न वे दिन बहुरेंगे न वे लोग / मंगलमूर्ति
बच्चनजी ने अपनी आत्मकथा का नाम ‘क्या भूलूँ, क्या याद करूँ’ रखा, जिसके शीर्षक आगे के खंडों में बदलते लेकिन असल धागा वही रहा जिसपर यादों के मनके गुंथे गये। वे कवि थे, और वह मूल शीर्षक भी एक सदर कविता-पक्ति जैसे ही था। लेकिन यादों के गलियारों में निकलिए तो फिर वो गलियाँ खुद-ब-खुद आपको अपनी भूलभुलैया में ले चलेंगी, और आप उन्हींमें खोते चले जाएँगे। आपका हाथ थामे वे स्वयं आपको अपनी भूलभुलैया में ले चलेंगी, और आप उन्हीं में खोते चले जाएँगे। आपका हाथ थामे वे स्वयं आपको एक गली से दूसरी गली में ले जायेंगी। ‘क्या भूलूँ, क्या याद करूँ’- यह आप नहीं तय कर सकेंगे; और आलम वहाँ कुछ भूलने का नहीं होगा, बल्कि एक-एक कर यादों की कइ-कई खिड़कियां आप-से-आप खुलती चली जायेंगी। क्योंकि यादों की खिड़कियां सायास कुछ भूलने के लिए नहीं खुलतीं; वे तो आपकी आँखों के सामने बीते दिनों की तस्वीरें दिखाने लगती हैं, और यादों के उस अलबम के सफे एक-एक कर आपकी आँखों के सामने खुलते चले जाते हैं।
तो यादों के अलबम का एक ऐसा ही सफा आज मेरी आँखों के सामने खुल गया है। सचमुच, बचपन की यादें भी बचपन जैसी ही कोमल और लभावनी होती हैं। जैसे एक यह तस्वीर-आलू और मूली के घूप-सने खेतों के बीच की पतली पगडंडियों पर चलते हुए, अपने पिता के साथ, जिन्हें हम बाबूजी कहते थे, उनके छाते की छाँह में- राजेंद्र कॉलेजियट- अपने स्कूल जाना, जहाँ बगल में, छपरा के राजेंद्र कॉलेज में वे हिंदी के प्रोफेसर थे। लेकिन तब उससे भी पहले की एक याद उभर आती है, जब मैं केवल पाँच साल का था। मेरी दुनिया बस लाड़-प्यार, खेलकूद और शोर-शरारत की दुनिया थी। मैं यह भी नहीं जानता था कि मेरी माँ डेढ़ साल पहले गुजर चुकी थी। घर में बस मामी, मौसी और बुआ की ही पहचान मुझे मिली थी। पिता की सबसे छोटी मातृ-विहीन संतान होने के कारण घर-भर में मेरे लिए प्यार की ऐसी बहुतायत थी कि पता ही नहीं चला कि प्यारी मूरत माँ-कैसी होती है, और वह कुछ ही दिन पहले मुझे छोड़ कर हमेशा के लिए वहाँ चली गई थी, जहाँ से कभी कोई लौट कर नहीं आता। पिता तो मुझको सदा अपनी सुखद छाँह में ही रखते थे, पर यों भी घर में मैं एक बेताज बादशाह से कुछ कम नहीं था।
बात उन्हीं दिनों की है जब एक दिन निरालाजी अचानक हमारे यहाँ आये। कॉलेज की किसी साहित्यिक गोष्ठी में बाबूजी ने उन्हें आमंत्रित किया था। ऐस साहित्यिक अतिथि हमारे यहाँ बराबर आते रहते थे। मैंने देखा, बग्घी से एक लंबा-चौड़ा व्यक्ति जिसके माथे पर घनी-लंबी काली-काली लटें लहरा रही थी, उतरा और लपक कर उसने बाबूजी को अपनी बाँहों में भर लिया। मैं भी वहीं था। फिर दोनों हाथों से मुझे उठाकर प्यार किया और अपने कंधे पर बैठा लिया। मुझे लगा सहसा मैं किसी पहाड़ की चोटी पर पहुंच गया और गिरने के डर से मैंने जोर से दोनों मुट्ठियों में कसकर उनकी लंबी लटें पकड़ ली। फिर तो शिवजी और निरालाजी के उस मिलन का मैं एक दर्शक ही नहीं, प्रतिभागी भी बन गया। बाबूजी के उस छोटे-से अध्ययन-कक्ष में, जो हमारी बैठक के सिरे पर था, जिसमें निरालाजी और बाबूजी की बैठकी हो रही थी, उस छोटे-से कमरे में जाने की खुली परमिट बस मुझे ही थी। लेकिन मुझको यह कहाँ पता था कि अभी-अभी जिस पहाड़ की चोटी पर में बैठा था, वही आधुनिक हिंदी कविता के एवरेस्ट- महाकवि निरला थे। उसी दिन की एक मजेदार घटना के विषय में मेरी बड़ी बहन सरोज दीदी ने बाद में बताया। आज सोचता हूँ, उस दिन मेरी बहन ‘सरोज’ से मिलकर उनको कैसा लगा होगा-लेकिन यह तो दूसरी सरोज थी, शिवजी की बेटी सरोज, मेरी सरोज दीदी। उसीने मुझको इधर हाल में उस दिन की उस घटना के विषय में हँसते-हँसते बताया। सरोज दीदी की हँसी रुकती नहीं थी और उसकी बातें उसकी हँसी में से जलेबियों की तरह छन-छनकर निकल रही थीं।
निरालाजी सुबह-सुबह हमारे यहाँ पहुँचे थे। शीचकर्म का समय था। तैयार होकर फिर तुरत कॉलेज की सभा में जाना था। हमारे आँगन के पिछले बरामदे में शौचालय था। बरामदे में ही पानी का नल लगा था। वहीं एक पानी-भरा लोटा रखा था। निरालाजी ने वह लोटा उठाया और शौचालय में दाखिल हो गये। कुछ देर बाद-दीदी की हँसी अब रुकती नहीं थी, और उसी में वह बताने लगी-शौचालय के अंदर से ही निरालाजी ने जोर से पुकारा- ‘‘शिवजी, शिवजी’’। बाबूजी वहीं थे। निरालाजी अंदर से ही बाले-‘‘अरे, इस लोहे में क्या था; इसमें तो चने-ही-चने भरे हैं’’।
बात यह हुई थी कि बाबूजी के नौकर भागवत ने उस लोटे में रात में ही फूलने के लिए चने डाल रखे थे। लोटा वहीं नल के पास एक टब पर रखा था। निरालाजी ने पानी से भरा लोटा देखा, उसे उठाया, और दाखिल-दफ्तर हो गये। फिर तो, नतीजा सामने था। भागवत दौड़ा, जल्दी से दूसरे लोटे में पानी लेकर दिया, और तब निरालाजी फारिग होकर बाहर निकले। फिर तो सारे घर में हँसी की धारा बहने लगी- पर होठों में दबी-दबी ही। और शिवजी के साथ निरालाजी के अट्टहास तो जोर-जोर से घर में गूंजने लगे। बाद में तैयार होकर दोनों व्यक्ति कॉलेज चले गये।
बाबूजी ने निरालाजी के उस आगमन के विषय में अपनी डायरी में बस इतना लिखा हैः
आज कविवर निरालाजी अचानक आये। मेरे धर उतरे। कॉलेज में कविता-पाठ हुआ, मैं ही सभापति था। रात की गाड़ी से लखनऊ गये। श्रीनिरालाजी मुझसे मिलने आये तो ‘मतवाला’-मंडल की पुरानी मधुर स्मृतियां जाग उठीं। हृदय में एक लंबी आह उठी। वे कैसे दिन थे! वे दिन लद गये। अब वैसे मौज-मजे के दिन फिर न आवेंगे। सुनहले दिन थे। अब लौह दिवसों को भरमार है। हृदय में एक अभाव और शुष्कता है। जीवन नीरस प्रतीत होता है।
बाबूजी-शिवजी, उनका यही नाम साहित्य-जगत में प्रसिद्ध रहा -राजेंद्र कॉलेज, छपरा में साहित्य-जगत से ही आयातित होकर आए थे। वे ‘मतवाला’, ‘माधुरी’, ‘गंगा’, ‘जागरण’, ‘बालक’ आदि पसिद्ध पत्रिकाओं और प्रेमचंद की ‘रंगभूमि’, ‘द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ आदि जैसे अनेक महत्तवपूर्ण पुस्तकों के अनन्य संपादन की ख्याति से अभिमंडित होकर हिंदी भाषा और साहित्य के मर्मज्ञ आचार्य के रूप में छपरा कॉलेज में आए थे। उनके छात्रा उनसे प्रसाद, निराला और मैथिलीशरण गुप्त की कविताओं की कविताओं की विवेचना से अधिक उन साहित्य-महारथियों के अंतरंग संस्मरण सुनना चाहते थे। लेकिन शिवजी तो उस समय अपने छात्रों को उन साहित्य-मनीषियों का साक्षात्कार ही सुलभ कराने वहाँ आए थे।
सौभाग्य से शिवजी की डायरियां अब उनका 10 खंडों में संकलित ‘साहित्य समग्र’ में प्रकाशित हो चुकी हैं, और व्यवस्थित रूप से उनकी डायरियां 1939 से ही प्रारंभ होती हैं जब वे राजेंद्र कॉलेज में आए थे। उनका एक दशक का छपरा-प्रवास ही मेरे बचपन के 10-12 वर्षों की स्मृति-मंजूषा है। छपरा आने के साल-भर के भीतर ही मैं मातृविहीन हो गया था, और पिता की छाया की तरह उनसे लगा रहता था। उन वर्षों की उनकी डायरियों में जगह जगह मेरी चर्चा है-
मातृहीन बच्चा मंगलमूर्ति लाड़-प्यार का भूखा रहा गया। स्नेह से सींचते रहने पर भी माता का अभाव खूब अनुभव करता है। ...दिनभर चित्रा अंकित करता और गीत गाता रहता है। ...मेरे साथ ही रहना चाहता है। गत वर्ष पत्नी की बीमारी के समय प्रायः गाया करता था- ‘जिसके घर में माँ नहीं है, बाबा करे न प्यार’। इसी गाने को वह अब भी कभी-कभी गाता है। ईश्वर की कैसी प्रेरणा है। यह गाना सटीक बैठा। माता उसकी जाती रही। ...प्रतिदिन मेरे साथ धर्मनाथजी के दर्शन के लिए जाता है। ...मंदिर में जाने के लिए घेरे रहता है। ...मंदिर में सिर टेक कर हाथ जोड़ कर प्रणाम, वंदना करता है।
चालीस के दशक की डायरी में अनेक साहित्यकारों के छपरा आने और राजेंद्र कॉलेज अथवा नगर के साहित्यिक उत्सवों में उपस्थित होने की अक्सर चर्चा हुई है, जिसमें एक बार बच्चनजी के वहीं के एक पुस्तकालय के वार्षिकोत्सव में आने का भी उल्लेख है। मेरी स्मृति में अब भी वह चित्र अंकित है। बच्चनजी तब अंगरेजी के प्रोफेसर से कहीं अधिक ‘मधुशाला’ क कवि के रूप में विख्यात थे। कवि-सम्मेलनों में उनका स्थान सबसे उंचा रहता था। वे केवल बाबूजी के विशेष आमंत्राण पर ही छपरा आए थे। छपरा के उस कवि-सम्मेलन में उनका ‘मधुशाला’ के छंदों का मोहक स्वर में पाठ आज भी मेर कर्णरंध्रों में गूंज रहा है। उन्होंने एक भूरें रंग का रेशमी कोट-पैंट पहन रखा था। मुझे लगता है, ‘मधुशाला’ के सुरीले छंदों से अधिक मैं उनकी वेष-भूषा के प्रति आकर्षित हुआ था। यह भी याद है कि उनके कविता-पाठ मंत्रामुग्धकारी प्रभाव श्रोताओं पर छा गया था।
छपरा का साहित्यिक वातावरण उन दिनों कितना समृद्ध था इसका जगह-जगह उल्लेख बाबूजी की डायरियों में हैं। और इन सभी आयोजनों का प्रधान मंच राजेंद्र कॉलेज ही हुआ करता था, जहाँ उन दिनों मनोरंजन प्रसाद सिंह प्रिंस्पल हुआ करते थे, और जहाँ द्विजजी, मुरलीधर श्रीवास्तव और वीरेद्र श्रीवास्तव जैसे साहित्य-मर्मज्ञ विद्वान हिंदी विभाग को सुशोभित कर रहे थे। बाबूजी ने लिखा है, मार्च 1944 में एक दिन वे मुझकों लेकर छपरा रेलवे स्टेशन गए थे जहाँ मुजफ्फरपुर में सुहृद संध के साहित्योत्सव से कई प्रसिद्ध साहित्यकार काशी लौट रहे थे। बाबूजी ने लिख हैः
काशी के मित्रा पं. वाचस्पति पाठक आ पहुँचे। मुजफ्फरपुर के सुहृद संघ के उत्सव से लौटे थे। मंगलमूर्त्ति भी स्टेशन साथ गया। छपरा जंक्शन स्टेशन पर बनारस की गाड़ी में पं. माखनलाल चतुवेंदी, पं. सोहनलाल द्विवेदी, पं. श्रीनारायण चतुर्वेदी, प्रो. कृष्णदेव प्रसाद गौड़ ‘बेढब’ आदि से भेंट बातचीत हुई। पं. माखनलालजी ने मंगलमूर्त्ति और मुझे एक-एक संतरा दिया और वह कहानी सुनाई जब उन्हें ईख चूसने के कारण बंबई में गाली सुननी पड़ी थी। बड़ी हँसी हुई। मंगलमूर्त्ति को उनका आशीर्वाद मिला।
बाबूजी की उन दिनों की डायरियों को आज पढ़ने पर बचपन के वे लुभावने दिन आँखों में भर जाते हैं। मैं बराबर बाबूजी के अंग लगा रहता था। स्कूल में नाम लिखाने के बाद रोज मैं उन्हीं के साथ कॉलेज जाता था बाबूजी जब क्लास में होते तो मैं क्लास के बाहर जाकर खड़ा हो जाता था ताकि वे मुझको देख लें। मैं देखता था पढ़ाने की अपनी तन्मयता में भी मुझ घर जाने के लिए आकुल देखकर उनकी आँखों से वात्सल्य छलक उठता था। बाहर दरवाजे के पास एक बूढ़ा आदमी स्टूल पर बैठा, आधा जगा आधा सोया, पैर के अंगूठे में फँसी रस्सी से क्लास के अंदर के पंखे खींचता रहता था। अब लगता है, क्लास के बाहर मैं शायद इसलिए जाकर खड़ा हो जाता था ताकि घंटी बजने के बाद भी कुछ देर तक बाबूजी पढ़ाते न रहें, जैसा वे अक्सर करते ही थे। हँसते हुए वे क्लास से बाहर निकलते और मुझको प्यार करते हुए स्टाफरूम तक आते, और फिर मेरे साथ घर लौटते।
इधर एक-दो बार छपरा जाने का अवसर मला तो वहाँ से लौटने पर छपरा में बीते अपने बचपन के उन दिनों की याद करते हुए मैंने एक-दो संस्मरण लिखे हैं, जिनका कथानक एक लंबी उदास कहानी जैसा लगता है।
‘‘लगभग साठ-पैंसठ साल बाद बचपन के उस शहर में लौटना उसके लिए एक स्तंभित करने वाला अनुभव था। सांप के केंचुल जैसी टेढ़ी-मेढ़ी पसरी सड़क तो वही थी, लेकिन जैसे अब थोड़ी सिकुड़ गई है। सारा पैमाना ही जैसे सिकुड़ गया लगता था। सब कुछ लगभग वैसा ही था, केवल सबका कद जैसे कुछ छोटा हो गया हो। सड़क वही थी, मकान भी बहुत सारे वही थे, नीम का वह पेड़ भी वहीं था जहाँ से दियारे की ओर एक कच्चा रास्ता उतरता था।
‘‘सड़क लगभग सुनसान थी। उसकी एक छोर से दूसरी छोर तक वह कुछ देर तक टहलता रहा, जैसे बचपन के रास्ते पर दुबारा चल रहा हो। अचानक उसकी उस पुरानी हवेली की याद आई, जहाँ वह कुछ ही कदम चलकर पहुंच गया। लेकिन वहाँ तो अब कुछ नहीं था। केवल एक लंबा-चौड़ा जमीन का रकबा बच गया था, बिलकुल खाली, जिसम एक ओर एक बुलडोजर खड़ा था और उस सारी जमीन पर उस खौफनाक लोहे के दांत वाली मशीन के चारों ओर चक्कर लगाने के ताजा निशान दिखाई दे रहे थे। उसने जोर देकर अपने कदमों को रोका जो उसको वहाँ ले जाना चाहते थे जहाँ वह बड़ा-सा कमरा रहा होगा, बड़े आइनों वाला, जिसमें उसकी बीमार माँ उसको लेकर लेटी रहती थी। लेकिन उसके मन में एक झिझक हुई, क्योंकि अब उस खाली जमीन की ओर यों ही जाना किसी को भी एक बेमतलब-सी हरकत लग सकती थी। वह लौटकर उस दूसरे मकान की ओर चल पड़ा जो वहाँ से कुछ ही कदम दूर था, जिसमें उसके पिता बाद में रहने लगे थे आर जिसमें उसका सारा बचपन बीता था। लेकिन वह मकान भी अब एकदम बूढ़ा हो चुका था। बाहर से देखने पर वह एक झुका हुआ, सूखी ठठरीवाला कोई बूढ़ा इंसान हो, ऐसा लगता था।
‘‘अब वह उस दूसरे मकान में अंदर गया जहाँ उसकी माँ गांव जाने से पहले कुछ दिन रही थी। माँ ने खुद अपनी पसंद से वह मकान बनवाया था, हालांकि वह उसमें कुछ ही दिन रह पाई थी, क्योंकि उसके लिए गांव में जाकर रहना गांव की गृहस्थी संभालने के लिए जरूरी हो गया था। यह दूसरा मकान भी जिसमें वह गांव जाने से पहले कुछ ही दिन रह पाई, किराये का ही था। मकान-मालिक उसी मुहल्ले में वहीं पास में ही रहते थे, और शहर के बड़े रइसों में उनकी गिनती थी। वहीं एक बड़ा-सा दोमंजिला उसी मुहल्ले में वहीं पास में ही रहते थे, और शहर के बड़े रइसों में उनकी गिनती थी। वहीं एक बड़ा-सा दोमंजिला मकान था उनका, और शहर में बहुत लंबा-चौड़ा कारोबार था। शहरी ता छोटा ही था पर कॉलेज में पढ़ाने की वजह से उसके पिता की अब शहर में बड़ी इज्जत थी। मकान-मालिक ने उनकी सुविधा और पसंद के मुताबिक उस मकान को बनवाया था। उसमें बिजली भी लग गई थी जो मुहल्ले के शायद कम ही मकानों में अब तक लगी थी।
‘‘वह एक-मंजिला खपरैल छत वाला ही मकान था, उसी सड़क पर। सड़क से लगा, सामने एक बरामदा था जिसके पीछे बैठक जैसा एक लंबा कमरा था जिसके तीन दरवाजे बरामदे में सामने खुलते थे। इन दरवाजों में झंझरीदार झरोखे बने थे जिन्हें खोलकर देखा जा सकता था, बाहर कौन आया है। इसी बैठक वाले लंबे कमरे में एक छोर पर एक छोटी-सी कोठरी पिता ने खासकर अपने पढ़ने-लिखने के लिए बनवाई थी। बैठक वाले कमरे के पीछे दो वैसे ही कमरे थे, जो घर में रहने वाले और लोगों के मसरफ के लिए थे। उसके पीछे चारों ओर से छतदार बरामदों से घिरा एक बड़ा-सा आँगन था। इसमें आगे और पीछे के बरामदे बगल के दोनों बरामदों से ज्यादा चौड़े थे। पिछले बरामदे के बाद आगे की बैठक के बराबर का ही एक बड़ा-सा कमरा था जिसमें पीछे की ओर दो बड़ी-बड़ी खिड़कियां थीं। इन खिड़कियों से पीछे की ओर एक छोटी-सी फुलबगिया थी जिसकी आखिरी छोर पर नरकट के घने झुरमुट थे और उनके बाद दूर-दूर तक खुले खेत थे जो क्षितिज तक फैले थे।
‘‘बरसात के दिनों में सरजू में जब बाढ़ आती थी तो उसका पानी उन नरकट झुरमुटों तक आ जाता था। तभी उसे याद आया वह मंजर, जब वह पिछले कमरे की खिड़की की छड़ पकड़ कर देख रहा था, डूबे हुए नरकट के पार, भयंकर बाढ़ की तेज लहरों में बहती कई-कई लाशें, जिनके गुब्बारे की तरह फूले पेटों पर कौए बैठे उनके साथ बहते, उन्हें खोदते-खाते जा रहे थे। किसीने उसे बाद में बताया था ये गोरों की लाशें थीं जिनहें लोगों ने मार कर नदी में फेंक दिया था, क्योंकि ये आँदोलन के दिन थे, जब अंगेजों को भारत छोड़ने का फरमान जारी हुआ था। उसे तब यह भी याद आया कि उसके घर के सामने वाली उसी सड़क पर- जो अब केंचुल हो गई थी-बड़ी-बड़ी लारियों में हेलमेट पहने मशीनगन ताने गोरे सैनिक तेजी से गश्त लगाते गुजर जाते थे, जब सड़कें भरी दोपहरी में भी बिलकुल सुनसान होती थीं, और वह सहमा हुआ सामने के बंद दरवाजों की झंझरी से यह सब देख कर सिहर जाता था।
‘‘नरकट के झुरमुटों में उलझी उसकी स्मृति में बाढ़ का वह दिन भी याद आया जब शिव मंदिर के पीछे के घाट पर वह भागवत के साथ नहाने गया था और नहाते-नहाते ही डूबने लगा था। डूबते-डूबते, उसे याद है, उसकी आँखों के सामने पानी में केवल भूरी-भूरी रोशनी दिखाई दे रही थी, तभी झटके से भागवत ने उसको उपर खींच लिया था और वह बच गया था। भागवत ने उसको बहुत समझाया था कि वह किसी से यह बात नहीं बताएगा। नरकट झुरमुट के आगे जो छोटी-सी फुलबगिया उसे पिता ने लगाई थी उसमें तुलसी, चमेली, गेंदे और गुलाब के कई पौधे थे, और एक पीले कनैल का पेड़ भी था जिसके फूल उसके पिता रोज शिवजी पर चढ़ाते थे। कालेज से लौटने के बाद रोज वे थोड़ी देर नंगे बदन, कमर में केवल एक गमछा लपेटे, फुलबगिया में जरूर पौधों की निकौनी और पटवन किया करते थे।
‘‘मैंने आज फुलवारी को साफ किया। थोड़ी देर फुलवारी में काम करता रहा। फुलवारी में क्यारियां बनाईं। फुलवारी में खुरपी लेकर काम करने में बड़ा आनंद आता है। एक पेड़ कनैल का, तीन गांछ गुलाब- सबको देख मोह-छोह। पेड़-पौधे कैसे प्यारे लगते हैं। पौधे को रोज देखने से, गोड़ने और सींचने से, पौधे रंगत हरी-भरी हो जाती है। फुलवारी से ठाकुरजी को तुलसी मंजरी और कुछ फूल मिल जाते हैं। एक दिन यह फुलवारी छूट जायगी-यह संसार भी तो छूट ही जायगा।
‘‘फुलवारी की सफाई में उनके साथ-साथ वह भी लगा रहता था। फिर वे पिछले वाले बरामदे में लगे पानी वाले हाथ नल पर नहाते थे और पीछे वाले कमरे के कोने में रखी पूजा की आलमारी के सामने बैठकर पूजा करते थे। पूजा के बाद नियमतः वे बगल की ठाकुरबारी में भी दर्शन-पूजा के लिए जाते थे, जहाँ वे उसको जरूर ले जाते थे।
‘‘आज भी वह सबसे पहले उसी मंदिर में शिव-दर्शन के लिए गया था। मंदिर परिसर में बहुत परिवर्त्तन नहीं हुआ था, केवल एक मंदिर दुर्गाजी का बीच में नया बन गया था, जिसके आगे दोनों ओर दो बड़ी-बड़ी सिंह-मूर्त्तियां बैठा दी गई थीं। मंदिर के प्रवेश-द्वार के सामने के रास्ते के दोनों ओर मिठाई की दूकाने आज भी वैसी ही थीं। पुराने मंदिर की प्रतिमाएं बिलकुल वैसी ही थीं- गर्भगृह में शिवलिंग के चारों ओर एक घेरा लग गया था, और आयताकार कमरे में घेरे के एक और राम-दरबार की प्रतिमाएं पहले जैसी ही थीं। दीवारों पर संगमरमर के चौकोर टुकड़े कतार में जड़े थे जिन पर देवी-देवताओं के सुंदर रंगीन चित्रा अंकित थे, और जब तक पिता घ्यान-पूजा में लगे होते, वह उन चित्रों को देखता और उन पर उंगलियां फेरता रहता।...’’
छपरा में बीते मेरे बचपन के वे दिन और बाबूजी के जीवन का चालीस का वह दशक मेरे स्मृतिकोश की अमूल्य संपत्ति है। बाबूजी के साथ बीते अपने जीवन के शैशव और युवावस्था के उन दिनों की स्मृतियों में एक उपन्यास का कथानक गुमशुदा है, जिसको आज भी जीवन की इस संध्या में मैं ढूंढ़ने में लगा रहता हूँ।
लेकिन बाबूजी की ही एक अविसमरणीय पंक्ति है- ‘‘अब न वे दिन बहुरेंगे, न वे लोग!’’