न्याय / गोवर्धन यादव
"द्रौपदी इस साम्राज्य की महारानी है और एक महारानी को यह अधिकार नहीं है कि वह अपनी ही प्रजा कि झोपडियों में आग लगाए, उन्होंने एक अक्ष्म्य अपराध किया है, उन्हें इसके लिए कडी से कडी सजा दी जानी चाहिए, मैं महाराज युधिष्टर, कानुन को धर्मसम्मत मानते हुए उन्हें एक साल की सजा दिए जाने की घोषणा करता हूँ," खचाखच भरे दरबार में महाराह युधष्ठिर ने अपना फ़ैसला सुना दिया था,
महाराज का फ़ैसला सुनते ही राजदरबार में सन्नाटा-सा छा गया, चारों तरफ़ इस फ़ैसले पर कानाफ़ूसी होने लगी, लेकिन महाराज के खिलाफ़ बोलने की हिम्मत कोई नहीं जुटा पा रहा था,
फ़ैसला सुन चुकने के बाद भीम से रहा नहीं गया, अपनी जगह से उठकर उन्होंने आपत्ति दर्ज की"-महाराज फ़ैसला देने के पूर्व आपको यह तो सोचना चाहिए था कि वे एक महारानी होने के साथ-साथ वह हम सबकी धर्मपत्नि भी है, यदि उन्होंने ऎसा किया है तो ज़रूर उसके पीछे कोई बडा कारण रहा होगा, उन्होंने जानबूझ कर तो ये सब नहीं किया होगा, अगर झोपडियाँ जल भी गयी है तो इससे क्या फ़र्क पडता है, हम उन्हें नयी झोपडियाँ बनाने के लिए बांस-बल्लियाँ मुहैया कर सकते हैं,
"भीम, ये तुम कह रहे हो, एक जवाबदार आदमी इस तरह की बात कैसे कह सकता है, मैंने उन्हें सजा देने का आदेश जारी कर दिया है, उन्हें एक साल तक कारावास में रहना होगा, अब इस फ़ैसले में कोई सुधार की गुंजाइश नहीं है,"
"महाराज, यदि महारानी ने अपराध किया ही है तो उसकी सजा आप हम भाइयों को कैसे दे सकते हैं,"
"भीम, आखिर तुम कहना क्या चाहते हो?" ,
"महाराज, एक वर्ष में तीन सौ पैंसठ दिन होते हैं, यदि इसमें पांच का भाग दिया जाये तो तिहत्तर दिन आते है, जैसा कि माँ का आदेश भी है कि उस पर सभी भाइयों का समान अधिकार रहेगा, मतलब साफ़ है कि वे बारी-बारी से तिहत्तर दिन हम प्रत्येक के बीच गुजारेगीं, एक वर्ष की सजा का मतलब है कि हमारे तिहत्तर दिन भी उसमें शामिल होंगे और हमें यह मंजूर नहीं कि हम उस अवधि की सजा अकारण ही पाएँ, यह कैसा न्याय है आपका?" ,
भीम की बातों में दम था और वे जो कुछ भी कह रहे थे उसे झुठलाया नहीं जा सकता था, अब सोचने की बारी महाराज युधिष्ठर की थी, काफ़ी गंभीरता से सोचते हुए उन्होंने इस समस्या का हल खोज निकाला, उन्होंने कहा:-" चूंकि महारानी ने एक अक्षम्य अपराध किया है, और उन्हें इसकी सजा हर हाल में मिलेगी, सजा कि अवधि, उनके अपने स्वयं की अवधि के बराबर रहेगी।