नहीं तुम जल जाओगे उसे देखकर! देखो, मेरी इस बात से डरकर तुम घर में ताला न लगाए रखना ...मैं अकेली ही आऊँगी और सुनो, फ़ोन ज़रूर रिसीव करना! ... यदि कहीं घर से बाहर जाओ तो चाभी यहीं किसी को दे जाना ताकि आकर तुम्हारी वेट कर सकूँ।

तुम मेरे कोई नहीं हो ... सिर्फ़ मेरे राइटर हो, मुझको लिखने वाले हो। तुमने एक नाटक लिखा जो निश्चय ही हमारी उन्हीं यादों पर आधारित है। इसीलिए मैंने उसमें रोल भी किया। अब और नाटक नहीं लिखना! कम से कम आज की मुलाक़ात पर तो नहीं ही!

अच्छा-सा रे ग म! ... नौटंकी जा रही है–'बाय!' ...