न्यूनतम सफलता वाला अवाम का सिनेमा / जयप्रकाश चौकसे

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न्यूनतम सफलता वाला अवाम का सिनेमा
प्रकाशन तिथि :08 जनवरी 2016


वर्ष 2015 में भारत में हजार से अधिक फिल्में बनी हैं, जिनमें हिंदुस्तानी भाषा में बनी मात्र 201 फिल्में हैं। क्षेत्रीय भाषाअों में हर वर्ष ही अधिक संख्या में फिल्में बनती रही हैं परंतु हिंदी में केवल 201 हैं और उन्हें हिंदुस्तानी इसलिए लिखा जा रहा है कि वे पूरे भारत में प्रदर्शित होती हैं। सच तो यह है कि इन फिल्मों में प्रयुक्त हिंदी में उर्दू और अन्य भाषाओं के अनेक शब्द हैं और इसीलिए मनोरंजन उद्योग उसे अखिल भारतीय मानता है। जिस तरह देश में विविध भाषाओं को बोलने और विभिन्न धर्मों को मानने वालों की कोई संपूर्ण शुद्धता नहीं है। हजारों वर्षों में अनेक विवाह विविध बोलियों और धर्मों को मानने वालों के हुए हैं और उनकी संतानों ने धर्म और भाषा के बाहर विवाह किए हैं। अत: किसी भी वर्ग की संपूर्ण शुद्धता की बात ही अतार्किक है। ठीक इसी तरह भाषाएं भी मिलनसार होती हैं और संस्कृतियां भी घुलनशील एवं लचीली होती हैं। दरअसल, इन बातों को लेकर अपने स्वार्थ के लिए लोग भाषा और रक्त की शुद्धता का हव्वा खड़ा करके उन्माद जगाते हैं। हिटलर ने भी आर्य अपराजेयता का जिन्न चिराग से बाहर निकला था और पूरी मनुष्य जाति को अकल्पनीय हानि पहुंचाई। यह बात जरूर है कि हिटलर के हामी बार-बार संगठित होते हैं और गांधी तथा नेहरू जैसे विलक्षण लोग कम ही उदित होते हैं। कुछ वर्ष पूर्व मुंबई में 'हिटलर बार एंड रेस्तरां' खुला था। यह भी सत्य है कि हिटलर से त्रस्त यहूदियों ने एक संगठन खड़ा किया, जो खोजकर हिटलर के अपराध में साथी रहे लोगों को मारता रहा परंतु इसके साथ ही हिटलर समर्थक आज भी पुन: संगठित होने का प्रयास कर रहे हैं।

इन 201 फिल्मों से केवल 18 फिल्मों ने मुनाफा कमाया है परंतु 18 फिल्मों में कुछ ऐसी हैं, जिनके निर्माता ने लाभ कमाया परंतु वितरक और प्रदर्शक घाटे में रहे जैसे शाहरुख खान की 'दिलवाले।' भारत में लोकप्रिय पत्रकारिता में निर्माता व सितारों के द्वारा माहवारी वेतन पर छवि बनाने का काम करने वाले कुछ लोग होते हैं। ऐसे ही लोगों ने जोया अख्तर की 'दिल धड़कने दो' को सफल फिल्म के रूप में प्रचारित किया परंतु उसमें घाटा हुआ। फिल्म का अर्थशास्त्र कुछ ऐसा है कि भारत में हुए व्यवसाय के प्रकाशित आंकड़ों को शुद्ध आय मानने की भूल की जाती है। ग्रॉस का 45 फीसदी ही शुद्ध आय है। इसी तरह विदेश क्षेत्र के प्रचारित ग्रॉस पर मात्र 42 फीसदी शुद्ध आय होती है। अत: 2015 की सफल फिल्मोें का प्रतिशत नौ से अधिक नहीं है और इसमें भी कुछ सफलताएं केवल प्रचारित हैं। एक सौ तीन वर्ष के कथा फिल्मों के इतिहास में एक भी वर्ष ऐसा नहीं है, जिसमें 15 प्रतिशत से अधिक सफलता मिली हो। इस तथ्य के बावजूद इसे सदा सुहागन उद्योग माना जाता है, क्योंकि जितने अधिक लोग दीवालिया होकर निष्कासित होते हैं, उससे अधिक नए पूंजी निवेशक आ जाते हैं। इस उद्योग में प्रचार और छवि का आकर्षण लोगों को खींचकर ले आता है। सरकारें हमेशा इस उद्योग के प्रति उदासीन रहीं। वे केवल कुछ उत्सव आयोजित करती हैं, जिसका असली प्रयोजन केवल यह होता है कि अफसरों और मंत्रियों की फिल्म के प्रति जुनून होने वाले रिश्तेदारों के फोटो सितारों के साथ लिए जा सकें तथा रूस और चीन की तरह इस माध्यम का उपयोग जनता तक अपना राजनीतिक दर्शन मनोरंजक ढंग से पहुंचाया जा सके।

सिनेमाघर में बजी तालियों से समाज का तापमान मालूम हो सकता है। एक फिल्म में ईमानदार अफसर की मृत्यु पर एक नेता कहते हैं कि दिल्ली मालूम करेगी कि अपराधी कौन है और उसे दंडित करेगी। नायक कहता है कि दिल्ली तो हमेशा खामोश ही रहती है। अनेक भवनों का विध्वंस हो जाता है और दिल्ली खामोश बनी रहती है। ज्ञातव्य है कि यह घटना बाबरी के ध्वंस होने के बाद की है और पूरे भारत के सिनेमाघरों में इस पर ताली बजाकर अवाम ने बाबरी ध्वंस को गलत कहा है। सारांश यह है कि यह महत्वपूर्ण माध्यम है और मनोरंजन उद्योग की अनेक समस्याओं को केवल अधिक संख्या में एकल सिनेमाघर बनाकर हल किया जा सकता है। इस उद्योग के लिए अवाम में जुनून है परंतु कस्बों और छोटे शहरों में सिनेमाघरों के अभाव के कारण सफलतम फिल्म को भी मात्र दो करोड़ लोग ही सिनेमाघरों में देखने जाते हैं।

आश्चर्य है कि बजार को बढ़ावा देने के नाम पर चुनाव जीती सरकारें अवाम के इस मनपसंद उद्योग के विकास के प्रति उदासीन हैं। आप बड़े-बड़े फ्लाईओवर बना रहे हैं, बुलेट ट्रेन की योजनाएं बन रही हैं परंतु अवाम के दिल तक जाने वाले फ्लाईओवर सिनेमाघर और मनोरंजन उद्योग हैं। जैसे भारत में बुलेट ट्रेन से ज्यादा बड़ी आवश्यकता हजारों मील की पुरानी रेलवे लाइनों के बदलने की है। वैसे ही सीमेंट और लोहे के फ्लाईओवर से अधिक आवश्यकता स्कूलों, योग्य शिक्षकों और सिनेमाघरों की है।