न हन्यते / मैत्रेयी पुष्पा / पृष्ठ-2

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मैं उसकी गन्दे नाखूनों वाली पैरों की उँगलियाँ देख पा रही हूँ मैली धोती का एक छोर फ़र्श को छू रहा है। यह तो एक सुबह है ! शायद 20 सितम्बर की सुबह। 18 सितम्बर को मिर्चा चला गया था। मुन्ना मुझसे कह रहा है, मैं साफ़ सुन पा रही हूँ-‘रू, झटपट लिख दो भाई’-उसके बाद ज़रा मुँह बनाता हुआ वह फुस-फुसाकर कह रहा है-‘‘चारों ओर स्पाई घूम रहे हैं।’ पर यह तो वह मज़ाक में कह रहा है, वह खूब मज़ाक कर सकता है, हँसा सकता है।


मुन्ना हम लोगों का कोई नहीं है, किन्तु भाई जैसा है। वे लोग बड़े गरीब हैं, उसकी माँ को मेरी दादी ने पाल पोसकर बड़ा किया है। उसके बाद उसका ब्याह करा दिया। मुन्ने की माँ को इसलिए हम लोग बुआ कहा करते हैं। बुआ के कुल अठारह सन्तान हैं, इसीलिए उन लोगों की ग़रीबी कभी दूर नहीं हुई। मुन्ना और उसकी बहन शान्ति हम लोगों के आश्रित हैं। यद्यपि उनके साथ हमारा बड़ा हेल-मेल है, हम लोग एक दूसरे के मित्र हैं, खेल के साथी हैं, फिर भी उनकी कोई मर्यादा नहीं है। आश्रितों का जो हाल हुआ करता है, वही हाल उनका था-यही कि दया तो उन्हें मिलती है, पर मर्यादा नहीं मिलती। यहाँ तक कि मिर्चा भी मुन्ने पर खुश नहीं है। ख़ैर, सो तो कुछ दूसरे कारण से-कारण यह है कि मुन्ना मुझे हँसाया करता है। वह मामूली सी बात को कुछ इस ढंग से कहता है, कुछ ऐसा मुँह बनाता है कि हँसते-हँसते हम लोग लोटपोट हो जाते हैं। मिर्चा तो आधी बातें समझ ही नहीं पाता है, इसीलिए वह गम्भीर हो जाता है। एक दिन लाइब्रेरी के दरवाज़े पर मैंने एक नया सा पर्दा टाँगा था। तरह-तरह के पर्दों से कमरे सजाने का मुझे शौक है। मुन्ना पर्दा हटाकर लाइब्रेरी में घुस रहा था, कुछ इस तरह से मुद्रा बनाता हुआ कि जैसे पत्थर हटा रहा हो, और मानो घुस ही नहीं पा रहा हो ! उसका हाव-भाव देखकर मैं हँसी के मारे जितनी अस्त-व्यस्त होती जाती थी, मिर्चा का मुँह उतना ही लटकता जाता था।

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